-राजेश त्यागी/ २ अक्टूबर
२०१४
१८८४ की ‘ह्यू संधि’ से ही वियतनाम, एशिया में फ़्रांसीसी उपनिवेश का एक हिस्सा था, जिसे इंडोचाइना कहा जाता था. इसके तीन भाग थे- उत्तर में टोंकिन, दक्षिण में कोचिन-चाइना और मध्य में अन्नाम. हनोई, टोंकिन का और साइगॉन कोचिन-चाइना का प्रमुख शहर था. शुरू से ही फ्रेंच साम्राज्यवादी, वियतनाम को उसके सस्ते श्रम और कच्चे मालों के लिए निचोड़ते रहे. आधे से ज्यादा किसान पूरी तरह ज़मीनों से वंचित थे, जबकि शेष के पास भी बहुत छोटी जोतें ही थीं, जिन पर जीवन-यापन मुश्किल होता था. उधर चार हज़ार स्थानीय ज़मींदार और उपनिवेशवादी विशाल भू-सम्पदाओं के स्वामी थे. फ्रेंच कंपनियों ने विशाल जोतों पर रबर के जंगल लगाये थे. बंधुआ मजदूरी का प्रचलन आम था और ८०% जनता निरक्षर थी.
वियतनाम में औपनिवेशिक शासन
के खिलाफ जब-तब किसान विद्रोहों का एक सिलसिला जारी रहा, मगर, व्यापक स्तर पर
संगठित होने और पूंजीवाद को चुनौती देने में किसानों की ऐतिहासिक अक्षमता के चलते,
ये विद्रोह, न तो वियतनाम में किसी राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का आयोजन कर सकते थे और
न ही आधुनिक पूंजीवादी आधार पर संगठित औपनिवेशिक फ्रेंच सत्ता का कुछ बिगाड़ सकते
थे. हर बार इन विद्रोहों का अंत विद्रोही किसानों के निर्मम दमन या समझौते में होता
रहा.
संभ्रांत बूर्ज्वा और ज़मींदार, इस औपनिवेशिक शासन से मजबूती से बंधे थे और उसका समर्थन करते थे. इसलिए, वियतनामी बूर्ज्वाजी की न तो वियतनामी राजनीति में कोई महत्वपूर्ण भूमिका थी और न प्रतिनिधित्व. शुरू से ही वियतनामी राजनीति, उपनिवेशवाद-विरोधी धुरी पर टिकी थी, जिसका प्रतिनिधित्व पहले कुछ निम्न-बूर्ज्वा रेडिकल संगठन करते थे मगर सर्वहारा के आविर्भाव के साथ यह राजनीतिक कार्यभार अकेले सर्वहारा आन्दोलन के हाथ था. अपने जन्म से ही यह आन्दोलन दो धुर विपरीत राजनीतिक धाराओं में बंटा था- स्टालिनवादी और ट्रोट्स्की-वादी.
स्टालिनवादी, वियतनाम की उपनिवेशवाद-विरोधी क्रांति से यह निष्कर्ष निकालते थे कि सर्वहारा दुर्बल है, वह सत्ता हाथ में लेकर, अपना एकल वर्ग अधिनायकत्व स्थापित नहीं कर सकता, कि राष्ट्रीय बूर्ज्वा, क्रान्ति का सहभागी है और सत्ता का वैध साझीदार, कि वियतनाम पहले लम्बे समय सभी वर्गों की सांझी सत्ता के तहत अपनी पूंजीवादी जनवादी यात्रा पूरी करेगा, तभी समाजवादी सत्ता का प्रश्न सामने आएगा. इसके विपरीत ट्रोट्स्की-वादियों का दावा था कि वियतनामी राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी क्रांति-विरोधी है, वियतनामी क्रांति का आधार मजदूर-किसानों का सहबंध है जिसका नेता सर्वहारा है, कृषि-क्रांति, जो वियतनामी क्रांति का मुख्य अंतर्य है, की लहर पर चढ़कर, विशाल मेहनतकश समुदायों के सीधे समर्थन से सर्वहारा सत्ता में आयेगा और अपना एकल अधिनायकत्व स्थापित करेगा, कि वियतनामी क्रान्ति, जनवादी क्रान्ति के तौर पर खुलेगी मगर साथ ही समाजवादी कार्यभारों को भी पूरा करती हुई आगे बढ़ेगी.
संभ्रांत बूर्ज्वा और ज़मींदार, इस औपनिवेशिक शासन से मजबूती से बंधे थे और उसका समर्थन करते थे. इसलिए, वियतनामी बूर्ज्वाजी की न तो वियतनामी राजनीति में कोई महत्वपूर्ण भूमिका थी और न प्रतिनिधित्व. शुरू से ही वियतनामी राजनीति, उपनिवेशवाद-विरोधी धुरी पर टिकी थी, जिसका प्रतिनिधित्व पहले कुछ निम्न-बूर्ज्वा रेडिकल संगठन करते थे मगर सर्वहारा के आविर्भाव के साथ यह राजनीतिक कार्यभार अकेले सर्वहारा आन्दोलन के हाथ था. अपने जन्म से ही यह आन्दोलन दो धुर विपरीत राजनीतिक धाराओं में बंटा था- स्टालिनवादी और ट्रोट्स्की-वादी.
स्टालिनवादी, वियतनाम की उपनिवेशवाद-विरोधी क्रांति से यह निष्कर्ष निकालते थे कि सर्वहारा दुर्बल है, वह सत्ता हाथ में लेकर, अपना एकल वर्ग अधिनायकत्व स्थापित नहीं कर सकता, कि राष्ट्रीय बूर्ज्वा, क्रान्ति का सहभागी है और सत्ता का वैध साझीदार, कि वियतनाम पहले लम्बे समय सभी वर्गों की सांझी सत्ता के तहत अपनी पूंजीवादी जनवादी यात्रा पूरी करेगा, तभी समाजवादी सत्ता का प्रश्न सामने आएगा. इसके विपरीत ट्रोट्स्की-वादियों का दावा था कि वियतनामी राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी क्रांति-विरोधी है, वियतनामी क्रांति का आधार मजदूर-किसानों का सहबंध है जिसका नेता सर्वहारा है, कृषि-क्रांति, जो वियतनामी क्रांति का मुख्य अंतर्य है, की लहर पर चढ़कर, विशाल मेहनतकश समुदायों के सीधे समर्थन से सर्वहारा सत्ता में आयेगा और अपना एकल अधिनायकत्व स्थापित करेगा, कि वियतनामी क्रान्ति, जनवादी क्रान्ति के तौर पर खुलेगी मगर साथ ही समाजवादी कार्यभारों को भी पूरा करती हुई आगे बढ़ेगी.
फ्रेंच उपनिवेशवादियों ने,
हालांकि वियतनाम में औद्योगिक विकास को ठप्प किये रखा, फिर भी रबर बागानों, यातायात,
खदानों और स्थानीय कुटीर उद्योगों में आधुनिक सर्वहारा की एक छोटी सी आबादी पैदा
हो गई. सर्वहारा की इस छोटी सी संख्या ने ही वियतनाम की राजनीति में उस विस्फोटक का
काम किया, जिसने वियतनाम की मुक्ति का रास्ता खोल दिया.
दुर्भाग्य से, वियतनाम में
सर्वहारा का यह आविर्भाव उस समय हुआ जबकि विश्व सर्वहारा आन्दोलन, स्तालिनवादी
प्रतिक्रिया की जकड में था, जो अक्टूबर क्रांति के विरुद्ध एकजुट हो रही
ब्यूरोक्रेसी की राजनीतिक अभिव्यक्ति थी.
कोमिन्टर्न के विघटन की
शुरुआत पर, जबकि उस पर स्टालिन-ज़िनोविएव का नियंत्रण हो चुका था, वियतनामी
कम्युनिस्टो के एक दल ने आकार लेना शुरू किया, जिसका नेता न्युगेंन-आइ-क्वोक था,
जो बाद में हो-ची-मिन्ह के नाम से प्रसिद्द हुआ. हो-ची-मिन्ह की दीक्षा स्टालिन के
नियंत्रण वाले कोमिन्टर्न की नीतियों में हो रही थी, विशेष रूप से चीनी क्रांति
में, जहां कोमिन्टर्न और उसका नेता स्टालिन, चीनी बूर्ज्वाजी को क्रांति का सहभागी
बताते हुए, कम्युनिस्ट पार्टी को जबरन बूर्ज्वा राष्ट्रवादी कुओमिनतांग के मातहत
काम करने के लिए बाध्य कर रहा था. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चीनी क्रांति में
नेतृत्व के लिए संघर्ष का विरोध करते और कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को रेखांकित
करते हुए, चीन में स्टालिन द्वारा नियुक्त कोमिन्टर्न के दूत बोरोदिन ने स्पष्ट
कहा कि, “चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का काम है- राष्ट्रवादी कुओमिनतांग के लिए कुली
का काम करना”. इसी के चलते स्टालिन ने बूर्ज्वा कुओमिनतांग को साम्राज्यवाद-विरोधी
शक्ति घोषित किया और उसके नेता चियांग-कई-शेक को कोमिन्टर्न की सर्वोच्च समिति में
मनोनीत किया, जिसके चंद महीनों के भीतर ही च्यांग-काई-शेक ने पहले केंटन और फिर
शंघाई में कम्युनिस्टो का सामूहिक कत्लेआम और क्रांति का क्रूरतम दमन कर डाला. इस
कत्लेआम और दमन के वक़्त, हो-ची-मिन्ह, बोरोदिन के साथ केंटन में ही मौजूद था और
उन्ही के साथ पहले केंटन और फिर हेंको से दुम दबाकर भाग निकला. मगर न तो बोरोदिन, न
स्टालिन, और न ही हो-ची-मिन्ह ने इससे कोई शिक्षा ली या निष्कर्ष निकाले. जैसा कि
हम देखेंगे, वे अंत तक राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के साथ चिपके रहे और सर्वहारा द्वारा
सत्ता के लिए स्वतंत्र राजनीतिक संघर्ष के कट्टर विरोधी रहे. कोमिन्टर्न की इन कुत्सित
और प्रतिक्रांतिकारी नीतियों के तहत, हो-ची-मिन्ह और उसके सहयोगियों ने स्तालिनवादियों
से राजनीति की शिक्षा ली और १९३० में वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की.
कम्युनिस्ट पार्टी की
स्थापना के साथ ही, कोमिन्टर्न के निर्देश पर इसने मजदूर वर्ग की ओर पीठ करते हुए,
मध्य-वियतनाम में किसान विद्रोहों को निर्दिष्ट करने की नीति अपनाई. हा-तिन्ह और
नघे-अन क्षेत्रों में इसने जमीने जब्त करने और किसान सोवियतें बनाने की कोशिश की.
ग्रामीण क्षेत्रों में इस दुस्साहसी नीति के ठीक विपरीत, शहरों में इसने आन्दोलन
को जनवादी मांगों और शांतिपूर्ण प्रदर्शनों तक सीमित रखा. इन नीतियों के चलते,
औपनिवेशिक सरकार ने सरलता से इस आन्दोलन का पूरी तरह दमन कर दिया और १९३१ में
कम्युनिस्ट पार्टी की पूरी केन्द्रीय समिति को गिरफ्तार कर लिया. इस दमन में दस
हज़ार मजदूर-किसान बलि चढ़े और पचास हज़ार से ज्यादा को पाउलो-कोंदर की जेलों में
निर्वासित कर दिया गया. कृषि क्रान्ति की ओर उन्मुख, वियतनामी स्तालिनवादियों का
यह पहला और अंतिम कदम था. इसके बाद से, स्तालिनवादी, जमीन जब्ती का और परिणामतः
कृषि क्रांति का खुलकर विरोध करते रहे.
उधर फ्रांस में युवा
छात्रों का एक दल उस राजनीतिक संघर्ष में स्वतंत्र रूप से दीक्षित हो रहा था जिसे
ट्रोट्स्की ने १९२४ से ही कोमिन्टर्न और सोवियत सत्ता के स्तालिनवादी अधःपतन के
विरुद्ध छेड़ रखा था. १९३२ में यह दल दो हिस्सों में बंट गया- एक “ला लुट्टे” या “स्ट्रगल
ग्रुप” जिसका नेता था ता-थू-थाऊ और दूसरा “न्होम थांग मुओई” या “अक्टूबर ग्रुप” जिसने इसी नाम से पत्रिका भी निकाली.
१९३१ से १९३६ तक यह ग्रुप भूमिगत कार्य करता रहा. १९३७ में यह फ्रेंच साप्ताहिक
“ला मिलिटेंट” के नाम से सामने आया और तुरंत ही सरकार द्वारा इसका दमन कर दिया
गया. फिर से एक अर्ध-कानूनी अख़बार का प्रकाशन शुरू किया गया, जिसे फिर “तिया सेंग”
(चिनगारी) नाम से १९३९ में वियतनामी भाषा में दैनिक प्रकाशित किया गया.
ता-थू-थाऊ के नेतृत्व वाला
“ला-लुट्टे” ग्रुप १९३२ में श्वेत-आतंक के दिनों में गिरफ्तार हुआ और मई १९३३ से
उसके नेताओं पर मुकदमा चला. जो नेता बरी हुए उन्होंने स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी
के साथ साइगॉन नगर परिषद् के चुनावों में सहबंध
कायम कर लिया, जिसे चुनावों में बड़ी सफलता मिली. एक स्तालिनवादी और एक
ट्रोट्स्की-वादी परिषद् के लिए चुना गया. १९३७ तक यह संयुक्त मोर्चा कायम रहा और
“ला लुट्टे” दोनों के संयुक्त अख़बार के रूप में निकलता रहा.
लम्बे समय “ला लुट्टे”
स्तालिनवादियों के नियंत्रण में रहा, जिसमें उन्होंने ट्रोट्स्की-वादी प्रचार को
जगह नहीं दी. इस सहबंध ने वास्तव में मजदूरों-युवाओं के बीच राजनीतिक भ्रम की
स्थिति पैदा की, जिसके परिणाम आगे चलकर घातक सिद्ध हुए. “स्ट्रगल ग्रुप” ने स्तलिनवादियों
के साथ इस सहबंध की निंदा की और अपनी भूमिगत गतिविधियाँ जारी रखीं.
इस बीच कोचिन-चाइना में
१९३६-३७ में हड़तालों की जो जबरदस्त लहर आई, ट्रोट्स्की-वादी उसकी सबसे अगली
पंक्तियों में रहे.
स्टालिन की नई नीति,
बूर्ज्वाजी के साथ ‘जनमोर्चे’ कायम करने की नीति के चलते, जो उसने जर्मनी में अपनी
“तीसरे काल” की दुस्साहसिक नीतियों की असफलता के बाद अपनाई थी, वियतनाम की स्तालिनवादी
कम्युनिस्ट पार्टी तेज़ी से दायीं ओर घूमी. इसने वियतनाम के भीतर तमाम सामाजिक
जनवादी और बूर्ज्वा राष्ट्रवादी ताकतों के साथ, जिनकी पिछले ही साल वे
प्रतिक्रियावादी कहकर निंदा कर रहे थे, “जनमोर्चा” कायम कर लिया और राजतन्त्रवादी पार्टियों
तक को इस मोर्चे में शामिल कर लिया.
इस बीच अप्रैल १९३७ में
साइगॉन नगर परिषद् के चुनावों में ता-थू-थान ग्रुप से एक और दो स्तालिनवादी सदस्य चुने
गए. “ला-लुट्टे” अखबार पर भी स्तालिनवादियों का नियंत्रण चलता रहा.
स्तालिनवादियों के
संपादकत्व में “ला-लुट्टे” ने फ्रांस में राष्ट्रपति ब्लम की जनमोर्चा सरकार में
मौरिअस मौटेट के औपनिवेशिक मामलों का मंत्री नियुक्त होने पर बधाई दी. मौरिअस
मौटेट ने सितम्बर १९३६ में साइगॉन में औपनिवेशिक अधिकारियों को तार भेजते हुए कहा
कि, “सभी कानून-सम्मत और विधिक रास्तों से व्यवस्था को कायम रखा जाय, यदि जरूरी हो
तो उपद्रवियों पर मुकदमे चलाकर. शेष क्षेत्रों की तरह, वियतनाम में भी फ्रेंच
व्यवस्था कायम रहनी चाहिए.”
इसी समय साइगॉन नगर परिषद्
में स्तालिनवादी सदस्यो ने फ्रेंच राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए वियतनाम से विशेष
सैनिक टैक्स बटोरने के पक्ष में वोट दिया. यह स्पष्ट था कि इस पैसे का इस्तेमाल
वियतनाम के मजदूर-किसानों के संघर्ष का दमन करने के लिए ही किया जाना था और किया
गया.
इसके बाद, ता-थू-थान और उसके साथियों ने “ला-लुट्टे” के संपादक मंडल का नियंत्रण स्तालिनवादियों के हाथ से ले लिया और “अक्टूबर ग्रुप” के “ला मिलिटेंट” से मिलकर, उसे हड़तालों और प्रदर्शनों का आह्वान करने के लिए इस्तेमाल किया. थाऊ ने सम्पादकीय लिखकर “जनमोर्चे” को गद्दारों का मोर्चा बताया, जिसके लिए उसे दो साल सश्रम कारावास की सजा हुई.
फ्रेंच उपनिवेशवादियों और स्तालिनवादियों की कड़ी निंदा करते हुए, ट्रोट्स्की-वादियों ने जो कार्यक्रम सामने रखा, उसके मुख्य बिंदु यह थे:
- युद्ध की तैयारियों का विरोध करो. जापानी व्यापार का विरोध करो. उन प्रतिबंधों को नष्ट करो जो चीनी क्रांति का गला घोंट रहे हैं और जापान को मदद कर रहे हैं.
- वियतनाम में ऐसे सामाजिक कानून के लिए सीधा संघर्ष जो ४० घंटे साप्ताहिक कार्य, सामूहिक सौदेबाज़ी, सेवा शर्तों पर नियंत्रण, और बढ़ते हुए वेतनमान को संभव बनाये.
- कारखानों, नागरिक सेवाओं और फौज में, फासिस्टों के खिलाफ, समितियों का गठन किया जाय, जो उन्हें निकाल बाहर करें.
- स्तालिनवादियों के खिलाफ, जो समर्पण की नसीहत दे रहे हैं, समझौताहीन राष्ट्रीय स्वतंत्रता का नारा दिया जाय.
- मजदूर-किसान सरकार के निर्माण के लिए, मजदूरों-किसानों को कारखानों, बस्तियों, गाँवों में एक्शन कमेटियों में संगठित किया जाय, पूंजीपतियों और ज़मींदारों का सर्वस्व-हरण कर लिया जाय और उसे मजदूर किसानों मेहनतकशों के हित में, शांति और स्वतंत्रता के लिए, फैक्ट्रियों, गाँवों में इस्तेमाल किया जाय.
इस वक़्त स्तालिनवादियों का
पूरा ध्यान बूर्ज्वा संविधानवादी ‘वियतनामी कांग्रेस’ के साथ चुनावी मोर्चा कायम
करने पर केन्द्रित था. इसके ठीक विपरीत, ट्रोट्स्की-वादी सीमित चुनावी स्वतंत्रता
का प्रयोग बड़ी हड़तालों का आह्वान करने, दमन का विरोध करने, और मजदूरों के बीच
जन-संगठन कायम करने में कर रहे थे. उन्होंने समूचे साइगॉन क्षेत्र में मजदूरों के
बीच ‘एक्शन कमेटियां” बना दीं, जिन पर साइगॉन के गवर्नर के आदेश पर जबरदस्त
दमनचक्र चला. स्तालिनवादियों के “विस्तृत राष्ट्रीय संगठन” के वर्ग-सामंजस्य पर
आधारित समझौता-वादी कार्यक्रम के विपरीत, ट्रोट्स्की-वादियों ने ‘गरीब किसानों को
ज़मीन’ का स्पष्ट कार्यक्रम सामने रखा.
ट्रोट्स्की-वादियों के इस
जुझारू कार्यक्रम के चलते, १९३९ में कोचिन-चाइना (दक्षिण वियतनाम) के चुनाव में
उन्हें जबरदस्त कामयाबी मिली. उनके उम्मीदवारों को कुल वोट का ८०% मिले, जो
रिकॉर्ड था. मजदूर-किसान जनता ने शेष पार्टियों के साथ, स्तालिनवादियों को पूरी
तरह नकार दिया था. ट्रोट्स्की-वादियों की इस शानदार जीत के दबाव में स्तालिनवादी
कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ गई और कोचिन-चाइना में वह दो टुकड़े हो गई.
इस वक़्त हो-ची-मिन्ह के
नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी, जो फ्रेंच उपनिवेशवादियों के साथ गठजोड़ बनाये थी,
का कार्यक्रम यह था:
- इस समय पार्टी को राष्ट्रीय स्वतंत्रता या संसद जैसी कोई बड़ी मांग नहीं रखनी चाहिए, बल्कि जनवादी अधिकारों की मांग तक सीमित रहना चाहिए. ऐसा करना जापानी जाल में फंसना होगा.
- इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पार्टी को वृहत राष्ट्रीय मोर्चा बनाना चाहिए. इस मोर्चे में न सिर्फ मजदूर-किसानों को बल्कि वियतनाम में रह रहे प्रगतिशील फ्रांसीसियों और वियतनाम के राष्ट्रीय पूंजीपतियों को भी शामिल किया जाना चाहिए.
- पार्टी को, राष्ट्रीय पूंजीपतियों को मोर्चे के भीतर लाने के लिए बुद्धिमत्ता-पूर्ण और नमनीय नीति अपनानी चाहिए. हमें किसी कीमत पर उन्हें मोर्चे के बाहर नहीं छोड़ना चाहिए.
- ट्रोट्स्की-वादियों के साथ कोई सहबंध नहीं हो सकता, न उन्हें कोई रियायत दी जा सकती है. हमें उन्हें फासिज्म के एजेंट साबित करने के लिए सब कुछ करना चाहिए और उनका सफाया कर देना चाहिए.
- इस समय पार्टी को राष्ट्रीय स्वतंत्रता या संसद जैसी कोई बड़ी मांग नहीं रखनी चाहिए, बल्कि जनवादी अधिकारों की मांग तक सीमित रहना चाहिए. ऐसा करना जापानी जाल में फंसना होगा.
- इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पार्टी को वृहत राष्ट्रीय मोर्चा बनाना चाहिए. इस मोर्चे में न सिर्फ मजदूर-किसानों को बल्कि वियतनाम में रह रहे प्रगतिशील फ्रांसीसियों और वियतनाम के राष्ट्रीय पूंजीपतियों को भी शामिल किया जाना चाहिए.
- पार्टी को, राष्ट्रीय पूंजीपतियों को मोर्चे के भीतर लाने के लिए बुद्धिमत्ता-पूर्ण और नमनीय नीति अपनानी चाहिए. हमें किसी कीमत पर उन्हें मोर्चे के बाहर नहीं छोड़ना चाहिए.
- ट्रोट्स्की-वादियों के साथ कोई सहबंध नहीं हो सकता, न उन्हें कोई रियायत दी जा सकती है. हमें उन्हें फासिज्म के एजेंट साबित करने के लिए सब कुछ करना चाहिए और उनका सफाया कर देना चाहिए.
इस बीच, स्तालिनवादियों के
साथ सहबंध को लेकर, दोनों ट्रोट्स्की-वादी ग्रुपों के बीच भी बहस तीखी हो गई.
‘अक्टूबर ग्रुप’ ने ‘ला लुट्टे’ ग्रुप की इस विषय पर खुली आलोचना की. ता-थू-थान ने
भी स्तालिनवादियों के साथ १९३९ के सहबंध की गलती को स्वीकार किया.
१९३८ में फ्रांस में
‘जनमोर्चा’ सरकार बर्खास्त हुई और फ्रांस में कम्युनिस्ट पार्टी पर भी प्रतिबन्ध
लग गया. सितम्बर १९३९ में वियतनाम में भी तमाम समाजवादी पार्टियाँ और ग्रुप
प्रतिबंधित कर दिए गए. अक्टूबर १९३९ में बूर्ज्वा सरकार ने फिर नंगे दमन का सहारा
लिया और ट्रोट्स्की-वादी पार्टी को विशेष निशाना बनाया.
दूसरे विश्व-युद्ध में फ्रांस को पराजित करने के बाद, सितम्बर १९४० में जापान ने वियतनाम पर हमला किया और उस पर कब्ज़ा कर लिया. इसके साथ वियतनाम में फ्रांस और जापान के नियंत्रण में दोहरी सरकार कायम हो गई जो १९४५ तक चलती रही. इस कब्ज़े के खिलाफ, ट्रोट्स्की-वादियों के
प्रभाव वाले दक्षिण वियतनाम के माइथो क्षेत्र में व्यापक किसानी बगावत शुरू हो गई.
दमन के बावजूद यह बगावत लम्बे समय चलती रही. बाद में स्तालिनवादी कम्युनिस्ट
पार्टी ने इस बगावत की निंदा की और इसके जिन नेताओं, कार्यकर्ताओं ने विद्रोह में
ट्रोट्स्की-वादियों को सहयोग दिया था, सबको पार्टी से निकाल दिया गया.
मई १९४१ में, कम्युनिस्ट
पार्टी ने ‘वियत-मिन्ह’ नाम से नए ‘जनमोर्चे’ की स्थापना की, जो एक बार फिर जनवादी
मांगों तक सीमित था और इसके कार्यक्रम में समाजवाद का नाम तक नहीं लिया गया था.
किसानों के लिए, जिन कृषि-सुधारों की बात की गई थी उनमें किराये कम करने और बंधुआ
मजदूरी के उन्मूलन जैसी क्षुद्र मांगें ही थीं. इसके साथ ही स्तालिनवादियों ने,
फासिज्म से लड़ने के बहाने, खुलकर साम्राज्यवादियों के एक गुट से सहबंध बना लिया.
९ मार्च १९४५ को, जापानी
सेना वियतनाम पर अपना एकल नियंत्रण स्थापित करने और जर्जर फ्रेंच सरकार को उखाड़
फेंकने के लिए बढ़ी. जिससे अव्यवस्था फ़ैल गई. इसका लाभ उठाते ट्रोट्स्की-वादी और
स्तालिनवादी संगठित होने लगे. २४ मार्च को ट्रोट्स्की-वादी “अक्टूबर ग्रुप” ने
अपील जारी कर मजदूरों-किसानों का क्रांति के लिए खुला आह्वान शुरू किया. दुर्भाग्य
से इसी समय “ला लुट्टे” ग्रुप ने स्तालिनवादी विएत-मिन्ह जैसा ही एक दूसरा
राष्ट्रीय मोर्चा बनाना शुरू किया.
१६ अगस्त १९४५ को जापान ने,
दूसरे विश्व-युद्ध में हार के साथ, वियतनाम की आज़ादी की घोषणा कर दी. उत्तर और
केंद्र में सक्रिय, स्तालिनवादी विएत-मिन्ह ने तुरंत सम्राट बो-दाई से समर्पण करा
दिया, और बजाय उसे गिरफ्तार करने और दण्डित करने के, जापानी साम्राज्यवादियों के
दबाव में उसे नई सरकार का ‘सर्वोच्च राजनीतिक सलाहकार’ बना दिया. मजदूर किसानो को
क्रांति के लिए उठ खड़े होने का आह्वान न करते हुए, स्तालिनवादियों ने जापानी
साम्राज्यवादियों और उनकी सैनिक ख़ुफ़िया संस्था ओ.एस.एस. की मदद से सत्ता के
निकायों पर चुपचाप कब्ज़ा शुरू कर दिया. जापानियों ने फ्रेंच कैदियों को अभी जेल
में रखते हुए, स्तालिनवादी विएत-मिन्ह को हथियार देने शुरू कर दिए. लगभग छह सौ
जापानी सैनिक भी विएत-मिन्ह को ट्रेनिंग देने के लिए भरती किये गए.
वियतनाम में जापान का
नियंत्रण ख़त्म होने के साथ, हो-ची-मिन्ह ने, २ सितम्बर १९४५ को ‘स्वतंत्र जनवादी वियतनामी
गणतंत्र’ की घोषणा कर दी. हनोई में, एक सभा में यह घोषणा करते हुए हो-ची-मिन्ह ने
जो घोषणापत्र पढ़ा, उसमें अमेरिकी और फ्रेंच बूर्ज्वा क्रांतियों के घोषणापत्रों से
तो विस्तृत उल्लेख थे, मगर अक्टूबर क्रांति और समाजवाद का जिक्र तक नहीं था.
इस सत्ता परिवर्तन से एक
महीना पहले ही हो-ची-मिन्ह फ्रांस को पांच से दस वर्ष के भीतर विएतनाम को फ्रेंच
यूनियन के अन्दर सीमित आज़ादी देने का प्रस्ताव दे रहा था. मार्च १९४६ में
हो-ची-मिन्ह ने हनोई में फ्रेंच साम्राज्यवादियों से संधि कर ली, जिसमें इस ‘सीमित
आज़ादी’ के बदले, उत्तरी वियतनाम में फ्रेंच सैनिकों को वापस लौटने और आधिपत्य स्थापित
करने की अनुमति दे दी गई. इस संधि के समय उत्तर में फ्रेंच सेना अत्यंत कमजोर थी
और वह क्रान्ति को नहीं दबा सकती थी. मगर स्तालिनवादियों की मौकापरस्ती ने, फ्रेंच
साम्राज्यवादियों को बड़ी राहत दी.
फ्रेंच यूनियन के भीतर
‘सीमित आज़ादी’ का अर्थ था औपनिवेशिक शासन का जारी रहना. इस समझौते ने फ्रेंच
साम्राज्यवादियों को सम्भलने और अपनी सैनिक शक्तियों को संगठित करने का अवसर दे
दिया ताकि वे वियतनाम के उत्तरी और दक्षिणी, दोनों हिस्सों पर आराम से नियंत्रण कर
सकें.
जैसे ही इस शर्मनाक समझौते
की खबर फैली, कार्यकर्ताओं और जनता में रोष की लहर दौड़ गई. हनोई में, जल्दबाजी में
बुलाई गई एक सभा में हो-ची-मिन्ह ने रिरियाते हुए कहा, “मैं कसम खाता हूँ, मैंने
आपको नहीं बेचा”.
इस बीच, अपनी स्थिति को
सुदृढ़ करते फ्रेंच साम्राज्यवादियों ने इस समझौते की अनदेखी शुरू की और ‘सीमित
आज़ादी’ को नकारते हुए सीधे फौजी दखल शुरू किया. अपनी सैनिक स्थिति का लाभ उठाते,
फ्रेंच साम्राज्यवादियों ने नवम्बर में इस समझौते की धज्जियाँ उड़ा दीं. उन्होंने
हाइफोंग बंदरगाह पर बमबारी कर दी जिसमें लगभग बीस हज़ार लोग मरे. पहले हो-ची-मिन्ह
साम्राज्यवादी ‘मित्र-शक्तियों’ और पोप को चिट्ठियां लिख-लिखकर गिड़गिड़ाता रहा, मगर
सारी प्रार्थनाएं निष्फल रहने के बाद, स्तालिनवादी हनोई छोड़कर देहाती इलाकों में
भाग निकले.
१९४५ में क्रांति की इस
पराजय के लिए सिर्फ वियतनामी स्टालिनवादी ही जिम्मेदार नहीं थे, वरन उनसे भी बड़ी
जिम्मेदारी फ्रेंच और ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टियों के ऊपर थी, जो बेशर्मी से
अपनी-अपनी राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के सामने नाक रगड़ते, वियतनाम में उनकी
साम्राज्यवादी नीतियों का खुला अनुमोदन कर रहे थे.
वास्तव में, स्तालिनवादियों
का लक्ष्य साम्राज्यवादियों से समझौते करते, ट्रोट्स्की-वादियों का सफाया करना था.
फ्रेंच, ब्रिटिश या वियतनामी स्टालिनवादी, किसी भी कीमत पर क्रान्ति को उस बिंदु
पर नहीं पहुँचने देना चाहते थे, जहां सर्वहारा सीधे सत्ता पर नियंत्रण कर ले.
उधर दक्षिण वियतनाम में,
जहां सर्वहारा का बड़ा जमाव था और इसलिए स्तालिनवादी कमजोर थे और ट्रोट्स्की-वादी
मज़बूत, वहां स्तालिनवादी क्रान्तिकारी विद्रोह को रोक पाने में नाकाम रहे. १९
अगस्त को बेन-को क्षेत्र के मजदूरों ने दक्षिण में पहली एक्शन कमिटी बनाकर सत्ता
हाथ में ले ली. अगले दिन ऐसी ही एक कमिटी फू-नुहान क्षेत्र में, जो सबसे बड़ा औद्योगिक
क्षेत्र था, कायम हुई और उसने भी सत्ता ले ली. साथ ही ग्रामीण किसान विद्रोह में
उठ खड़े हुए और उन्होंने पूरे सादेक क्षेत्र में ज़मींदारों की कोठियों को आग लगा
दी. अकेले लॉन्ग-जुएन क्षेत्र में ही किसानों ने २०० से अधिक सरकारी अफसरों और
पुलिसवालों की हत्या कर दी.
२१ अगस्त को “ला-लुट्टे”
ग्रुप द्वारा संगठित ‘राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे’ के आह्वान पर जो प्रदर्शन हुआ,
उसमें तीन लाख लोग शामिल हुए. ट्रोट्स्की-वादी इस प्रदर्शन का मुख्य हिस्सा थे.
चौथे इंटरनेशनल के विशाल बैनर के पीछे दसियों हज़ार मजदूर किसान तख्तियां उठाये थे
जिन पर क्रान्तिकारी नारे लिखे थे- साम्राज्यवाद मुर्दाबाद, विश्व क्रांति
जिंदाबाद, मजदूर किसानों की एकता जिंदाबाद, सब कहीं क्रान्तिकारी कमिटियों का
संगठन करो, लोकसभा का संगठन करो, जनता की हथियारबंदी जिंदाबाद, किसानों को ज़मीन, मजदूर
परिषदों के नियंत्रण में कारखानों का
राष्ट्रीयकरण, मजदूर किसानों की सरकार....आदि आदि. चौथे इंटरनेशनल का बैनर सामने
आते ही, वे तमाम मजदूर-किसान, जिनकी स्मृति में १९३० का क्रान्तिकारी आन्दोलन ताज़ा
ही था, दसियों हज़ार की तादाद में इसके पीछे आ जुटे.
इसके तुरंत बाद २३ अगस्त को
विएत-मिन्ह ने साम्राज्यवादी मित्र-शक्तियों अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस के नाम एक
अपील जारी की और इस बात दुहाई देते कि वे उसने साथ पाच साल मिलकर लड़े हैं, ट्रोट्स्की-वादियों
के खिलाफ सत्ता लेने में सहायता की मांग की. इसके साथ ही राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे
को भी चेतावनी जारी की गई कि वह समर्पण करे. १० सितम्बर को “ला लुट्टे” ने
स्तालिनवादियों से समझौता कर लिया, अपने राष्ट्रीय मोर्चे का विएत-मिन्ह में विलय
कर दिया और बदले में दक्षिण सरकार में मंत्री-पद स्वीकार कर लिया.
ट्रोट्स्की-वादियों को
क्रांति के विरुद्ध चेतावनी देते, हो-ची-मिन्ह ने घोषणा जारी की, जिसे गृह-मंत्री
न्युगेन-वें-ताओ ने हस्ताक्षर किया- “जो भी किसानों को ज़मींदारों कि ज़मीनें छीनने
के लिए उकसाएगा, उससे कडाई और निर्ममता से दण्डित किया जायेगा. अभी हमने
कम्युनिस्ट क्रांति नहीं की है, जो कृषि समस्या को हल कर दे. यह सरकार सिर्फ एक
लोकतान्त्रिक सरकार है और इसलिए यह इस कार्यभार को हाथ नहीं लगा सकती. में दोहराता
हूँ, हमारी सरकार जनवादी और बूर्ज्वा सरकार है, हालाँकि कम्युनिस्ट सत्ता में
हैं.”
इसके बाद स्तलिनवादियों ने
ट्रोट्स्की-वादियों को एकमात्र निशाना बना लिया. एक सितम्बर को ट्रेन-वेन ने घोषणा
की कि “जो लोगों को हथियारबंदी के लिए उकसा रहे हैं, उन्हें राष्ट्रीय स्वतंत्रता
का विरोधी समझा जायेगा. हमारी जनवादी स्वतंत्रताएं, हमारे जनवादी मित्रों
(अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन) द्वारा प्रदान और सुरक्षित की जायेंगी”.
ठीक उस समय जब हो-ची-मिन्ह
हनोई में घोषणा पढ़ रहा था, दक्षिण में स्टालिनवादी विएत-मिन्ह ने २ सितम्बर को
वियतनाम में घुस रहे ब्रिटिश सैनिकों के स्वागत में एक प्रदर्शन का आयोजन किया. इसके
खिलाफ चार लाख किसानों ने प्रदर्शन किया, जिस पर गोली चलाई गई, जिसमें एक मारा और १५०
घायल हुए. दंगे शुरू हुए और फ्रेंच कॉलोनियों पर हमले. किसानो के दबाव में फ्रेंच
संभ्रांत लोगों को गिरफ्तार तो किया गया मगर तुरंत ही रिहा कर दिया गया. ७ सितम्बर
को स्तालिनवादियों ने अपील जारी की, जिसमें कहा गया था कि, “देश-हित में हम पर
भरोसा रखें. उन लोगों की बात न सुनें जो देश के गद्दार हैं. सिर्फ इसी तरह हम अपने
मित्र देशों के साथ अच्छे सम्बन्ध रख सकते हैं”.
उधर, ट्रोट्स्की-वादियों के
आह्वान पर, १६ अगस्त के बाद छह हफ़्तों के अन्दर ही दक्षिण में १५० से अधिक और
साइगॉन-कोलोन में १०० से अधिक जन-समितियां संगठित हो चुकी थीं. २१ अगस्त के
प्रदर्शन के बाद ९ सदस्यों की एक केंद्रीय समिति भी चुन ली गई थी, जिसकी संख्या
बाद में १५ कर दी गई. इस तरह ट्रोट्स्की-वादियों ने वियतनामी क्रांति में पहली बार
सोवियतों की स्थापना की. ये सोवियतें बूर्ज्वाजी के खिलाफ थीं और इसलिए
स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी और विएत-मिन्ह के भी, जो अमेरिका, फ्रांस और
ब्रिटेन जैसी साम्राज्यवादी शक्तियों को मित्र-शक्ति बता रही थीं और उनकी सेनाओं
के स्वागत की तैयारियां कर रही थीं, जबकि ट्रोट्स्की-वादी मजदूर वर्ग की
हथियारबंदी और सत्ता के लिए उसके सीधे संघर्ष की राह खोल रहे थे.
७ सितम्बर को स्तालिनवादी
विएत-मिन्ह सरकार ने चेतावनी जारी की और मजदूर-किसानो से हथियार सौपने की मांग की,
जिसे उन्होंने अनसुना कर दिया. इसके जवाब में मजदूर मिलिशिया ने साइगॉन-कोलोन के
मजदूर-किसानो को वियतनाम में दाखिल हो रही ब्रिटिश-फ्रेंच फौजों के खिलाफ मोर्चा
सँभालने का आह्वान किया. सोवियतों ने अपील जारी की और वियतनाम को फिर से
साम्राज्यवादियों के हाथ गिरवी रखने के लिए, स्तालिनवादियों की कड़ी निंदा करते हुए
मजदूर किसानों को ब्रिटिश-फ्रेंच हमले के खिलाफ, सशस्त्र संघर्ष के लिए ललकारा.
१० सितम्बर को ब्रिटिश
साम्राज्यवादी फौजें वियतनाम पहुँचीं. हवाई अड्डे से ही स्तालिनवादी विएत-मिन्ह ने
मित्र-शक्तियों के स्वागत में झंडे-बैनर लगाये थे. सिटी हॉल में विएत-मिन्ह झंडे
के दोनों तरफ ब्रिटिश-फ्रेंच झंडे झुलाये गए थे.
ब्रिटिश कमांडर जनरल ग्रेसी
ने कुछ हफ्ते पहले ही घोषणा की थी कि, “वियतनाम में सरकार का प्रश्न पूरी तरह,
फ्रेंच प्रश्न है”. शहर में दाखिल होते ही ग्रेसी ने विएतनामी प्रेस पर पाबन्दी
लगा दी, मार्शल लॉ की घोषणा कर दी और कड़ा कर्फ्यू लगा दिया, सभी प्रदर्शन
प्रतिबंधित कर दिए, और हथियारों पर पाबन्दी लगा दी.
स्तालिनवादियों ने क्रान्ति
को कुचलने में ब्रिटिश फौजों की खुली मदद की. मगर जनरल ग्रेसी ने लिखा, “मेरे
पहुँचने पर विएत-मिन्ह ने जोरदार स्वागत किया, मगर मैंने तुरंत ही उन्हें लात
मारकर खदेड़ दिया.”.
१२ सितम्बर को
ट्रोट्स्की-वादियों और सोवियतों ने संयुक्त अपील में स्तालिनवादियों की इस गद्दारी
की कड़ी निंदा की. मजदूर क्षेत्रों में जन-आक्रोश तेज़ी से बढ़ रहा था, जो सीधे
सशस्त्र विद्रोह का खतरा पैदा कर रहा था.
१४ सितम्बर को ४ बजे जब
स्थानीय सोवियत की सभा चल रही थी, तो पुलिस के स्तालिनवादी मुखिया डुओंग-बाख-मई ने
उसे घेर लिया और गिरफ्तार कर लिया. दुर्भाग्य से वहां मौजूद सदस्यों ने कोई
प्रतिरोध नहीं किया, जबकि उनके पास पिस्टल और राइफल के अलावा मशीन-गन तक मौजूद
थीं. इस कायरता की कीमत सैंकड़ों नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.
२२ सितम्बर तक ब्रिटिश
फौजों ने अपनी स्थिति काफी सुदृढ़ कर ली थी और सशस्त्र फ्रेंच सेनाएं भी कार्रवाई
के लिए तैयार थीं. उन्होंने साइगॉन जेल पर कब्ज़ा कर लिया और फ्रेंच बंदियों को
छुड़ा लिया. उसी दिन शाम को फ्रेंच फौजों ने उत्पात शुरू किया, जिसमें अगणित
विएतनामी लोगों की हत्या, पिटाई और गिरफ़्तारी की गईं. अगली रात फ्रेंच फौजों ने कई
पुलिस स्टेशन, पोस्ट ऑफिस, सेंट्रल बैंक और टाउन हॉल सब बिना किसी सशस्त्र
प्रतिरोध के ही वापस छीन लिए. चार हफ्ते पुरानी आज़ादी नष्ट कर दी गई.
जैसे ही इसकी खबर मजदूर
इलाकों में फैली, स्वतःस्फूर्त विद्रोह भड़क उठा. मजदूरों ने साइगॉन पर कब्ज़ा कर
लिया और शहर के चारों ओर पेड़ों को काटकर, कारों, ट्रकों को उलटकर, और फर्नीचर के
ढेर लगाकर, सड़कों पर बैरिकेड लगा दीं. मजदूर कस्बे खान-होई, काउ-खो, बान-को,
फू-नुआन, और थी-न्ग्हे, विद्रोहियों के हाथ में थे. कुछ जगह पर, औपनिवेशिक घृणा के
चलते, फ्रांसीसियों पर फायर खोले गए और उन्हें मार डाला गया. उधर साइगॉन में कई
बड़े कारखानों और गोदामों को आग लगा दी गई और बंदरगाह पर लगातार हमले जारी रहे. शहर
का पानी और बिजली काट दिया गया और आवश्यक आपूर्ति रोक दी गईं. अगले दिन विएतनामी
विद्रोहियों ने शहर के ठीक बीचों-बीच सिटी-सेंटर की मुख्य सड़कों पर शानदार परेड
निकाली. इसमें सबसे आगे थे गो-वाप स्ट्रीटकार डिपो के ४०० मजदूर जिन्होंने ६०
सदस्यों वाली, पहली वर्कर्स मिलिशिया का संगठन किया था. स्तालिनवादी नियंत्रण वाली
लेबर फेडरेशन से जुड़े होने के बावजूद इन्होने स्तालिनवादी नारों और झंडों को नकार
दिया था और लाल झंडे को चुना था. यह परेड ११ सदस्यों वाले युद्ध-दस्तों में बंटी
थी, जो चुने हुए नेताओं के तहत संगठित थे. पूरी परेड का नेता ट्रोट्स्की-वादी
उपन्यासकार ट्रांह-दिन-मिन था.
स्तालिनवादी विएत-मिन्ह के
नेताओं ने क्रान्ति का खुला विरोध शुरू किया और ब्रिटिश जनरल ग्रेसी से बातचीत के
प्रयास शुरू कर दिए. साम्राज्यवादी फौज और स्तालिनवादी पुलिस के दोहरे विरोध से
निपटने के लिए वो-गैप मजदूर मिलिशिया ने गरीब किसान आबादी वाले प्लेन-डेस-जोंक्स
क्षेत्र में पीछे हटने और किसानों के साथ पुनर्संगठित होने के लिए मोर्चा पंक्ति
तोड़ने का प्रयास किया और असीम वीरता के बल पर सफल रही. यह किसान क्षेत्र में दाखिल
हुए और किसानों से मिलकर नया मोर्चा बना लिया.
साम्राज्यवादी सेनाओं और
स्तालिनवादी विएत-मिन्ह सशस्त्र दस्तों की सांझी ताकत से जूझते, इस युद्ध में इसके
नेता मिन्ह सहित २० जांबाज़ मजदूर शहीद हुए. कुछ को विएत-मिन्ह दस्तों ने चाकुओं से
क़त्ल कर दिया. इसके बाद ही इस मिलिशिया को काबू किया जा सका.
उधर स्तालिनवादी साम्राज्यवादी
फौजों से बातचीत के लिए लालायित थे. इसके चलते १ अक्टूबर को युद्धबंदी की घोषणा
हुई. मगर ५ अक्टूबर को ही ब्रिटिश और फ्रेंच फौजों के नए कॉलम आने शुरू हुए और
साम्राज्यवादियों ने फ्रेंच यूनियन के भीतर मज़बूत वियतनाम के लिए, “व्यवस्था कायम”
करना शुरू कर दिया. जबकि मित्र-शक्तियों को खुश करने की नीति के चलते, विएत-मिन्ह
ने विद्रोही क्षेत्रों से ब्रिटिश और फ्रेंच फौजों की आवाजाही को अबाध बने रहने
दिया, इन फौजों ने उत्तर-पूर्व में हमला खोला और शहर की घेराबंदी को तोड़ डाला.
स्तालिनवादी, साम्राज्यवादी फौजों से लड़ने के बजाय, ट्रोट्स्की-वादियों के सफाए
में लगे रहे. १४ सितम्बर को ही ‘अक्टूबर ग्रुप’ तथा सोवियत नेतृत्व का सफाया करने
के बाद, वे अब ‘ला-लुट्टे’ ग्रुप का सफाया कर रहे थे. थू-डक क्षेत्र में इसके
मुख्यालय को घेरने के बाद, उन्होंने पूरे दल को गिरफ्तार कर लिया और बेनसुक जेल
में डाल दिया. फ्रेंच फौजों के आगमन पर उन सबको गोली मार दी गई. इनमें साइगॉन
नगर-सभा का १९३३ में निर्वाचित सदस्य ट्रेन-वेन-थाच और न्ग्युएन-वेन-सो तथा दसियों
जुझारू नेता थे. जो ट्रोट्स्की-वादी वियतनाम से भाग निकलने में कामयाब हुए उन्हें
भी चुन-चुनकर ख़त्म कर दिया गया.
उधर वियतनाम के उत्तर में
हो-ची-मिन्ह के नेतृत्व में स्तालिनवादी, साम्राज्यवादी मित्र-शक्तियों के साथ
सामंजस्य का यही खेल खेल रहे थे. नवम्बर में हो-ची-मिन्ह ने कम्युनिस्ट पार्टी को
भंग करते हुए जो आदेश निकाला, वह गौरतलब है: “यह कदम, यह साबित करने के लिए लिया
जा रहा है कि कम्युनिस्ट देश के हितों को हमेशा वर्गों से ऊपर रखते हैं और
विएतनामी जनता के हितों के लिए पार्टी के हितों की बलि चढाने के लिए तैयार
हैं.....इस समय वर्गों और पार्टियों के भेद के बगैर एक राष्ट्रीय यूनियन सबसे
जरूरी है.”
इस वक़्त उत्तर में
स्तालिनवादियों के खिलाफ विरोध तीव्र था. “ला-लुट्टे” हनोई में अपना दैनिक अखबार
निकाल रहा था, जिसकी सर्कुलेशन तीस हज़ार से ज्यादा थी और यह ग्रुप अख़बार के अलावा
किताबें प्रकाशित करता था और बड़ी जनसभाएं आयोजित करता था. बाख-मई क्षेत्र उनका
गढ़ था. साम्राज्यवादियों के खिलाफ एक विशाल जनसभा से घबराये हो-ची-मिन्ह ने
ट्रोट्स्की-वादी नेताओं को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया. सशस्त्र प्रतिरोध में
पहले ही अनेक ट्रोट्स्की-वादी मारे जा चुके थे. बचे हुए ग्रुप का स्तालिनवादियों
ने पूरी तरह सफाया कर दिया.
“ला-लुट्टे” के शीर्ष नेता
ता-थू-थाऊ को दक्षिण लौटते हुए स्तालिनवादी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया गया और तीन
बार झूठे आरोपों में फंसकर उस पर मुकदमा चलाया गया. तीनों बार वह बरी हुआ. अंत में
दक्षिण में स्तालिनवादी नेता ट्रेन-वेन-गिआउ के आदेश पर उसे बिना मुक़दमे के ही
गोली मार दी गई. गिआउ को यह आदेश स्पष्तः हो-ची-मिन्ह से मिला था. फ्रेंच समाजवादी
डेनियल गुरिन ने हो-ची-मिन्ह से अपनी मुलाकात का जिक्र किया है जिसमें हो-ची-मिन्ह
ने थाऊ के बारे में कहा था- वह देशभक्त था और उसकी मौत का मुझे दुःख है. मगर जो
मेरी स्थापित लाइन का अनुकरण नहीं करेंगे, वे तोड़ दिए जायेंगे”.
एक बार ट्रोट्स्की-वादी
नेतृत्व का सफाया कर दिए जाने के बाद, अब स्तालिनवादियों के लिए फ्रांसीसियों के
साथ समझौते का रास्ता, पूरी तरह खुला था. ६ मार्च को हो-ची-मिन्ह ने फ्रांस से
शर्मनाक संधि कर ली, जिसके अनुसार वियतनाम को फ्रेंच यूनियन में सीमित आज़ादी दी गई
और पंद्रह हज़ार फ्रेंच फौज वियतनाम में बनी रही. इस संधि में स्टालिन की पूरी
सहमति थी, जो शुरू से ही वियतनाम को पूर्ण स्वतंत्रता के खिलाफ था.
इस संधि के साथ ही वियतनाम
में साम्राज्यवादी शक्तियों का शिकंजा पूरी तरह कस गया. मुक्ति-युद्ध के शीर्ष
नेताओं का सफाया करके, विद्रोहों के दमन में साम्राज्यवादियों से साझीदारी करके और
फिर साम्राज्यवादी शक्तियों से संधि करके, स्तालिनवादियों ने कुछ औपचारिक
मंत्री-पदों के बदले, वियतनाम को साम्राज्यवादियों के हवाले कर दिया. साम्राज्यवादी
फौजों के वियतनाम में घुसने के साथ ही विएतनामी क्रांति पराजित हो गई. इस पराजय का
खामियाजा वियतनाम की एक पूरी पीढ़ी को, एक चौथाई सदी के अनवरत युद्ध में पिसकर और
बीस लाख बलिदान देकर चुकाना पड़ा.
सबसे मज़े की बात यह कि जबकि
वियतनामी स्तालिनवादी, साम्राज्यवादी मित्र-शक्तियों को आश्वस्त करने के लिए
वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी को भंग कर रहे थे, राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के साथ सहबंध
बना रहे थे, हो-ची-मिन्ह अपने पत्रों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के सामने नाक
रगड़ रहा था, ठीक उसी वक़्त फ्रेंच स्तालिनवादी दुनिया को यह समझा रहे थे कि क्यों
वियतनाम का राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार का दावा अवैध है, और वे वियतनाम में
दमनकारी फौजें भेजे जाने के लिए फ्रेंच संसद में युद्ध-बजट के पक्ष में वोट दे रहे
थे. दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां अपनी राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के साथ बंधी थीं और
उसकी नीतियों के तहत काम कर रही थीं. दोनों देशों के स्तालिनवादी अलग-अलग
साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ बंधे थे मगर दोनों की बुनियादी नीति एक ही थी-
दोनों सर्वहारा क्रांति के घोर शत्रु थे.
हो-ची-मिन्ह इस समय अमेरिकी
साम्राज्यवाद की कठपुतली था, जो राष्ट्रपति ट्रूमैन को लिखे गए उसके आठ पत्रों से
बिलकुल स्पष्ट है.
इस समय, स्टालिन के तहत
सोवियत नीति, अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे साम्राज्यवादियों के उपनिवेशों में
क्रांति को रोक देने, बूर्ज्वाजी की सत्ता को चुनौती न देने, और फलतः सर्वहारा को
बूर्ज्वाजी के खिलाफ सत्ता के लिए संघर्ष से विरत कर देने की थी.
सितम्बर १९४५ में ही फ्रेंच
कम्युनिस्ट पार्टी की साइगॉन समिति ने विएत-मिन्ह को चेतावनी दी कि, “वियतनाम के
स्वातंत्र्य युद्ध में, कोई भी दुस्साहसिक कदम, सोवियत संघ की नीति द्वारा
अनुमोदित नहीं होंगे”.
स्तालिनवादियों का बूर्ज्वा
राष्ट्रवाद से यह शर्मनाक गठबंधन अनंत था. हाइफोंग पर बमबारी के एक महीने बाद ही,
२० दिसंबर १९४६ को फ्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी ने फ्रेंच दमनकारी फौजों द्वारा
वियतनाम पर दोबारा कब्ज़े का स्वागत करते हुए उसके पक्ष में वोट दिया. उसी महीने
फ्रेंच सरकार ने १९३ बिलियन फ्रैंक के सैनिक बजट का प्रस्ताव रखा जिसमें १००
बिलियन अकेले वियतनाम में दमन के लिए प्रस्तावित थे. स्तालिनवादी फ्रेंच
कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार के स्तालिनवादी मंत्रियों ने इन प्रस्तावों के पक्ष
में वोट दिया. जुलाई १९४६ में फ्रांस में चुनावों से ठीक पहले, स्तालिनवादियों के
मुखपत्र ‘ला ह्युमेनाईट’ ने २४ जुलाई १९४६ को, बेशर्मी से लिखा, “कल हमने सीरिया
और लेबनान में उपनिवेशों को खो दिया, आज हम वियतनाम में खो देंगे और कल उत्तरी
अफ्रीका को खो देंगे”. दो दिन बाद ही फ्रेंच संविधान में ‘फ्रेंच यूनियन’ को
परिभाषित करते एक प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया, जिसने वियतनाम की स्वतंत्रता के
प्रश्न को ही मरीचिका में बदल दिया.
२३ दिसंबर १९४६ को, हनोई
में शुरू हुए गृह-युद्ध का सैनिक दमन करने के लिए फ्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी ने फ्रेंच
संसद में पेश एक और विशेष बजट के पक्ष में वोट दिया. फ्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी के
शीर्ष नेता मौरिस थोरेज़ ने, जो पॉल रेमेडिएर की बूर्ज्वा सरकार में
उप-प्रधानमंत्री था, मार्च १९४७ में वियतनाम में क्रांति पर खुले फौजी दमन के आदेश
पर हस्ताक्षर करते हुए कहा कि, “वियतनाम के प्रश्न पर हमने हमेशा ही सोवियत संघ की
नीति को सही पाया है”.
१९४८ के अंत में, स्टालिन
की लाख कोशिशों के बावजूद, मित्र-शक्तियों के बीच मोर्चा टूटने लगा. इसके साथ ही सोवियत
नीति बदलने लगी. वियतनाम में १९४९ से १९५४ के बीच गृह-युद्ध जारी रहा. १९५३ के अंत
में कोरियाई युद्ध में पूंजीवादी शक्तियों और रूस-चीन के बीच सहमति बनने के साथ ही
वियतनाम का प्रश्न भी सामने आया और उस पर भी सहमति बनी. १९५४ के वसंत में जेनेवा
में किये गए समझौते के मुताबिक उत्तर की सरकार हो-ची-मिन्ह के हाथ और दक्षिण की सम्राट
बो-दाई के हाथ रहनी थी, जिसके बाद आम चुनाव होना था. जबकि ८५% वियतनाम पर पहले ही
साम्राज्यवादियों का कब्ज़ा मंसूख किया जा चुका था और फ्रेंच दमनकारी फौजे आठ साल
के संघर्ष के बाद, दिएन-बिएन-फू में पराजित की जा चुकी थीं, हो-ची-मिन्ह ने सोवियत
और चीनी स्तालिनवादियों की सलाह पर इस शर्मनाक समझौते पर दस्तखत कर दिए और उत्तर
में इस राज्य को ‘वियतनामी जनवादी गणराज्य’ का नाम दिया.
इस शर्मनाक समझौते के
विरुद्ध कार्यकर्ताओं के बीच फैले रोष को ठंडा करने के लिए, हो-ची-मिन्ह ने घोषणा
जारी की, जिसमें कहा गया कि, “इस कांफ्रेंस में हमारे प्रतिनिधिमंडल के संघर्ष और
सोवियत तथा चीनी प्रतिनिधिमंडलों द्वारा प्रदत्त सहायता के चलते हमारे लिए बहुत
बड़ी विजय हासिल हुई है”.
कार्यकर्त्ता चकित थे कि
यदि यह विजय है, तो पराजय कैसी होगी?
इस समझौते पर, हो-ची-मिन्ह
की खिल्ली उड़ाते, सीआईए के अधिकारी, डगलस पाइक ने लिखा, “विजेताओं को छोड़कर, यह समझौता
सभी पक्षों के हक़ में था.....केवल विजेता विएत-मिन्ह नुकसान में था, या यों कहें
कि उसे बेच दिया गया था. हो-ची-मिन्ह को यह समझाने में कि वह अभी आधे देश पर
समझौता कर ले आधा उसे चुनाव के बाद मिल जायगा, सोवियत और चीनी सांझे प्रयास बहुत
काम आये”.
शुरू से ही स्तालिनवादी न
सिर्फ राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी से चिपके हुए थे और साम्राज्यवादियों की ही तरह उसे भी
अच्छे और बुरे, दो हिस्सों में बांट कर देख रहे थे. हो-ची-मिन्ह ने लिखा: “वर्तमान
दक्षिण वियतनामी सत्ता छद्म औपनिवेशिक सत्ता है जिस पर अमेरिकियों का कब्ज़ा है.
इसलिए इसे हटाना चाहिए और इसकी जगह सभी सामाजिक वर्गों, राष्ट्रीयताओं, राजनीतिक
पार्टियों और धर्मों के प्रतिनिधियों से बनी राष्ट्रीय-जनवादी सरकार का गठन होना
चाहिए.....शिल्प और उद्योग के पुनर्गठन और विकास के लिए राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी को
सहयोग दिया जाना चाहिए”.
इसके बाद विएत-मिन्ह ने विदेशी
निवेश को खुला संरक्षण दिया और कभी भी फ्रेंच रबर फार्मों की जब्ती नहीं की, जो
कार्यभार वियतनाम में कृषि-क्रांति की रीढ़ था. विएत-मिन्ह के अध्यक्ष,
न्ग्युएन-हु-थो ने लिखा, “हमारा कार्यक्रम मोर्चे की व्यापक प्रकृति और इसमें
शक्तियों के प्रतिनिधित्व को इंगित करता है. उदाहरण के लिए हम किसानों को ज़मीन की
मांग के पक्ष में हैं, मगर ज़मीनों की ज़ब्ती के खिलाफ हैं. हम किराये घटाने के पक्ष
में हैं मगर वर्तमान भूमि-अधिकारों को कायम रखने के भी पक्ष में हैं, सिवा
गद्दारों के. ज़मींदार, जिन्होंने अमेरिका का साथ नहीं दिया, उन्हें डरने की कोई
जरूरत नहीं है”.
इसके बाद १९६० तक भी
स्तालिनवादी दक्षिण में कोई संघर्ष करने से स्पष्ट इंकार करते रहे. कार्यकर्ताओं
के रोष को ठंडा करने के लिए, जो दक्षिण के विरुद्ध संघर्ष की मांग कर रहे थे,
हो-ची-मिन्ह टालमटोल की नीति अपनाये था. “दक्षिण के प्रति, जो अभी मुक्त नहीं हुआ
है, उत्तर के लोग अपने कर्तव्य को भूले नहीं हैं. मगर इस वक़्त जबकि दुनिया में
स्थायी शांति कायम करते हुए समाजवादी क्रांति के विश्व आन्दोलन और राष्ट्रीय
मुक्ति आंदोलनों के आगे विकास के पक्ष में जो अनुकूल स्थितियों के लिए सम्भावना
विद्यमान है, उसके चलते हम दक्षिण में साम्राज्यवाद और हमारे देश में उपनिवेशों के
बीच टकरावों को सुलझा सकते हैं और उन्हें सीमित कर सकते हैं, और हमें ऐसा करना
चाहिए”. वास्तव में उत्तर वियतनाम में सत्ता संभाले स्तालिनवादियों ने दक्षिण में
साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की कोई मदद नहीं की. मार्च १९५६ में ली-दुआन द्वारा प्रतिरोध
के प्रस्ताव को स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो ने ख़ारिज कर दिया
था. दरअसल, न तो स्टालिन और न माओ, दक्षिण वियतनाम में साम्राज्यवादियों के
विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार थे.
दिसंबर १९६० में दक्षिण
वियतनाम में, उत्तर में विएत-मिन्ह की तर्ज़ पर, वियतकांग का गठन हुआ. १९६८ में
अमेरिका द्वारा उत्तरी वियतनाम पर की गई भारी बमबारी के बाद ही वियतकांग ने दक्षिण-वियतनामी
सरकार के विरुद्ध ‘टेट आक्रमण’ खोला, जो पूरी तरह असफल रहा.
सत्तर के दशक की शुरुआत में
जबकि वियतनामी जनता अमेरिकी साम्राज्यवाद के सैनिक दमन से जूझ रही थी, और अमेरिकी
विमान वियतनाम पर अंधाधुंध बमबारी में लगे थे, चीन के स्तालिनवादी शासक
माओ-त्से-तुंग के नेतृत्व में अमेरिका की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे थे. सोवियत
संघ और चीन के ये झूठे समाजवादी, मगर पक्के राष्ट्रवादी-स्तालिनवादी शासक
अपने-अपने राष्ट्रीय हितों से बंधे, विश्व समाजवादी क्रांति की धज्जियां उड़ा रहे
थे.
अंततः वियतनामी स्तालिनवादी,
एक बार फिर साम्राज्यवादी ताकतों के साथ समझौते की ओर बढे और १९७३ में पेरिस में
और भी शर्मनाक समझौते पर हस्ताक्षर किये. जुझारू मेहनतकश जनता से सरासर गद्दारी
करते हुए, इसमें देशभक्त ज़मींदारों, और राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के सारे
संपत्ति-अधिकार सुरक्षित कर दिए गए, विदेशी निवेशकों को जब्ती के खिलाफ गारंटी दी
गई, जबकि दक्षिण में बंधक बनांये गए लोगों की रिहाई का उल्लेख तक नहीं किया गया. इस
तरह एक बार फिर क्रांति का गला घोंट दिया गया.
पिछले तमाम समझौतों की ही
तरह, यह समझौता भी बहुत देर नहीं टिका. अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इस समझौते को
शुरू से ही धता बता दी और विनाशकारी युद्ध को वियतनाम पर थोपना जारी रखा.
अमेरिका सहित दुनिया भर
में वियतनाम में अमेरिकी कब्ज़े के विरुद्ध सर्वहारा और मेहनतकश जनता का विरोध बढ़ता
जा रहा था, जो वियतनाम में अमेरिकी फौजों के मनोबल को तोड़ रहा था. दुनिया भर में
वियतनाम-युद्ध विरोधी आन्दोलन पनपने लगा.
अमेरिकी सर्वहारा के
दबाव ने अमेरिकी कांग्रेस को १५ अगस्त १९७३ को ‘केस-चर्च संशोधन’ पास करने को
बाध्य कर दिया, जिसने अगस्त १९७४ से दक्षिण वियतनाम में अमेरिकी सहायता को काफी कम
कर दिया और भावी सैनिक कार्रवाई को बहुत कठिन बना दिया.
अमेरिका के इस पश्चगमन के
चलते, जनवरी ७५ में फुओक बिन और मार्च ७५ में बुओन-मा-थुओट पर वियतकांग आक्रमण सफल
रहे और अंततः उत्तरी वियतनामी सेना और विएत-कांग ने ३० अप्रैल १९७५ में सांझे हमले
में साइगॉन में अमेरिकी सैनिक मुख्यालय को घेर लिया और दक्षिण वियतनाम पर कब्ज़ा कर
लिया.
वियतकांग की इस सफलता के दो
मुख्य आधार थे. पहला दुनिया भर में, और विशेष रूप से अमेरिका में, सर्वहारा और
मेहनतकश जनता का वियतनाम के मुक्ति-युद्ध के लिए समर्थन और अमेरिकी दखल का विरोध,
जिसके चलते अमेरिका को १९७३ में ही पीछे हटने के लिए बाध्य होना पड़ा. दूसरा सोवियत
सहायता, जो किन्ही क्रान्तिकारी या अंतर्राष्ट्रीयतावादी उद्देश्यों से प्रेरित न
होकर, क्रेमलिन के राष्ट्रीय सैनिक-रणनीतिक हितों की सुरक्षा से प्रेरित थी, जो
शीत-युद्ध के दौर में, वियतनाम में अमेरिकी सैनिक उपस्थिति और वर्चस्व के विपरीत जाते
थे. १९५५ से ही वियतनाम युद्ध, सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत-युद्ध के हिस्से
के बतौर लड़ा जा रहा था.
दक्षिण पर नियंत्रण के बाद,
स्तालिनवादियों ने उत्तर और दक्षिण को एक करते १९७६ में ‘समाजवादी वियतनामी
गणराज्य’ की घोषणा की. हालाँकि किसी भी अर्थ में वियतनामी सत्ता समाजवादी सत्ता
नहीं थी, चूंकि उस पर सर्वहारा का वर्चस्व बस लाल झंडे तक सीमित था, जबकि वास्तविक
सत्ता स्तालिनवादी ब्यूरोक्रेसी के हाथ थी, जो उपनिवेशवादियों के विरुद्ध फैले व्यापक आक्रोश का लाभ उठाकर सत्ता में तो आ गई, मगर शुरू से अंत तक सर्वहारा की किसी भी स्वतंत्र राजनीतिक
कार्रवाई या संगठन के प्रति शत्रुतापूर्ण रही.
वियतनाम की सत्ता पर,
स्तालिनवादियों का यह नियंत्रण, वस्तुतः, मजदूर वर्ग और उसके तमाम स्वतंत्र राजनीतिक
संगठनों के पूर्ण विनाश के साथ जुड़ा हुआ है. सर्वहारा को हाशिये पर धकेलकर,
स्तालिनवादियों ने वियतनाम में एक राष्ट्रीय-ब्यूरोक्रेटिक सत्ता की स्थापना की,
जो न सिर्फ अपने जन्म से ही विश्व-साम्राज्यवाद के साथ मजबूती से बंधी रही,
बल्कि रूस, चीन की स्तालिनवादी सत्ताओं की
तर्ज़ पर अन्तर्राष्ट्रीय सर्वहारा और विश्व समाजवादी क्रांति की घोर विरोधी रही.
हम देख सकते हैं कि किस तरह
वियतनामी स्तालिनवादियों के नेतृत्व में, चीन की ही तर्ज़ पर, 'बाज़ार समाजवाद' के रास्ते, वियतनाम भी धीरे-धीरे
विश्व-पूंजीवाद का मनपसंद कारखाना बन गया, कैसे हो-ची-मिन्ह और उसके उत्तराधिकारी
वियतनामी शासकों ने वियतनामी मजदूर वर्ग को सत्ता में आने से रोक दिया और कैसे
सस्ते श्रम की बिक्री के जरिये वियतनाम के मजदूर वर्ग को, विश्व पूंजीवाद के हित
में निचोड़ डाला. जल्लाद स्तालिनवादियों ने बार-बार साम्राज्यवादियों से मिलकर
क्रांति की धधकती ज्वालाओं पर पानी डाल दिया, उसके सबसे जुझारू हिस्से का सफाया कर
दिया. साम्राज्यवादी ताकतों और राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के साथ सहबंध कायम करते,
स्तालिनवादियों ने, रूस, चीन, वियतनाम और तमाम दुनिया में लाल झंडे को अपने
अपराधों को पोंछने के लिए, पोचे की तरह इस्तेमाल किया.
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