- राजेश त्यागी/ १२ मार्च २०१४
२३ अगस्त १९३९ को हिटलर और स्टालिन के बीच सैनिक संधि संपन्न
हुई, जिसमें पोलैंड और बाल्टिक क्षेत्र और फिर यूरोप
को जर्मनी और सोवियत संघ के बीच बांट लेने का प्रावधान था. इस संधि के मुताबिक
हिटलर को पश्चिमी पोलैंड और लिथुआनिया तथा स्टालिन को पूर्वी पोलैंड, लाटविया और एस्टोनिया पर कब्ज़ा करना था. इस
संधि के तहत १ सितम्बर को हिटलर और १७ सितम्बर को स्टालिन ने पोलैंड पर हमला करके
उसे आपस में बाँट लिया.
इस
हमले ने द्वितीय विश्वयुद्ध का बिगुल बजा दिया, जिसमें लगभग सात करोड़ लोग
मारे गए.
जर्मनी में हिटलर का उभार, सीधे-सीधे स्टालिन के मातहत कोमिन्टर्न की गलत
नीतियों का परिणाम था. स्टालिन ने १९३१ में ही फासिस्टों से लड़ने के बजाय जर्मन
कम्युनिस्ट पार्टी को फासिस्टों के साथ मिलकर, बूर्ज्वा जनतांत्रिक सरकार
के विरुद्ध ‘रेड रेफरेंडम’ के नाम पर संयुक्त मोर्चा
बनाने का निर्देश दिया. स्टालिन ने, सामाजिक-जनवाद को ‘सामाजिक-फासिज्म’की संज्ञा देते हुए, कम्युनिस्ट पार्टी और सामाजिक-जनवादी पार्टी के
बीच हिटलर के विरुद्ध मोर्चा बनाने से स्पष्ट इंकार कर दिया. इसका सीधा परिणाम हुआ
फासिज्म का उभार और बूर्ज्वा जनतांत्रिक सरकार द्वारा समर्पण. इस बोगस नीति के
चलते हिटलर सत्ता में आ गया.
स्टालिन
के नेतृत्व में क्रेमलिन ब्यूरोक्रेसी की राष्ट्रवादी नीति, दुनिया भर में सर्वहारा और पूंजीपति वर्ग के
हिस्सों के बीच सांझे मोर्चे बनाने की थी. इस नीति के चलते ही चीन की कम्युनिस्ट
पार्टी और बूर्ज्वा कोमिनतांग के बीच मोर्चा कायम किया गया था और इसी के तहत हिटलर
के साथ १९३१ में ‘रेड रेफरेंडम’ के नाम पर मोर्चा कायम किया गया था. इन सांझे
मोर्चों में सर्वहारा को पूरी तरह बूर्ज्वा नेताओं और पार्टियों के मातहत कर दिया
गया था और उनकी स्वतंत्र पहलकदमी को इन नेताओं के हाथ गिरवी रख छोड़ा गया था.
इसके बाद स्टालिन
ने हर संभव कोशिश की कि किसी भी तरह हिटलर
के साथ मोर्चा बना रहे और उसके साथ टकराव को टाला जा सके. १९३९ में जबकि दुनिया भर
में मजदूरों-मेहनतकशों की नफरत के चलते उदार बूर्ज्वा सरकारें भी फासिज्म के
खिलाफ एकजुट कार्रवाई के लिए बाध्य हो रही थीं, स्टालिन, हिटलर के साथ यूरोप पर सांझे विजय अभियान के
लिए गुप्त मंत्रणा कर रहा था.
उधर
हिटलर के प्रति आशंकित स्टालिन, उदार बूर्ज्वा सरकारों के साथ
भी तालमेल बनाये हुए था. इस तालमेल का आधार था- सर्वहारा की पहलकदमी को नष्ट करते
हुए सर्वहारा के हितों को बूर्ज्वा सत्ता के आधीन कर देना. उदार बूर्ज्वाजी से हाथ
मिलाने के लिए स्टालिन ने समूचे यूरोप में वाम और क्रान्तिकारी आंदोलनों को नष्ट
करने में उसका सहयोग किया. फ्रांस में, स्तालिनवादियों द्वारा
बूर्ज्वा सरकार से मिलकर, १९३६-३७ की आम हड़ताल का दमन इसका स्पष्ट उदाहरण
है. इसी तरह स्पेनिश गृह-युद्ध के दौरान मनुएल अजाना की बूर्ज्वा सरकार के समक्ष
मजदूरों से जबरन हथियार समर्पण कराकर क्रांति का गला घोंट दिया गया.
स्टालिन
की इन क्रान्ति-विरोधी नीतियों की आलोचना करने वाले तमाम बोल्शेविक शीर्ष नेताओं
को ‘जर्मन जासूस’ बताकर १९३८ तक उनका सफाया कर
दिया गया और फासिस्टों तथा साम्राज्यवादियों से मित्रता का रास्ता साफ़ कर लिया
गया. मार्शल तुखाचेव्सकी और जनरल याकिर जैसे जांबाज़ अफसरों सहित लाल सेना का
तीन-चौथाई शीर्ष नेतृत्व ख़त्म कर दिया गया. लेनिन के सभी साथियों और लाल सेना के
तीस हज़ार से अधिक छोटे-बड़े कमांडरों को हिटलर के एजेंट बताकर साफ़ कर देने के तुरंत
बाद ही स्टालिन ने पूरी बेहयाई से हिटलर से सैनिक संधि कर ली. अब स्टालिन की इस
नीति का विरोध करने वाला कोई नहीं बचा था, बोल्शेविक पार्टी छलनी हो चुकी थी और लाल सेना
क्रांति की सुरक्षा में अक्षम.
३ मई १९३९ को स्टालिन ने, हिटलर को खुश करने के लिए, विदेशी मामलों के सोवियत कमिसार, मैक्सिम लित्विनोव, जो यहूदी था और फासिस्ट-विरोधी मोर्चे की वकालत
कर रहा था, को हटा दिया और उसकी जगह व्याचेस्लाव मोलोतोव
को नियुक्त कर दिया.
अगस्त १९३९ में हिटलर के साथ
सैनिक संधि करके, स्टालिन ने जर्मन, पोलिश, फ्रेंच, इंग्लिश और तमाम देशों के सर्वहारा के साथ
अभूतपूर्व घात किया. यहां तक कि जर्मन कम्युनिस्ट नेता, एर्न्स्ट थालमन और दूसरे शीर्ष कम्युनिस्ट
नेताओं को जेलों से छोड़ने के लिए भी स्टालिन ने, सैनिक संधि में कोई शर्त नहीं
रखी. उलटे जर्मनी में भूमिगत कम्युनिस्ट नेताओं, कार्यकर्ताओं और यहूदियों की
लिस्टें हिटलर के हवाले कर दीं. बाद में हिटलर ने न सिर्फ एर्न्स्ट थालमन बल्कि
दूसरे हजारों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया.
हिटलर
और स्टालिन के बीच, अगस्त १९३९ की इस सैनिक संधि ने, हिटलर को यूरोप में घुसने का रास्ता और अत्यंत
अनुकूल राजनीतिक स्थितियां प्रदान कीं. एक ओर फ्रांस और इंग्लैंड जैसी
साम्राज्यवादी शक्तियों तथा दूसरी ओर सोवियत संघ, के खिलाफ दो सामानांतर
मोर्चों पर लड़ सकने में असमर्थ हिटलर, सोवियत संघ के साथ संधि के
लिए अत्यंत उत्सुक था. स्टालिन ने हिटलर को यूरोप में घुसने का रास्ता दिया.
स्टालिन की मदद से हिटलर ने डेनमार्क, नॉर्वे, नीदरलैंड्स, बेल्जियम और फ्रांस पर भी
कब्ज़ा कर लिया. कब्जाए गए इलाकों में नाज़ी और सोवियत फौजों ने अकथनीय जुल्म किये.
१९३९ में पोलैंड में और मई १९४० में,
फ्रांस
में, नाज़ी फौजों के दाखिल होने पर, स्टालिन ने हिटलर को बधाई
सन्देश दिए और नई आर्थिक-राजनीतिक संधियों के मसौदे पेश किये,
जिनमें
यूरोप के अलावा एशिया और अफ्रीका में भी सैनिक अभियान चलाते,
समूची
दुनिया को चार धुरी-शक्तियों, जर्मनी, इटली,
जापान
और सोवियत संघ के बीच बांट लेने की योजना शामिल थी.
स्टालिन-हिटलर युद्ध संधि का सबसे महत्पूर्ण पक्ष था- स्टालिन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा के हितों की पूरी तरह अनदेखी और उसकी क्रान्तिकारी क्षमताओं में घोर अविश्वास. स्टालिन के लिए पूंजीवादी देशों की शासक सत्ताएं ही सब कुछ थीं, सर्वहारा कुछ भी नहीं. वास्तव में हिटलर की ही तरह, स्टालिन भी ‘सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ का घोर विरोधी और ‘राष्ट्रवाद’ का समर्थक था, जिसे छिपाने के लिए उसने ‘समाजवाद’ की ओट ले ली थी. हिटलर का यहूदी-विरोध और स्टालिन का ट्रोट्स्की-विरोध, वास्तव में समानार्थक और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के विरोध के ही दो भिन्न-रूप थे.
हिटलर और स्टालिन के ये सांझे हित कैसे
सोवियत-संघ के भीतर और बाहर क्रान्ति के विरुद्ध एकजुट थे, इसका अनुमान हिटलर
और फ्रेंच राजदूत कोलोंद्रे के बीच वार्तालाप से लगाया जा सकता है. अगस्त ३१, १९३९ को, ठीक द्वितीय
विश्व-युद्ध की पूर्व-संध्या पर, फ्रेंच अखबार ‘पेरिस सोइर’ ने हिटलर और फ्रेंच
राजदूत कोलोंद्रे के बीच अंतिम वार्तालाप का हवाला देते हुए लिखा कि कोलोंद्रे
द्वारा हिटलर की शर्तों को मानने से इंकार करने पर हिटलर ने कोलोंद्रे की दलीलों
को ख़ारिज करते हुए और युद्ध को अनिवार्य बताते हुए, डींग हांकी कि
स्टालिन के साथ युद्ध-संधि के बाद अब यूरोप के विरुद्ध उसके हाथ पूरी तरह खुल गए
हैं. इस पर कोलोंद्रे ने कहा कि क्या उसने (हिटलर ने) यह सोचा है कि इस
जर्मन-सोवियत युद्ध-संधि के सामने आने पर सबसे बड़ा फायदा ट्रोट्स्की को हो सकता है
और वह सत्ता में आ सकता है. इस पर हिटलर सोच में पड़ गया और फिर उसने कोलोंद्रे को
कहा कि यदि ट्रोट्स्की को सत्ता में आने से रोकना है तो फ्रांस को जर्मनी की
शर्तें मान लेनी चाहियें. 'पेरिस सोइर' में इस वार्तालाप पर
टिप्पणी करते हुए ट्रोट्स्की ने कहा कि 'वे मेरा सिर्फ नाम ले रहे हैं, वास्तव में वे मुझसे नहीं, क्रांति से डरते हैं'.
हिटलर
के साथ स्टालिन की यह सांठ-गांठ एक दशक से चली आ रही सोवियत नीति का सीधा परिणाम
थी. २२ जून १९४१ को जब हिटलर ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया, तो सोवियत संघ स्टालिन की इस नीति के चलते, यूरोप भर में अलग-थलग पड़ चुका था. हिटलर के साथ
मित्रता में स्टालिन की अंधश्रद्धा की कोई सीमा नहीं थी. २२ जून के नाज़ी हमले से
ठीक पहले ही स्टालिन ने फौजी रसद की भारी खेप जर्मनी के लिए रवाना की थी और
सोवियत-जर्मन सीमा को सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र समझते हुए वहां हवाई-जहाज़ बनाने
का सबसे बड़ा कारखाना लगाया था, जिसे नाज़ी फौजों ने नष्ट कर
दिया.
फासिस्ट
हमले से बचने के लिए सर्वस्व समर्पण करके भी कायर स्टालिन, जर्मन हमले को नहीं रोक पाया. स्टालिन की बोगस
नीतियों से अत्यंत शक्तिशाली हो चुके हिटलर ने अंततः सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया, जिसका मुकाबला करते तीन करोड़ सोवियत मेहनतकश
हताहत हुए. स्टालिन की तमाम आशाओं के विपरीत, जर्मन आक्रमण आकस्मिक था और
सोवियत संघ इससे निपटने के लिए कतई तैयार नहीं था.
हिटलर
के आक्रमण के साथ ही, स्टालिन फिर से उदार बूर्ज्वाजी की शरण में चला
गया और उसे आश्वस्त करने के लिए सर्वहारा की क्रान्तिकारी पार्टी कोमिन्टर्न को ही
भंग कर दिया. अब फिर से स्टालिन ने कम्युनिस्ट पार्टियों को उदार बूर्ज्वाजी के
सामने नतमस्तक होने और समर्पण करने के लिए बाध्य किया. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी
को सीधे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के साथ चिपकने के लिए बाध्य किया गया.
सोवियत
सर्वहारा और मेहनतकश जनता को बूर्ज्वाजी में स्टालिन के मज़बूत भ्रमों, क्रान्ति से उसके भीतरघात और उसकी बोगस नीतियों
की कीमत अपने खून से चुकानी पड़ी.
स्टालिन
कभी उदार बूर्ज्वाजी के साथ तो कभी फासिस्टों के साथ, पूंजीपति वर्ग के किसी न किसी धड़े के साथ चिपका
ही रहा. स्टालिन के नेतृत्व में कोमिन्टर्न ने सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद से
पूरी तरह सम्बन्ध तोड़ लिया था और वह क्रेमलिन में स्टालिन की ब्यूरोक्रेटिक सत्ता
के संकीर्ण राष्ट्रीय हितों की पूर्ति का मंच बनकर रह गया था.
द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान, स्टालिन की इस नीति के दुनिया भर में भयंकर परिणाम सामने आए. सोवियत रूस के कभी इस तो कभी उस साम्राज्यवादी धड़े से चिपके रहने के कारण, तमाम देशों में युद्ध-विरोधी आन्दोलन ठप्प हो गया. साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध करने के बजाय, कम्युनिस्ट पार्टियां युद्ध के पक्ष में भर्ती आन्दोलन चला रही थीं. स्टालिन के नेतृत्व वाले तीसरे इंटरनेशनल ने पूरी दुनिया में सर्वहारा और कम्युनिस्ट पार्टियों को साम्राज्यवाद की युद्ध नीति के पीछे बांधकर उसका गुलाम बना दिया. साम्राज्यवादी युद्ध के विरोध में, अन्तर्राष्ट्रीय सर्वहारा को एकजुट करने के बजाय, स्तालिनवादियों ने उसे, हर बार दो विरोधी शिविरों में बांट दिया. यदि अगस्त १९३९ के बाद जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी को युद्ध विरोधी आन्दोलन से रोक दिया गया था, तो १९४१ के बाद फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका और भारत सहित दर्जनों कम्युनिस्ट पार्टियों को. इस अंतर्विरोधी डगमग कुनीति के चलते अंततः कोमिन्टर्न का पूरी तरह ह्रास हो गया. स्टालिन ने उसे १९४३ में भंग कर दिया.
द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान, स्टालिन की इस नीति के दुनिया भर में भयंकर परिणाम सामने आए. सोवियत रूस के कभी इस तो कभी उस साम्राज्यवादी धड़े से चिपके रहने के कारण, तमाम देशों में युद्ध-विरोधी आन्दोलन ठप्प हो गया. साम्राज्यवादी युद्ध का विरोध करने के बजाय, कम्युनिस्ट पार्टियां युद्ध के पक्ष में भर्ती आन्दोलन चला रही थीं. स्टालिन के नेतृत्व वाले तीसरे इंटरनेशनल ने पूरी दुनिया में सर्वहारा और कम्युनिस्ट पार्टियों को साम्राज्यवाद की युद्ध नीति के पीछे बांधकर उसका गुलाम बना दिया. साम्राज्यवादी युद्ध के विरोध में, अन्तर्राष्ट्रीय सर्वहारा को एकजुट करने के बजाय, स्तालिनवादियों ने उसे, हर बार दो विरोधी शिविरों में बांट दिया. यदि अगस्त १९३९ के बाद जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी को युद्ध विरोधी आन्दोलन से रोक दिया गया था, तो १९४१ के बाद फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका और भारत सहित दर्जनों कम्युनिस्ट पार्टियों को. इस अंतर्विरोधी डगमग कुनीति के चलते अंततः कोमिन्टर्न का पूरी तरह ह्रास हो गया. स्टालिन ने उसे १९४३ में भंग कर दिया.
अक्टूबर
क्रांति के नेता लीओन ट्रोट्स्की ने साम्राज्यवादी घटकों के साथ समझौते करने और
सर्वहारा को उनका गुलाम बनाने की स्टालिन की इस पूरी नीति की कड़ी आलोचना की थी और
यही दोनों के बीच विवाद का मुख्य बिंदु था. हिटलर के उभार और स्टालिनवादी
कोमिन्टर्न के उसके साथ सहबंध के बाद ही ट्रोट्स्की ने कोमिन्टर्न से किनारा करते
हुए, क्रान्तिकारी सर्वहारा की नई पार्टी- चौथे
इंटरनेशनल- की स्थापना की थी, जिसने क्रान्तिकारी
मार्क्सवाद की रक्षा में जोरदार संघर्ष चलाया.
पूरी दुनिया में सर्वहारा के हितों को
बूर्ज्वाजी के पास गिरवी रखते हुए ही स्टालिन, क्रेमलिन में अपनी सत्ता को
बचा पाया. इसके बावजूद, स्टालिन और उसके
उत्तराधिकारियों की नीतियों के चलते, अंततः सोवियत रूस का १९९१
में पूर्ण पतन हो गया.
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