भगवा फासिस्ट सरकार को खदेड़ बाहर करो!
फासीवाद-पूंजीवाद को परास्त कर, मजदूर-मेहनतकश सरकार के गठन के लिए संघर्ष करो!
२००८ में शुरू हुआ, विश्व-पूंजीवाद का आर्थिक संकट, ख़त्म होने के बजाय और गहरा हो रहा है. इस संकट के बीच दुनिया की मेहनतकश जनता का तेज़ी से क्रान्तिकरण हो रहा है और उसके नित नए हिस्से पूंजीवाद-साम्राज्यवाद-फासीवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष में खिंच रहे हैं जो निरंतर सघन होता जा रहा है.
नया दशक, आर्थिक-राजनीतिक संकट की मझधार में घिरे, टूटते-बिखरते विश्व-पूंजीवाद के अंत और नए क्रांतिकारी विस्फोटों के दशक के रूप में खुल रहा है.
पूंजीवाद का डूबता जहाज़, दुनिया भर में मेहनतकश जनता को उद्वेलित कर रहा है और वह पूंजीवाद के इस संकट का क्रांतिकारी समाधान प्रस्तुत करने के लिए मैदान में उतर रही है.
इस संकट के चलते, वैश्वीकरण के सपनों को भूल, बड़े-छोटे पूंजीवादी राष्ट्र अपनी किलेबंदी कर रहे हैं, अपनी सीमाओं को आप्रवास के लिए बंद कर रहे हैं, आप्रवासियों को बाहर धकेल रहे हैं, एंटी-डंपिंग और एंटी-आउटसोर्सिंग जैसे औजारों के सहारे पूंजी और श्रम के स्वतंत्र आवगमन को बाधित करते हुए बैरिकेडिंग कर रहे हैं और अकूत मुनाफों को हथियाने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ गलाकाट संघर्ष में जुट गए हैं. नाभिकीय शस्त्रास्त्रों से लैस, पूंजीवादी राष्ट्रों के बीच, इस टकराव के चलते, दुनिया पर विश्वयुद्ध और भयंकर विनाश का खतरा मंडरा रहा है.
२०२० की शुरुआत में ही, अमेरिकी राष्ट्रपति के आदेश पर, ईरान के शीर्ष सैनिक कमांडर जनरल सुलेमानी की हत्या ने, एक सदी से गल-सड़ रहे विश्व-पूंजीवाद को जड़ों तक हिलाते हुए, तीसरे विश्व-युद्ध के कगार पर पहुंचा दिया है.
एशियाई महाशक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा का पीछा करते भारतीय पूंजीपतियों ने, अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी शिविर की पूंछ थाम ली है और भारत को उसके रणनीतिक-सामरिक लक्ष्यों के मातहत करते हुए वे एशिया में अमेरिकी हितों के भोंपू बन गए हैं.
इन नीतियों का परिणाम, मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता की बदहाली, अनियंत्रित महंगाई, कृषि के घोर संकट और हज़ारों गरीब किसानों की आत्महत्याओं के रूप में सामने आया है, जिसके विरुद्ध देश भर में आक्रोश का ज्वालामुखी धधक रहा है. इससे निपटने के लिए पुलिस हिंसा और फासिस्ट हमलों का सहारा लिया जा रहा है जिसका ताज़ा उदाहरण हम जामिया, ए.एम.यू और जे.एन.यू परिसरों में देख रहे हैं. विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध घृणा-प्रचार को मेहनतकश जनता के बीच सांप्रदायिक विभाजन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.
चीन और अन्य एशियाई राष्ट्रों के विरुद्ध, पूंजी-निवेश और मुनाफों के लिए होड़ लगाते, भारत के पूंजीवादी शासकों का दिवास्वपन- ‘मेक इन इंडिया’ भी काफूर हो चला है. चौपट होती अर्थव्यवस्था से उपजते जन-आक्रोश और राजनीतिक अराजकता को नियंत्रित करने के लिए, बदहवास इलीट शासक, फासीवाद और दमन का सहारा ले रहे हैं.
बड़े पूंजीपतियों ने, पहले ही भगवा फासिस्ट सरकारों को केंद्र और राज्यों में तैनात कर दिया है. ये सरकारें, दमन के साथ-साथ मेहनतकश जनता को संकीर्ण सांप्रदायिक, जातीय, नस्ली और राष्ट्रीय आधार पर विभाजित कर, इस दमन के विरुद्ध प्रतिरोध को नाकाम बनाने के लिए मेहनतकश जनता को विभाजित करने का भरसक प्रयास कर रही हैं. बुर्जुआ डेमोक्रेसी के सभी हिस्से- सेना, पुलिस, अदालतें- इसमें सहभागी हैं. ‘हिन्दू राष्ट्र’ की परिकल्पना, जिसे मोदी सरकार अंजाम देने में जुटी है, वास्तव में बड़े पूंजीपतियों के लौह नियंत्रण वाली फासिस्ट तानाशाही के अतिरिक्त कुछ नहीं है.
श्रम कानूनों में ‘सुधार’ के नाम पर, उनमें सघन फेरबदल करके, उन्हें पूरी तरह पूंजीपति वर्ग के पक्ष में ढालकर, विगत के श्रमिक संघर्षों की तमाम उपलब्धियों पर पानी फेरने में जुटी, पूंजी की ये गुलाम सरकारें, श्रम की लूट को और गहन करने और मुनाफों के विस्तार के लिए, कुछ भी करने को तैयार हैं.
ये श्रम-विरोधी नीतियां, दशकों से जारी हैं और विगत शताब्दी में ९० के दशक के प्रारंभ में उदारीकरण की शुरुआत के बाद से निरंतर आक्रामक रूप में सामने आ रही हैं. मोदी के नेतृत्व वाली कॉर्पोरेट भाजपा सरकार ने कांग्रेस द्वारा शुरू की गई निवेशक-परस्त, नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को ही अभूतपूर्व तेज़ी से आगे बढ़ाया है.
लम्बे समय, जब केंद्र और अधिकतर राज्यों में सत्ता, कांग्रेस या उसके नेतृत्व वाले संयुक्त मोर्चे- यू.पी.ए. के हाथ में थी, तब भी ठीक यही पूंजी-परस्त नीतियां लागू की जा रही थीं. कांग्रेस के साथ चिपका, स्तालिनवादी वाम-मोर्चा और इसकी घटक कम्युनिस्ट पार्टियां न सिर्फ इन श्रम-विरोधी नीतियों का सक्रिय समर्थन करती रहीं, बल्कि अपने नेतृत्व वाले राज्यों- पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा- में उन्होंने ठीक इन्हीं नीतियों को लागू किया. लाल झंडे की आड़ में छिपे इन अवसरवादियों ने अपने शासन वाले राज्यों में तो श्रमिक आंदोलनों का निर्मम दमन किया ही, साथ ही दमन और शोषण में बुर्जुआ दक्षिणपंथी सरकारों को भी भरपूर सहयोग दिया. सिंगूर और नंदीग्राम में वहशी दमन के साथ ही हीरो होंडा, रीको, और फॉक्सकॉन से लेकर मारुति तक, सर्वहारा संघर्षों को असफल बनाने में इन रंगे सियारों की भूमिका अहम् रही है.
शासक पूंजीपतियों की श्रम-विरोधी नीतियों के विरुद्ध, मेहनतकश जनता के बीच फैलते रोष ने, दोगली राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड-यूनियनों तक को, जो हाथ पर हाथ धरे पूंजीवादी लूट, शोषण और दमन का तमाशा देखती रही हैं, बाध्य किया है कि वे ‘विरोध’ के समर्थन का नाटक करें. दमन और शोषण के खिलाफ उबलते लावे को ‘नियंत्रित विरोध’ में सुरक्षित बाहर निकालने के लिए, झूठे नेता एक दिन की हड़ताल के लिए तैयार हुए हैं. ये नेता और इनकी पार्टियां, पूंजी की सत्ता को चुनौती देने के बजाय, उससे मजबूती से चिपके रहे हैं और मजदूर वर्ग को धोखा देते रहे हैं. इन अवसरवादी नेताओं, पार्टियों और यूनियनों की कोशिश है कि सर्वहारा के इस विरोध को, इस हड़ताल को, जनता के गुस्से को द्रवित करने के लिए ‘नियंत्रित सुरक्षा वाल्व’ के तौर पर प्रयोग करते हुए, सांकेतिक रस्म-अदायगी तक सीमित रखा जाय और उसे वास्तविक और निर्णायक विरोध तक उठने से रोका जाय. यानि कि ‘आओ, गुस्सा निकालो, और घर वापस जाओ’. इस सम्भावना से आश्वस्त और निश्चिन्त, स्तालिनवादी वाम मोर्चे के ही नहीं, बल्कि अनेक बुर्जुआ दक्षिणपंथी पार्टियों से जुड़े श्रमिक संगठन भी, इस हड़ताल में हिस्सा ले रहे हैं.
पूंजीपति वर्ग और उसके शासन के साथ दायें और बाएं से चिपकी ये पार्टियां, ट्रेड-यूनियनें और इनके नेता कभी भी क्रान्ति की ओर, न तो रुख करेंगे, न करने देंगे. सर्वहारा को इन भीतरघातियों, गद्दारों से पीछा छुड़ाना होगा और पूंजीपति वर्ग और उसकी सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्र, राजनीतिक संघर्ष के लिए मेहनतकश जनता के तमाम हिस्सों को एकजुट करना होगा.
इस आम हड़ताल का बिना शर्त समर्थन करते हुए, हम कहना चाहते हैं कि यह हड़ताल, श्रमिक वर्ग के रोष का सीमित प्रदर्शन होगी. इन सांकेतिक विरोधों से सर्वहारा के ऐतिहासिक मिशन- पूंजीवाद के विनाश और समाजवाद की स्थापना- की पूर्ति नहीं हो सकती. सांकेतिक विरोध से आगे बढ़ना होगा. सांकेतिक हड़ताल को अनिश्चितकालीन हड़ताल और ऐसे प्रतिरोध में बदलना होगा जिसमें समूचा सर्वहारा और उसके पीछे मेहनतकश जनता के दूसरे हिस्से उठ खड़े हों और सत्ता-दखल के उद्देश्य से पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध सक्रिय संघर्ष छेड़ दें.
तमाम संकीर्ण विभेदों को नकारते हुए, पूंजीवादी राष्ट्रों और राष्ट्रीय सीमाओं को मेट देने, नागरिकता कानूनों के खात्मे और दुनिया को समाजवादी संघ में संगठित करने के लिए एकजुट हों!
इस मिशन में हमारा फौरी लक्ष्य है- १९४७ के भारतीय उपमहाद्वीप के दुर्भाग्यपूर्ण सांप्रदायिक विभाजन को अस्वीकार करते हुए, नीचे से क्रांति के जरिए उसका पुनः एकीकरण और समूचे दक्षिण एशिया में समाजवादी संघ का संगठन!
इस उद्देश्य से, हड़ताल के इस मंच का उपयोग, कॉर्पोरेट और निवेशक-परस्त, फासिस्ट सरकार को सीधी चुनौती देने, मजदूर-मेहनतकश सरकार के गठन के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने और इस संघर्ष के हिस्से के रूप में संकीर्ण जातीय, नस्ली, सांप्रदायिक या राष्ट्रीय आधार पर फूट डालने की शातिर पूंजीवादी साजिश को विफल बनाने के लिए करें. बर्बर फासिस्ट हिंसा से निपटने के लिए स्थानीय मिलिशियाओं में संगठित हों और इन मिलिशियाओं को जोड़ते हुए फासीवाद के खिलाफ सर्वहारा का संयुक्त मोर्चा तैयार करने में जुटें.
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संपर्क: ९८१००८१३८३;
फासीवाद-पूंजीवाद को परास्त कर, मजदूर-मेहनतकश सरकार के गठन के लिए संघर्ष करो!
२००८ में शुरू हुआ, विश्व-पूंजीवाद का आर्थिक संकट, ख़त्म होने के बजाय और गहरा हो रहा है. इस संकट के बीच दुनिया की मेहनतकश जनता का तेज़ी से क्रान्तिकरण हो रहा है और उसके नित नए हिस्से पूंजीवाद-साम्राज्यवाद-फासीवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष में खिंच रहे हैं जो निरंतर सघन होता जा रहा है.
नया दशक, आर्थिक-राजनीतिक संकट की मझधार में घिरे, टूटते-बिखरते विश्व-पूंजीवाद के अंत और नए क्रांतिकारी विस्फोटों के दशक के रूप में खुल रहा है.
पूंजीवाद का डूबता जहाज़, दुनिया भर में मेहनतकश जनता को उद्वेलित कर रहा है और वह पूंजीवाद के इस संकट का क्रांतिकारी समाधान प्रस्तुत करने के लिए मैदान में उतर रही है.
इस संकट के चलते, वैश्वीकरण के सपनों को भूल, बड़े-छोटे पूंजीवादी राष्ट्र अपनी किलेबंदी कर रहे हैं, अपनी सीमाओं को आप्रवास के लिए बंद कर रहे हैं, आप्रवासियों को बाहर धकेल रहे हैं, एंटी-डंपिंग और एंटी-आउटसोर्सिंग जैसे औजारों के सहारे पूंजी और श्रम के स्वतंत्र आवगमन को बाधित करते हुए बैरिकेडिंग कर रहे हैं और अकूत मुनाफों को हथियाने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ गलाकाट संघर्ष में जुट गए हैं. नाभिकीय शस्त्रास्त्रों से लैस, पूंजीवादी राष्ट्रों के बीच, इस टकराव के चलते, दुनिया पर विश्वयुद्ध और भयंकर विनाश का खतरा मंडरा रहा है.
२०२० की शुरुआत में ही, अमेरिकी राष्ट्रपति के आदेश पर, ईरान के शीर्ष सैनिक कमांडर जनरल सुलेमानी की हत्या ने, एक सदी से गल-सड़ रहे विश्व-पूंजीवाद को जड़ों तक हिलाते हुए, तीसरे विश्व-युद्ध के कगार पर पहुंचा दिया है.
एशियाई महाशक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा का पीछा करते भारतीय पूंजीपतियों ने, अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी शिविर की पूंछ थाम ली है और भारत को उसके रणनीतिक-सामरिक लक्ष्यों के मातहत करते हुए वे एशिया में अमेरिकी हितों के भोंपू बन गए हैं.
इन नीतियों का परिणाम, मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता की बदहाली, अनियंत्रित महंगाई, कृषि के घोर संकट और हज़ारों गरीब किसानों की आत्महत्याओं के रूप में सामने आया है, जिसके विरुद्ध देश भर में आक्रोश का ज्वालामुखी धधक रहा है. इससे निपटने के लिए पुलिस हिंसा और फासिस्ट हमलों का सहारा लिया जा रहा है जिसका ताज़ा उदाहरण हम जामिया, ए.एम.यू और जे.एन.यू परिसरों में देख रहे हैं. विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध घृणा-प्रचार को मेहनतकश जनता के बीच सांप्रदायिक विभाजन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.
चीन और अन्य एशियाई राष्ट्रों के विरुद्ध, पूंजी-निवेश और मुनाफों के लिए होड़ लगाते, भारत के पूंजीवादी शासकों का दिवास्वपन- ‘मेक इन इंडिया’ भी काफूर हो चला है. चौपट होती अर्थव्यवस्था से उपजते जन-आक्रोश और राजनीतिक अराजकता को नियंत्रित करने के लिए, बदहवास इलीट शासक, फासीवाद और दमन का सहारा ले रहे हैं.
बड़े पूंजीपतियों ने, पहले ही भगवा फासिस्ट सरकारों को केंद्र और राज्यों में तैनात कर दिया है. ये सरकारें, दमन के साथ-साथ मेहनतकश जनता को संकीर्ण सांप्रदायिक, जातीय, नस्ली और राष्ट्रीय आधार पर विभाजित कर, इस दमन के विरुद्ध प्रतिरोध को नाकाम बनाने के लिए मेहनतकश जनता को विभाजित करने का भरसक प्रयास कर रही हैं. बुर्जुआ डेमोक्रेसी के सभी हिस्से- सेना, पुलिस, अदालतें- इसमें सहभागी हैं. ‘हिन्दू राष्ट्र’ की परिकल्पना, जिसे मोदी सरकार अंजाम देने में जुटी है, वास्तव में बड़े पूंजीपतियों के लौह नियंत्रण वाली फासिस्ट तानाशाही के अतिरिक्त कुछ नहीं है.
श्रम कानूनों में ‘सुधार’ के नाम पर, उनमें सघन फेरबदल करके, उन्हें पूरी तरह पूंजीपति वर्ग के पक्ष में ढालकर, विगत के श्रमिक संघर्षों की तमाम उपलब्धियों पर पानी फेरने में जुटी, पूंजी की ये गुलाम सरकारें, श्रम की लूट को और गहन करने और मुनाफों के विस्तार के लिए, कुछ भी करने को तैयार हैं.
ये श्रम-विरोधी नीतियां, दशकों से जारी हैं और विगत शताब्दी में ९० के दशक के प्रारंभ में उदारीकरण की शुरुआत के बाद से निरंतर आक्रामक रूप में सामने आ रही हैं. मोदी के नेतृत्व वाली कॉर्पोरेट भाजपा सरकार ने कांग्रेस द्वारा शुरू की गई निवेशक-परस्त, नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को ही अभूतपूर्व तेज़ी से आगे बढ़ाया है.
लम्बे समय, जब केंद्र और अधिकतर राज्यों में सत्ता, कांग्रेस या उसके नेतृत्व वाले संयुक्त मोर्चे- यू.पी.ए. के हाथ में थी, तब भी ठीक यही पूंजी-परस्त नीतियां लागू की जा रही थीं. कांग्रेस के साथ चिपका, स्तालिनवादी वाम-मोर्चा और इसकी घटक कम्युनिस्ट पार्टियां न सिर्फ इन श्रम-विरोधी नीतियों का सक्रिय समर्थन करती रहीं, बल्कि अपने नेतृत्व वाले राज्यों- पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा- में उन्होंने ठीक इन्हीं नीतियों को लागू किया. लाल झंडे की आड़ में छिपे इन अवसरवादियों ने अपने शासन वाले राज्यों में तो श्रमिक आंदोलनों का निर्मम दमन किया ही, साथ ही दमन और शोषण में बुर्जुआ दक्षिणपंथी सरकारों को भी भरपूर सहयोग दिया. सिंगूर और नंदीग्राम में वहशी दमन के साथ ही हीरो होंडा, रीको, और फॉक्सकॉन से लेकर मारुति तक, सर्वहारा संघर्षों को असफल बनाने में इन रंगे सियारों की भूमिका अहम् रही है.
शासक पूंजीपतियों की श्रम-विरोधी नीतियों के विरुद्ध, मेहनतकश जनता के बीच फैलते रोष ने, दोगली राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड-यूनियनों तक को, जो हाथ पर हाथ धरे पूंजीवादी लूट, शोषण और दमन का तमाशा देखती रही हैं, बाध्य किया है कि वे ‘विरोध’ के समर्थन का नाटक करें. दमन और शोषण के खिलाफ उबलते लावे को ‘नियंत्रित विरोध’ में सुरक्षित बाहर निकालने के लिए, झूठे नेता एक दिन की हड़ताल के लिए तैयार हुए हैं. ये नेता और इनकी पार्टियां, पूंजी की सत्ता को चुनौती देने के बजाय, उससे मजबूती से चिपके रहे हैं और मजदूर वर्ग को धोखा देते रहे हैं. इन अवसरवादी नेताओं, पार्टियों और यूनियनों की कोशिश है कि सर्वहारा के इस विरोध को, इस हड़ताल को, जनता के गुस्से को द्रवित करने के लिए ‘नियंत्रित सुरक्षा वाल्व’ के तौर पर प्रयोग करते हुए, सांकेतिक रस्म-अदायगी तक सीमित रखा जाय और उसे वास्तविक और निर्णायक विरोध तक उठने से रोका जाय. यानि कि ‘आओ, गुस्सा निकालो, और घर वापस जाओ’. इस सम्भावना से आश्वस्त और निश्चिन्त, स्तालिनवादी वाम मोर्चे के ही नहीं, बल्कि अनेक बुर्जुआ दक्षिणपंथी पार्टियों से जुड़े श्रमिक संगठन भी, इस हड़ताल में हिस्सा ले रहे हैं.
पूंजीपति वर्ग और उसके शासन के साथ दायें और बाएं से चिपकी ये पार्टियां, ट्रेड-यूनियनें और इनके नेता कभी भी क्रान्ति की ओर, न तो रुख करेंगे, न करने देंगे. सर्वहारा को इन भीतरघातियों, गद्दारों से पीछा छुड़ाना होगा और पूंजीपति वर्ग और उसकी सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्र, राजनीतिक संघर्ष के लिए मेहनतकश जनता के तमाम हिस्सों को एकजुट करना होगा.
इस आम हड़ताल का बिना शर्त समर्थन करते हुए, हम कहना चाहते हैं कि यह हड़ताल, श्रमिक वर्ग के रोष का सीमित प्रदर्शन होगी. इन सांकेतिक विरोधों से सर्वहारा के ऐतिहासिक मिशन- पूंजीवाद के विनाश और समाजवाद की स्थापना- की पूर्ति नहीं हो सकती. सांकेतिक विरोध से आगे बढ़ना होगा. सांकेतिक हड़ताल को अनिश्चितकालीन हड़ताल और ऐसे प्रतिरोध में बदलना होगा जिसमें समूचा सर्वहारा और उसके पीछे मेहनतकश जनता के दूसरे हिस्से उठ खड़े हों और सत्ता-दखल के उद्देश्य से पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध सक्रिय संघर्ष छेड़ दें.
तमाम संकीर्ण विभेदों को नकारते हुए, पूंजीवादी राष्ट्रों और राष्ट्रीय सीमाओं को मेट देने, नागरिकता कानूनों के खात्मे और दुनिया को समाजवादी संघ में संगठित करने के लिए एकजुट हों!
इस मिशन में हमारा फौरी लक्ष्य है- १९४७ के भारतीय उपमहाद्वीप के दुर्भाग्यपूर्ण सांप्रदायिक विभाजन को अस्वीकार करते हुए, नीचे से क्रांति के जरिए उसका पुनः एकीकरण और समूचे दक्षिण एशिया में समाजवादी संघ का संगठन!
इस उद्देश्य से, हड़ताल के इस मंच का उपयोग, कॉर्पोरेट और निवेशक-परस्त, फासिस्ट सरकार को सीधी चुनौती देने, मजदूर-मेहनतकश सरकार के गठन के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने और इस संघर्ष के हिस्से के रूप में संकीर्ण जातीय, नस्ली, सांप्रदायिक या राष्ट्रीय आधार पर फूट डालने की शातिर पूंजीवादी साजिश को विफल बनाने के लिए करें. बर्बर फासिस्ट हिंसा से निपटने के लिए स्थानीय मिलिशियाओं में संगठित हों और इन मिलिशियाओं को जोड़ते हुए फासीवाद के खिलाफ सर्वहारा का संयुक्त मोर्चा तैयार करने में जुटें.
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