- रामेश्वर दत्ता, आशीष देवराड़ी, / ३.१०.२०१८
कल २ अक्टूबर को, गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश के रास्ते, दिल्ली में प्रदर्शन के लिए जुट रहे किसानों को, पूर्वी दिल्ली के पास गाजीपुर बॉर्डर पर रोकने के लिए पुलिस ने बल प्रयोग किया, जिसमें कई किसानों को चोटें आई हैं. ‘किसान क्रांति यात्रा’ के बैनर तले, दस दिन के किसान मार्च के अंतिम दिन यह प्रदर्शन, दिल्ली में किसान घाट पर आयोजित होना था. इस यात्रा में, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश सहित, देश के कई राज्यों से किसान शामिल थे.
भारत के इलीट शासक, २ अक्टूबर को, दशकों से 'अहिंसा दिवस' के रूप में प्रचारित करते रहे हैं, जो भारतीय बुर्जुआजी के सर्वमान्य नेता महात्मा गांधी का जन्मदिवस है. किसानों के विरुद्ध यह हिंसा, गांधी और उसके चेलों के झूठ और पाखंड का खुलासा करता है. उनकी अहिंसा सिर्फ मेहनतकश जनता को संघर्ष से रोकने और शोषण, दमन के खिलाफ उसे निशस्त्र और नपुंसक बनाने तक ही सीमित है.
सरकार की नीति, किसानों से बातचीत न कर, उनके आन्दोलन को बलपूर्वक असफल करने की थी, जिसके लिए पहले ही सुरक्षा बंदोबस्त किए गए थे. दिल्ली के सभी निकास मार्गों पर भारी बैरिकेडिंग के साथ, पुलिस के साथ अर्धसैनिक बलों को भी तैनात किया गया था. गाजीपुर बॉर्डर पर हज़ारों की तादाद में दिल्ली की तरफ कूच कर रहे किसानों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों ने बलप्रयोग किया, जिसमें लगभग १५ किसान और ७ पुलिसकर्मी घायल हुए हैं, जिन्हें नज़दीक के प्राइवेट हस्पताल में भर्ती कराया गया.
सुबह लगभग ११ बजे, ट्रैक्टरों को इस्तेमाल कर, गाजीपुर बॉर्डर पर उत्तर प्रदेश पुलिस की बैरिकेडिंग को तोड़ते हुए, किसानों ने जब बॉर्डर के दूसरी ओर दिल्ली पुलिस की बैरिकेडिंग को गिराकर आगे बढ़ने की कोशिश की तो पुलिस ने वाटर केनन चलाई और लाठीचार्ज किया. दो घंटे के निरंतर संघर्ष के बाद, पुलिस ने किसानों को गाज़ियाबाद में पीछे धकेला. अंधेरा होने पर हजारों किसान गाज़ियाबाद दिल्ली के बीच धरने पर बैठ गए.
कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी, सपा से अखिलेश, बसपा से मायावती सहित, कई विपक्षी नेताओं ने इस बलप्रयोग की निंदा की है. राहुल गांधी ने अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस पर दिल्ली के बॉर्डर पर किसानों को पीटने की आलोचना की तो सीपीएम के सीताराम येचुरी ने कहा कि “हम इस कृत्य और किसानों पर इस अत्याचार की कड़ी भर्त्सना करते हैं. इससे मोदी सरकार का किसान विरोधी रुख एक बार फिर स्पष्ट हुआ है”. कहने की जरूरत नहीं, कि इन नेताओं के शासन में भी, मेहनतकश जनता के आंदोलनों पर ठीक इसी तरह पुलिस दमन होता रहा है. आदिवासियों, किसानों, गरीबों के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीनहंट जैसे खूनी अभियान चलाने वाली कांग्रेस और सिंगूर, नंदीग्राम में किसान आंदोलनों पर बर्बर दमन करने वाली स्तालिनवादी वाम मोर्चा सरकार, इस दमन में चार कदम आगे रहे हैं.
किसान आन्दोलन की ग्यारह मांगों में, मुख्य मांगें हैं- स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएं, फ़सलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाय, दस साल पुराने ट्रैक्टरों पर एन.जी.टी के आदेश से लगी रोक हटाई जाय, फसलों का पूरा अधिग्रहण सुनिश्चित हो, पूरे देश में बिजली की दरों और क़र्ज़ माफ़ी में समानता हो, सरल बीमा योजना, किसानों और खेत मजदूरों के लिए समान पेंशन और खेती के औजारों पर जी.एस.टी का खात्मा हो.
सरकार से बातचीत और समझौता कर आन्दोलन को जल्द से जल्द ख़त्म करने को आतुर, भारतीय किसान यूनियन के नेताओं ने तुरंत ही गृह मंत्री राजनाथ सिंह और कृषि राज्यमंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत से मुलाकात कर घोषणा की कि ग्यारह में से सात मांगें सरकार ने मान ली हैं. भारतीय किसान यूनियन के महासचिव, युद्धवीर सिंह ने कहा कि “सरकार ने दो मांगें-ऊंचे समर्थन मूल्य और क़र्ज़ माफ़ी- को अभी नहीं माना है मगर आश्वासन दिया है कि शेष मांगों पर भी जल्द ही मीटिंग में निर्णय लिया जायगा. हम कुछ ही दिनों में गृह-मंत्री के घर पर मीटिंग करेंगे.”
आन्दोलन के नेता, टिकैत ने कहा कि “हमारा कोई इरादा दिल्ली के किसान घाट की ओर बढ़ने का नहीं था. हमें विश्वास है कि पूरा मामला बातचीत के जरिए, शांतिपूर्वक निपटा लिया जायगा.”
इसके साथ ही भारतीय किसान यूनियन के नेताओं ने, बिना आम सहमति के ही मोर्चा ख़त्म करने की घोषणा कर दी. इस समझौते से खिन्न किसान हजारों की संख्या में गाज़ियाबाद में धरना जारी रखे हुए हैं.
तमिलनाडु और केरल से आए किसान प्रतिनिधियों ने भी इस मीटिंग के निष्कर्षों के प्रति असंतोष जताते हुए कहा कि “ सब ज़बानी जमाखर्च हुआ है. सबसे महत्वपूर्ण मांगों को नहीं माना गया है. शेष पर तो सरकार पहले भी कई बार आश्वासन दे चुकी है.”
इससे पहले भी इसी वर्ष मार्च मध्य में मुंबई में किसान नेताओं ने विशाल किसान जुटान की इसी तरह हवा निकाली थी और संघर्ष के शुरू होने से पहले ही उसका गला घोट दिया था. यह स्पष्ट हुआ था कि किसान नेताओं और सरकार के बीच पूरा मैच फिक्स था. वही एक बार फिर दोहराया गया है. मोदी की कॉर्पोरेट परस्त सरकार के खिलाफ जुटे हज़ारों किसानों को खाली हाथ लौटा दिया गया है, जिससे उनके बीच निराशा फैली है.
किसान आन्दोलन के सभी नेता, संपन्न संस्तरों से हैं और वे सत्ता और विपक्ष के विभिन्न बुर्जुआ दलों से जुड़े हैं. इन दलों के साथ अपनी प्रतिबध्दताओं के चलते और उनसे निदेशित, वे किसान आन्दोलन को इस या उस बुर्जुआ पार्टी या मोर्चे के पीछे बांध देने के लिए उत्सुक हैं. जो किसी एक के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं और खुद को स्वतंत्र कहते हैं, वे दरअसल सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ सौदेबाज़ी के लिए स्वतंत्र रहते हैं.
नेताओं के निहित स्वार्थों से अलग भी किसान आन्दोलन का कुल उद्देश्य, पूंजीपतियों की सत्ता से सिर्फ कुछ रियायतें झटक लेना भर होता है. इन आंदोलनों के नेता, पूंजी की राजनीतिक व्यवस्था से मजबूती से चिपके रहते हैं और वे इन आंदोलनों का प्रयोग पूंजी की सत्ता के ध्वंस के लिए नहीं बल्कि उसे और मजबूत बनाने के लिए करते हैं. वे मेहनतकश जनता के आक्रोश को, इन आंदोलनों में सुरक्षित रूप से प्रवाहित करते रहते हैं.
पूंजीवाद की मार, गरीब किसान सबसे अधिक झेलते हैं. पूंजीवाद उनकी कमर तोड़ता है. मगर ये किसान कोई स्वतंत्र आन्दोलन खड़ा नहीं कर सकते. शांतिकाल में ये संपन्न किसानों के ही नेतृत्व में चलते हैं और उनके हितों को ही व्यक्त करते हैं. अपने नेताओं के जरिए ये बुर्जुआ पार्टियों की दुम बने रहते हैं. किसान आन्दोलन स्वतंत्रता के कितने भी दावे करें, मगर देर-सवेर वे किसी न किसी बुर्जुआ पार्टी के घोड़े बनते ही हैं. यह उनकी ऐतिहासिक नियति है.
सिर्फ युद्धकाल में ही, जब मजदूर वर्ग, पूंजी की सत्ता को चुनौती देता है, तब किसानों के गरीब हिस्से, अमीर किसानों और उनके नेताओं की तरफ पीठ कर, मजदूर संघर्ष के साथ अपने हितों को जुड़ा हुआ पाते हैं और खुद को सर्वहारा के संघर्ष के साथ जोड़ते हैं, उसकी अगुवाई में चलते हैं.
मौजूदा किसान आन्दोलन की मांगें भी, मुख्य रूप से किसानों के संपन्न हिस्सों की ही मांगें हैं. ऊंचे समर्थन मूल्य जैसी मांगें, सर्वहारा की ही पीठ तोड़ने वाली मांगें हैं. खेत-मजदूरों के लिए पेंशन जैसी मांगें, इन आंदोलनों के नेता, सिर्फ मजदूरों को मूर्ख बनाने और उन्हें आन्दोलन के पीछे बांधने के लिए रखते हैं. इन्हें लेकर ये कभी संजीदा नहीं होते.
मौजूदा नेतृत्व के चलते, इन किसान यूनियनों में, कोई क्रांतिकारी ऊर्जा लक्षित नहीं होती. इसके बावजूद किसान आन्दोलन, एक तरफ पूंजीवाद के तहत बर्बाद होते ग्रामीण जन-समुदायों के बीच बढ़ते रोष और दूसरी तरफ बुर्जुआ सत्ता प्रतिष्ठान के गहराते संकट को अवश्य प्रकट करते हैं. इन आंदोलनों का अर्थ होता है कि किसान समुदाय के बीच बैचैनी फ़ैल रही है, जिससे पूंजी की व्यवस्था का संतुलन बिगड़ रहा है.
किसानों के बीच व्याप्त बैचैनी और असंतोष, आम कृषि संकट का हिस्सा है जो निरंतर फैलता जा रहा है और बढ़ते कर्जों, छिपी, खुली बेरोज़गारी और आत्महत्याओं के रूप में सामने आ रहा है. कांग्रेस और मौजूदा बुर्जुआ विपक्ष की अन्य पार्टियों के शासन में भी यह संकट इसी तरह निरंतर बढ़ता गया है. इस संकट के चलते ही अति-दक्षिणपंथ की भाजपा जैसी पार्टी का सत्ता में आना संभव हुआ है.
मोदी सरकार ने किसानों को सपने तो खूब दिखाए मगर उनके जीवन-स्तर में किसी ठोस और वास्तविक बदलाव के लिए कोई पहल नहीं की. बढती महंगाई और जी.एस.टी, नोटबंदी जैसे जनविरोधी और कॉर्पोरेट समर्थक क़दमों से किसान समुदायों की, विशेष रूप से उनके निचले संस्तरों की कमर टूट रही है. इससे किसानों के बीच मौजूदा सरकार के प्रति रोष बढ़ रहा है.
कोई भी बुर्जुआ पार्टी, भारत में किसानों के समर्थन के बिना सरकार नहीं बना सकती. किसानों का राजनीतिक रुझान बुर्जुआ सरकारों के बनने-गिरने में महत्वपूर्ण कारक होता है. इस राजनीतिक संहति के बावजूद, किसान अपनी कोई स्वतंत्र या नेतृत्वकारी राजनीति नहीं विकसित कर सकता. वह बुर्जुआ नेताओं के बीच बिखरा रहता है और उनकी दुम बना रहता है.
किसान आन्दोलन, पूंजी की व्यवस्था को चुनौती नहीं देता. वह बुर्जुआ पार्टियों, नेताओं के बीच सत्ता की हेरफेर का ही औज़ार बना रहता है और बुर्जुआ नेताओं की संकीर्ण, दलगत राजनीति के लिए प्रयोग होता रहता है.
फिलहाल, भाजपा और मोदी-योगी सरकारों से जुड़े किसान नेता, इस आन्दोलन को जल्द से जल्द ख़त्म करने और उसका लाभ मौजूदा मोदी सरकार को दिलाने के लिए काम कर रहे हैं. विपक्षी कांग्रेस और रालोद जैसी पार्टियों से जुड़े, नेता, राजस्थान और मध्यप्रदेश में आसन्न चुनावों के अतिरिक्त, २०१९ में आगामी आम चुनाव के लिए इस आन्दोलन को मोदी सरकार के विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहते हैं. आन्दोलन के सभी नेता, इसे किसी न किसी पूंजीवादी पार्टी या नेता के पीछे बांधने के लिए उद्द्यत हैं.
मजदूरों को इन किसान यूनियनों से अलग और उनसे स्वतंत्र संगठित होना चाहिए और देहातों में इन्हें क्रान्तिकारी आन्दोलन का मुख्य आधार बनना चाहिए. अन्य मांगों के साथ, मजदूरी की ऊंची दरों के लिए उन्हें संघर्ष करना चाहिए, जो मूलतः किसानों के ही विरुद्ध लक्षित होगा. मजदूरों को, गरीब और भूमिहीन किसानों के संघर्षों को समर्थन देना चाहिए और उन्हें अमीर किसानों से अलग संगठित होने के लिए प्रेरित करना चाहिए.
भारत के इलीट शासक, २ अक्टूबर को, दशकों से 'अहिंसा दिवस' के रूप में प्रचारित करते रहे हैं, जो भारतीय बुर्जुआजी के सर्वमान्य नेता महात्मा गांधी का जन्मदिवस है. किसानों के विरुद्ध यह हिंसा, गांधी और उसके चेलों के झूठ और पाखंड का खुलासा करता है. उनकी अहिंसा सिर्फ मेहनतकश जनता को संघर्ष से रोकने और शोषण, दमन के खिलाफ उसे निशस्त्र और नपुंसक बनाने तक ही सीमित है.
सरकार की नीति, किसानों से बातचीत न कर, उनके आन्दोलन को बलपूर्वक असफल करने की थी, जिसके लिए पहले ही सुरक्षा बंदोबस्त किए गए थे. दिल्ली के सभी निकास मार्गों पर भारी बैरिकेडिंग के साथ, पुलिस के साथ अर्धसैनिक बलों को भी तैनात किया गया था. गाजीपुर बॉर्डर पर हज़ारों की तादाद में दिल्ली की तरफ कूच कर रहे किसानों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों ने बलप्रयोग किया, जिसमें लगभग १५ किसान और ७ पुलिसकर्मी घायल हुए हैं, जिन्हें नज़दीक के प्राइवेट हस्पताल में भर्ती कराया गया.
सुबह लगभग ११ बजे, ट्रैक्टरों को इस्तेमाल कर, गाजीपुर बॉर्डर पर उत्तर प्रदेश पुलिस की बैरिकेडिंग को तोड़ते हुए, किसानों ने जब बॉर्डर के दूसरी ओर दिल्ली पुलिस की बैरिकेडिंग को गिराकर आगे बढ़ने की कोशिश की तो पुलिस ने वाटर केनन चलाई और लाठीचार्ज किया. दो घंटे के निरंतर संघर्ष के बाद, पुलिस ने किसानों को गाज़ियाबाद में पीछे धकेला. अंधेरा होने पर हजारों किसान गाज़ियाबाद दिल्ली के बीच धरने पर बैठ गए.
कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी, सपा से अखिलेश, बसपा से मायावती सहित, कई विपक्षी नेताओं ने इस बलप्रयोग की निंदा की है. राहुल गांधी ने अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस पर दिल्ली के बॉर्डर पर किसानों को पीटने की आलोचना की तो सीपीएम के सीताराम येचुरी ने कहा कि “हम इस कृत्य और किसानों पर इस अत्याचार की कड़ी भर्त्सना करते हैं. इससे मोदी सरकार का किसान विरोधी रुख एक बार फिर स्पष्ट हुआ है”. कहने की जरूरत नहीं, कि इन नेताओं के शासन में भी, मेहनतकश जनता के आंदोलनों पर ठीक इसी तरह पुलिस दमन होता रहा है. आदिवासियों, किसानों, गरीबों के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीनहंट जैसे खूनी अभियान चलाने वाली कांग्रेस और सिंगूर, नंदीग्राम में किसान आंदोलनों पर बर्बर दमन करने वाली स्तालिनवादी वाम मोर्चा सरकार, इस दमन में चार कदम आगे रहे हैं.
किसान आन्दोलन की ग्यारह मांगों में, मुख्य मांगें हैं- स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएं, फ़सलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाय, दस साल पुराने ट्रैक्टरों पर एन.जी.टी के आदेश से लगी रोक हटाई जाय, फसलों का पूरा अधिग्रहण सुनिश्चित हो, पूरे देश में बिजली की दरों और क़र्ज़ माफ़ी में समानता हो, सरल बीमा योजना, किसानों और खेत मजदूरों के लिए समान पेंशन और खेती के औजारों पर जी.एस.टी का खात्मा हो.
सरकार से बातचीत और समझौता कर आन्दोलन को जल्द से जल्द ख़त्म करने को आतुर, भारतीय किसान यूनियन के नेताओं ने तुरंत ही गृह मंत्री राजनाथ सिंह और कृषि राज्यमंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत से मुलाकात कर घोषणा की कि ग्यारह में से सात मांगें सरकार ने मान ली हैं. भारतीय किसान यूनियन के महासचिव, युद्धवीर सिंह ने कहा कि “सरकार ने दो मांगें-ऊंचे समर्थन मूल्य और क़र्ज़ माफ़ी- को अभी नहीं माना है मगर आश्वासन दिया है कि शेष मांगों पर भी जल्द ही मीटिंग में निर्णय लिया जायगा. हम कुछ ही दिनों में गृह-मंत्री के घर पर मीटिंग करेंगे.”
आन्दोलन के नेता, टिकैत ने कहा कि “हमारा कोई इरादा दिल्ली के किसान घाट की ओर बढ़ने का नहीं था. हमें विश्वास है कि पूरा मामला बातचीत के जरिए, शांतिपूर्वक निपटा लिया जायगा.”
इसके साथ ही भारतीय किसान यूनियन के नेताओं ने, बिना आम सहमति के ही मोर्चा ख़त्म करने की घोषणा कर दी. इस समझौते से खिन्न किसान हजारों की संख्या में गाज़ियाबाद में धरना जारी रखे हुए हैं.
तमिलनाडु और केरल से आए किसान प्रतिनिधियों ने भी इस मीटिंग के निष्कर्षों के प्रति असंतोष जताते हुए कहा कि “ सब ज़बानी जमाखर्च हुआ है. सबसे महत्वपूर्ण मांगों को नहीं माना गया है. शेष पर तो सरकार पहले भी कई बार आश्वासन दे चुकी है.”
इससे पहले भी इसी वर्ष मार्च मध्य में मुंबई में किसान नेताओं ने विशाल किसान जुटान की इसी तरह हवा निकाली थी और संघर्ष के शुरू होने से पहले ही उसका गला घोट दिया था. यह स्पष्ट हुआ था कि किसान नेताओं और सरकार के बीच पूरा मैच फिक्स था. वही एक बार फिर दोहराया गया है. मोदी की कॉर्पोरेट परस्त सरकार के खिलाफ जुटे हज़ारों किसानों को खाली हाथ लौटा दिया गया है, जिससे उनके बीच निराशा फैली है.
किसान आन्दोलन के सभी नेता, संपन्न संस्तरों से हैं और वे सत्ता और विपक्ष के विभिन्न बुर्जुआ दलों से जुड़े हैं. इन दलों के साथ अपनी प्रतिबध्दताओं के चलते और उनसे निदेशित, वे किसान आन्दोलन को इस या उस बुर्जुआ पार्टी या मोर्चे के पीछे बांध देने के लिए उत्सुक हैं. जो किसी एक के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं और खुद को स्वतंत्र कहते हैं, वे दरअसल सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ सौदेबाज़ी के लिए स्वतंत्र रहते हैं.
नेताओं के निहित स्वार्थों से अलग भी किसान आन्दोलन का कुल उद्देश्य, पूंजीपतियों की सत्ता से सिर्फ कुछ रियायतें झटक लेना भर होता है. इन आंदोलनों के नेता, पूंजी की राजनीतिक व्यवस्था से मजबूती से चिपके रहते हैं और वे इन आंदोलनों का प्रयोग पूंजी की सत्ता के ध्वंस के लिए नहीं बल्कि उसे और मजबूत बनाने के लिए करते हैं. वे मेहनतकश जनता के आक्रोश को, इन आंदोलनों में सुरक्षित रूप से प्रवाहित करते रहते हैं.
पूंजीवाद की मार, गरीब किसान सबसे अधिक झेलते हैं. पूंजीवाद उनकी कमर तोड़ता है. मगर ये किसान कोई स्वतंत्र आन्दोलन खड़ा नहीं कर सकते. शांतिकाल में ये संपन्न किसानों के ही नेतृत्व में चलते हैं और उनके हितों को ही व्यक्त करते हैं. अपने नेताओं के जरिए ये बुर्जुआ पार्टियों की दुम बने रहते हैं. किसान आन्दोलन स्वतंत्रता के कितने भी दावे करें, मगर देर-सवेर वे किसी न किसी बुर्जुआ पार्टी के घोड़े बनते ही हैं. यह उनकी ऐतिहासिक नियति है.
सिर्फ युद्धकाल में ही, जब मजदूर वर्ग, पूंजी की सत्ता को चुनौती देता है, तब किसानों के गरीब हिस्से, अमीर किसानों और उनके नेताओं की तरफ पीठ कर, मजदूर संघर्ष के साथ अपने हितों को जुड़ा हुआ पाते हैं और खुद को सर्वहारा के संघर्ष के साथ जोड़ते हैं, उसकी अगुवाई में चलते हैं.
मौजूदा किसान आन्दोलन की मांगें भी, मुख्य रूप से किसानों के संपन्न हिस्सों की ही मांगें हैं. ऊंचे समर्थन मूल्य जैसी मांगें, सर्वहारा की ही पीठ तोड़ने वाली मांगें हैं. खेत-मजदूरों के लिए पेंशन जैसी मांगें, इन आंदोलनों के नेता, सिर्फ मजदूरों को मूर्ख बनाने और उन्हें आन्दोलन के पीछे बांधने के लिए रखते हैं. इन्हें लेकर ये कभी संजीदा नहीं होते.
मौजूदा नेतृत्व के चलते, इन किसान यूनियनों में, कोई क्रांतिकारी ऊर्जा लक्षित नहीं होती. इसके बावजूद किसान आन्दोलन, एक तरफ पूंजीवाद के तहत बर्बाद होते ग्रामीण जन-समुदायों के बीच बढ़ते रोष और दूसरी तरफ बुर्जुआ सत्ता प्रतिष्ठान के गहराते संकट को अवश्य प्रकट करते हैं. इन आंदोलनों का अर्थ होता है कि किसान समुदाय के बीच बैचैनी फ़ैल रही है, जिससे पूंजी की व्यवस्था का संतुलन बिगड़ रहा है.
किसानों के बीच व्याप्त बैचैनी और असंतोष, आम कृषि संकट का हिस्सा है जो निरंतर फैलता जा रहा है और बढ़ते कर्जों, छिपी, खुली बेरोज़गारी और आत्महत्याओं के रूप में सामने आ रहा है. कांग्रेस और मौजूदा बुर्जुआ विपक्ष की अन्य पार्टियों के शासन में भी यह संकट इसी तरह निरंतर बढ़ता गया है. इस संकट के चलते ही अति-दक्षिणपंथ की भाजपा जैसी पार्टी का सत्ता में आना संभव हुआ है.
मोदी सरकार ने किसानों को सपने तो खूब दिखाए मगर उनके जीवन-स्तर में किसी ठोस और वास्तविक बदलाव के लिए कोई पहल नहीं की. बढती महंगाई और जी.एस.टी, नोटबंदी जैसे जनविरोधी और कॉर्पोरेट समर्थक क़दमों से किसान समुदायों की, विशेष रूप से उनके निचले संस्तरों की कमर टूट रही है. इससे किसानों के बीच मौजूदा सरकार के प्रति रोष बढ़ रहा है.
किसान आन्दोलन, पूंजी की व्यवस्था को चुनौती नहीं देता. वह बुर्जुआ पार्टियों, नेताओं के बीच सत्ता की हेरफेर का ही औज़ार बना रहता है और बुर्जुआ नेताओं की संकीर्ण, दलगत राजनीति के लिए प्रयोग होता रहता है.
फिलहाल, भाजपा और मोदी-योगी सरकारों से जुड़े किसान नेता, इस आन्दोलन को जल्द से जल्द ख़त्म करने और उसका लाभ मौजूदा मोदी सरकार को दिलाने के लिए काम कर रहे हैं. विपक्षी कांग्रेस और रालोद जैसी पार्टियों से जुड़े, नेता, राजस्थान और मध्यप्रदेश में आसन्न चुनावों के अतिरिक्त, २०१९ में आगामी आम चुनाव के लिए इस आन्दोलन को मोदी सरकार के विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहते हैं. आन्दोलन के सभी नेता, इसे किसी न किसी पूंजीवादी पार्टी या नेता के पीछे बांधने के लिए उद्द्यत हैं.
मजदूरों को इन किसान यूनियनों से अलग और उनसे स्वतंत्र संगठित होना चाहिए और देहातों में इन्हें क्रान्तिकारी आन्दोलन का मुख्य आधार बनना चाहिए. अन्य मांगों के साथ, मजदूरी की ऊंची दरों के लिए उन्हें संघर्ष करना चाहिए, जो मूलतः किसानों के ही विरुद्ध लक्षित होगा. मजदूरों को, गरीब और भूमिहीन किसानों के संघर्षों को समर्थन देना चाहिए और उन्हें अमीर किसानों से अलग संगठित होने के लिए प्रेरित करना चाहिए.
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