Saturday, 24 January 2015

‘दिशासंधान’ द्वारा ट्रोट्स्की और उसके कार्यक्रम को लेकर प्रसारित प्रगल्प का प्रतिवाद

-वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी/ 25.1.2015

रेवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग ऑफ़ इंडिया (आर.सी.एल.आई.) के मुखपत्र, ‘दिशासंधान’ (हिंदी) और प्रतिबद्ध (पंजाबी) में छपे लेख सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं: इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएंमें ट्रोट्स्की और सतत क्रांतिके सिद्धांत को इस तरह निशाना बनाने की कोशिश की गई है कि असावधान पाठक, लेखक के अपने भ्रमों और झूठ को अनायास ही आत्मसात कर ले. ट्रोट्स्की की आलोचना करते, लेख में एस.यू.सी.आई और बंगाल के ग्रुपों से हवाले दिए गए हैं, मगर भारत और पूरे दक्षिण एशिया में ट्रोट्स्की और उसके कार्यक्रम की प्रमुख पैरोकार, वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टीको जानबूझकर अनदेखा कर दिया गया है. इसका कारण यह है कि वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी ने इसी अभिनव द्वारा हस्ताक्षरित और ‘प्रेक्सिस कलेक्टिवनाम से सक्रिय आर.सी.एल.आई के ही दो लेखों की आलोचना करते हुए, छह लेखों की श्रृंखला के माध्यम से, ट्रोट्स्की और अक्टूबर क्रांति बारे इस पार्टी द्वारा फैलाये जा रहे झूठ और भ्रमों को नंगा कर दिया था, जिसका उत्तर इन्होने आज तक नहीं दिया. हमारे लेखों की इस श्रृंखला के बारे में जानकारी रखते हुए भी यह पार्टी उन्हें अपने कार्यकर्ताओं की नज़रों से ओझल रखना चाहती है. श्रृंखला का लिंक यह है:  http://workersocialist.blogspot.in/2013/04/against-schema-of-dictatorship.html

उपरोक्त लेख में आर.सी.एल ने एक बार फिर उन्ही बिन्दुओं को दोहराया है और सतत क्रांतिके कार्यक्रम की प्रतिरक्षा में रखी गयी हमारी लेख श्रृंखला को उद्धृत तक नहीं किया है.

अक्टूबर २०१२ में, अपने संगठन के समय से ही, वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी ने, स्टालिनवाद के विरुद्ध जो अभियान छेड़ा है, उससे आर.सी.एल.आई और उस जैसे स्तालिनवादी-माओवादी संगठनों के पैरों के नीचे से ज़मीन निकल गई है. इनके कार्यकर्त्ता, अपने नेताओं से स्पष्टीकरण की मांग कर रहे हैं. झूठ और मक्कारी का सहारा लेते ये नेता, कार्यकर्ताओं को भ्रमित कर रहे हैं, और इस क्रम में वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी के लेखों, स्पष्टीकरणों को, अपने युवा कार्यकर्ताओं से छिपाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं.

आर.सी.एल.आई का यह लेख, अक्टूबर क्रांति और सोवियत समाजवादी प्रयोग की बिलकुल थोथी और आधारहीन प्रगल्पों पर आधारित है, जिनकी राजनीतिक आलोचना और ऐतिहासिक स्पष्टीकरण, विस्तृत उत्तर की मांग करते हैं, जो एक लेख में संभव नहीं है. समूचे लेख का मुख्य निशाना ट्रोट्स्की और उसका सतत क्रांतिका सिद्धांत है, जिस पर वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी का कार्यक्रम आधारित है, इसलिए यहां सबसे पहले हम इस बात की जांच कर लेते हैं कि क्या, ट्रोट्स्की और सतत क्रांति के कार्यक्रम की आलोचना का दावा करने वाले आर.सी.एल.आई के नेताओं को सतत क्रान्तिका सिद्धांत तथ्यात्मक रूप से स्पष्ट है. यदि हां, तो आगे बहस चलायी जाय, यदि नहीं, तो फिर उनसे बहस व्यर्थ होगी.

इस पूरे लेख में ट्रोट्स्की और सतत क्रांतिके सिद्धांत पर हमले तो अनेक जगह किये गए हैं, मगर इसे उद्धृत सिर्फ एक ही जगह किया गया है. आइये इस उद्धरण पर दृष्टि डालें. लेख कहता हैः  

1905 में लेनिनत्रॉत्स्की और मेंशेविकों के बीच क्रान्ति की मंज़िल और उसके वर्ग संश्रय को लेकर एक बहस चली। त्रॉत्स्की का मानना था कि अगर जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में है तो वह सीधे सर्वहारा अधिनायकत्व को स्थापित करेगी और क्रान्ति के बाद तत्काल समाजवादी कार्यक्रम को लागू करेगीजबकि लेनिन का मानना था कि यदि क्रान्तिकारी आन्दोलन के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी है और क्रान्ति के बाद सरकार केवल कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में आती हैतो भी वह राज्य सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व नहीं बल्कि मज़दूरों और किसानों के जनवादी अधिनायकत्व को स्थापित करेगा और तत्काल समाजवादी कार्यक्रम को लागू करने की बजाय पहले वह बुर्जुआ क्रान्ति को सबसे आमूलगामी रूप में सम्पन्न करेगी और उसके बाद सर्वहारा वर्ग और ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा वर्ग के वर्ग मोर्चे के आधार पर विशिष्ट स्थितियों में बिना रुके समाजवादी कार्यक्रम की ओर आगे बढ़ेगी। त्रॉत्स्की ने जब लेनिन से पूछा कि जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में सर्वहारा वर्ग सत्ता हासिल करने के बाद क्या रैडिकल बुर्जुआ पार्टियों से सत्ता साझा करेगाअगर नहींतो वह राज्य जिस पर सर्वहारा वर्ग की पार्टी काबिज़ हो वह मज़दूरों और किसानों का संयुक्त अधिनायकत्व कैसे होगालेनिन ने इसका जवाब देते हुए कहा कि सरकार अकेले कम्युनिस्ट पार्टी बना सकती है या फिर वह अन्य बुर्जुआ जनवादी पार्टियों के साथ सरकार बना सकती हैलेकिन दोनों ही सूरत में यह सर्वहारा वर्ग और किसानों का संयुक्त अधिनायकत्व ही होगाक्योंकि क्रान्ति के जनवादी कार्यक्रम के सर्वाधिक रैडिकल तरीके से अमल से आगे जाने के लिए अभी व्यापक जनसमुदाय तैयार नहीं है और समाजवादी कार्यक्रम को ऊपर से थोपकर जनवादी क्रान्ति की मंज़िल को लाँघा नहीं जा सकता है। लेनिन ने बताया कि त्रॉत्स्की का यह भ्रम इस वजह से है क्योंकि वह राज्य के स्वरूप और सरकार के स्वरूप को एक ही वस्तु समझते हैं। भारत में त्रॉत्स्की की ही पद्धति को लागू करते हुए एस.यू.सी.आई. और उससे निकले कई ग्रुप मानते हैं कि भारत में 1947 से ही समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल है! आगे बढ़ने से पहले इस भ्रम के बारे में स्पष्टता रखना ज़रूरी है कि राज्य के चरित्र के साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि राज्य का चरित्र सिर्फ़ इस बात से निर्धारित नहीं हो जाता है कि सरकार किस पार्टी के हाथों में हैबल्कि इस बात से निर्धारित होता है कि वर्ग संघर्ष व क्रान्ति किस मंज़िल में हैं”.

यह उद्धरण, स्पष्ट करता है कि या तो आर.सी.एल.आई के नेताओं को ट्रोट्स्की और सतत क्रांतिका सिद्धांत, अक्टूबर क्रांति की यांत्रिकी, लेनिन और ट्रोट्स्की की प्रस्थापनाओं के बीच भेद और इस मूल बिंदु पर मेंशेविकों के खिलाफ उनका सांझा संघर्ष स्पष्ट नहीं है, या फिर वे जानबूझकर अपने कार्यकर्ताओं को दिग्भ्रमित कर रहे हैं. सच यह है कि स्टालिन-माओ के ये चेले ट्रोट्स्की और सतत क्रांति को बिना समझे ही, उसे दशकों से ख़ारिज करते रहे. अब वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी द्वारा सतत क्रांतिके सिद्धांत को विस्तार से सामने लाने के बाद, ये बदहवास नेता, अपनी अवस्थिति की सुरक्षा करने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं.

१९०५ में, रूस में असफल क्रान्तिकारी विद्रोह ने क्रांति की यांत्रिकी को खोलकर रख दिया. युवा ट्रोट्स्की ने इससे युगांतरकारी निष्कर्ष निकाले और उन्हें कुछ लेखों के अलावा अपनी पुस्तक परिणाम और संभावनाएंमें क्रमबद्ध किया जो बाद में विकसित सतत क्रांतिके सिद्धांत की आधारशिला बनी. क्या थे ये निष्कर्ष? यह निष्कर्ष थे- 
(१) कि ऐतिहासिक रूप से पिछड़े देशों में मौजूद मध्य्युगीनता एक विशिष्ट क्रम में, मगर हर देश में पारस्परिक रूप से भिन्न विशिष्टता लिए, विश्व पूंजीवाद द्वारा अपने नियंत्रण में ले ली गई है और उसके साथ गुंथ गई है. (२) चूंकि मध्य्युगीनता पूंजीवाद के साथ गुंथ गई है और उस द्वारा आच्छादित कर ली गई है, इसलिए क्रांति की यांत्रिकी, जो यूरोप की बुर्जुआ क्रांतियों में दो चरणकी क्रान्ति- पहले बुर्जुआ जनवादी क्रांति और फिर समाजवादी क्रांति- में बंटी थी, कालग्रस्त होकर एकल सर्वहारा क्रांति में समाहित हो गई है. (३) इसका अर्थ है कि पिछड़े देश रूस में बुर्जुआ वर्ग क्रांति में कोई भूमिका अदा नहीं करेगा, और बुर्जुआ जनवादी क्रांति के कार्यभार विजयी सर्वहारा संपन्न करेगा, (४) क्रांति न तो बुर्जुआ को सत्ता में लाएगी, न बुर्जुआ जनतंत्र स्थापित करेगी, (५) मध्ययुगीनता के विरुद्ध विलंबित जनवादी क्रांति, जिसे बुर्जुआ वर्ग संपन्न नहीं कर सकता और जिसका मुख्य अंतर्य कृषि क्रांति है, किसान विद्रोह को चिंगारी देगी, (६) किसान विद्रोह, विजयी क्रांति संपन्न नहीं कर सकते जब तक कि उन्हें सर्वहारा नेतृत्व न मिले, (७) सर्वहारा इस क्रांति को नेतृत्व देगा और किसान विद्रोहों के शीर्ष पर सत्ता में आ जायेगा, (८) कि नई सत्ता सर्वहारा के अधिनायकत्व में मजदूर-किसान सत्ता होगी, जिसका अंतर्य होगा किसानों द्वारा समर्थित और मजदूर-किसान मोर्चे पर आधारित सर्वहारा अधिनायकत्व (९) सर्वहारा अधिनायकत्व, जनवादी कार्यभारों को पूरा करते हुए समाजवादी कार्यभारों को भी हाथ में लेगा, (१०) जनवादी और समाजवादी कार्यभारों के बीच कोई दीवार मौजूद नहीं होगी, (११) क्रांति की गति और उसके कार्यभारों की पूर्ति अलग-अलग देशों में राष्ट्रीय विशिष्टताओं से और उससे भी पहले अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों से निर्धारित होगी, (१२) विश्व पूंजीवाद/ साम्राज्यवाद के उदय के साथ ही समूची दुनिया सर्वहारा क्रांतियों के लिए परिपक्व है, (१३) पिछड़े देशों में किसान विद्रोहों की लहर पर सवार हो सर्वहारा, अग्रणी पूंजीवादी देशों से भी पहले क्रांति संपन्न कर सत्ता हाथ में ले सकता है, (१४) मगर समाजवाद का निर्माण, पिछड़े देशों से पहले अग्रणी देशों में संपन्न होगा, जिनमें विज्ञान, तकनीक और उत्पादन की सर्वोच्च उपलब्धियां पहले से ही मौजूद हैं (१५) विजयी सर्वहारा का लक्ष्य एक देश में समाजवादका निर्माण नहीं, बल्कि शेष देशों में पूंजी की सत्ता का ध्वंस और क्रांति का प्रसार होगा, (१६) विजयी सर्वहारा, पूंजीवाद का ध्वंस करते हुए, सर्वहारा सत्ता के नेतृत्व में राजकीय पूंजीवादसे शुरू करते हुए, समाजवाद-उन्मुख नीतियां जरूर अपनाएगा, लेकिन एक देश में समाजवादी निर्माण को संपन्न कभी नहीं कर सकता, चूंकि एक तो यह आर्थिक रूप से असंभव है और दूसरे पूंजीवादी महाशक्तियां उसे यह कभी नहीं करने देंगी, (१७) एक देश में सर्वहारा सत्ता का पूंजीवादी राष्ट्रों के साथ सह-अस्तित्व असंभव है, एक या दूसरा ही अंततः विजयी होगा, (१८) साम्राज्यवाद के युग में क्रांतियाँ, पिछड़े-अगड़े तमाम देशों में, सर्वहारा अधिनायकत्व के साथ ही खुलेंगी और उसी के तहत आगे बढेंगी.

यह स्पष्ट है कि आर.सी.एल.आई के कागज़ी तलवारबाजों को ट्रोट्स्की के इस सिद्धांत का ककहरा भी स्पष्ट नहीं है और इसलिए वे इसे लेनिन के विरुद्ध खड़ा करते हैं. किसान-मजदूरों के जनवादी अधिनायकत्वका प्रस्ताव करते लेनिन ने इस संयुक्त अधिनायकत्व के भीतर, वास्तविक अधिनायकत्व किस वर्ग का होगा, इस प्रश्न को खुला छोड़ दिया था. ट्रोट्स्की ने दिखाया कि मजदूर-किसानों की संयुक्त सत्ता पर अधिनायकत्व हर स्थिति में सर्वहारा का होगा. आर.सी.एल.आई इस तथ्य को भी जानबूझकर छिपा जाती है कि लेनिन, अपनी रचना, ‘जनवादी क्रांति में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियांमें जिस बुर्जुआ जनतंत्रकी स्थापना की बात कर रहे थे, उसे खुद उन्होंने, फरवरी में शुरू हुई क्रांति से निष्कर्ष निकलते हुए, अपनी अप्रैल थीसिसमें उलट दिया था. यह सब हमने छह लेखों की श्रृंखला में विस्तार से बताया है.

दिशासंधान में आर.सी.एल.आई ने ट्रोट्स्की को बिना उद्धृत किये ही यह कहा है कि, त्रॉत्स्की का मानना था कि अगर जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में है तो वह सीधे सर्वहारा अधिनायकत्व को स्थापित करेगी और क्रान्ति के बाद तत्काल समाजवादी कार्यक्रम को लागू करेगीयहां अगरऔर जनवादी क्रांति की मंजिलशब्दों का प्रयोग बिलकुल ही गलत है और यह लेखक की अनभिज्ञता और राजनीतिक मूढ़ता का परिचायक है. ट्रोट्स्की ने न तो अगरका प्रयोग किया और न क्रांति को जनवादी, समाजवादी मंजिलों में बांटा. ट्रोट्स्की ने स्पष्ट कहा कि हर स्थिति में (अगर-मगर नहीं!) क्रांति का नेतृत्व सर्वहारा के ही हाथ में होगा, वरना यह क्रांति ही नहीं होगी. यही नेतृत्व, क्रांति के साथ, सर्वहारा के अधिनायकत्व में बदल जायेगा, जो मजदूर-किसान सत्ता पर आधारित होगा, अर्थात किसानों द्वारा समर्थित सर्वहारा अधिनायकत्व.

मामला एकदम स्पष्ट है! मगर स्तालिनवादी-माओवादी आर.सी.एल.आई इसे समझे बिना ही ट्रोट्स्की पर ऊलजलूल आरोप मढ़ती है.

ट्रोट्स्की ने यह भी कभी नहीं कहा कि क्रान्ति के बाद तत्काल समाजवादी कार्यक्रम को लागू करेगी”. इसके ठीक विपरीत ट्रोट्स्की ने कहा कि सर्वहारा अधिनायकत्व वाली मजदूर-किसान सत्ता के सामने पिछड़े देशों में जनवादी कार्यभार, न कि समाजवादी कार्यभार, ही प्रमुख और प्राथमिक होंगे. ये कार्यभार, मजदूर-किसान सत्ता किस गति से संपन्न कर पायेगी, वह सभी देशों में अलग होगी और राष्ट्रीय विशिष्टताओं तथा अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर निर्भर करेगी.

अपने कार्यकर्ताओं को धोखा देने के लिए, ट्रोट्स्की की इस बेबुनियाद आलोचना पर हाथ आजमाते, दिशासंधान और आर.सी.एल.आई के ये नेता, इसे वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी की आलोचना के डर से उसकी निगाह से बचाना चाहते हैं और उसके स्पष्टीकरणों को जानबूझकर गायब करते हैं.

सबसे मज़ेदार बात यह है कि वे एस.यू.सी.आई जैसी घोर स्तालिनवादी-माओवादी पार्टी को ट्रोट्स्की के कार्यक्रम से जोड़ते हैं. दिशासंधान का लेख कहता है- निश्चित तौर पर यहाँ त्रॉत्स्की और त्रॉत्स्कीपन्थी पद्धति का पालन करने वाले संगठनों (मिसाल के तौर पर एस.यू.सी.आई.) जो कि सरकार के स्वरूप और राज्यसत्ता के स्वरूप को गड्डमड्ड कर देते हैं.......  और भी कि भारत में त्रॉत्स्की की ही पद्धति को लागू करते हुए एस.यू.सी.आई. और उससे निकले कई ग्रुप मानते हैं कि भारत में 1947 से ही समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल है!

एस.यू.सी.आई का संस्थापक शिवदास घोष, ट्रोट्स्कीवाद का कट्टर शत्रु रहा और शुरू से अंत तक पहले स्टालिन और फिर माओ का पक्का हिमायती. मगर वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी को निशाना बनाने में असमर्थ, आर.सी.एल.आई के ये मक्कार नेता, एस.यू.सी.आई पर निशाना साधते हैं और इस पतित माओवादी पार्टी की आलोचना को ट्रोट्स्की के कार्यक्रम की आलोचना बनाने की कोशिश करते हैं. हमने एस.यू.सी.आई. की इस समझ की कड़ी आलोचना अपने इस लेख में की है: http://workersocialist.blogspot.in/2013/06/blog-post.html

ट्रोट्स्की और उस द्वारा विकसित सतत क्रांति के कार्यक्रम की धुर विरोधी और घोषित स्तालिनवादी-माओवादी एस.यू.सी.आई को झूठ-मूठ ही ट्रोट्स्की से जोड़ते हुए 'प्रतिबद्ध' यह तो कहता है कि ये ग्रुप १९४७ से ही भारत को समाजवादी क्रांति की मंजिल में मानते हैं, मगर यह साफ़ छिपा जाता है कि वह और उसकी पार्टी RCLI भी १९६४ से भारत को समाजवादी क्रांति की मंजिल में मानते हैं. यह निष्कर्ष वे इस फर्जी और मनोगत आधार पर निकालते हैं कि १९६४ से, भारत में पूंजीवाद, अर्थव्यवस्था में प्रमुख अवयव बन गया है. वास्तव में, नक्सलबाड़ी के इन भगौड़ों ने पहले 'चीनी रास्ते' की माओवादी झक का अनुसरण किया और फिर उसकी पराजय के साथ, किसान संघर्ष को पीठ दिखाकर भागते हुए यह ऐलान किया कि सामंतवाद पर पूंजीवाद तो १९६४ से ही हावी हो चुका था और नक्सलबाड़ी ने व्यर्थ ही जनवादी और कृषि क्रांति के लिए हथियार उठाया.

पूंजीवाद के विकास को वे जनवादी कार्यभारों के संपन्न होने और समाजवादी कार्यभारों के उदय से जोड़ते हैं. आर्थिक निश्चयतावाद के ये पैरोकार वास्तव में भारतीय बूर्ज्वाजी को इस बात का श्रेय देते हैं कि १९४७ में सत्ता लेने के बाद उसने जनवादी कार्यभारों को, जिनका मुख्य अंतर्य कृषि क्रांति है, पूरा करते हुए, भारत को समाजवादी क्रांति के दौर में पहुंचा दिया है. वे पूंजीवाद के विकास को सीधे क्रांति के जनवादी कार्यभारों की पूर्ति के साथ जोड़कर देखते हैं और स्टालिन-माओ के क्रांति के 'दो चरण' वाले बोगस फॉर्मूले को लागू करते घोषणा करते हैं कि भारत में क्रांति का पहला, जनवादी चरण १९६४ तक पूरा हो चुका है और भारत समाजवादी क्रांति के दौर में पहुंच गया है. RCLI के राजनीतिक दिवालियेपन का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है?

आर.सी.एल.आई की राजनीतिक अन्धता का रहस्य उनकी इस फिसड्डी मान्यता में छिपा है कि सर्वहारा सत्ता, क्रांति के आरम्भ में नहीं बल्कि उसके कथित जनवादी चरणके अंत और समाजवादी चरणके प्रारंभ में प्रकट होगी.

दिशासंधान का यह बोगस लेख, मिथ्याप्रचार की इस मुहिम को खुलकर आगे बढ़ाते हुए कहता है, त्रॉत्स्की ने जब लेनिन से पूछा कि जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में सर्वहारा वर्ग सत्ता हासिल करने के बाद क्या रैडिकल बुर्जुआ पार्टियों से सत्ता साझा करेगाअगर नहींतो वह राज्य जिस पर सर्वहारा वर्ग की पार्टी काबिज़ हो वह मज़दूरों और किसानों का संयुक्त अधिनायकत्व कैसे होगालेनिन ने इसका जवाब देते हुए कहा कि सरकार अकेले कम्युनिस्ट पार्टी बना सकती है या फिर वह अन्य बुर्जुआ जनवादी पार्टियों के साथ सरकार बना सकती हैलेकिन दोनों ही सूरत में यह सर्वहारा वर्ग और किसानों का संयुक्त अधिनायकत्व ही होगाक्योंकि क्रान्ति के जनवादी कार्यक्रम के सर्वाधिक रैडिकल तरीके से अमल से आगे जाने के लिए अभी व्यापक जनसमुदाय तैयार नहीं है और समाजवादी कार्यक्रम को ऊपर से थोपकर जनवादी क्रान्ति की मंज़िल को लाँघा नहीं जा सकता है। लेनिन ने बताया कि त्रॉत्स्की का यह भ्रम इस वजह से है क्योंकि वह राज्य के स्वरूप और सरकार के स्वरूप को एक ही वस्तु समझते हैं”.

ट्रोट्स्की ने लेनिन से ऐसा कभी नहीं पूछा कि जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में सर्वहारा वर्ग सत्ता हासिल करने के बाद क्या रैडिकल बुर्जुआ पार्टियों से सत्ता साझा करेगा?”, चूंकि लेनिन और ट्रोट्स्की, दोनों मेंशेविकों के विरुद्ध इस बात पर एकमत थे कि रूस में बुर्जुआ वर्ग की क्रांति में कोई भूमिका नहीं है. न ही लेनिन ने कभी यह कहा कि सरकार अकेले कम्युनिस्ट पार्टी बना सकती है या फिर वह अन्य बुर्जुआ जनवादी पार्टियों के साथ सरकार बना सकती है”. ये मेन्शेविक थे जो सर्वहारा और रेडिकल बुर्जुआ के बीच सांझे मोर्चे का प्रस्ताव करते थे. मेंशेविकों के विरुद्ध लेनिन-ट्रोट्स्की के सांझे संघर्ष का आधार ही यह था. फरवरी १९१७ में रूस में बनी अस्थायी सरकार को समर्थन देने वाले मेंशेविकों और स्टालिन जैसे बोल्शेविकों की लेनिन ने कड़ी आलोचना की थी. मगर आर.सी.एल.आई की बला से! उसे तो ट्रोट्स्की के विरुद्ध झूठ का पुलंदा तैयार करना है. उसे तो बस यह साबित करने की धुन है कि स्टालिन, लेनिन की पूंछ पकड़े था जबकि ट्रोट्स्की उसका वैरी था. ट्रोट्स्की तो दूर, ये स्तालिनवादी सूरमा, लेनिन के दृष्टिकोण और राजनीति को भी बिलकुल नहीं समझते.

आर.सी.एल.आई के बदहवास नेता वास्तव में वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी के राजनीतिक आक्रमण से हतोत्साहित, हताश, और पराजित, शरण ढूंढ रहे हैं, जो उन्हें झूठ और चालबाजी के सिवा और कहीं नहीं मिल सकती.

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