Monday, 20 October 2014

हिटलर सत्ता में कैसे पहुंचा?

-राजेश त्यागी/ २० अक्टूबर २०१४

जनवरी १९३३ में हिटलर और उसकी नाज़ी पार्टी जर्मनी में सत्ता में आ गए. जर्मनी में, जहां दुनिया की सबसे विकसित सर्वहारा पार्टियां मौजूद थीं, जिनके पास न सिर्फ विशाल जन-संगठन मौजूद थे, बल्कि बड़ी संख्या में सशस्त्र दस्ते भी थे, कैसे पराजित हुईं, इसे समझना नई पीढ़ियों के लिए, उन सबके लिए जो फासीवाद, पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष करना चाहते हैं, बहुत महत्वपूर्ण है.

हिटलर का सत्ता में आ जाना, वास्तव में स्टालिन के नेतृत्व के तहत कोमिन्टर्न की गलत नीतियों का परिणाम था. ये नीतियां पिछले एक दशक से जारी थीं और इस गलत समझ पर आधारित थीं कि पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष के बगैर, फासिज्म के खिलाफ लड़ा जा सकता है.

लेनिन के जीवन के अंतिम दिनों में, सोवियत संघ में ब्यूरोक्रेसी मज़बूत हो रही थी. यह ब्यूरोक्रेसी सीधे कुलक (अमीर किसानों) पर आधारित थी, जो नई आर्थिक नीतिके तहत पनप रहे थे. नई आर्थिक नीति’, १९१९ से यूरोप में क्रांतियों की असफलता और फलतः एक पिछड़े किसानी देश में क्रान्ति और नवोदित सर्वहारा राज्य के अलग-थलग पड़ जाने का दुष्परिणाम थी. यह नीति, सर्वहारा राज्य की ओर से किसानों को अस्थायी रियायतों पर आधारित थी, जो इतिहास द्वारा सर्वहारा राज्य के ऊपर उसकी इच्छा के विरुद्ध थोप दी गई थी. पश्चिम में आसन्न सर्वहारा क्रान्तियों की विजय के साथ ही इस नीति का अंत हो जाना था. मगर पश्चिमी में क्रांतियों की असफलता ने इस स्थिति को अप्रत्याशित रूप से लम्बा खींच दिया, जिससे कुलक और ब्यूरोक्रेटिक प्रतिक्रिया सुदृढ़ होती चली गयी.

इस प्रतिक्रिया का नेतृत्व बोल्शेविक पार्टी के भीतर दक्षिणपंथी गुट के हाथ था, जिसका नेता बुखारिन था. १९२४ की शुरुआत में लेनिन की मृत्यु के साथ ही, पार्टी के भीतर दूसरी पंक्ति के नेतृत्व से निकले अवसरवादी नेता स्टालिन ने सत्ता के शीर्ष पर अपनी दावेदारी के लिए जोड़तोड़ शुरू कर दी. लेनिन-लेवी के नाम पर एक साथ ढाई लाख नए सदस्यों को पार्टी में भर्ती करके, बुखारिन-स्टालिन ने पार्टी का ढांचा ही बदल डाला और पुराने-अनुभवी नेताओं को एक ही झटके में हाशिये पर डाल दिया. ख्रुश्चेव जैसे ये नए रंगरूट पार्टी जीवन और संघर्ष से दूर थे और आम तौर से पार्टी अधिकारियों का समर्थन करते थे. इनमें से अधिकतर कुलकों और ब्यूरोक्रेसी के समृद्ध सस्तरों से थे.

ब्यूरोक्रेसी को बुखारिन-स्टालिन की जोड़ी में वह नेतृत्व मिल गया, जिसे वह अपने प्रतिक्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए और क्रान्ति के विरुद्ध इस्तेमाल कर सकती थी.

जून १९२४ में कोमिन्टर्न की पांचवीं कांग्रेस में, बुखारिन-स्टालिन के नेतृत्व में वाम-विपक्ष पर हमला केन्द्रित किया गया. उस वक़्त बुखारिन-स्टालिन रूस में तीव्र औद्योगीकरण की नीति का विरोध और कुलकों के पक्ष में नई आर्थिक नीतिको जारी रखने का समर्थन कर रहे थे, जबकि ट्रोट्स्की के नेतृत्व में वाम विपक्ष, जिसमें बाद में कामेनेव और ज़िनोविएव भी शामिल हो गए थे, तीव्र औद्योगीकरण का समर्थन और नई आर्थिक नीति का विरोध कर रहा था. कछुए की चाल से औद्योगीकरण’- बुखारिन-स्टालिन द्वारा समर्थित इस नीति ने १९२८ तक क्रांति और अर्थव्यवस्था को भारी आघात पहुँचाया और प्रतिक्रान्ति को काफी मज़बूत किया.

उधर मई १९२६ में इंग्लैंड में खदान मजदूरों की हड़ताल ने विकट राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया और इंग्लैंड को सर्वहारा क्रान्ति की दहलीज़ पर ला खड़ा किया. ब्रिटिश पूंजीवाद का चक्का जाम कर देने वाली हड़ताल ने ब्रिटिश पूंजीपतियों के घुटने लगा दिए, और तत्कालीन प्रधानमंत्री बाल्डविन को, हड़ताली मजदूरों से यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ा कि या तो वे सत्ता हाथ में ले लें या फिर हड़ताल ख़त्म करें. एंग्लो-रूसी ट्रेड यूनियन एकता समितिने जिसे स्टालिन ने दक्षिणपंथी ब्रिटिश ट्रेड-यूनियन नेताओं के सहयोग से अप्रैल १९२५ में संगठित किया था, तुरंत दूसरा विकल्प चुनते हुए, हड़ताल तोड़ने की घोषणा कर दी. इस तरह पश्चिम के सबसे विकसित राष्ट्र, इंग्लैंड में परिपक्व क्रान्तिकारी परिस्थिति उलट दी गयी.

इसके साथ ही चीन में क्रांति १९२५-२६ में अपने उफान पर थी. चीन की नवोदित कम्युनिस्ट पार्टी इस क्रांति के केन्द्रक के रूप में उभर रही थी. स्टालिन-बुखारिन के नेतृत्व वाले कोमिन्टर्न ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को बाध्य किया कि वह चियांग-काई-शेक के नेतृत्व वाली बूर्ज्वा पार्टी कुओ-मिन-तांग में शामिल हो जाये और अपने को उसके अनुशासन के मातहत कर दे. १९२६ से ही चियांग-काई-शेक ने केंटन में मजदूर-किसान संघर्षों पर नृशंस हमले जारी रखे, मगर कोमिन्टर्न कम्युनिस्ट पार्टी को बाध्य करता रहा कि वह कुओ-मिन-तांग से चिपकी रहे. मार्च १९२७ में शंघाई सर्वहारा ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते सफल क्रान्तिकारी अभियान में सत्ता छीन ली तो स्टालिन ने कम्युनिस्ट पार्टी को कुओ-मिन-तांग के सामने समर्पण के लिए बाध्य किया. इसका लाभ उठाकर चियांग ने हिंसक अभियान में सैंकड़ों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और क्रान्तिकारी मजदूरों को मौत के घाट उतार दिया और क्रांति का दमन कर दिया. फिर भी स्टालिन ने कम्युनिस्ट पार्टी को कुओ-मिन-तांग के भीतर रहने और वांग-चिंग-वी के वामनेतृत्व में काम करने का आदेश दिया. उसी वर्ष वांग-चिंग-वी ने भी उसी तरह कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और क्रान्तिकारी मजदूर किसानों का कत्लेआम आयोजित किया और सत्ता चियांग के हाथ छोड़कर भाग गया. कोमिन्टर्न के भीतर और बाहर, रूसी क्रांति के सह-नेता लीओन ट्रोट्स्की के नेतृत्व में संगठित वाम-विपक्ष इन झूठी और गलत नीतियों का मुखर विरोध करता रहा.

स्तालिनवादी कोमिन्टर्न की गलत नीतियों के चलते, चीन और इंग्लैंड में क्रांति की असफलता ने, सोवियत रूस के अलगाव को और लम्बे समय के लिए स्थायित्व दे दिया.  

जनवरी १९२८ में, स्टालिन-बुखारिन की धीमे औद्योगीकरणऔर कुलक-परस्त नीतियों के चलते, समूचे रूस में अकाल की स्थिति पैदा हो गई और क्रान्ति के ध्वस्त हो जाने का खतरा पैदा हो गया. इन नीतियों की आलोचना करने वाले वाम विपक्ष के नेताओं को गिरफ्तार करने और प्रताड़ित करने का सिलसिला शुरू हो गया. ट्रोट्स्की और ज़िनोविएव को पोलित ब्यूरो से हटा दिया गया.

इसके साथ ही आनन् फानन में बुखारिन को बलि का बकरा बनाते, स्टालिन तेजी से बाएं घूमा और नई आर्थिक नीतिको ख़त्म करते हुए, वाम-विपक्ष द्वारा प्रस्तावित तीव्र औद्योगीकरण और योजनाबद्ध विकास को अंजाम देना शुरू किया. इसके साथ ही स्टालिन ने कृषि जोतों के बलात सामूहिकीकरणका नया मूर्खतापूर्ण कार्यक्रम हाथ में लिया, जिसका परिणाम सोवियत सत्ता के विरुद्ध किसानों के सामूहिक विरोध और संसाधनों के भारी विनाश के रूप में सामने आया. इन तमाम मूर्खताओं के चलते भी यदि क्रांति उलटने से बच गई तो सिर्फ इसलिए कि पूंजीवादी राष्ट्र अब तक के सबसे भयंकर आर्थिक संकट की मझधार में फंसे थे.

१९२८ तक, स्टालिन ने ब्यूरोक्रेसी की मदद से वाम-विपक्ष को किनारे लगा दिया और जनवरी १९२९ तक ट्रोट्स्की सहित शीर्ष बोल्शेविक नेताओं को पार्टी और सोवियत संघ से निष्कासित कर दिया.

इंग्लैंड और चीन में कोमिन्टर्न की फर्जी नीतियों के चलते क्रांतियों के तबाह हो जाने के बाद, अपने अपराधों पर परदापोशी के उद्देश्य से, स्टालिन ने यू-टर्न लेते हुए नया सूत्र ईजाद किया. १९२८ में दुनिया में आर्थिक संकट के आरम्भ के साथ, स्टालिन ने घोषणा की कि दुनिया में तीसरा दौरशुरू हो गया है, जो पूंजीवाद के अंत और क्रान्तिकारी उभार का दौर है.

इस नए आंकलन के चलते स्टालिन ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को शहरों में खुला विद्रोह करने का आदेश दिया, जिसने कम्युनिस्ट पार्टी की बची-खुची शक्तियों का भी सफाया कर दिया. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर, स्टालिन-बुखारिन की नीतियों के दक्षिणपंथी अंध-समर्थक जिनमें माओ मुख्य था, श्वेत-आतंक में घिरे सर्वहारा और शहरों को छोड़कर दुम दबाकर भाग खड़े हुए.

नए आंकलन के ही आधार पर स्टालिन ने जर्मनी के लिए भी नई नीति तैयार की, जिसके अनुसार सामाजिक-जनवादी पार्टी को, जिसके नेतृत्व में जर्मनी में सर्वहारा का बहुमत संगठित था, सामाजिक-फासीवादी घोषित कर दिया गया. स्टालिन ने कहा कि हिटलर की नाज़ी पार्टी और सामाजिक-जनवादी पार्टी में कोई अंतर नहीं है. साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी को आदेश दिया गया कि पुरानी ट्रेड-यूनियनों से बाहर निकलकर, नई लाल-क्रान्तिकारीट्रेड यूनियनें स्थापित की जायें. यही नहीं, ‘सामाजिक-फासीवादकी इस नई नीति के तहत, सामाजिक-जनवादी सभाओं को जबरन उखाड़ा गया और उनके नेताओं पर हमले तक किये गए. दोनों सर्वहारा पार्टियों के बीच इस विग्रह से, नाजियों की बांछें खिल गईं.

लीओन त्रौत्सकी के नेतृत्व में वाम-विपक्ष इस समय कम्युनिस्ट पार्टी और सामाजिक-जनवादी पार्टी के नेतृत्व में संगठित सर्वहारा को नाज़ी पार्टी के विरुद्ध एकजुट करने और हिटलर का सर कुचलने का आह्वान कर रहा था और स्टालिन के नेतृत्व वाले कोमिन्टर्न की अतिवाम नीतियों का विरोध. त्रौत्सकी ने फासिस्टों के विरुद्ध सर्वहारा संयुक्त मोर्चा स्थापित करने और सशस्त्र प्रतिरोध की मांग की, जिसका स्टालिन और उसके नेतृत्व में संगठित दक्षिण-पंथियों ने खुला विरोध किया.

जर्मनी में १९१९ से ही सामाजिक-जनवादी पार्टी सत्ता में थी और नाज़ी पार्टी उसे सत्ताच्युत करके सत्ता हथियाने की कोशिश में लगी थी. मगर जर्मनी में सर्वहारा नाजियों से नफरत करता था और सामाजिक-जनवादी या फिर कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन करता था. इन दोनों पार्टियों की कुल संख्या २० लाख से भी ज्यादा थीजिनके बीच संयुक्त मोर्चे के चलते नाजियों का सत्ता में आना असंभव था.

नाज़ी पार्टीजो अपने को राष्ट्रीय-समाजवादी पार्टी’ कहा करती थीजर्मनी में जन क्रांति’ का फर्जी नारा दे रही थी. इसकी सारहीनता को बेनकाब करने के बजायस्टालिन के निर्देश पर जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थालमन ने सर्वहारा क्रांति’ के स्पष्ट राजनीतिक नारे का त्याग करते हुएनाज़ी पार्टी के जन-क्रांति’ के अर्थहीन और बेडौल नारे को अपना लिया और इस तरह नाज़ी फर्जीवाड़े को वैधता प्रदान की.

हिटलर ने सामाजिक-जनवादी जर्मन प्रांतीय प्रशियन सरकार के विरुद्ध जनमत संग्रहका नारा देते हुए, सामाजिक जनवादी सरकार को गिराने और सत्ता पर काबिज़ होने की चाल चली. जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी ने पहले इसका विरोध किया, मगर फिर अचानक स्टालिन की मूर्खतापूर्ण तीसरे दौरकी नीति के सामने घुटने टेकते हुए, २१ जुलाई १९३१ को सामाजिक-जनवादी सरकार को अल्टीमेटम दे दिया. 

सामाजिक-जनवादी सरकार द्वारा अल्टीमेटम की शर्तें मानने से इंकार करने पर कम्युनिस्ट पार्टी ने नाजियों की मुहिम के समानांतर, ‘लाल-जनमत-संग्रहकी अपनी मुहिम छेड़ दी. यह मुहिम हिटलर की मांग के सीधे समर्थन में थी और उसका परिशिष्ट थी. निर्वासन में रह रहे ट्रोट्स्की और उसके समर्थकों ने स्टालिन की इस जर्मन नीति का, जो खुल्लम-खुल्ला नाज़ी पार्टी की मुहिम का समर्थन करती थी, कड़ा विरोध किया.

अंततः १ अगस्त १९३१ को सामाजिक-जनवादी सरकार के विरुद्ध नाजियों और कम्युनिस्ट पार्टी का सांझा जनमत-संग्रह असफल तो हो गया मगर इसने कम्युनिस्ट पार्टी को जर्मन मजदूरों के बीच निन्दित कर दिया. स्तालिनवादियों की दोगली नीति, जिसके चलते एक तरफ तो वे ब्राउन और ब्रूनिंग की सामाजिक-जनवादी सरकार पर नाजियों को प्रोत्साहन देने का आरोप लगा रहे थे और दूसरी तरफ सामाजिक-जनवादियों के विरुद्ध जनमत-संग्रहमें नाजियों से हाथ मिला रहे थे, पूरी तरह नंगी हो गई थी. नाजियों से घृणा करने वाले लाखों मजदूर जो अब तक कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन करते थे, जनमत संग्रह के बाद गद्दार सामाजिक-जनवादी नेतृत्व के पीछे जा जुटे, जिसने हिटलर के सत्ता में आने के रास्ते को सुगम बना दिया.

जनवरी १९३३ में हिटलर के सत्ता में आ जाने के साथ ही स्टालिन की बोगस नीतियों का अंतिम रूप से खुलासा हो गया. जर्मनी में स्टालिन की ये नीतियां न तो फासीवाद का सर कुचलने और न ही समग्र रूप से पूंजीवाद के विरोध पर केन्द्रित थीं, बल्कि उलटे उनका परिणाम सामाजिक-जनवाद के मुकाबले नाज़ी पार्टी को मज़बूत बनाना था, जिसने यूरोप में भावी नाज़ी सैन्य-अभियानों की सफलता के लिए, रास्ता साफ़ कर दिया. इन सामरिक सफलताओं पर, हिटलर को बधाई देने वालों में, स्टालिन प्रथम था.

हिटलर के सत्ता में आने के बाद पहले तो स्टालिन ने यह कहना शुरू किया कि हिटलर के बाद हमारी बारी है, मगर नाजियों द्वारा सर्वहारा पार्टियों और संगठनों को पूरी तरह कुचल दिए जाने के बाद स्टालिन सकते में था. इंग्लैंड और चीन के बाद जर्मनी में असफलता ने उसके पैरों के नीचे से ज़मीन निकाल दी थी. उसने अपनी वाहियात नीतियों के विरोध में संगठित हो रहे शीर्ष बोल्शेविक नेतृत्व को नष्ट करने की ठान ली और उन्हें फासिस्ट एजेंट बताते हुए, एक एक करके गोलियां मार दीं. फर्जी मास्को मुकदमों में कम्युनिस्ट पार्टी और लाल सेना के तमाम शीर्ष नेता साफ़ कर दिए गए. बीस लाख से ज्यादा कम्युनिस्ट नेता और कार्यकर्त्ता, जिन्होंने स्टालिन की नीतियों का विरोध किया, इस बर्बरता का शिकार हुए.

अब तक तीसरे दौरका नारा देने और सामाजिक-जनवाद तक को फासीवाद बताने वाले अवसरवादी स्टालिन ने फिर यू-टर्न लिया. अब उसने फासीवाद को दुनिया का शत्रु घोषित करते जनमोर्चोंकी नीति सामने रखी, जिनमें मजदूर-किसान ही नहीं, निम्न बूर्ज्वा और बूर्ज्वा पार्टियों को भी शामिल किया जाना था. १९३५ में प्रतिपादित इस नीति के चलते पहले तो स्टालिन ने बूर्ज्वा देशों और पार्टियों के साथ मोर्चा बनाने की कोशिश की, मगर असफल रहने पर घोर अवसरवादिता दिखाते सीधे हिटलर से ही अगस्त १९३९ में युद्ध संधि कर ली और यूरोप में हिटलर के साथ सांझे सैनिक अभियान की शुरुआत करते पोलैंड पर संयुक्त आक्रमण किया. सितम्बर १९३९ में पोलैंड में और मई १९४० में, फ्रांस में, नाज़ी फौजों के दाखिल होने पर, स्टालिन ने हिटलर को बधाई सन्देश दिए और नई आर्थिक-राजनीतिक संधियों के मसौदे पेश किये, जिनमें यूरोप के अलावा एशिया और अफ्रीका में भी सैनिक अभियान चलाते, समूची दुनिया को चार धुरी-शक्तियों, जर्मनी, इटली, जापान और सोवियत संघ के बीच बांट लेने की योजना शामिल थी. 

अंततः जून १९४१ में, हिटलर द्वारा घात करने के बाद, स्टालिन फिर फासिज्म के खिलाफ, तथाकथित 'जनवादी' बूर्ज्वाजी के साथ सांझे जनमोर्चोंकी नीति पर लौटा, जिस नीति को दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज भी ढोए जा रही हैं और तमाम देशों में क्रांतियों का सत्यानाश कर रही हैं.

यह भी देखें: http://workersocialist.blogspot.in/2014/03/1939.html

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