Friday, 17 February 2017

चुनावों की हलचल के बीच मोदी सरकार का कारनामा: अमेरिकी युद्धपोतों के लिए गुजरात में कारखाना

- राजेश त्यागी/ १७.२.२०१७

पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की ऊहापोह के चलते, मोदी सरकार ने, जनता से छिपकर और विपक्ष की चुप्पी के बीच, एक बड़े राजनीतिक कारनामे को अंजाम दे दिया है.

सातवें अमेरिकी युद्धपोत बेड़े, ‘आरमाडाके युद्धपोतों सहित दूसरे अमेरिकी निगरानी और आपूर्ति पोतों की मरम्मत, रखरखाव और ईंधन भराई के लिए, गुजरात के पिपावाव में विशाल पोत-कारखाना खोलने के लिए, ‘रिलायंस डिफेन्स एंड इंजीनियरिंगऔर अमेरिकी नौसेना के बीच मुख्य पोत मरम्मत समझौतेपर हस्ताक्षर हो गए हैं. पोत-कारखाने को विकसित करने के लिए गुजरात सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दबाव में, चुपचाप रिलायंस डिफेन्स एंड इंजीनियरिंगको सैंकड़ों करोड़ की मदद दी है.

इससे पूर्व अमेरिकी नौसेना ने रिलायंस पोत-कारखाने को अधिकारिक रूप से स्वीकृति दी थी. इस समझौते के तहत, अमेरिकी युद्धपोतों की मरम्मत से, अगले पांच वर्षों में लगभग एक हज़ार करोड़ रुपये के कारोबार का अनुमान है. अनिल अम्बानी के स्वामित्व वाली रिलायंस ग्रुप की इस कंपनी के लिए, जिसने २०१४ में तीन सौ करोड़ से भी कम का कारोबार किया था, यह बड़ी डील है.

आरमाडा, वही अमेरिकी बेड़ा है जिसने १९७१ में बंगाल की खाड़ी में पहुंचकर, भारत-पाक युद्ध के समय भारत को सीधी धमकी दी थी. उस समय अमेरिका, पाकिस्तान को सहयोग दे रहा था.

आज हिन्द महासागर से लेकर दक्षिणी चीन महासागर तक यह बेड़ा चीन के विरुद्ध अमेरिका की भावी युद्धनीति का मुख्य आधार है. हिन्द महासागर में तैनात सौ से अधिक युद्धपोतों, चार सौ लड़ाकू जहाजों और चालीस हज़ार से अधिक नौसैनिकों से लैस अमेरिका का यह युद्धपोत बेड़ा, सामरिक-रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है. यह हिन्द महासागर में भारत की पूर्वी तटरेखा से लेकर दक्षिण में पाकिस्तान की सीमा तक फैला हुआ है और एक बड़े अमेरिकी बेड़े का हिस्सा है जो प्रशांत महासागर के पूर्वी तटों तक फैला हुआ है. भविष्य में चीन की सैन्य घेराबंदी, आर्थिक नाकेबंदी और उसके मुख्य शहरों के ध्वंस के लिए, इस बेड़े को महत्वपूर्ण सैन्य भूमिका के लिए तैनात किया गया है. अब तक इसके युद्धपोतों के रख-रखाव और ईंधन भराई का काम सिंगापुर और जापान में ही होता था.

पिछले दिनों ही भारत और अमेरिका के बीच हुई संधि ने, भारत के हवाई अड्डों और बंदरगाहों में अमेरिकी युद्धपोतों, जंगी जहाजों और दूसरे सैनिक साज़ो-सामान के आवागमन के लिए दरवाज़े खोल दिए थे. इससे पहले, पिछले वर्ष अगस्त में भी एक ऐसे ही समझौते, ‘सामरिक विनिमय समझौता ज्ञापनके तहत अमेरिका को भारत में सैनिक सामग्री लाने, ले जाने और एकत्र करने की आज्ञा दी गई थी.

इन समझौतों के चलते, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ-साथ, भारत भी पूरी तरह अमेरिका के चीन विरोधी सैनिक अभियान का रणनीतिक साझीदार बन गया है.

एशिया में महाशक्ति बनने को लालायित, भारत के बूर्ज्वा शासक, बहुत तेज़ी से, पिछले दो दशकों में अमेरिका की ओर झुकते चले गए हैं.

अमेरिका के साथ इन प्रगाढ़ सैन्य-रणनीतिक संबंधों की शुरुआत वास्तव में कांग्रेस नीत यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायन्स की पहली पारी में ही हो चुकी थी. २००५ में ही भारत अमेरिका रणनीतिक सहबंधके तहत दोनों देशों के बीच निकट सम्बन्ध तय हो चुके थे. इससे आगे बस सैन्य संधियों का निष्पादन शेष था ताकि भारत के दरवाज़े अमेरिकी युद्धपोतों और जंगी जहाजों के लिए पूरी तरह खोल दिए जाएं. मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबंधन सरकार ने इसे आगे बढ़ाते हुए, यह काम भी संपन्न कर दिया.

मोदी सरकार ने कांग्रेस की रणनीति को ही और अधिक संवेग से आगे बढ़ाते हुए भारत को पूरी तरह चीन के विरुद्ध अमेरिकी रणनीति का मोहरा बना दिया है. इस सरकारी नीति के चलते समूचा कॉर्पोरेट मीडिया अमेरिका को शांतिकामी और जनवादी तथा चीन को दुष्ट, आक्रमणकारी सिद्ध करने में जुट गया है. जनता से छिपकर, नई दिल्ली के शासक, चीन के विरुद्ध अमेरिकी सैनिक रणनीति में साझीदार बन चुके हैं.

विभिन्न समझौतों में अमेरिका ने अपने लिए ऐसे अधिकार सुरक्षित कर लिए हैं जिनमें वह चीन सहित दूसरे एशियाई देशों में सैनिक दखल और सीधे आक्रमणों के लिए भारत के हवाई अड्डों और बंदरगाहों का इस्तेमाल कर सकता है.

२००५ में जब भारत और अमेरिका के बीच इन रणनीतिक संबंधों की शुरुआत हुई थी उस समय स्टालिनवादी वाममोर्चा, कांग्रेस नीत सरकार को समर्थन दे रहा था और सरकार इस समर्थन पर ही टिकी थी. इसके बावजूद वाममोर्चे के नेताओं ने भारत-अमेरिका संधि पर जानबूझकर मौन साधे रखकर उसे मूक सहमति दी. २००८ में जब भारत-अमेरिका के बीच नाभिकीय संधि व्यापक चर्चा में आ गई, उस समय भी वाममोर्चा दो हिस्सों में बिखर गया. जहां करात के नेतृत्व में एक हिस्सा इस खुले घात का आधे मन से विरोध कर रहा था, वहीं सोमनाथ चटर्जी और सीताराम येचुरी जैसे दिग्गज स्तालिनवादी नेता इसके बावजूद कांग्रेस सरकार को समर्थन जारी रखने के पक्ष में थे.

आज भी जब मोदी सरकार और ट्रम्प के नेतृत्व वाले अमेरिकी प्रशासन के बीच यह सीधी जनविरोधी सांठगांठ जारी है तो बूर्ज्वा विपक्ष की तमाम पार्टियों के साथ-साथ स्तालिनवादी वाममोर्चे के नेता और पार्टियां भी जानबूझकर चुप्पी साधे हुए हैं.

नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच बढ़ती सैन्य-रणनीतिक निकटता हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र और दक्षिण-एशिया में सर्वनाशी नाभिकीय युद्ध के खतरे की घंटी है. यह समूचे क्षेत्र के सैन्य संतुलन को बिगाड़, अस्थिरता पैदा करेगी.

जबकि मुनाफों और प्रभुत्व के लिए अंधी दौड़ लगाती साम्राज्यवादी शक्तियां, एशिया को दूसरा मध्य-पूर्व क्षेत्र बनाने की तैयारी में हैं, क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों का कार्यभार है- युवाओं और सर्वहारा को इस विनाशकारी, आसन्न खतरे के प्रति सचेत, सन्नद्ध और संगठित कर, एशिया क्षेत्र में तमाम युद्ध प्रयासों के विरुद्ध व्यापक क्रान्तिकारी संघर्ष छेड़ना.

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