- राजेश त्यागी/ २.१२.२०१६
(राजिंदर द्वारा मूल अंग्रेजी से अनुवादित)
कास्त्रो 90 साल की उम्र चल
बसे और हमारे लिए एक विरासत और अत्यंत महत्वपूर्ण सबक छोड़ गये हैं, जो उससे सीखे
जाने चाहिएं।
अमेरिका सहित पूरी दुनिया
में अमीरों और अभिजातों ने कास्त्रो की मौत का जश्न मनाया। उनकी समझ के मुताबिक,
कास्त्रो की मौत, अमेरिकी महाद्वीप में निर्मम तानाशाही, जो अमेरिका के वर्चस्व के
लिए चुनौती और पूंजीवादी रास्ते के नकार पर आधारित वैकल्पिक विकास का एक रास्ता समझी
जाती थी, के एक दौर के अंत की द्योतक है। उन्होंने उसकी मौत का ‘लाल राक्षस’ से मुक्ति
के रूप में स्वागत किया।
कास्त्रो के समर्थकों ने
उसकी मौत को जनवाद और समाजवाद के एक सैनिक की शहादत कहा जिसने बतिस्ता हकूमत के
खिलाफ़ अपने साहसपूर्ण संघर्ष के ज़रिये 'समाजवाद के लिए नई राह' को प्रशस्त किया
और क्यूबा को साम्राज्यवाद के चंगुल से छुड़ाया।
सर्वप्रथम, मार्क्सवादियों
को कास्त्रो के विरूद्ध विषैले प्रचार का अवश्य ही खण्डन करना चाहिए। क्योंकि यह
प्रचार गहरे पैठे साम्राज्यवादी द्वेष, क्यूबाई क्रांति के खिलाफ़ घिनौने
पूर्वाग्रहों और राजनैतिक दुर्भावना से परिपूर्ण है और यह उनके द्वारा किया जा रहा
है जिन्होंने लातिनी अमेरिका समेत विश्व भर में हर जगह खूनी, लुटेरी तानाशाहियों की
हिमायत की है।
वह निष्ठुरता, जिसके लिए
साम्रज्यवादी पुरोहितों ने कास्त्रो को कोसा, क्रांति से पहले और बाद में भी,
दशकों तक, साम्रज्यवादी जल्लादों और उनकी ग्राहक हुकूमतों द्वारा, क्यूबा पर रोपित
और जबरन थोपी गई, असीमीत प्रतिक्रियावादी क्रूरता का न्यायसंगत प्रतिकार थी।
कास्त्रो और उसके साथी चेग्वेवारा
की सारी प्रशंसाओं, साम्राज्यवाद के विरूद्ध युद्ध में उनके आत्मबलिदानी संघर्ष और
त्याग, औपनिवेशिक दासता और लूट को खत्म करने के लिए ईमानदार और सच्ची लगन से प्रेरित होने की प्रशंसा
करते हुए, और बिना शर्त साम्राज्यवादी प्रचार के विरूद्ध उनकी प्रतिरक्षा करते
हुए, मार्क्सवादियों को निश्चित रूप से क्यूबा की क्रांति की यांत्रिकी को, गंभीर अध्ययन
का विषय बनाना चाहिए।
1959 में क्रांति के चरम से
शुरू करते हुए, जिस पर कास्त्रो को सत्ता हासिल हुई, अमेरिका के साथ इसकी खुली
जुगलबंदी से पहले लम्बे समय तक जारी क्रमशः पतन तक, क्यूबा की क्रांति, पिछली सदी
में क्रांतिकारी अंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत
के द्वारा तय विश्व-परिदृष्य के संदर्भ से विलग, क्यूबाई क्रांति की जड़े को
खंगाला और समझा नहीं जा सकता। पिछली सदी के चौथे दशक के मध्य से प्रारंभ हुए इस
कालखंड को, स्पष्टतः उभरते जन-आंदोलनों,
क्रान्तिकारी विस्फोटों और व्यापक उथल-पुथल की घटनाओं से भरे अंतराल के रूप में
समझा जा सकता है, जिसने पूंजीवाद को अस्थिर कर दिया।पुराने उपनिवेशवाद के अंत
में, ब्रिटिश हुकूमत का पतन, उपनिवेशों में जनविद्रोह, चीन में क्रांतिकारी उभार
और पूर्वी यूरोप के देशों में एक क्रांतिकारी लहर इसकी मुख्य विशिष्टताएं थी। इसके
साथ-साथ, एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका भी
जन-उभार की लहरों की चपेट में आ चुके थे।
इस दौर की सबसे मर्मभेदी
विशेषता, पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों पर स्तालिनवाद के वर्चस्व की
स्थापना थी. इस दौर से पूर्ववर्ती दशकों में सोवियत संघ और कोमिन्टर्न से वाम
विपक्ष के बलात निष्कासन से, स्तालिनवाद को मज़बूती मिली थी। समाजवादी आन्दोलन पर
स्तालिनवादियों का वर्चस्व, उस प्रक्रिया का सबसे घातक परिणाम था, जिसमें इससे
पूर्ववर्ती दौर में न केवल बोल्शेविक पार्टी और लाल फौज के भीतर अग्रणी बोल्शेविक
नेताओं, कार्यकर्ताओं का दमन और सफाया शामिल है, बल्कि यह कोमिन्टर्न के भंग होने
से पहले इसकी अगुवाई में संगठित दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों और उनके भीतर
क्रांतिकारी तत्वों को किनारे लगाये जाने तथा उसके जरिये इन कम्युनिस्ट पार्टियों के
कथित “शुद्धिकरण” (स्तालिनीकरण!) का भी साक्षी रहा. इसकी
अंतिम परिणति विश्व-समाजवादी आन्दोलन की अग्रणी कतारों के पूर्ण विखंडन और पतन के
रूप में सामने आई. इस विखंडन ने विश्व-सर्वहारा को, जिसका युद्ध की अभूतपूर्व और
असामान्य परिस्थितियों के बीच तेज़ी से क्रांतिकरण संभव हुआ था, मझधार में छोड़ दिया।
लीओन ट्रौट्स्की ने
स्तालिनवाद के खिलाफ़ वीरतापूर्ण संघर्ष किया, मगर एक तरफ़ साम्राज्यवाद और
स्तालिनवाद के बीच घातक सांठगांठ और दूसरी तरफ ट्रौट्स्की के निधन के बाद चौथे इंटरनेशनल
के भीतर पाब्लोवादियों की गद्दारी ने जुझारू मज़दूर वर्ग को उस क्रांतिकारी कार्यक्रम
से लैस होने से रोक दिया जो उसे विश्व-समाजवादी क्रांति का रास्ता खोजने के लिए सक्षम
बना सकता था।
एक के बाद दूसरी साम्राज्यवादी
शक्ति के पीछे मज़दूर वर्ग को ठेलते हुए, स्तालिनवादियों ने, द्वितीय विश्वयुद्ध की
दहलीज़ पर, सचेतन तौर पर पूंजीवाद के विरूद्ध मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र
राजनैतिक लामबंदी को बाधित कर दिया।
एक तरफ़ विश्व-पूंजीवाद की
अस्थिरता और दूसरी तरफ़ अंतराष्ट्रीय सर्वहारा की अगुवा कतारों में बिखराव और भ्रम
से उत्पन्न स्थिति से तैयार हुई पृष्ठभूमि में, विभिन्न रंगों के असंख्य निम्न-बुर्जुआ,
सुधारवादी और उग्र-राष्ट्रवादी, आन्दोलनों ने जुझारू जनता के नेतृत्व के दावे
ठोंकने शुरू किए।
क्यूबा में '26 जुलाई आन्दोलन'
के नाम से प्रसिद्ध, कास्त्रो का आन्दोलन, जो कास्त्रो और उसके साथियों द्वारा मोनकाडा
मिलिट्री बैरकों पर दुस्साहसिक हमले से जुड़ा है, ऐसे ही अनेक निम्न-बुर्जुआ
आंदोलनों में से एक था जो बतिस्ता शासन के विरुद्ध सर्वहारा के क्रान्तिकारी
विरोध-पक्ष की अनुपस्थिति की पृष्ठभूमि में उभरे।
पूरी दुनिया की तरह, क्यूबा
में भी, स्तालिनवादियों की प्रतिक्रांतिकारी भूमिका बिलकुल स्पष्ट थी। स्तालिनवादियों
और उनके अधीन सबसे अलोकप्रिय कम्युनिस्ट पार्टी, 'पार्तिदो सोशलिस्टा पॉपुलर'
(पीएसपी) ने खुलेआम क्रांति के विरूद्ध, अमेरिका द्वारा समर्थित माकाडो और बतिस्ता
जैसे घृणित तानाशाहों, की हिमायत की। इसने लगातार कास्त्रो और उसके आन्दोलन का भी विरोध
जारी रखा। 1933 में, इसने तानाशाह मकाडो के विरूद्ध सफल सर्वहारा क्रांति को उलट
दिया, जिसने तमाम मिलों और खदानों पर मज़दूरों द्वारा कब्ज़ा कर लेने के बाद मकाडो
को क्यूबा से भाग जाने के लिए मज़बूर कर दिया था। मकाडो की मदद करते हुए
स्तालिनवादी पीएसपी ने मज़दूरों को कब्ज़ा छोड़ने और समर्पण करने के लिए बाध्य
किया। 1940 में PSP सीधे बतिस्ता की कैबिनिट में शामिल हो गई।
1925 में संगठित होते समय पीएसपी
की कतारों में बहुत सारे क्रांतिकारी तत्व शामिल थे। हवाना यूनिवर्सिटी में छात्र
आन्दोलन से निकले, इसके सबसे महत्वपूर्ण नेता, जूलिओ अंतोनियो मेला ने, तानाशाह
गेरारडो मकाडो के खिलाफ़ जुझारू जन-आन्दोलन का नेतृत्व किया। उसे जेल में डाल दिया
गया. आन्दोलन के दबाव में उसे रिहा करना पड़ा जिसके तुरंत बाद वह क्यूबा से भागकर सोवियत
संघ चला गया जहां वह स्तालिन के विरूद्ध ट्रौट्स्की के संघर्ष में शामिल हुआ। 1929
में जब पीएसपी स्तालिन के साथ हो क्यूबाई तानाशाही की पूंछ से बंधी तो मेला ने इस
पर फटकार लगाते हुए खुद को पार्टी से अलग कर लिया। कुछ ही हफ्तों के भीतर, मेला की
मेक्सिको में हत्या कर दी गई, जहाँ वह क्यूबाई क्रांति में शिरकत के लिए लौटा था। स्तालिनवादियों
के प्रभाव में, पीएसपी अपनी आभा खोकर, अब खुलेआम प्रतिक्रिया का उपकरण बन चुकी थी।
क्यूबा में मज़दूर वर्ग, चूंकि
स्तालिनवादियों की विषैली जकड़ में था और पीएसपी उनके अधीन बतिस्ता शासन के साथ
चिपकी थी, सो मध्यवर्ग के विद्रोही तबकों में से ज्यादा सचेत तत्व साम्राज्यवाद और
इसकी कठपुतली, बतिस्ता तानाशाही के खिलाफ़ मोर्चा लेने के लिए सामने आए, पर अपने वर्ग
कार्यक्रम, रास्त्तों और समाधानों के साथ, जिन्होंने आन्दोलन को समाजवादी रास्ते
से पूरी तरह भटका दिया।
‘26 जुलाई आन्दोलन’,
समाजवादी आन्दोलन से बहुत दूर, एक निम्न-बुर्जुआ राष्ट्रवादी अंदोलन था। यह
स्तालिनवादियों के अधीन पीएसपी की शर्मनाक गद्दारी के चलते, जिसने मज़दूर वर्ग को बतिस्ता
शासन की पूंछ से बांधकर, उसे इस तानाशाही को चुनौती देने से रोक दिया, उभर और पनप
सका। स्तालिन के मुताबिक, बतिस्ता तानाशाही, खुद लातिनी अमेरिका में क्रांति का
मूर्त रूप थी।
कास्त्रो खुद भी फासिस्ट,
कम्युनिस्ट विरोधी ‘ओरटोडोक्सो पार्टी’ का मेंबर था, जिसकी टिकट पर उसने क्यूबाई संसद
के लिए 1952 में चुनाव लड़ा था. इसके तुरंत ही बाद 1953 में, उसने मोनकाडा बैरक पर
हमला किया। कास्त्रो ताउम्र अपने उसी संकीर्ण-राष्ट्रवादी नज़रिये पर अटका रहा।
मोनकाडा पर उसके असफल दुस्साहस के बाद, कास्त्रो को जेल हुई और मुकदमा चला, पर बाद में माफ़ी दे दी गयी। उसका अदालत में दिया गया ब्यान 'इतिहास मुझे सही साबित करेगा' खुद इस तथ्य का ज्वलंत प्रमाण है कि उसने कभी भी समाजवाद या क्रांति का सपना नहीं देखा था, वह बस छोटे-छोटे सुधारों के लिए गुहार लगा रहा था। उसकी सफलता स्पष्ट तौर पर स्तालिनवादियों और उनके तहत पीएसपी, जो क्यूबा में तानाशाहियों के सदा ही सहयोगी रहे, की खुली गद्दारी के चलते पैदा हुए राजनीतिक शून्य के कारण संभव हुई। स्तालिनवादी पीएसपी का प्रोग्राम बेहद घृणास्पद था जिसकी तुलना में कास्त्रो का घोर सुधारवादी कार्यक्रम भी कहीं ज्यादा क्रान्तिकारी दीख पड़ता था।
मोनकाडा पर उसके असफल दुस्साहस के बाद, कास्त्रो को जेल हुई और मुकदमा चला, पर बाद में माफ़ी दे दी गयी। उसका अदालत में दिया गया ब्यान 'इतिहास मुझे सही साबित करेगा' खुद इस तथ्य का ज्वलंत प्रमाण है कि उसने कभी भी समाजवाद या क्रांति का सपना नहीं देखा था, वह बस छोटे-छोटे सुधारों के लिए गुहार लगा रहा था। उसकी सफलता स्पष्ट तौर पर स्तालिनवादियों और उनके तहत पीएसपी, जो क्यूबा में तानाशाहियों के सदा ही सहयोगी रहे, की खुली गद्दारी के चलते पैदा हुए राजनीतिक शून्य के कारण संभव हुई। स्तालिनवादी पीएसपी का प्रोग्राम बेहद घृणास्पद था जिसकी तुलना में कास्त्रो का घोर सुधारवादी कार्यक्रम भी कहीं ज्यादा क्रान्तिकारी दीख पड़ता था।
जेल से छूटने के बाद, कास्त्रो
ने फिर ‘ग्रेनमा’ दुस्साहस में हिस्सा लिया, जिसमें फिर उसे असफलता ही हाथ लगी। सिएरा
मेस्त्रा की पहाड़ियों में पीछे हटते, उसके 200 साथियों में सिर्फ एक दर्जन ही बच
सके थे। पहाड़ियों में, संख्या में बढ़ते, वे कई दस्तों में विकसित हुए, जिसे
‘विद्रोही सेना’ कहा गया। यह सेना 1959 में हवाना पर काबिज़ होने में कामयाब रही।
कास्त्रोवादियों के तमाम
दावों के विपरीत, यह सफलता, कुछ 'नायकों' के फौजी साहस का नतीजा नहीं थी, बल्कि
अनेक राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय कारकों का, सबसे पहले बतिस्ता शासन के विरुद्ध क्यूबाई
शहरों में गहराते जा रहे तीखे जनसंघर्ष का नतीजा थी। बतिस्ता सरकार न सिर्फ मज़दूरों
और किसानों के आंदोलनों के निशाने पर थी, बल्कि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के
कोपभाजन का भी शिकार होती जा रही थी। इसके ढहने से एक महीने पहले अमेरिका को भी बतिस्ता
शासन को फौजी मदद से हाथ खींचना पड़ा था। बतिस्ता शासन के 6 सालों के दौरान कुल 20
हज़ार हादसों में, 19 हज़ार लोगों ने अपनी जान से हाथ धोया। कास्त्रो की कथित
विद्रोही सेना, कभी भी बतिस्ता की फौज के साथ किसी बड़ी निर्णायक झड़प में नहीं
उलझी। आदि से अंत तक, सिएरा मेस्त्रा में ऐसी कोई सैनिक मुठभेड़ नहीं हुई, जिसमें
दो सौ से अधिक लड़ाकों ने हिस्सा लिया हो।
क्यूबा के शहरों में, शहरी
मज़दूर वर्ग का आन्दोलन, क्रांति के लिए एक शक्तिशाली उत्तोलक था। शहरी हड़तालों, खदान-मज़दूरों
की हड़तालों और अगणित फैक्ट्री संघर्षों जैसे तीक्ष्ण और व्यापक औजारों ने बतिस्ता
शासन को घिसाव-थकाव के जरिए खोखला कर, अंतिम प्रहार के लिए तैयार कर दिया. मगर
सर्वहारा के राजनीतिक हिरावल, नेतृत्वकारी क्रान्तिकारी मार्क्सवादी पार्टी के
अभाव में, शहरी सर्वहारा का संघर्ष खुद को राजनैतिक तौर पर संगठित करने और उसके
जरिए विद्रोही जनता पर अपना नेतृत्व स्थापित कर सशस्त्र तखतापल्ट करने में असफल
रहा।
कास्त्रो की सेना ने बतिस्ता
शासन को सिर्फ अंतिम धक्का दिया और खुद के लिए सत्ता हथिया ली. कास्त्रोवादी,
क्यूबा में निम्न-बुर्जुआ, राष्ट्रवादी, नौकरशाह राज्य बनाने में जुट गए. मज़दूर
वर्ग के द्वारा सत्ता के लिए दावा न प्रस्तुत कर पाने के चलते, कास्त्रोवादियों ने
खुद को मज़दूर वर्ग के बजाय राष्ट्रीय क्रांति के शीर्ष पर स्थापित कर लिया और इसे
समाजवादी लफ्फाजी से ढांपते हुए, सर्वहारा की अक्षमता को और गहन बना दिया।
क्यूबा की क्रांति में अपनी
भूमिका का बढ़ा-चढ़ा कर मूल्यांकन करते हुए, क्रांति की यांत्रिकी को गलत व्याख्या के
जरिए पंगु बनाते हुए, कास्त्रोवादी दावा करते हैं कि क्यूबा द्वारा दिखाया गया, गुरिल्ला
संघर्ष का रास्ता समाजवाद की ओर नई राह खोलता है। इस नई राह का अर्थ और अंतर्य
अक्टूबर क्रांति के तमाम रणनीतिक सबकों को, और मार्क्स से लेकर लेनिन और उसके बाद के
संघर्ष के सारे निष्कर्षों को, जो मज़दूर वर्ग और उसकी मार्क्सवादी पार्टी की
केंद्रीय भूमिका को सफल क्रांति के लिए रेखांकित करते हैं, निष्प्रभावी और धूमिल
करने में निहित हैं. क्रांति की इस ‘नई राह’ इन तमाम निष्कर्षों को ख़ारिज कर, जिस
मन्त्र का आह्वान करती है, वह है- मुट्ठी भर लड़ाके, हथियार और जीतने का पक्का इरादा।
कास्त्रोवादियों का,
अंतराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग की अदम्य, असीमित शक्ति और क्रांतिकारी भूमिका में कोई
विश्वास नहीं है। उनके लिए, क्रांति बस दृढ-निश्चय का विषय है, जिसे बस हथियारों
की ताकत से मज़बूती दी जानी वांछित है। यह भ्रम, एक ओर तो क्यूबा में 1959 की विजय
की कतई गलत और स्वयंसेवी व्याख्याओं और दूसरी ओर क्यूबाई क्रांति की अटल और सही
यांत्रिकी से अनभिज्ञ होने से पैदा हुआ, जिसके परिणाम बहुत खतरनाक और हानिप्रद रहे।
लातिन अमेरिका से अफ्रिका
तक जहां जहां भी इस ‘नई राह’ को लागू करने या दोहराने की कोशिश की गई, नतीजे समान
रूप से विनाशकारी थे। इस ‘नई राह’ पर चलते, कहीं भी एक अकेली विजय हासिल नहीं हो
पाई, उल्टा क्रांति की महत्वपूर्ण शक्तियों की भयंकर बर्बादी हुई, जिसमें हज़ारो
प्रतिबद्ध नौजवानों का कत्लेआम सम्मिलित है।
कास्त्रोवाद की वजह से
विश्व समाजवादी आन्दोलन को अथाह और अकथनीय नुकसान हुए। माओवाद की तरह, कास्त्रोवाद
भी, क्रांति की अपनी गलत समझ और व्याख्याओं के चलते, विश्व-समाजवादी आन्दोलन की
धुरी से सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता को परे हटाने में सहायक हुआ। माओवादियों की
तरह, कास्त्रोवादियों ने भी मज़दूर वर्ग की केंद्रीय भूमिका और इसके
अंतराष्ट्रयीतावादी परिप्रेक्ष्य से स्पष्ट इनकार कर दिया।
निम्न-बुर्जुआ आधार पर
संगठित और सक्रिय, कास्त्रोवादियों ने, सत्ता में आने के बाद, असीमित अवसरवाद
प्रदर्शित करते हुए, खुद को सुदृढ़ करने की उम्मीद में, लातिन अमेरिका की सबसे क्रूर तानाशाहियों से हाथ मिलाया। कास्त्रो ने
मेक्सिको में प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ PRI की हिमायत की, जिसकी सरकार ने 1968 में
छात्रों के नरसंहार का हुक्म दिया था। इसने अर्जेटाइना और पेरू की सैनिक
तानाशाहियों की हिमायत करना उस वक़्त भी जारी रखा जब यह सरकारें मज़दूर वर्ग के
अंदोलनों का बरर्बता के साथ दमन कर रही थी। चिली में, 1971 के उस नरसंहार से तुरंत
पहले, जिसमें राष्ट्रपति अलेंदे की सरकार को बलपूर्वक उखाड़ फेंका गया और जनरल
पिनोशे के नेतृत्व में सीआईए द्वारा नियोजित फौजी तख्तापलट हुआ, कास्त्रो ने चिली
में अपनी यात्रा के दौरान अलेंदे के 'समाजवाद के लिए शांतिपूर्ण रास्ते' की हिमायत
की।
कास्त्रो का ‘व्यवहारवाद’
और उस पर आधारित सिद्धान्तहीन और व्यवहारिक राजनीति, अपने समय की विशिष्ट राजनीतिक
परिस्थितियों में, अमेरिका और सोवियत संघ नीत दो विरोधी युद्धरत शिविरों के बीच
सफल सौदेबाजी के जरिए टिकी रही। तीन दशकों तक क्यूबा बड़ी सोवियत आदानों पर न सिर्फ
निर्वाह करता रहा बल्कि फलता-फूलता रहा। बदले में सोवियत संघ ने क्यूबा को, अमेरिका
को 'शांतिपूर्ण सहअस्तित्व' कायम रखने को बाध्य करने के लिए ठीक उसकी नाक के नीचे,
फौजी अड्डे के रूप में इस्तेमाल किया।
१९९१ में सोवियत संघ के बिखरने
के साथ ही असहाय क्यूबा, अमेरिका के साथ तमाम वैमनस्य को तिलांजलि दे, उसके साथ
अपने रिश्ते प्रगाढ़ करने के लिए बाध्य हुआ। सौभाग्य से, इस बीच, कुछ समय के लिए
क्यूबा को शावेज के नेतृत्व में वेनजुएला की ओर से मिली मदद से राहत मिली मगर
वेनेजुएला में शावेज शासन के अवसान के साथ क्यूबा को पूरी तरह अमेरिका की ओर मुड़ना
पड़ा।
व्यवहारवादी राजनीति के बीच,
कास्त्रोवादियों की समाजवादी लफ्फाजी को, उनकी राजनैतिक हेरा-फेरी से अच्छी तरह समझा
जा सकता है। कास्त्रो ने सिएरा-मेस्त्रा की पहाड़ियों में अपने शुरूआती संघर्ष के
दौरान ही सैनिक आदेश के तहत राजनैतिक बहस पर, विशेषतः 'समाजवाद' शब्द के प्रयोग पर
प्रतिबंध लगा दिया था। 1959 में सत्ता में आने के बाद, कास्त्रोवादियों ने सोवियत
संघ को समाजवादी राज्य समझ, उससे सचेत रूप से दूरी बनाए रखी। क्यूबा में बुर्जुआ गणतंत्र
का सपना संजोए, वे सहायता के लिए अमेरिका की तरफ़ मुड़े। सत्ता हासिल करने के चार महीने
बाद ही कास्त्रो ने अमेरिका के अपने दौरे पर शेखी बघारी, "मैं स्पष्ट और निर्णायक तरीके
में कह चुका हूं कि हम लोग कम्युनिस्ट नहीं है। निजी निवेश के लिए हमारे दरवाजे
खुले हैं, जो क्यूबा में उद्योग को विकसित करेंगे। हमारे लिए कोई भी वास्तविक
विकास अमेरिका के साथ समझ और तालमेल न बनाने की स्थिति में असंभव होगा।"
दम्भी अमेरिका द्वारा क्यूबा
में, कास्त्रो सरकार द्वारा लागू मामूली भूमि सुधारों समेत, तमाम छोटे-मोटे
सुधारों का भी विरोध किए जाने, और दंडस्वरूप क्यूबा से चीनी के आयात और क्यूबा को
तेल निर्यात पर रोक लगा दिए जाने के बाद ही, कास्त्रोवादी, ख्रुशचेव के अधीन
सोवियत संघ की ओर मुड़ने के लिए बाध्य हुए। इस मोड़ के बाद, कास्त्रोवादियों ने स्तालिनवादी
पीएसपी से विलय कर लिया, जिसने क्यूबा में समूची क्रांति के दौरान उनका विरोध करते
हुए, सबसे प्रतिक्रियावादी तत्वों को सहयोग और समर्थन दिया था। कास्त्रोवादियों ने
इस तरह क्रांतिविरोधी स्तालिनवादी पीएसपी को लाल स्वर से सज्जित किया और बदले में PSP
की भारी-भरकम नौकरशाहाना मशीन हासिल की। कास्त्रो के अधीन राज्य ने, क्रेमलिन में
ख्रुश्चेव के अधीन प्रतिक्रियावादी स्तालिनवादी हुकूमत को खुश करने के लिए, लीओन
ट्रोट्स्की के हत्यारे, रेमन मारकेडर को, मेक्सिको जेल में अपने 20 साल पूरे करने
के बाद, शरण दी थी।
समाजवाद और जनवाद
कास्त्रोवादियों के लिए उनके निम्न-बुर्जुआ मूल और चरित्र को ढ़कने के लिए, महज लफ्फाजी
थी। इसने उन्हें क्रांति के छलावरण के नीचे क्रेमलिन से निरंकुश और सर्वसत्तावादी
राज्य आयात करने के लिए मदद दी और सक्षम बनाया। समाजवाद के नाम पर,
कास्त्रोवादियों ने क्रेमलिन से नौकरशाहना "उपकरण" के साथ स्तालिनवाद के
प्रतिक्रियावादी कार्यक्रम और विचारधारा को भी आयात किया। कास्त्रो ने इसे इतर
शब्दों में स्वीकारते हुए कहा, "मैं बतिस्ता के तख्तापलट से पहले
मार्क्सवादी-लेनिनवादी बन चुका था, पर कम्युनिस्ट नहीं"।
1991 में सोवियत संघ के टूटने
के बाद, कास्त्रो सरकार ने तुरंत ही अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेक दिये।
इसने विदेशी निवेश के लिए क्यूबा के द्वार खोल दिये और अमेरिका के लिए उसमें विशेषाधिकार
सुरक्षित कर दिए। कास्त्रो के द्वारा पूंजीवाद के बरक्स निभाया गया किरदार अन्य
बुर्जुआ राष्ट्रीय राज्यों के द्वारा निभायी गई भूमिका से बिलकुल भी अलग नहीं था। इसने
अपने देश के सस्ते श्रम और प्राकृतिक स्रोतों को विदेश निर्यात करने के लिए उसी
तरह सौदेबाज़ी की। कास्त्रो शासन, 1959 की क्रांति की तमाम उपलब्धियों को धूमिल करने
में सहायक रहा. खुद कास्त्रो एक के बाद दूसरी ढलान और फिसलन का साक्षी रहा और यह सब
उसी के राजनीतिक निरीक्षण में हुआ।
उस वक़्त जब जन-संघर्ष चरम
पर थे, जिनके चलते विद्रोहों की एक समूची श्रृंखला सामने आयी और बतिस्ता की घृणित
तानाशाही सत्ता चलाने के योग्य नहीं बची, तब निम्न-बुर्जुआ कास्त्रोवादियों ने सर्वहारा
को एक ओर धकेल क्यूबा में सत्ता पर अपना आधिपत्य कायम किया।
जनता के उभार की लहरों पर
और मज़दूर वर्ग के दावे की अनुपस्थिति में, कास्त्रोवादी सत्ता में आये. मगर उन्होंने जो सत्ता कायम की वह विश्व-पूंजीवाद के लिए कोई
खतरा या चुनौती नहीं थी। वे क्रांतिकारी उभार के दौरान सिर्फ सत्ता के अस्थाई धारक ही थे। फिदेल के अधीन राष्ट्रवादी शासन,
महज एक बोनापार्टवादी अधिनायकत्व था जिसने मज़दूर वर्ग को हाशिये पर धकेल, उसे सत्ता
हासिल करने से ही रोक दिया।
दिसंबर 2014 के रहस्योदघाटन
ने, जिसमें अपने देश की जनता की पीठ पीछे, क्यूबा, पोप फ्रांसिस की मध्यस्ता में
अमेरिका के साथ गुप्त वार्ता में शामिल था, कतई आश्चर्यचकित नहीं किया। कास्त्रो
के अधीन निम्न-बुर्जुआ राज्य, विश्व-पूंजीवाद के आगे समर्पण कर चुका था।
पहले मास्को और फिर
वेनजुएला से प्राप्त, सबसिडियों पर निर्वाह करते हुए, अंतत: क्यूबा बहुत तेज़ी से अपने
क्रांति-पूर्व के स्तर, अभिजात अमेरिकियों के लिए पर्यटन-स्थल और चीनी के निर्यातक
के रूप में, विश्व-पूंजीवाद के पिछवाड़े में बदलता चला गया। अपना अस्तित्व बचने
लिए उसे नव-उदारवाद को गले लगाने के लिए विवश होना पड़ा।
‘एक देश में समाजवाद’ के
स्तालिनवादी कार्यक्रम से बंधा क्यूबा, आज इस बोगस कार्यक्रम की असफलता को बिम्बित
करते हुए, क्रांति से पहले की स्थिति, अमेरिका के अर्ध-उपनिवेश में रूपांतरण, की ओर
खिसक रहा है।
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