Thursday, 12 February 2015

दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की विजय, पूंजीवाद के गहराते राजनीतिक संकट की आहट है

राजेश त्यागी/ १२.२.२०१५ 

‘भारत माता की जय’ और ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ के धुर विरोधी नारों के बीच खुद को संतुलित कर रही आम आदमी पार्टी (AAP) ने, दिल्ली के विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है. ७० सीटों वाली विधानसभा में AAP को ६७ सीटें हासिल हुई हैं.

चुनावी नतीजों ने और सबके अतिरिक्त AAP नेताओं को भी आश्चर्य में डाल दिया. नतीजों पर टिप्पणी करते, AAP नेता केजरीवाल ने कहा, “नतीजे चौंकाने वाले हैं. मुझे डर भी लग रहा है और खुश भी हूँ”.

यह सफलता, एक ओर तो बुर्जुआ उदारवादी कांग्रेस के पतन और दूसरी ओर मतों के भाजपा और AAP के बीच दो-ध्रुवीय विभाजन के चलते संभव हुई है. जहां कांग्रेस ९.७ प्रतिशत पर सिमट गई, वहीँ भाजपा ने ३२.२ प्रतिशत और AAP ने ५४.३ प्रतिशत मत समेटे. मतों के आयतन से मापें तो कोई चमत्कार नज़र नहीं आता, किन्तु इस विशिष्ट ध्रुवीकरण ने सीटों के मामले में AAP को कहीं बड़ा लाभ दे दिया. यह बीजगणित, अपने आप में बुर्जुआ जनवाद की परोक्ष प्रतिनिधित्व पर आधारित संसदीयता में अन्तर्निहित धोखाधड़ी को भी रेखांकित करता है, जो सर्वहारा पार्टियों के लिए बहुमत लेकर सत्ता में आना असंभव बना देता है.

AAP की यह चुनावी सफलता, न तो इसके नेताओं के रणनीतिक कौशल और न ही भाजपा नेताओं की अकुशलता का परिणाम है. यह सफलता, बिलकुल सीधे, पूंजीवाद-परस्त पार्टियों, नेताओं, सरकारों और उनकी नीतियों के खिलाफ मेहनतकश जनता के बीच पनपते रोष और आक्रोश का निश्चित लक्षण है. जनादेश, पूरी तरह पूंजी की व्यवस्था के विरुद्ध और आमूल बदलाव के पक्ष में है.

सच को स्वीकारते, आर.एस.एस. के शीर्ष नेता एम.जी.वैद्य ने कहा- “यह AAP के पक्ष में नहीं, बल्कि भाजपा के विरोध में लहर थी”. बेहतर होता, वह यह भी जोड़ देते कि २०१४ में भी यह भाजपा के पक्ष में नहीं, बल्कि कांग्रेस के विरोध में लहर थी.

मई २०१४, के लोकसभा चुनाव में दिल्ली में ४६.५ प्रतिशत वोट लेकर सातों लोकसभा सीटें हासिल करने वाली भाजपा, नौ महीनों के भीतर, ३२.२ प्रतिशत मतों और मात्र तीन विधानसभा सीटों पर सिमट गई. २०१४ में भाजपा की यह सफलता केंद्र में तत्कालीन कांग्रेस सरकार की जिन पूंजी-परस्त नीतियों का परिणाम थी, भाजपा ने सत्ता में आने के बाद उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाया. पूंजी की अर्थव्यवस्था के वैश्विक संकट और भारत की सिकुड़ती अर्थव्यवस्था के बीच, दिल्ली में १९९८ से चली आ रही कांग्रेस सरकार के साथ-साथ, भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार भी मेहनतकश जनता का कोपभाजन बनी और मई २०१४ में मात्र १३.३३ प्रतिशत वोट हासिल करने वाली AAP सीधे ५४.३ प्रतिशत पर पहुंच गई.

इन चुनावों में मेहनतकश जनता ने जाति, संप्रदाय के झूठे समीकरणों को सचेत रूप से नकारा है और मुख्य स्वर वर्ग-दिशाबोध से मुखरित हुए हैं. त्रिलोकपुरी और बवाना सहित कई इलाकों में दक्षिणपंथी संघ परिवार ने मुस्लिम विरोधी तनाव पैदा करके, और कई ईसाई गिरजाघरों में तोड़-फोड़ और आगजनी करके, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास किया, जिसे संबल नहीं मिल सका.

उपलब्ध विकल्पों को, एक के बाद एक तेज़ी से नकारती हुई मेहनतकश जनता का, पूंजी की व्यवस्था से आम मोहभंग हो रहा है. इस मोहभंग का कारण, एक ओर तो बेहतर जीवन के तमाम वादों और नारों के बीच, मेहनतकश जनता के जीवन की लगातार बदतर होती जा रही स्थितियां हैं, और दूसरी ओर तेज़ी से बढ़ती आर्थिक विषमता है, जिसने समाज के एक छोर पर अविश्सनीय सम्पन्नता तो दूसरे पर असह्य विपन्नता को जन्म दिया है.

पूंजी की पुरानी पार्टियों से मोहभंग और बुर्जुआ जनवाद की क्षय के इस दौर में AAP जैसी दोगली, दोमुंही और लफ्फाज़ पार्टी के लिए जगह बनना आश्चर्यजनक नहीं है. कोई इतिहास, कोई निश्चित कार्यक्रम न होने से, इस पार्टी ने अनंत अवसरवाद के लिए दरवाज़े खुले रखे हैं. पूंजीवाद का पूरा समर्थन करते भी यह पार्टी अपनी छवि को व्यवस्था-विरोधी बनाये रही, और पूरी तरह बुर्जुआ पार्टी होते हुए भी यह गरीबों की पक्षधर होने का झूठा आभास देती रही. इस राजनीतिक छल-छद्म के सहारे यह पार्टी विरोधी सामाजिक वर्गों के बीच अपने लिए व्यापक समर्थन जुटा पाई.

AAP के नेता, इस बीच, लगातार पूंजीपतियों को आश्वस्त करते रहे. AAP नेता केजरीवाल ने कहा कि “जो परिवर्तन वह लाना चाहते हैं, वह पूंजीपति वर्ग के बिना संभव नहीं है”, और कि “मेरे कितने ही रिश्तेदार व्यवसायी हैं और में खुद व्यवसायी परिवार से हूं”. AAP नेताओं ने बार-बार दोहराया कि वे पूंजीवाद के नहीं, बल्कि भाई-भतीजावाद के खिलाफ हैं और मुक्त तथा स्वच्छ प्रतियोगिता के पक्ष में हैं.

समाजवाद के प्रति अपना रुख स्पष्ट करते हुए, AAP नेता योगेन्द्र यादव ने कहा कि “समाजवाद का सोवियत मॉडल नाकाम हो गया है और पूंजीवाद ही एकमात्र शेष विकल्प है”.

AAP की इसी पूंजी-परस्त राजनीति को प्रतिध्वनित करते और वर्ग सामंजस्य की दुहाई देते, चुनावी जीत के तुरंत बाद, केजरीवाल ने कहा कि “मुझे आशा है कि दिल्ली की दो करोड़ जनता के साथ हम इसे ऐसी जगह बना सकते हैं जहां अमीर-गरीब दोनों शांतिपूर्वक साथ रह सकें”. जमीन पर, इस शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का एक ही अर्थ है- दिल्ली पर पूंजीपतियों का आधिपत्य.

चुनाव में अपनी विजय के साथ ही AAP के नेताओं ने, भाजपा के शीर्ष नेताओं, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू और नरेंद्र मोदी की दहलीज़ पर दस्तक देनी शुरू की और इस बात के स्पष्ट संकेत दे दिए कि वह दक्षिणपंथी केंद्र सरकार के साथ अच्छे संबंधों और तालमेल की इच्छुक है.

दृष्टि और कार्यक्रम से विहीन, इस पार्टी का दिवालिया नेतृत्व, पूंजीवाद में सुधार की झूठी मरीचिका का प्रचारक है. अपराध और भ्रष्टाचार जैसे असाध्य पूंजीवादी रोगों का निदान यह पार्टी CCTV कैमरों और लोकपाल जैसी बोगस संस्थाओं में तलाश रही है. वास्तव में, AAP का उद्देश्य, पूंजीवाद की चौखटों को लांघती मेहनतकश जनता को वापस पूंजी के बाड़ों में खींचना है.

AAP का राजनीतिक उदगम अन्ना आन्दोलन से हुआ है जो कॉर्पोरेट लूट, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी के खिलाफ मध्यवर्गीय विरोध की अभिव्यक्ति था. इस आन्दोलन का एक हिस्सा सीधे भाजपा में शामिल हो गया और दूसरा AAP में. विनोद कुमार बिन्नी और शाजिया इल्मी जैसे कई नेता बाद में AAP छोड़कर भाजपा में गए. अपनी सामाजिक अवस्थिति और अपनी राजनीति, दोनों के लिहाज़ से, AAP पूंजी के सत्ता प्रतिष्ठान के साथ अटूट रूप से बंधी है और अपने दृष्टिकोण में प्रतिक्रियावादी है. योगेन्द्र यादव जैसे इसके कई नेता, सीधे बुर्जुआ पार्टियों से आए हैं. योगेन्द्र कांग्रेस के सत्ता में रहते उसकी नौ सदस्यीय सलाहकार समिति के सदस्य रह चुके हैं.

पहले भाजपा और फिर AAP के उभार और विजय का सबसे बड़ा श्रेय, स्तालिनवादी वाम नेताओं को जाता है, जिन्होंने दशकों से, एक के बाद दूसरी दक्षिणपंथी सरकारों को आपराधिक समर्थन जारी रखा. यू.पी.ए.-१ और यू.पी.ए.-२ के कार्यकाल में, जबकि मजदूरों, मेहनतकशों की लूट अपने चरम पर जारी थी, उन्हें नियंत्रित करते हुए, विरोध से विरत रखा. ये स्तालिनवादी वाम नेता पहले कांग्रेस से चिपके रहे और फिर AAP को समर्थन दे दिया. स्तालिनवादी नेता, बूर्ज्वा सत्ता के लिए संकट-मोचक का काम करते रहे हैं. दिल्ली में पंद्रह सीटों पर खड़े, इन दशकों पुरानी, सात सबसे बड़ी वाम पार्टियों के प्रत्याशी, कुल छह हज़ार वोट भी जमा नहीं कर पाए और इनमें कोई जमानत तक नहीं बचा पाया. पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा में स्तालिनवादी वाम मोर्चे के नियंत्रण वाली सरकारों ने ठीक वही नीतियां लागू कीं जिन्हें केंद्र में कांग्रेस और भाजपा की दक्षिणपंथी सरकारें लागू कर रही थीं.

सात स्तालिनवादी वाम पार्टियों के नेताओं ने अभी एक हफ्ता पहले ही AAP को समर्थन घोषित करते हुए कहा था कि AAP फासिस्ट भाजपा का रथ रोकेगी. चुनाव नतीजों के अगले ही दिन AAP नेता कुमार विश्वास ने, NDTV को इंटरव्यू में कहा कि “हमारा उद्देश्य मोदी को रोकना नहीं है, भ्रष्टाचार को रोकना है”.

स्तालिनवादी पार्टियों ने, AAP जैसी बूर्ज्वा पार्टियों को न सिर्फ समर्थन, बल्कि नेता भी दिए. संजय सिंह और गोपाल राय जैसे अवसरवादी, स्तालिनवादी सीपीआई एम.एल. लिबरेशन से निकले हैं. खुद क्रान्ति से किनारा कर चुकी स्तालिनवादी पार्टियां और इनके नेता बूर्ज्वा पार्टियों के लिए इसी कुलीगिरी में लगे हैं.

स्तालिनवादी नेताओं ने सर्वहारा की राजनीतिक स्वतंत्रता को नष्ट करते हुए, पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में, उसकी पहलकदमी को असंभव बना दिया. इससे भाजपा और AAP जैसी पार्टियों के लिए विपक्ष में खड़े होने की जगह बन गई.

अपने तमाम लोकरंजक चुनावी वादों के साथ, AAP और उसकी सरकार, दो नावों पर ज्यादा देर सैर नहीं कर पाएगी और उसका कॉर्पोरेट प्रेम जल्द ही उजागर होगा. बहुत जल्द ही इसकी सरकार मेहनतकश जनता की आकांक्षाओं से टकराती दिखेगी. चुनाव के अभूतपूर्व नतीजे स्पष्ट चेतावनी हैं कि मेहनतकश जनता अपना धैर्य खो रही है, और AAP को सम्भवतः उतना वक़्त भी नहीं मिलेगा जितना भाजपा को मिला. कांग्रेस को यदि नौ साल और भाजपा को नौ महीने मिले, तो शायद AAP को जनता का कोपभाजन बनने से पहले, नौ हफ्ते ही मिलें.

जबकि पूंजी के चाकर, झूठे नेता, तेज़ी से दक्षिण की ओर घूम रहे हैं, मेहनतकश जनता के तेवर बदल रहे हैं और राजनीतिक विलोडक तेज़ी से वाम की ओर झूल रहा है. इस समय क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों का दायित्व है कि वे सर्वहारा संगठनों के भीतर सर्वहारा की पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता पर आधारित क्रान्तिकारी कार्यक्रम के लिए युद्ध को तेज़ करते हुए, सर्वत्र यह मांग करें कि बूर्ज्वाजी और इसके तमाम हिस्सों से तुरंत सम्बन्ध तोड़े जायें और उन सभी तत्वों को निकाल बाहर किया जाय जो पूंजीपति वर्ग के हिस्सों, उसकी पार्टियों और नेताओं के साथ सहबंधों, मोर्चों और समझौतों के समर्थक हैं.

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