'सतत क्रान्ति’ के कार्यक्रम के गिर्द संगठित हों!
वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी के गिर्द संगठित हों!!
चतुर्थ अन्तर्राष्ट्रीय को पुनर्गठित करो! बी.एल.पी.आई. का पुनर्गठन करो!
वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी के गिर्द संगठित हों!!
चतुर्थ अन्तर्राष्ट्रीय को पुनर्गठित करो! बी.एल.पी.आई. का पुनर्गठन करो!
भारत में, सर्वहारा
वर्ग से, लंबे समय से यह अपेक्षित था कि वह विश्व सर्वहारा पार्टी
-चतुर्थ अन्तर्राष्ट्रीय- के हिस्से के रूप में, एक
वास्तविक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण करने के लिए, अपने इतिहास में एक नया पृष्ठ खोले। वर्कर्स सोशलिस्ट
पार्टी की स्थापना करते हुए, मजदूर
वर्ग के अगुआ तत्वों ने अपने संघर्षों को निर्णायक रूप से “सतत क्रांति” के
कार्यक्रम पर आधारित करते हुए, “चतुर्थ
अन्तर्राष्ट्रीय” आन्दोलन
की ओर निश्चित मोड़ लिया है।
हमारे कार्यक्रम का उद्देश्य है, मजदूरों-युवाओं को, पिछली
शताब्दी में विश्व सर्वहारा की विजयों-पराजयों से निकले अमूल्य निष्कर्षों पर
आधारित एक क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य से लैस करना और इस प्रकार उन्हें, समाजवाद के लिए उस अनमनीय और अदम्य संघर्ष की ओर
पुनर्निदेशित करना, जो
तब से ‘चतुर्थ अन्तर्राष्ट्रीय’ के
बैनर तले, ‘सतत क्रांति’ के
युद्धघोष के साथ, समाजवादी
आंदोलन के स्तालिनवादी-माओवादी अध:पतन के विरुद्ध चलाया जाता रहा है।
प्रकारांतर से, यह
कार्यक्रम, न सिर्फ सर्वहारा वर्ग के प्रत्यक्ष शत्रुओं- बुर्जुआ
राष्ट्रवाद और उदारवाद के विरुद्ध, बल्कि
उसके छद्म शत्रुओं- सामाजिक जनवाद, स्टालिनवाद, माओवाद, मध्यमार्ग
और निम्न बुर्जुआ क्रांतिवाद, के
विरुद्ध भी, जिन्होंने सर्वहारा आन्दोलन को धोखा देते हुए पिछली शताब्दी
में बारम्बार बुर्जुआजी को अपनी सत्ता पुनःस्थिर करने का अवसर और सहायता प्रदान की, अविरत राजनीतिक युद्ध छेड़ने की मांग करता है।
___________________
समूचे विश्व पर साम्राज्यवाद का वर्चस्व कायम
है!
विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अत्यधिक विकास के
साथ, विशेष रूप से माइक्रोचिप, इंटिग्रेटेड
सर्किट और कंप्यूटर के आविष्कार के बाद, भौतिक
उत्पादक शक्तियों का प्रसार अपने चरम पर पहुँच गया है, जिसने न सिर्फ विपन्नता और अभावों का पूर्ण उन्मूलन
सुनिश्चित बनाने, बल्कि
भौतिक साधनों की प्रचुरता और सभी प्रकार के शारीरिक श्रम के उन्मूलन के साथ, दुनिया में सभी के लिए सुन्दर जीवन स्तर सुनिश्चित करते हुए, मानवजाति
के लिए उच्चतर सोपानों पर संस्कृति के प्रफुल्लित होने के लिए, मार्ग प्रशस्त कर दिया है।
लेकिन, इसके
बजाय, सर्वहारा और अन्य मेहनतकश वर्गों की जीवन स्थितियां
अधिकाधिक बिगडती जा रही हैं; और
किसी परिप्रेक्ष्य और भविष्य की आशा से वंचित, मानव
संस्कृति, गंभीर संकट में है।
मुख्य बाधक है- उत्पादन साधनों के निजी
स्वामित्व पर आधारित विश्व आर्थिक प्रणाली, और
प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रीय-राज्यों के बीच विश्व का अतार्किक विभाजन, जिसे हम साम्राज्यवाद के नाम से जानते हैं। साम्राज्यवाद की
व्यवस्था, विश्व पूँजीवाद, अपने
सदियों पुराने उत्पादन संबंधो के जरिये, उत्पादक
शक्तियों को अवरुद्ध करता है, और
समाजवादी समाज की ओर बढ़ने के रास्ते को बाधित करता है।
साम्राज्यवाद का विकास पूंजीवाद की आर्थिक
बुनियाद पर हुआ है। एक सामाजिक-आर्थिक संगठन के रूप में, पूंजीवाद की ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील भूमिका, बहुत पहले ही समाप्त हो चुकी है। दीर्घकाल से क्षरित हो रहे, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद दोनों, गरीबी, शोषण, हिंसा और कष्टों के अतिरिक्त मानवता को और कुछ भी नहीं दे
पाए हैं, न दे ही सकते हैं।
भूमंडलीय ऊष्णता (ग्लोबल वार्मिंग), निरंतर प्राकृतिक आपदायें, और
प्रकृति से मनुष्य के सम्पूर्ण
अलगाव के चलते, मानवजाति का जीवन-स्रोत, पर्यावरण, इस पतनशील व्यवस्था के शिकारों में से एक है। साम्राज्यवाद
के अमानवीय, विवेकहीन और कालातीत अर्थतंत्र द्वारा मुनाफों की नंगी दौड़
के चलते, प्राकृतिक सम्पदा और स्रोतों के अंधाधुंध दोहन और दुरूपयोग
से समूची मानव-सभ्यता के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। इस प्रकार, मुनाफे पर आधारित साम्राज्यवादी व्यवस्था और मानवता के
अस्तित्व के बीच, एक
असमाधेय संघर्ष खड़ा हो गया है।
पूंजीवाद के दायरे के भीतर, इस संकट को सुलझाने, और
जीवन-स्तर को ऊपर उठाने के सभी प्रयास और वायदे, बाज़ार
की अराजकता के चलते, जिसका
हर चीज़ पर वर्चस्व हैं, व्यर्थ
जा रहे हैं। यह अराजकता, उत्पादन
साधनों के निजी स्वामित्व पर आधारित इस व्यवस्था से उत्पन्न होती हैं, जो मुनाफाखोरी की अनिवार्यता के अलावा और कुछ नहीं जानती।
साम्राज्यवाद का महत्वपूर्ण चरण
हम साम्राज्यवाद के विकास के एक महत्वपूर्ण और
उन्नत दौर में रह रहे हैं। पण्य और वित्तीय पूंजी के भूमंडलीकरण के बाद, यह उत्पादकीय पूंजी है, जो
साम्राज्यवाद की परिस्थितियों और सामान्य अवस्थाओं के तहत, समूची दुनिया में बिखरी उत्पादन प्रक्रियाओं को एकीकृत करती
हुई, भूमंडलीकृत हो रही है।
विशाल निगमों के रूप में, नये
पूंजीवादी गठबंधन और ट्रस्ट, पहले
ही विश्व अर्थव्यवस्था और राजनीति में एक प्रमुख शक्ति बन गए हैं। विशाल स्रोतों
के, अपने नियंत्रण में रहते, इन
पूंजीवादी निगमों ने,पहले से ही दुनिया के उन्नत और पिछड़े, दोनों
प्रकार के देशों में, राष्ट्रीय
सरकारों को अपने अधीन कर लिया हैं। राष्ट्रीय-राज्यों में विभक्त और इन विशाल
निगमों के आधिपत्य के अधीन-यह है वर्तमान विश्व की संरचना। एक ओर निजी संपत्ति और
राष्ट्रीय-राज्य पर आधारित पुराने पूंजीवादी उत्पादन संबंधो और दूसरी ओर विश्व
स्तर पर एकीकृत हो रही उत्पादक शक्तियों, के
बीच का यह अंतर्विरोध, हमारे
समय में क्रांति की मुख्य प्रेरक शक्ति है। इसलिए, विश्व
समाजवादी क्रांति के लिए मूलभूत आवश्यक पूर्वावस्थाएं उत्पन्न हो चुकी हैं और
मौजूद हैं।
हमारे समय में दुनिया, अपनी साम्राज्यवादी मंजिल में, उत्पादन और वित्त के अभूतपूर्व पैमाने पर वैश्विक एकीकरण के
चलते, हालाकि, अत्यंत
तीव्रता से, इतिहास में उच्चतम गति से विकसित हो रही है, मगर इसकी समग्र क्षय और और ठहराव के लक्षण अधिकाधिक प्रकट
हो रहे हैं। एक तरफ, उत्पादन
का व्यापक समाजीकरण हो रहा है, तो
दूसरी तरफ, साम्राज्यवाद की व्यवस्था के निजी संपत्ति और
राष्ट्रीय-राज्यों में धंसे रहते, उपभोग
व्यक्तिगत ही बना हुआ है। उत्पादन प्रक्रिया के इस समाजीकरण ने पहले से ही एक
समाजवादी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए नींव रख दी है, परन्तु निजी संपत्ति और राष्ट्रीय-राज्य में परिलक्षित
पुराने उत्पादन संबंध, समाजीकरण
की इस प्रक्रिया को अवरुद्ध कर रहे हैं।
पूंजीवाद का स्थायी संकट
पूंजीवादी उत्पादन और वित्त के वैश्विक एकीकरण का वर्तमान
युग, इजारेदार पूंजीवाद का युग है,जिसने
उद्योग की सभी प्रमुख शाखाओं से प्रतिस्पर्धा का सफाया कर दिया हैं। खुली
प्रतिस्पर्धा का स्थान अब हिंसा, रक्तपात
और छल-कपट ने ले लिया है।
विशाल संसाधनों के नियंता, पूंजीवादी एकाधिकारी संगठनो, ट्रस्टो, अंतर्राष्ट्रीय निगमों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने, दुनिया में हर चीज़ पर कब्ज़ा कर लिया है, और दुनिया पूरी तरह इनके बीच विभाजित है।
आज, विश्व
अर्थव्यवस्था, एक ओर पूंजी के भूमण्डलीकरण (पण्य, वित्त, और
उत्पादन) का खाका प्रस्तुत करती है, तो
दूसरी ओर उत्पादन के इसी एकीकरण ने एक अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग को, मानवजाति के इतिहास में सबसे क्रांतिकारी वर्ग को, विश्व-पूंजीवाद की वास्तव में कब्र खोदने वाले वर्ग को पैदा
कर दिया है।
साम्राज्यवादी वैश्विकीकरण ने, पुराने पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को कम करने के बजाय उन्हें
और भी विध्वंसक और तीखा बना दिया है। विश्व के असमान विकास के चलते, यह वैश्विकीकरण, एक
ओर, पिछड़े देशो में अर्थव्यवस्था की अभूतपूर्व वृद्धि में, तो दूसरी ओर, उन्नत
देशो में मजदूरी में गिरावट और पिछड़े देशो में किसानो की भारी तबाही में परिणत हुआ
हैं।
यह दावा, कि
पूंजीवादी बाज़ार, संसाधनों
का अचूक संभाजक और सामाजिक आवश्यकताओं का एक
सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान नियामक
है, सट्टाबाज़ार के घोटालों की अंतहीन श्रृंखला और अरबों-खरबों
के दीवालों, जिन्होंने विश्व आर्थिक प्रणाली को हिलाकर रख दिया है, के बीच, पूरी
तरह धराशायी हो चुका है।
बीसवीं सदी और उसके साथ आधुनिक साम्राज्यवाद के
उदभव के साथ ही, विश्व
पूंजीवाद गहन संकट में था, जिसके
चलते बड़ी सैन्य-शक्तियों के बीच प्रथम विश्वयुद्ध हुआ। यह संकट, वैश्विक तौर पर एकीकृत हो रही अर्थव्यवस्था और
राष्ट्रीय-राज्यों, जो
विस्तारित हो रही आर्थिक शक्तियों को समायोजित करने में असमर्थ थे, के पुराने ढाँचे के बीच के असाध्य और गहरे अंतर्विरोध से
उत्पन्न हुआ था। लेकिन इस अंतर्विरोध को सुलझाने में नाकाम प्रथम विश्वयुद्ध, गंभीर आर्थिक संकट और 1929 की एतिहासिक मंदी में परिणत हुआ।
इसे सुलझाने के सभी प्रयास व्यर्थ हो गए और वह सीधे द्वितीय विश्वयुद्ध में परिणत
हुआ। १९४४ का ब्रेटन-वुड्स समझौता, जो
वित्त्त के स्वतन्त्र परिचालन पर नियंत्रण करता था, और
विश्व-मुद्रा के रूप में डॉलर को अमेरिका द्वारा $३५
प्रति औंस स्वर्ण-संबल की गारंटी पर टिका था, अमेरिका
द्वारा गारंटी से पीछे हट जाने पर १९७१ में नष्ट हो गया, चूंकि अमेरिका के पास सोने के भंडारों से ज्यादा विदेशी
डॉलर जमा हो गए थे, जिससे
विशाल संकट और परिणामतः पुनः विनाश हुआ।
दशकों, कीन्स
द्वारा प्रतिपादित, कल्याणकारी
अर्थव्यवस्था के उपादानों के साथ खेलने के बाद, जब
आर्थिक और राजनीतिक अवयवों की एक समूची श्रृंखला द्वारा वैश्विक प्रवृत्तियों को
कृत्रिम रूप से बाधित कर दिया गया, तो
विश्व पूंजी ने १९७३ से उदारवाद और मुक्त-बाज़ार की वही राह पकड़ ली जिसका वह १९१४
से पहले अनुसरण कर रही थी।
1991 में स्तालिनवादी ब्यूरोक्रेटिक सत्ताओं के पतन के साथ, विश्व, वित्तीय
महाशक्तियों और पूंजीवादी निगमों के पूर्ण वर्चस्व और उनके बीच विश्व के विभाजन के
नए चरण में प्रवेश कर चुका था, और
सभी बाधाओं से मुक्त, दुनिया
भर में पूंजी के मुक्त प्रसार का पुराना शासन अभूतपूर्व पैमाने पर फिर से शुरू
हुआ। इस बार परिणाम अधिक विस्फोटक होंगे।
वैश्विक अर्थतंत्र और राष्ट्रीय-राज्य
वैश्विक तौर पर एकीकृत उत्पादन और विश्व
अर्थव्यवस्था, पूरी तरह से, पूरी
मानव जाति की भागीदारी और सहयोग के जरिये चलती हैं, जो
इस तथ्य के द्योतक
हैं कि उत्पादन प्रक्रिया पूर्णतः समाजीकृत हो चुकी है। समाजीकृत उत्पादन के ठीक
विपरीत, उपभोग अब भी निजी ही बना हुआ है। यह अंतर्विरोध, पूंजीवाद की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक सत्ता में भारी तनाव
पैदा कर रहा है। मुक्त प्रतिस्पर्धा के विलोपन और इजारेदारी के उभार ने, इस तनाव को कम नहीं किया बल्कि इसे चरम पर पहुंचा दिया है।
उद्योग और वित्त के अन्तर्राष्ट्रीय निगमों के हाथ में रहते, जबकि अर्थव्यवस्था भूमंडलीकृत है, पूंजीवाद का ढांचा अब भी राष्ट्रीय-राज्यों में रोपित है।
अंतिम विश्लेषण में राष्ट्रीय-राज्य ऐसे कार्याधारों का निर्माण करते हैं, जिनसे अलग-अलग देशों के शासक वर्ग, विश्व स्तर पर अपना-अपना हितसाधन करते हैं।
विश्व अर्थव्यवस्था, जहां निरंतर विकसित हो रही उत्पादक शक्तियों का
प्रतिनिधित्व करती है, वहीं
राष्ट्रीय-राज्य, निजी
सम्पति और बूर्जुआ सत्ता के प्रतिनिधि हैं। विश्व अर्थव्यवस्था, जहां उत्पादक शक्तियों के प्रसार और विकास की द्योतक है, वही राष्ट्रीय-राज्य बूर्जुआ शासन और निजी संपत्ति का आधार
बने हुए हैं। उत्पादक शक्तिया जहां अधिकाधिक राष्ट्रीय सीमाओं का अतिक्रमण कर रही
हैं, वही पूंजीवाद, राष्ट्रीय-राज्य
की बुनियाद पर खड़ा हुआ है।
तेजी से विकसित हो रही उत्पादक शक्तियों और निजी संपत्ति व
राष्ट्रीय-राज्य पर आधारित पुराने उत्पादन संबंधों के बीच का, मुख्यतः श्रम और पूँजी के बीच का, यह संघर्ष, पिछली
सदी में दो विश्वयुद्धों का मुख्य और वास्तविक कारण रहा है। हालाकि इसके समाधान
में असमर्थ रहे, दोनों
विश्वयुद्धों ने इस संघर्ष को और तीव्र बना दिया है।
इससे विश्व राजनीति में स्थायी घमासान के लिए
निश्चित स्थान बन गया है, जिसके
चलते, राष्ट्रीय-राज्यों के बीच छोटे पैमाने के अनगिनत प्रत्यक्ष
और परोक्ष युद्ध, तीसरे
विश्व-युद्ध के लिए आधार तैयार कर रहे हैं। इन अंतर्विरोधों, और फलतः सशस्त्र युद्धों का, खामियाजा
भुगत रही मानवता, फिलिस्तीन
से लेकर इराक और अफगानिस्तान तक, तीसरे
विश्व-युद्ध की उभरती संभावनाओं के बीच, स्थायी
रूप से एक अत्यंत विनाशकारी प्रलय के खतरे के नीचे सांस ले रही है।
यद्यपि राष्ट्रीय-राज्य के आर्थिक आधार का पूर्ण विलोप हो
चुका है, तथापि अभी वह, राष्ट्रीय
आधार पर संगठित बूर्जुआजी के विविध समूहों की सेवा में एक दुर्जेय राजनैतिक-सैन्य
मशीन के रूप में यथावत कायम है। पूंजी, चाहे
कितनी भी वैश्वीकृत हो जाए, किन्तु
राष्ट्रीय-राज्य और निजी संपत्ति की बुनियाद पर खड़े, पुराने
उत्पादन संबंधों से छुटकारा पाने में असमर्थ है। यह एकमात्र सर्वहारा वर्ग ही है, हमारे युग की उत्पादक शक्तियों में सबसे क्रांतिकारी, जो पुराने उत्पादन संबंधों के आधार पर खड़ी इन जीर्ण-शीर्ण
संस्थाओं को उलटने का ऐतिहासिक दायित्व पूरा करने में सक्षम है।
मुनाफ़ाखोरी के एकमात्र उद्देश्य की ओर उन्मुख, और विश्व पूंजीवाद की नींव पर टिकी, साम्राज्यवादी सत्ता, उत्पादक
शक्तियों का बड़े पैमाने पर और निरंतर विनाश करके स्वयं को बचा रही है। ये उत्पादक
शक्तियां, राष्ट्रीय-राज्य और उसकी संस्थाओ को, तमाम आर्थिक औचित्य से वंचित करते हुए, बहुत समय पहले ही संबंधित राष्ट्रीय-राज्यों की सीमित
सीमाओं को लांघ चुकी हैं। राष्ट्रीय-राज्य से स्वयं को अलग करते हुए और भूमण्डल के नित नए क्षेत्रों में प्रसारित होते हुए, ये उत्पादक शक्तियां, विश्व
स्तर पर अधिकाधिक संगठित और एकजुट होती जा रही हैं।
राष्ट्रीय-राज्य प्रणाली की संकीर्ण सीमाएं, जिनके अन्दर पूंजीवाद की उत्पादक शक्तियां एक दौर में
विकसित हुई थी, अब इन उत्पादक शक्तियों के वैश्विक संगठन को आगे बढाने और अथाह-अबाध विकास के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं। इनका
ढांचा, नयी उत्पादक शक्तियों को विकसित करने और नियंत्रित करने में
अक्षम है, और अपनी सारी प्रासंगिकता खोकर, तेज़ी से क्षरित हो रहा है। उत्पादक शक्तियां, चूंकि, बहुत
पहले ही राष्ट्रीय-राज्य की
सीमाओ का उल्लंघन कर चुकी हैं और वैश्विक स्तर पर लगातार एकीकृत होती जा रही हैं, ऐसे में राष्ट्रीय-राज्य प्रणाली और उसके आर्थिक आधार, अपना स्थान खो चुके हैं। राष्ट्रीय-राज्यों के बीच विश्व का
पुराना विभाजन, उत्पादक शक्तियों के वैश्विक स्तर पर एक्यबद्ध होने की
प्रक्रिया में एक बाधा, एक
प्रतिक्रान्तिकारी अवरोध
बन चुका है। उत्पादक शक्तियों के वैश्विक कूच के समक्ष, पूंजीवाद का पुराना ढांचा, और
निजी संपत्ति पर आधारित राष्ट्रीय-राज्य, दोनों
गल-सड़ रहे हैं और इन राष्ट्रीय-राज्यों के साथ जुडी हर चीज़, मनहूस ठहराव के बीच क्षरित हो रही है।
अतिरिक्त उत्पादक शक्तियां, जिन्हें साम्राज्यवादी राष्ट्रीय-राज्य समाहित नहीं कर पाते, के भारी विनाश के साथ-साथ, वे
उन्हें समायोजित करने के लिए, अपनी
भौगोलिक सीमाओं के बाहर, विदेशी
क्षेत्रों में, अपने आर्थिक प्रभाव के विस्तार-क्षेत्रो की तलाश में सक्रिय
रहते हैं। राष्ट्रीय-राज्यों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधो को तोड़ डालने की पूंजीपतियों
की यही महत्वाकांक्षा, राष्ट्रों
के बीच नित्यप्रति संघर्षों और भीषण युद्धों का मुख्य स्रोत है। न सिर्फ
साम्राज्यवादी राष्ट्रों की बूर्जुआजी ही परस्पर प्रतिस्पर्धा करती हैं, पिछड़े देशो पर अपना वर्चस्व स्थापित करने और उसे विस्तारित
करने के लिए उनका दमन करती हैं, बल्कि
पिछड़े राष्ट्रों की बुर्जुआजी भी, साम्राज्यवादी
राष्ट्रों का अनुग्रह और समर्थन प्राप्त करने के लिए, और विश्व पूंजी की सांझी निधि से उधार और निवेश आकर्षित
करने के लिए, परस्पर प्रतिस्पर्धा करती हैं। विशुद्ध मुनाफे के उद्देश्य
से प्रेरित, विश्व बुर्जुआजी की इस निर्मम, अनन्त, और
अंधी होड़ का अंत, अन्ततः
युद्ध और व्यापक हिंसा में होता है। हमारे युग में, साम्राज्यवाद, लगभग स्थायी बन चुके युद्धों और अंतहीन हिंसा के सहारे
जीवित है।
विश्व पूंजीवाद, युद्ध, हिंसा और आतंकवाद का मुख्य स्रोत है
पूंजीवाद का रक्तरंजित इतिहास,पिछली पूरी सदी में, युद्धों, विनाश, हिंसा
और मजदूर वर्ग की तबाही से भरा पड़ा है। पूंजीवाद-प्रेरित हिंसा के शिकारों की
संख्या करोडो में है, जबकि
इसमें समूचे महाद्वीपों में मौजूद गरीबी, भुखमरी
और उनसे जुड़ी दूसरी तबाहियों के आंकड़े शामिल नहीं हैं।
वर्तमान समय में, भौगोलिक-राजनैतिक
वर्चस्व और प्रभाव-क्षेत्रों की स्थापना, बाज़ारों
और महत्वपूर्ण संसाधनों पर नियंत्रण, और
सस्ते श्रम को हड़पने के लिए साम्राज्यवादी राज्यों का, सर्वप्रथम अमेरिका का, अनियन्त्रित
अभियान, अनगिनत, प्रछन्न
और प्रकट युद्धों, और
अविरत हिंसा का मुख्य स्रोत है।
इस सन्दर्भ में, आतंकवाद
के विरुद्ध साम्राज्यवादियो का सुप्रचारित युद्ध, और
कुछ नहीं, बल्कि ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाने की, कभी न तृप्त होनेवाली साम्राज्यवादियो की भूख से पैदा हो
रही युद्ध-नीतियों के लिए, छद्मावरण
है, और कमजोर राष्ट्रों को अपने अधीन करने तथा इन नीतियों के
विरुद्ध हर प्रकार के प्रतिरोध को समाप्त करने के लिए, फर्जी बहाना है।
साम्राज्यवादियों के विरुद्ध, हर संभव और उपलब्ध तरीके से, अपनी
प्रतिरक्षा करने के जनता के हक का हम बिना शर्त और खुला समर्थन करते हैं, परन्तु क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए आतंकवादी साधनों को एक
रणनीति के बतौर प्रयोग करने के प्रस्ताव के विरुद्ध, सचेत
करते हैं। आतंकवाद, ऐसे
किसी परिवर्तन में सहायक सिद्ध होने के बजाय, सर्वहारा
की एकता और संघर्ष को कमजोर करता है। आतंकवाद, निराश
निम्न-पूंजीपति वर्ग, जिन्हें
सर्वहारा की शक्ति पर कोई भरोसा नहीं, का
आश्रय-स्थल है। किसी भी रूप में, आतंकवाद, सर्वहारा क्रांति का रास्ता नहीं है चूंकि इसके तरीके
वास्तविक क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए, जनता
को तैयार करने में हानिकारक
हैं।
अक्टूबर क्रांति और साम्राज्यवाद का पुनरुज्जीवन
बीसवीं सदी की शुरुआत में,अक्टूबर समाजवादी क्रांति के प्रबल ज्वार ने, साम्राज्यवादी वैश्विकीकरण की यात्रा बीच में ही रोक दी।
महान अक्टूबर सर्वहारा क्रांति के साथ, विश्व
ने एक नए एतिहासिक युग, सर्वहारा
क्रांतियो के युग में, प्रवेश
किया। अक्टूबर क्रांति ने पहला गोला दागा, और
फिर सर्वहारा की विश्व पार्टी- कोमिन्टर्न ने समूची पृथ्वी पर से पूंजीवाद को मिटा
देने का ऐलान किया।
तब से लेकर, सर्वहारा
ने अपने दुश्मनों के खिलाफ अनगिनत वीरतापूर्ण संघर्ष किये हैं और महान बलिदान दिए
हैं,लेकिन अपने नेतृत्व के हाथो बार-बार धोखा खाने के कारण, ये संघर्ष विश्व
पूंजीवाद का सफाया करने में नाकाम रहे। पहले सामाजिक-जनवाद ने, और फिर माओवाद जैसे अपने विविध राष्ट्रीय प्रकारों के साथ,स्टालिनवाद ने, सर्वहारा
के साथ गद्दारी करते हुए, संकटों
से घिरे और क्षरित हो रहे पूंजीवाद को, विश्व
क्रांतिकारी लहर का गला घोंटने में सहायता की। उन्होंने, सर्वहारा को पीछे खींचे रखते हुए, उसे एक के बाद दूसरी पराजय का शिकार बनाया और इन पराजयों के
जरिये विश्व-पूंजीवाद को राहत की सांस लेने और पुनरस्थिरीकरण का मौका दिया।
सामाजिक-जनवादियो, स्तालिनवादियो
और माओवादियों का रुझान सांझा और राष्ट्रवादी है और वे विश्व समाजवादी क्रांति तथा
सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद के कटु शत्रु हैं। मृत्यु-शैय्या से, विश्व पूंजीवाद के पुनर्जीवित हो उठने और एक समूची सदी
जीवित बचे रहने के लिए यही उत्तरदायी हैं।
पिछली शताब्दी के असंख्य भीतरघातों, पहले, सामाजिक-जनवाद
के कारण जर्मनी, हंगरी, ऑस्ट्रिया में क्रांतियों की पराजय और परिणामतः सोवियत संघ
में क्रांति का अलगाव, फिर
उसके भीतर स्टालिन के नेतृत्व में ब्यूरोक्रेसी का उदय और उसकी विजय, कोमिन्टर्न की सता पर सोवियत ब्यूरोक्रेसी का कब्ज़ा, सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के समूचे शीर्ष नेतृत्व का सफाया, क्रांति के ‘दो
चरणों वाले’ मेन्शेविक सिद्धांत का पुनर्जीवन करते हुए चीन और स्पेन में
क्रांतियों का ध्वंस, विश्व
बुर्जुआजी को खुश करने के लिए विश्व सर्वहारा क्रांति का अभियान छोड़ने की खुली
घोषणा,‘एक देश में समाजवाद’ के
राष्ट्रवादी-प्रतिगामी उपादान का आश्रय, और
अंत में पहले‘सामाजिक-फासीवाद’ के
नाम पर अवसरवादी ढुलमुल नीति, सामाजिक-जनवादी
सर्वहारा से अलगाव और फिर सर्वहारा के वर्ग शत्रु, बूर्ज्वाजी
से मिलकर ‘जनमोर्चे’ बनाने
की नीति के चलते जर्मनी में हिटलर के उभार और स्थिरीकरण- ने सर्वहारा क्रान्तिकारी
लहर के विनाश के लिए ज़मीन तैयार कर दी, और
विश्व पर एक बार फिर से साम्राज्यवाद के आधिपत्य का मार्ग प्रशस्त कर दिया, जिसका परिणाम द्वितीय विश्व-युद्ध की तबाही के रूप में
सामने आया और जिसके फलस्वरूप विश्व स्तर पर पूंजीवाद का पुनरस्थिरीकरण संभव हुआ।
प्रथम विश्वयुद्ध की पूर्वसंध्या पर, सामाजिक-जनवाद की गद्दारी के कारण, दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय कब का अपनी प्रतिष्ठा और भूमिका खो
चुका था, चूंकि यह सामाजिक-अंधराष्ट्रवाद की ओर मुड़ गया था। महान
अक्टूबर क्रान्ति की पूर्ववेला पर, लेनिन
और ट्रोट्स्की के नेतृत्व में संगठित हुआ तीसरा अन्तर्राष्ट्रीय (कोमिन्टर्न), शीघ्र ही, स्टालिन
के नेतृत्व में,विश्व-बूर्ज्वाजी
के साथ सहबंध बनाते, पतित
हो गया। जर्मनी में फासीवादियो के हाथो सर्वहारा आन्दोलन के विध्वसं के बाद, लियोन ट्रोट्स्की द्वारा स्थापित चौथे अन्तर्राष्ट्रीय ने
स्तालिनवादी ब्यूरोक्रेसी और उसके हाथो तीसरे अन्तर्राष्ट्रीय के अधःपतन के
विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष छेड़ दिया।
बीसवीं शताब्दी का आरम्भ,पूंजीवाद के गहन संकट के साथ हुआ था, जिसका परिणाम था प्रथम विश्व युद्ध और उसके साथ ही, लेनिन और ट्रोट्स्की के नेतृत्व में अक्टूबर क्रान्ति। इसके
साथ ही यूरोप में विश्व सर्वहारा के वे अस्थायी पराभव भी जुड़े थे, जो जर्मनी और फिर हंगरी में उसके सत्ता न ले पाने से
उत्पन्न हुए थे। हालांकि, सर्वहारा
का पूर्ण विनाश स्तालिनवादी कोमिन्टर्न की गिरफ़्त के चलते, पहले चीन (1925-27), फिर जर्मनी (1932)
और फिर स्पेन (1938) में हुआ। इस विनाश के आधार पर ही विश्व पूंजीवाद ने
द्वितीय विश्व-युद्ध के जरिये स्वयं को पुनर्संतुलित कर लिया और नव-उदारवाद तथा
वैश्वीकरण के एक नए दौर की शुरुआत में अपनी विजय यात्रा पूरी कर ली।
पूंजीवाद, बीसवीं
सदी में बचा रहा, इसलिए
नहीं कि समाजवाद के लिए वस्तुगत परिस्थितिया पर्याप्त रूप से परिपक्व नहीं थीं, बल्कि इसलिए कि सर्वहारा पार्टियों का नेतृत्व समाजवादी
क्रांति के लिए पर्याप्त रूप से परिपक्व नहीं था। सर्वहारा वर्ग ने बार-बार जुझारू
संघर्ष किये,पर हर बार ये संघर्ष, सामाजिक-जनवादियो, स्टालिनवादियो, मध्यमार्गियों
और सुधारवादियो के नेतृत्व में पथ-भ्रष्ट होकर, अंततः
पराजय के साथ समाप्त हुए।
इस प्रकार, विगत
शताब्दी, जो उत्कट क्रांतिकारी लहर के साथ आरम्भ हुई थी, 1990-91 में पूंजीवाद की वैश्विक-विजय के साथ समाप्त हुई।
मगर पूंजीवाद की इस विजय ने, उसके
सभी मौजूदा अंतर्विरोधों को और भी गहन और तीक्ष्ण बना दिया और उन्हें वैश्विक रूप
दे दिया। आज पूंजीवाद की चारित्रिक विशेषता है- वित्त और उत्पादन में ज्वार-भाटा
की लहरों के बीच अब तक का न्यूनतम अंतराल, जिससे
आर्थिक संकट की एक समूची श्रृंखला की शुरुआत हुई है और मानवता पर विनाश की छाया
मंडरा रही है।
स्टालिनवाद के विरुद्ध ट्रोट्स्की का संघर्ष और चौथे
इंटरनेशनल की स्थापना
भारत में क्रांति की समस्याओं को, चौथे इंटरनेशनल के संघर्ष व इतिहास से अलग करके देखना बड़ी
भूल होगी।
स्टालिनवाद के विरुद्ध त्रोत्स्की और अंतर्राष्ट्रीय वाम
विपक्ष द्वारा छेड़ा गया संघर्ष, जो
अंततः चौथे इंटरनेशनल की स्थापना में राजनैतिक-सांगठनिक रूप से व्यक्त हुआ, भारतीय सर्वहारा की सच्ची
क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी के विकास के लिए, एकमात्र
व्यवहार्य आधार है।
ट्रोट्स्कीवाद, आज
का मार्क्सवाद-लेनिनवाद है। जो भारत में क्रांतिकारी सर्वहारा पार्टी का निर्माण
और समाजवाद के लिए संघर्ष करना चाहते हैं, उनके
सामने मुख्य कार्यभार है, स्टालिनवाद
से उसके सभी प्रकारों से, पूरी
तरह सम्बन्ध विच्छेद और ट्रोट्स्कीवाद तथा चौथे अन्तर्राष्ट्रीय के कार्यक्रम, दृष्टिकोण और सैद्धांतिक-राजनीतिक विरासत को,आत्मसात करना।
चौथा अन्तर्राष्ट्रीय, १९४०
के दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुए, एक
लम्बे संघर्ष से गुज़रा है, जिसकी
सामाजिक जड़ें, पूंजीवाद के उस युद्धोत्तर पुनार्स्थिरिकरण में निहित हैं, जिसे द्वितीय विश्व-युद्ध के अंत में स्टालिनवाद द्वारा
साम्राज्यवाद के साथ किये गए समझौते ने संभव बनाया था।
ट्रोट्स्की-वाद की बुनियाद को, संक्रामक और दिवालिया, पेब्लोवाद
के खिलाफ सीधे संघर्ष में सुरक्षित किया जाना है, जो
चौथे अन्तर्राष्ट्रीय के भीतर १९५३ के आस-पास, चौथे
अन्तर्राष्ट्रीय के तत्कालीन नेता मिशेल पेब्लो के नेतृत्व में उभरा था।
पाब्लोवादियों का तर्क था कि विश्व सर्वहारा का चौथे इंटरनेशनल के बैनर तले
पुनर्संगठन, “न्यूनतम संभावित प्रकार” है, और “नयी विश्व
परिस्थितियो” में ट्रोट्स्कीवादियों का कार्यभार, स्वयं को मौजूदा ब्यूरोक्रेटिक मजदूर संगठनो में, और औपनिवेशिक राष्ट्रों में, बुर्जुआ
राष्ट्रीय आंदोलनों में, विलय
कर देना है, आदि, ताकि
उन्हें वाम की ओर धकेला जा सके। पेब्लोवादियों का कहना था कि वस्तुगत परिस्थितिया
- साम्राज्यवाद का दबाव और सर्वहारा तथा दबी-कुचली जनता के क्रांतिकारी प्रयास, सोवियत ब्यूरोक्रेसी और स्टालिनवादी पार्टियों को, पूंजीवादी संपत्ति-संबंधो को उलटने के लिए मजबूर करेंगे, जैसा शीत-युद्ध के चलते उन्हें पूर्वी यूरोप में करना पड़ा
था।
बाद में पेब्लोवादी अपने कुछ हास्यप्रद दावों
से पीछे हट गए, जैसे सोवियत ब्यूरोक्रेसी युद्ध-क्रान्ति के लिए बाध्य होगी, जिससे सदियों तक “विकृत
सर्वहारा राज्य” कायम
होंगे। मगर वे इसी तरह के दूसरे अनर्गल, निम्न-बूर्ज्वा “सिद्धांतों” की
एक समूची श्रृंखला– स्तालिनवादी
ब्यूरोक्रेसी के “आत्म-सुधार”, “लाल विश्वविद्यालयों” और
कास्त्रो-गुएवारा किस्म के छापामार आन्दोलनों की संभाव्यता- के साथ चिपके रहे।
पाब्लोवादी चतुर्थ इंटरनेशनल, और उससे जुड़ी पार्टियों का, बुर्जुआ
पार्टियों से गठजोड़ का एक लम्बा इतिहास हैं। बरसो तक, इन्होने तथाकथित श्रीलंकाई “शांति
प्रक्रिया” को समर्थन जारी रखा, यद्यपि
यह स्पष्टतः श्रीलंकाई बुर्जुआ शासन को स्थिर करने और सिंहली बूर्ज्वा आधिपत्य को
स्थायित्व देने की एक प्रतिक्रांतिकारी पैतरेबाजी थी।
इस प्रकार, चौथे
इंटरनेशनल के भीतर, सतत
क्रांति के कार्यक्रम के बचाव के लिए, पाब्लोवादियो
की गद्दारी के खिलाफ छेड़ा गया संघर्ष, भारतीय
सर्वहारा वर्ग के लिए जबरदस्त राजनैतिक महत्व रखता है।
क्रांतिकारी सर्वहारा नेतृत्व के उभार की
पूर्वापेक्षा और उसकी तैयारी के लिए, पाब्लोवादी
संशोधनवाद के विरुद्ध सैद्धांतिक-राजनैतिक संघर्ष का महत्त्व, उस संघर्ष से किसी भी रूप में कम नहीं है जिसे १९१७ से एक
चौथाई सदी-पूर्व, लेनिन
और रूसी मार्क्सवादियो ने नरोदवाद, अर्थवाद
और मेंशेविज्म के विरुद्ध छेड़ा था।
हमारा राजनैतिक विश्लेषण,चौथे
अन्तर्राष्ट्रीय की विफलता के कारणों से जुड़े तर्कों, और उस शैली पर आधारित है जिसके द्वारा मार्क्सवादियो ने
सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओ, राजनीतिक
क्रियाओ,और संशोधनवाद को, जिसके
चलते, क्रांतिकारी पार्टी के रूप में, दूसरे और तीसरे इंटरनेशनल का पतन हुआ था, व्यवस्थित ढंग से बेनकाब किया था। अपने अंतर्य में, यह विश्लेषण, मार्क्सवाद
के सैद्धांतिक-राजनैतिक शस्त्रागार में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है।
इन संघर्षों का मुख्य अंतर्य, विश्व स्तर पर वर्ग-संघर्ष के अहम् रणनीतिक अनुभव हैं, जिनमें सम्मिलित हैं-द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद पूंजीवाद
के पुनार्स्थिरिकरण का महत्त्व, पूर्वी-यूरोप
में लोक-जनवादी राज्यों की स्थापना, चीनी
क्रान्ति, सोवियत ब्यूरोक्रेसी का “स्टालिन-विरोधी” अभियान, उपनिवेशों
का अंत, १९६८-७५ के अन्तर्राष्ट्रीय सर्वहारा आक्रामक आन्दोलन में मार्क्सवादियों के कार्यभार, चिली
में क्रान्ति की हार के कारण, और
ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका का महत्त्व आदि आदि।
भारतीय सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के
संघर्ष को, चौथे इंटरनेशनल के भीतर पाब्लोवादी अवसरवाद के विरुद्ध किये
गए निर्मम संघर्ष के निष्कर्षों की बुनियाद पर खड़ा करने के अत्यंत महत्वपूर्ण
कार्यभार पर, हम फिर जोर देते हैं। यह, स्टालिनवाद, माओवाद,और चौथे
इंटरनेशनल के आन्दोलन के भीतर मध्यमार्गियों द्वारा किये गए राजनीतिक सर्वनाश का
एक सक्षिप्त, मगर सारगर्भित अनावरण प्रस्तुत करता है। नस्लीय-राष्ट्रीय
आन्दोलनों, ट्रेड-यूनियनों, और
वर्ल्ड सोशल फोरम से जुड़े एन.जी.ओ. सहित ये सभी समूह, कमोबेश, बूर्ज्वा
राष्ट्रवाद या निम्न-बूर्ज्वा क्रांतिवाद के दायरे में सक्रिय हैं और उसकी ओर
निदेशित हैं।
हम पूरी तरह आश्वस्त हैं कि विश्व पूंजीवाद का
संकट और स्टालिनवाद का दिवालियापन, अधिकाधिक
भारतीय सर्वहारा और युवाओं को ट्रोट्स्की-वाद की ओर मोड़ेगा। इस समय, जो सबसे बड़ी भूमिका अन्तर्राष्ट्रीय ट्रोट्स्की-वाद अदा कर
सकता है, वह है, धैर्यपूर्ण
मगर दृढ़, राजनीतिक-सैद्धांतिक स्पष्टीकरण।
निम्न-बुर्जुआ आंदोलन
अपने कुछ प्रतिभागियों के साहसी और ईमानदार
होने के बावजूद, निम्न
बुर्जुआ आंदोलनों ने, राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय- दोनों स्तर पर बुर्जुआजी के विभिन्न हिस्सों के बीच, एक-दूसरे को अस्थिर करने और पछाड़ने के लिए चल रही
प्रतिद्वंद्विता में, एक
मोहरे के रूप में, प्रभावशाली
भूमिका अदा की है।
यक्ष प्रश्न है: निम्न-बुर्जुआ आन्दोलनों का राजनीतिक मंच
पर एकाधिकार क्यों हैं? अपने
नेतृत्व में मेहनतकश जनता को लामबंद करते हुए, सर्वहारा
वर्ग, स्वतंत्र रूप से बुर्जुआजी के खिलाफ मोर्चा खोलने में सक्षम
क्यों नहीं हुआ? यहां, एक बार फिर, छद्म-वामपंथ
की राजनीति इन आंदोलनों में मुख्य और महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
निजीकरण, कटौतियों
और उदारीकरण की नीतियों के चलते, एक
के बाद दूसरे बूर्ज्वा शासनों को, मजदूर
वर्ग की ओर से लगातार विरोध का सामना करना पड़ा है। पर छद्म-वामपंथ और उसके संगठनो
ने इन संघर्षो को सामूहिक सौदेबाज़ी तक सीमित कर दिया, और इन्हें, मजदूर
वर्ग के नेतृत्व में एक जन-आंदोलन की अगुवा शक्ति बनने से रोकते हुए, मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन से गद्दारी की।
निम्न-बुर्जुआ नेतृत्व में जब-तब उभरे अनगिनत संघर्षों, मसलन, राष्ट्रीयता
और लैंगिक-समानता आदि, के
लिए छद्म-वाम ने तालियां पीटना जारी रखा है। जब कभी इन्होने सर्वहारा का आह्वान
किया, यह हमेशा सर्वहारा से इन अनगिनत संघर्षो को समर्थन देने और
उन्हें आगे बढाने के लिए था, न कि
एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में अपने कार्यक्रम के साथ हस्तक्षेप करते हुए, सर्वहारा को उन बड़े उद्यमियों और साम्राज्यवादी हितो के
विरुद्ध आंदोलित करने के लिए, जिन
पर यह निम्न-बूर्ज्वा आन्दोलन निर्भर हैं।
भारत में पूंजीवादी संरचना और अमेरिका व विश्व
साम्राज्यवाद के साथ इसके अधीनस्थ संबंधो को स्वीकार करते हुए भी,छद्म वामपंथ, लोकतंत्र
को मुट्ठीभर नागरिक अधिकारों तक सीमित करते हुए, लोकतंत्र
के नपुंसक निम्न-बुर्जुआ संस्करण को स्वीकार और प्रोत्साहित करता है। इस
छद्म-वामपंथ ने सर्वहारा वर्ग में यह भ्रम पैदा किया हैं कि अलग अलग जनवादी
मुद्दों पर अलग किये जानेवाले संघर्ष, जनवाद
के लिए संघर्ष की मुख्य धार हैं। उन्होंने इस मूलभूत वर्ग सत्य पर पर्दा डाल दिया
है कि अपनी समग्रता में, यह
पूंजीवाद का समेकित सामाजिक ढांचा है, जिसके
विरुद्ध संघर्ष किया जाना है।
क्रांति के वैश्विक आयाम
राष्ट्रीय कार्यक्रमों और योजनाओं का दौर, प्रथम विश्वयुद्ध के आरम्भ के साथ ही ख़त्म हो गया। सौ साल
बाद,आज, विश्व
अर्थव्यवस्था के असाधारण विकास और उसके वैश्विक एकीकरण के साथ, विश्व पूंजीवाद की अवस्थाए, राष्ट्रीय
जीवन की प्रमुख निर्धारक बन चुकी हैं। विश्व बाज़ार ने राष्ट्रीय बाज़ार को पूरी तरह
से अपने वर्चस्व में ले लिया है।
इसलिए सर्वहारा का दिशाबोध,अन्तर्राष्ट्रीय
से राष्ट्रीय की ओर होना चाहिए, न कि
इसके उलट। समाजवादियों के लक्ष्य राष्ट्रीय स्तर पर नहीं, बल्कि केवल वैश्विक स्तर पर ही फलीभूत हो सकते हैं। त्रोत्स्की
लिखते हैं, “समाजवादी क्रांति राष्ट्रीय स्तर पर खुलती है, और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलते हुए, अंततः वैश्विक स्तर पर समाप्त होती है। समाजवाद के लिए
सर्वहारा का संघर्ष, सिर्फ
अपने स्वरूप में ही राष्ट्रीय है, जबकि
सारतः वह वैश्विक है।
पूंजीवादी व्यवस्था का अंतर्द्वंद्व, सर्वहारा को उन संघर्षों में धकेलेगा, जो समाज के क्रान्तिकारी पुनर्गठन को केन्द्रीय कार्यभार के
रूप में सामने लायेंगी। उत्पादक शक्तियों के वैश्विक एकीकरण के उन्नत स्तर से
वस्तुगत रूप से उत्पन्न होने वाले ये संघर्ष, स्पष्टतया
अंतरराष्ट्रीय चरित्र ग्रहण करेंगे। इसलिए, वर्तमान
युग का महान रणनीतिक कार्यभार है – एक
निर्णायक अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी शक्ति के रूप में सभी देशों के सर्वहारा के
बीच राजनीतिक एकता कायम करना।
इसका हल, मुनाफे
और निजी संपत्ति पर आधारित पूंजीवादी प्रणाली में किसी भी प्रकार के सुधार में
नहीं, बल्कि शहरी और ग्रामीण गरीबो द्वारा समर्थित, सर्वहारा वर्ग की राज्य-सत्ता पर विजय के जरिये, पूंजीवाद को जबरन उखाड़ फेंकने में निहित है।
विश्व समाजवादी क्रांति की संभावनायें
मानवजाति को, साधनों-संसाधनो
की विपन्नता के स्थान पर, उनकी
प्रचुरता के एक नए युग में पहुँचाने के लिए, विश्व
समाजवादी क्रांति के लिए आवश्यक सभी भौतिक परिस्थितिया, लंबे समय से पूर्णतः परिपक्व रूप में मौजूद है। फिर भी, ऐसी क्रान्ति के लिए आवश्यक मनोगत परिस्थिति- जनता की
सामयिक सामाजिक चेतना –काफ़ी पिछड़ी
हुई है। वस्तुगत और परिस्थितियों
और मनोगत चेतना के बीच की यह दूरी,वर्तमान
समय में, मानवजाति के लिए वास्तविक
संकट प्रस्तुत करती है।
अपनी समग्रता में मानवजाति का यह संकट, अपने अंतर्य में, आधुनिक
पूंजीवादी समाज में सर्वाधिक उन्नत और क्रांतिकारी वर्ग- मजदूर वर्ग का संकट है, जिसका
ऐतिहासिक कार्यभार है, बूर्ज्वाजी
के पुरातन, युग-पिछड़े शासन को एक सामाजिक क्रान्ति के जरिये उलट देना।
मगर, जैसा कि पिछली सदी के अनुभवों ने दिखाया है, सर्वहारा वर्ग, पुराने
समाज को उसके पूंजीवादी बंधनों से मुक्त करने के इस ऐतिहासिक मिशन को, अपनी अगुआ राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व के बिना, पूरा नहीं कर सकता। इस प्रकार, अंतिम विश्लेषण में, मानव
जाति का यह संकट, अंततः
मजदूर वर्ग के नेतृत्व के संकट के रूप में अभिव्यक्त और प्रकट होता है। नेतृत्व का
प्रश्न, स्पष्टतः अंतिम विश्लेषण में, उस
रणनीतिक कार्यक्रम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है जिसका लक्ष्य पुराने को उलटकर, एक नए,समाजवादी
समाज की स्थापना है, यानि
‘सतत क्रांति’ का
कार्यक्रम।
क्या क्रांति अपरिहार्य हैं?
क्रान्तियां अपरिहार्य नहीं होती। वे
क्रांतिकारी संकट का अनुसरण करती हैं और उससे उपजती हैं, जो चिरस्थायी नहीं होता। यदि पके हुए फल को समय रहते नहीं
तोड़ लिया जाता, तो वह सड़ जाता है। क्रांतिकारी परिस्थितिया अंतहीन सिलसिले
में आती-जाती रहती हैं, तब
तक, जब तक कि सचेत क्रांतिकारी शक्तियां, स्वयं को क्रान्तिकारी उभारों के अनुरूप उठ खड़े होने और
क्रांतिकारी परिस्थिति को एक वास्तविक क्रांति में बदलने के लिए, पर्याप्त रूप से सशस्त्र नहीं कर लेतीं। प्रत्येक
क्रान्तिकारी अवसर पर सर्वहारा की विफलता, पूंजीवाद
को नया जीवन और पुनार्स्थिरिकरण का नया अवसर देती है। मगर यह भी अनंत काल तक जारी
नहीं रह सकता। अपने निरंतर गहराते द्वंद्वों के चलते, विनाशोन्मुख पूंजीवाद,बारम्बार
पुनर्जीवन में अक्षम हो सकता है, जिससे
समूची मानव सभ्यता का विनाश संभव है।
पिछली सदी के सबक
पिछली शताब्दी की, सफल और निष्फल, क्रांतियो
के सबक, भारत में क्रांति की राह खोजने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण
हैं। अक्टूबर क्रांति की महान सफलता ने, लेनिन
और त्रोत्स्की के राजनीतिक पूर्वानुमानो को उनकी समग्रता में प्रमाणित
किया था। बाद में, जर्मनी, चीन, स्पेन, फ्रांस, चिली, ईरान, इराक, इंडोनेशिया, भारत
आदि में क्रान्तियों की पराजयों ने नकारात्मक रूप से उनकी पुष्टि की है। स्तालिनवादियो-माओवादियों
ने, क्रांतियों के इतिहास का मिथ्याकरण करके और उनके महत्वपूर्ण
पहलुओ को छुपाकर, युवा
पीढ़ी को, रूसी, चीनी
और अन्य क्रांतियों की सही यांत्रिकी को समझने से रोका है और भ्रांतियों में धकेल
दिया है।
स्टालिन और उसके साथियो के अधिनायकत्व तले, विश्व समाजवादी क्रांति के कार्यक्रम के विनाश और सोवियत
संघ के ब्यूरोक्रेटिक पतन के विरुद्ध, त्रोत्स्की
और उसके नेतृत्व में मार्क्सवादी अंतर्राष्ट्रीयतावादियो के संघर्ष से हम दृष्टि
और प्रेरणा लेते हैं। स्टालिनवाद की गद्दारी, जिसके
कारण 1991 में अंततः सोवियत संघ का विघटन हो गया, का
राजनीतिक स्रोत, स्तालिनवादी
शासन द्वारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद का गला घोंटकर, राष्ट्रवाद
से उसका प्रतिस्थापन था। सतत क्रांति का सिद्धांत, और
सोवियत यूनियन तथा कोमिन्टर्न के भीतर त्रोत्स्की का निर्मम संघर्ष, जिसका सार-संक्षेप 1938 में त्रोत्स्की द्वारा स्थापित चौथे
इंटरनेशनल के कार्यक्रम में व्यक्त हुआ, बीती सदी के हमारे अनुभवों का मार्गदर्शन, और शिक्षण करता है।
समाजवादी क्रांति, जो सचेत राजनीतिक संघर्ष में जनता के जबरन प्रवेश की द्योतक
है, समूचे विश्व इतिहास में मनुष्यों के सामाजिक संगठन के रूप
में, वर्गों में विभाजित समाज का और इसलिए एक इंसान के हाथो
दूसरे इंसान के शोषण का अंत करनेवाला, सबसे
बड़ा और सबसे प्रगतिशील परिवर्तन है। यह परिवर्तन, केवल, बड़े पैमाने के नियोजन के साथ और समाजवाद की बुनियाद पर, पूरे समाज और उसकी अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन के जरिये ही हो
सकता है। इसकी पूर्वशर्त है कि सर्वहारा वर्ग अपने हाथों में सत्ता लेकर अपनी
तानाशाही स्थापित करे – पहले
एक देश में, फिर अनेक देशों में, और
फिर पूरे विश्व में। पूंजीपति वर्ग, बुर्जुआ
राज्य के जरिये अपनी तानाशाही कायम रखता है, जो
सेना के अतिरिक्त,जेल, कानून, और
अदालतों आदि पर टिकी है। समाजवाद एक सपना ही बना रहेगा, जब तक सर्वहारा, बूर्ज्वाजी
के हाथ से छीनकर, राज्य-सत्ता
पर कब्ज़ा नहीं कर लेता।
सतत क्रांति: आज के दौर में
सतत क्रांति, एक
एक्यबद्ध विश्व-क्रांतिकारी अवधारणा है, जो
सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद के लिए संघर्ष पर आधारित है, और पूंजीवाद के वैश्विक चरित्र से निकलती है। 1917 की दोनों
(फरवरी और अक्टूबर) रुसी क्रांतियां, जो
गरीब किसानों के साथ क्रांतिकारी सहबंध स्थापित करते हुए, और विश्व समाजवादी क्रांति के लक्ष्य की ओर निदेशित, बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में रूसी मजदूर वर्ग के सत्ता
में आने से संपन्न हुई, ने
इसकी पुष्टि की थी। जैसा कि त्रोत्स्की ने जोर देकर कहा था कि आधुनिक युग में
जनवादी क्रांति,समाजवादी
क्रांति से अलग या स्वतंत्र रूप में नहीं हो सकती। पिछड़े और उत्पीडित देशों में, राष्ट्रीय और जनवादी कार्यभार केवल सर्वहारा क्रांति और
वैश्विक स्तर पर उसके प्रसार के जरिये ही संपन्न किये जा सकते है।
1938 में, चौथे
इंटरनेशनल की स्थापना का अभिवादन करते हुए, त्रोत्स्की
ने, क्रांतिकारी सर्वहारा नेतृत्व के संकट को हल करने के साधन
के रूप में इसके ऐतिहासिक महत्व पर जोर दिया था। त्रोत्स्की ने घोषणा की थी कि “हम दूसरी पार्टियों की तरह एक पार्टी नहीं हैं। हमारा
उद्देश्य है– समाजवादी क्रांति के जरिये, मेहनतकश
जनता और शोषितों की पूर्ण
रूप से भौतिक और आत्मिक मुक्ति। कोई इसके लिए हमें तैयार नहीं करेगा और कोई हमारा
मार्गदर्शन नहीं करेगा, सिवा
स्वयं हमारे”।
विश्व के सामाजिक-आर्थिक विकास और वर्ग संघर्ष
के परीक्षणों पर आधारित, स्थायी
क्रांति का सिद्धांत, बताता
है कि औपनिवेशिक देशो और अन्य देशो, जहा
पूंजीवाद का विकास ऐतिहासिक रूप से विलंबित है, में
पूंजीपति वर्ग का उदय भी बहुत देर से हुआ और इसलिए अब वो उस क्रांतिकारी भूमिका को
नहीं दोहरा सकता, जो
पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में पूंजीपति वर्ग ने विश्व पूंजीवाद के शुरूआती
दौर में अदा की थी। औपनिवेशिक पूंजीपति वर्ग, काफी
हद तक, साम्राज्यवाद पर निर्भर है; सर्वहारा
वर्ग से आतंकित है, और
जो कार्यभार - भूमि सुधार, राष्ट्रीय
एकीकरण,जनवाद की स्थापना आदि- सत्रहवीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में पूंजीपति वर्ग के विकास के
साथ ऐतिहासिक रूप से जुड़े थे, क्रांतिकारी
संघर्ष के जरिये उन्हें संपन्न करने के लिए, उनके
संसाधन बहुत अपर्याप्त हैं, और
इसलिए बूर्ज्वाजी उन्हें संपन्न करने में अक्षम है। उल्टा यह अपने विशेषाधिकारों
की सुरक्षा के लिए, निरपवाद
रूप से साम्राज्यवाद और प्रतिक्रियावाद का समर्थन करती है।
तथापि, इसी
ऐतिहासिक प्रक्रिया के चलते, राजनीतिक
परिदृश्य पर वह अन्तराष्ट्रीय सर्वहारा प्रकट हुआ है, जिसकी सामाजिक संहति, आधुनिक
उद्योग, संचार, और
परिवहन में उसकी निर्णायक भूमिका तथा अन्तर्राष्ट्रीय सर्वहारा के साथ उसके सचेतन
संबंधों के चलते, आबादी
में उसके तुलनात्मक आकार से कहीं आगे निकल जाती है और जिसका वर्ग-हित साम्राज्यवाद
और पूंजीवाद के विरुद्ध, सभी
मेहनतकशों को संगठित करने में निहित है।
हाल के दशकों में एशिया में सस्ते श्रम उत्पादन
में वृद्धि, और इसके फलस्वरूप पूंजीवादी सामाजिक संबंधों के सुदृढ़ीकरण,और संख्या की द्रष्टि से सर्वहारा की भारी वृद्धि ने, सर्वहारा की क्रांतिकारी क्षमता में अत्यंत वृद्धि कर दी है, और पूंजीवादी संपत्ति पर आक्रमण तथा समाजवाद के लिए संघर्ष
के साथ-साथ, जनवादी कार्यभारो के समाधान के प्रश्न को परस्पर गूंथ दिया
है।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ समझौते और भारतीय उपमहाद्वीप के सांप्रदायिक विभाजन के जरिये, सत्तालोलुप भारतीय और पाकिस्तानी पूंजीपतियों के हाथों,जनवादी क्रांति के गर्भ-पात ने, नकारात्मक रूप से सतत क्रांति के सिद्धांत की पुष्टि कर दी
थी। द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के कुछ हफ्ते पहले ही, 1939 में,भारतीय
मजदूरों को लिखे एक खुले पत्र में, त्रोत्स्की
ने, स्तालिनवादियों की इस झूठी अवधारणा की, कि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग, ऐतिहासिक
रूप से, जनवादी क्रांति का नेता था, और
इसके बहाने सर्वहारा को बूर्ज्वा इंडियन नेशनल कांग्रेस के पीछे बांधने की, क्रान्ति-द्रोही नीति की धज्जी उड़ा दी थी।
“भारतीय पूंजीपति”, त्रोत्स्की
ने जोर देकर कहा, “किसी
क्रांतिकारी संघर्ष का नेतृत्व करने में असमर्थ हैं। वे ब्रिटिश पूंजीवाद के साथ
नजदीक से बंधे हुए हैं और उसी पर निर्भर हैं। वे अपनी
संपत्ति और विशेषाधिकारों के लिए, क्रान्ति
के नाम से ही कांपते हैं। वे जनता से डरे हुए हैं। वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ
समझौते की तलाश में भटक रहे हैं, चाहे
किसी भी कीमत पर भी सही, और
वे भारतीय जनता को ऊपर से सुधारों के नाम पर शांत करना चाहते हैं। इस पूंजीपति
वर्ग का नेता और प्रणेता गांधी है। एक फर्जी नेता और एक झूठा प्रणेता!"
“...लाखो किसानो को जगाने और संगठित करने के लिए, और देशी उत्पीड़कों व ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध
संघर्ष में उनका नेतृत्व करने के लिए, और
एक दृढ़, क्रांतिकारी कृषि कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए, केवल सर्वहारा सक्षम है। सिर्फ मजदूरों और गरीब किसानों का
गठबंधन ही, सच्चा और विश्वसनीय
गठबंधन है, जो भारतीय क्रांति की अंतिम जीत सुनिश्चित कर सकता हैं”, त्रोत्स्की ने दावा किया।
स्तालिनवादी ब्यूरोक्रेसी ने सोवियत संघ में सर्वहारा के
हाथों से सत्ता छीन कर, और ‘एक देश में समाजवाद’ के
नाम पर अंतरराष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के साथ शांति कायम करके, “दो चरणों वाले", चरणबद्ध
क्रान्ति के मेन्शेविक सिद्धांत को पुनर्जीवित और संहिता-बद्ध किया। इस सिद्धांत
के अनुसार, पूंजीपति वर्ग एतिहासिक रूप से जनवादी क्रांति का निर्विवाद
नेता है, और अनसुलझे, ज्वलंत
जनवादी प्रश्नों की उपस्थिति यह इंगित करती है कि परिस्थितियां अभी समाजवाद के लिए
परिपक्व नहीं हैं। इस तरह, यह
सिद्धांत, पूंजीपतियों के सामने मजदूर वर्ग की अधीनता को उचित ठहराता
है, मजदूरों पर पूंजीपतियों का नेतृत्व थोपता है, और व्यवहार में सत्ता पर पूंजीपति वर्ग की दावेदारी को
स्वीकार करता है। विभिन्न स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियां, जनता के प्रति विश्वासघात करते हुए, बुर्जुआजी के राजनैतिक वर्चस्व को सुगम बनाते हुए, दशकों से इस रास्ते पर चल रही हैं। विपत्तियों की एक अनंत
श्रृंखला- चीन में १९२७ में, स्पेन
में १९३० में, ईरान में १९५३ और फिर से १९७९ में, इंडोनेशिया में सुहार्तो के नेतृत्व में १९६५ में, वामपंथियों का कत्लेआम- इसका परिणाम है।
दक्षिण एशिया और भारत में जनवादी क्रांति के कार्यभार, बुर्जुआजी या उसके किसी हिस्से के द्वारा, या उनके साथ गठजोड़ करके संपन्न नहीं किये जा सकते, बल्कि पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के
खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष में ही संपन्न हो सकते हैं। अपने वर्गीय हितो की सुरक्षा
के लिए जनता की जनवादी आकांक्षाओ के प्रति बुर्जुआजी की उदासीनता और साम्राज्यवाद
पर उसकी निर्भरता को उजागर करके, उनके
राजनीतिक प्रभाव से जनता को मुक्त करने के लिए एक अविरत संघर्ष छेड़कर, सर्वहारा वर्ग, दलित
जनता के मुक्तिदाता, और
सर्वहारा और किसानों के क्रांतिकारी गठबंधन के नेता के रूप में प्रकट होगा।
मजदूरों-किसानों की सरकार, क्रांतिकारी-जनवादी
कार्रवाइयों- सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप से भूमि-संबंधों में आमूल परिवर्तन- को बड़े
उद्योगों के स्वत्वहरण और अन्य समाजवादी कारवाईयों के साथ, सहबद्ध करेगी, और अपनी रणनीति के केंद्र में, पूंजीवाद का सफाया करने हेतु विश्व सर्वहारा को लामबंद करने
के संघर्ष को रखेगी। दक्षिण एशिया समेत समूचे विश्व में जनता की समस्याओं के
स्थायी समाधान की पूर्वशर्त है- साम्राज्यवाद और पूंजीवादी शोषण से मुक्ति, जो केवल विश्व समाजवादी क्रांति के हिस्से के रूप में ही
सुनिश्चित की जा सकती है – ऐसी
प्रक्रिया, जो राष्ट्रीय स्तर पर शुरू होती है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सतत फैलते हुए, हमारे पूरे ग्रह पर नए समाज की अंतिम विजय के रूप में ही
अपनी सफलता प्राप्त कर सकती है।
भारत में क्रांति का स्वरूप
भारत एक गंभीर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संकट से गुजर रहा है। यह संकट, विश्व पूंजीवादी संकट ही का हिस्सा है, जो तेजी से वैश्विक स्तर पर फ़ैल रहा है और अरबों साधारण
लोगों के जीवन को विनाशकारी रूप से प्रभावित कर रहा है। विश्व पूंजीवादी व्यवस्था
ऐसे ही असमाधेय अंतर्विरोधों से घिरी हुई है, जिन्होंने
बीसवीं सदी में-दो विश्व युद्धों, फासीवाद,और क्षेत्रीय सैन्य संघर्ष तथा क्रूर पुलिस-सैनिक तानाशाही
की लगभग एक अंतहीन श्रृंखला पैदा की। ये अंतर्विरोध मूलतः वैश्विक अर्थव्यवस्था और
राष्ट्रीय-राज्य प्रणाली के बीच तथा समाजीकृत उत्पादन और उत्पादन-साधनों के निजी
स्वामित्व के बीच के अंतर्विरोध हैं। इन अंतर्विरोधों के कारण, न केवल एक और विनाशकारी विश्व-युद्ध का खतरा मंडरा रहा है, बल्कि पूंजीवाद को उलटने, वित्त
पूंजी और उद्योगों का समाजीकरण करने, विश्व
सर्वहारा की सामाजिक शक्ति और आर्थिक जीवन के वैश्विकरण के लिए आवश्यक, वस्तुगत परिस्थितियां भी उभर रही हैं।
अपने इस वक्तव्य के साथ, हम, सोवियत ब्यूरोक्रेसी, जिसने
सर्वहारा के हाथो से सत्ता छीन ली थी और अंततः सोवियत संघ में पूंजीवाद की
पूनर्स्थापना की, के
खिलाफ संघर्ष छेडनेवाले और 1917 की रूसी क्रांति के सह-नेता त्रोत्स्की द्वारा
संस्थापित समाजवादी क्रांति की विश्व पार्टी- चौथे अन्तर्राष्ट्रीय- के हिस्से के
रूप में भारत में सर्वहारा पार्टी के निर्माण के लिए संघर्ष की शुरुआत कर रहे हैं।
शीघ्रातिशीघ्र एक ऐसी सर्वहारा पार्टी के निर्माण की
आवश्यकता इस तथ्य से रेखांकित होती है कि वैश्विक पूंजीवादी संकट के प्रभाव तले
सर्वहारा, सर्वत्र, संघर्ष
की ओर धकेला जा रहा है,तथापि
सर्वत्र और तुरंत इसका सामना इस तथ्य से हो रहा है कि ट्रेड यूनियनें,सामजिक-जनवादी और स्तालिनवादी पार्टियों के अवशेष- और वे
तमाम दूसरे संगठन जो एक समय में सर्वहारा के हितैषी होने और उसके नाम पर बोलने का
दावा करते थे, खुलकर मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी प्रणाली का समर्थन करने
और सर्वहारा को राष्ट्रीय कतारों में विभाजित करने में जुटे हैं।
उपनिवेशवाद और भारत में पूंजीवाद का विकास
वाष्प इंजन के आविष्कार ने इंग्लैंड में
औद्योगिक क्रांति, और
फलस्वरूप पूंजीवाद के तीव्र विकास को, संभव
बनाया। हालांकि, इस
विकास ने, अंग्रेजी पूंजीपतियों को, इंग्लैंड
की सीमाओं से बाहर, बाजार
और प्राकृतिक संसाधनों के लिए दुनिया के पिछड़े हिस्सों के शोषण के जरिये,अकूत मुनाफे बटोरने के लिए आवश्यक साधन प्रदान करते हुए, इतिहास में उपनिवेशवाद के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध और तैयार माल की वापस खपत के लिए पर्याप्त धनाढ्य, भारत के विशाल क्षेत्र, इसका
पहला शिकार बने। इंग्लैंड की व्यापारी-पूंजी ने पहले से ही भारतीय उपमहाद्वीप के
सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने को अपने नियंत्रण में कर लिया था। 1857 में ब्रिटिश
शासन के खिलाफ संगठित, रजवाड़ों
के अंतिम विद्रोह के कुचले जाने के साथ ही भारत पर ब्रिटिश विजय संपन्न हुई।
ब्रिटिश पूंजीपतियों ने, जिन्होंने
संपत्ति और उत्पादन के सामंती संबंधों के खिलाफ इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति का
नेतृत्व किया था, रैयतवारी
और जमींदारी के रूप में भारत में उन्हीं कालातीत सामंती संबंधों को बढ़ावा दिया और
न सिर्फ भारत में उत्पादन की एशियाई प्रणाली के पुराने संतुलन को नष्ट कर दिया, बल्कि हथकरघा और हस्तशिल्प पर आधारित शिल्प उद्योग का हर
संभव तरीके से बलात अनौद्योगिकीकरण करके,उत्पादन
में किसी भी प्रकार के स्वतंत्र पूंजीवादी विकास की संभावनाओ को निर्णायक रूप से
अवरुद्ध कर दिया। अंग्रेजी पूंजीपतियों ने भारत को पूर्ण औपनिवेशिक दासता के आधीन
कर लिया था, और अंग्रेजी उद्योग से तैयार माल की खपत के लिए बाज़ार के
रूप में, और कच्चे माल, मुख्य
रूप से कपास, के स्रोत के रूप में– दोनों
तरह से उपयोग में लिया। भारत के पुराने आर्थिक ढांचे के ध्वंस तथा और अधिक
प्रतिक्रियावादी सामंती संबंधों से उसके प्रतिस्थापन ने, स्थायी कृषि संकट पैदा कर दिया जिसका परिणाम था- कृषि में
अत्यंत गरीबी और किसानों की भुखमरी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने, भारत में पहली बार, रियासतों
और जमींदारी के रूप में, भूमि
संबंधों में निजी-संपत्ति को लागू किया। इसने भारत में नवाबों और जमींदारों के
परजीवी वर्ग को जन्म दिया। इस तरह, भारत
में, जमींदारी और साम्राज्यवाद के बीच एक निश्चित और सीधे
सम्बन्ध की स्थापना हुई। इसने पूंजीपतियों का दोहरे चरित्र दिखा दिया– इंग्लैंड में वे समानता और स्वतंत्रता की बात कर रहे थे, लेकिन उपनिवेशों में करोड़ों को ग़ुलाम बना रहे थे, और अपने यहां मध्ययुगीनता विरोध करते हुए, अपने अधीन उपनिवेशों पर उसी को थोप रहे थे। तथापि, स्वतन्त्र विकास की किसी भी अन्तर्निहित क्षमता से विहीन, उत्पादन की स्थिर एशियाई प्रणाली के, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के हाथों विनाश को, एशिया में पहली सामाजिक क्रांति को अंजाम देने का श्रेय
जाता है, जो फिर क्रमशः पिछड़ी दुनिया के अन्य भागों में निर्यात की
गयी। ब्रिटिश पूंजीपतियों के औपनिवेशिक शासन ने, एशियाई
निरंकुशता को प्रतिस्थापित कर दिया था।
राजाओ और जमींदारों के प्रतिक्रियावादी नेतृत्व के बावजूद, 1857 के विद्रोह ने, ब्रिटिश
साम्राज्यवादियों पर शासन की नीति को बदलने के लिए दबाव डालते हुए, ब्रिटिश पूंजीपतियों के नृशंस शोषण के खिलाफ अपार जन असंतोष
को व्यक्त किया था। इसके फलस्वरूप, 1858
में ही, इंग्लैंड की साम्राज्ञी ने औपनिवेशिक शासन, ईस्ट इंडिया कंपनी से अपने हाथ में ले लिया।
साम्राज्यवादी पूंजी के वर्चस्व की शर्तों के मातहत, साम्राज्यवादियों के प्रति वफादार और सामंती भूमि संबंधों
के साथ संलायित, निर्बल
तथा आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे पर प्रभावहीन, भारतीय
व्यापारिक पूंजीपतियों का दलाल हिस्सा, साम्राज्यवादी
पूंजी की दुम के रूप में भारत के वाणिज्यिक केन्द्रों में उभरा। ये वही पूंजीपति
वर्ग था, जिसने साम्राज्यवादियों के सामने जब-तब याचनाएं करने के लिए,1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस का गठन किया।
सर्वहारा वर्ग के स्वतंत्र राजनीतिक दावे के अभाव में, पूंजीपतियों की पार्टी, इंडियन
नेशनल कांग्रेस,उपनिवेशवाद
विरोधी संघर्ष पर हावी रही।
प्रथम विश्व युद्ध ने,ब्रिटिश
साम्राज्यवादियो को भारत में निवेश करने और भारतीय पूंजीपतियों को युद्ध उद्योग
में निवेश करने की अनुमति देने के लिए मजबूर किया, और
स्थानीय औद्योगिक वर्गों - बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग को जन्म दिया। इसने ब्रिटिश
और भारतीय बुर्जुआजी के बीच प्रतिस्पर्धा और फलतः दोनों के हितों के बीच संघर्ष को
जन्म दिया। कांग्रेस की नीतियों में भी तदनुरूप बदलाव आये, जो अब साम्राज्य के भीतर स्व-शासन की मांग करने लगी।
जन आंदोलन के दबाव में,ब्रिटिश
उपनिवेशवादियों ने इंडियन कौंसिल्स एक्ट-1909 के जरिये मॉर्ले-मिंटो सुधारों को
अंजाम दिया, जिससे भारतीय बुर्जुआजी के सीमित उद्देश्य को तुष्ट हो गए
और इन सुधारों के बहाने उसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के साथ सहयोग करते हुए, जन-आन्दोलन के दमन और युद्ध-उद्योग में भारतीय मेहनतकशों को
चारे की तरह इस्तेमाल करने के लिए,ब्रिटिश
शासकों की मदद शुरू कर दी।
तथापि, भारत
में युद्धोन्मुख उद्योग के प्रसार के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश
और भारतीय पूंजीपति वर्ग- दोनों की इच्छा से स्वतंत्र, तदनुरूप उस औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का उद्भव हुआ, जो पूंजीपति वर्ग की- राष्ट्रीय और विदेशी दोनों- वास्तविक
और एकमात्र कब्र खोदनेवाला वर्ग है।
रूस में अक्टूबर क्रांति में राजसत्ता पर सर्वहारा की, दहला देने वाली एतिहासिक विजय ने, भारत और अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में मजदूरों और किसानों के
बीच, साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए युद्ध-घोष के
साथ, अशांति और असंतोष की शक्तिशाली लहर पैदा की। इस परिस्थिति
पर काबू पाने और फिर से भारतीय बुर्जुआजी को खरीदने के लिए, एक बार फिर रियायतें देने के लिए मजबूर साम्राज्यवादियों ने 1918 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को कार्यान्वित
किया। भारतीय बुर्जुआजी ने, अपने
सीमित और संकीर्ण वर्ग हितों के लिए परिस्थिति का फायदा उठाते हुए, सुधारों को गले लगा लिया और साम्राज्यवादियों पर दबाव डालने
के लिए जन आंदोलन को इस्तेमाल करने के बाद, उसके
साथ विश्वासघात किया। 1919 के सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1920 के असहयोग आंदोलन को भी, गांधी की तानाशाही और उसके नेतृत्व के तहत कांग्रेस के
हाथों, इसी तरह के विश्वासघात सहने पड़े। चौरी-चौरा (उत्तर-प्रदेश) में
किसान आंदोलनकारियों द्वारा हिंसा के बहाने, जहां
किसानों ने, पुलिस-स्टेशन जलाकर, उनकी
शांतिपूर्ण सभा पर हुई पुलिस-फायरिंग के विरुद्ध जवाबी कार्रवाई की थी, गांधी
ने पुलिस की बजाय किसानों द्वारा की गई प्रतिहिंसा की निंदा करते हुए, फरवरी 1922 में एकतरफा तौर पर आंदोलन वापस ले लिया। चम्पारण
और खेडा आन्दोलन के बाद 1928 में बारडोली(गुजरात) के आंदोलन को भी, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के युद्ध प्रयासों का प्रत्यक्ष रूप
से समर्थन करने के लिए, उसी
तरह धोखा दिया गया।
पूंजीपति वर्ग और उसकी पार्टी इंडियन नेशनल कांग्रेस के
द्वारा उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को बार-बार धोखा दिये जाने के बावजूद, सर्वहारा की ओर से बुर्जुआ नेतृत्व को किसी गंभीर चुनौती न
दिए जाने के कारण, निम्न-पूंजीपति
और उसके पीछे किसान, बुर्जुआ
नेतृत्व के भरोसे ही रहे।
उपनिवेशवादियों के दमनकारी शासन के खिलाफ, निम्न पूंजीवादी युवाओं और बुद्धिजीवियों के हिस्सों ने, आतंकवादी प्रवृत्तियों के जरिये उग्रवाद का सहारा लिया, जिसने बजाय स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने के, जनता को संघर्ष से काटकर, उसे
भारी हानि पहुंचाई। एक तरफ गांधी की तानाशाही और दूसरी तरफ सुभाष चंद्र बोस और
जवाहर लाल नेहरू की वाम लफ्फाज़ी ने, उपनिवेशवाद
विरोधी जन आन्दोलन पर बुर्जुआ कांग्रेस के नेतृत्व को मजबूती प्रदान की।
विश्व पूंजीवाद के तीक्ष्ण अपकर्ष के चलते, 1928-29 का वर्ष, गहन
आर्थिक संकट और फलतः मजदूर वर्ग के उत्कर्ष और किसान आंदोलन में क्रांतिकारी उभार का काल था, जिसने
ब्रिटिश शासन और गाँधी के नेतृत्व वाली बूर्ज्वा कांग्रेस, दोनों को आतंकित कर दिया था। भारतीय बुर्जुआजी ने, जिसने जन आन्दोलन को दबाने के लिए पहले ही ब्रिटिश शासन के
साथ सहयोग करना शुरू कर दिया था, गाँधी-इरविन
पैक्ट के जरिये इस सहयोग पर बाकायदा मुहर लगा दी। अब चूंकि ब्रिटिश सरकार के हाथ
खुले थे, इसलिए उसने बड़े पैमाने पर स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ
मुकदमें, हत्याए, गिरफ्तारियों
और अमानवीय अत्याचार के जरिये 1932-34
में दमन की लहर तेज कर दी। भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी, इसी दमन का हिस्सा था, जिसमें
गाँधी और कांग्रेस मूक दर्शक और हिस्सेदार थे।
1932 के बाद, कांग्रेस
का इतिहास, ब्रिटिश राज के राजनीतिक संकट को हल करने के लिए, उपनिवेशवादियो से सहयोग का इतिहास है।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग-दोनों ने, १९३५ के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट, जिसके जरिये ग्यारह प्रान्तों में सीमित सरकारें गठित की गई
थीं, को स्वीकृति देकर स्वतंत्रता संग्राम से विश्वासघात किया।
इन प्रांतों में 1936-37 के चुनावों ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को गहरा किया और
उपमहाद्वीप के सांप्रदायिक आधार पर विभाजन की भावी ब्रिटिश योजना के लिए ज़मीन
तैयार करने में सीधी मदद की। हालांकि, चुनाव
परिणाम ने, गांधी के अधीन कांग्रेस के इस दावे को, कि वह जनसंख्या के बहुमत का प्रतिनिधित्व करती है, ग़लत साबित कर दिया। कांग्रेस 1771 सीटों में से40 प्रतिशत
प्राप्त करने में भी विफल रही। मुस्लिम लीग ने, पंजाब
में मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्र में केवल दो सीटों पर जीत के साथ, और भी ख़राब प्रदर्शन किया। कुल मिलाकर कांग्रेस को 752 और
मुस्लिम लीग को 106 सीट मिली। यह स्पष्ट
संकेत था कि जनता बुर्जुआ नेतृत्व से परे हट रही थी।
चौथे इंटरनेशनल की स्थापना, रुसी
क्रांति के सह-नेता, लालसेना
के संगठनकर्ता और कोमिन्टर्न के भीतर वाम विपक्ष के नेता लीओन त्रोत्स्की द्वारा
तीसरे इंटरनेशनल (कोमिन्टर्न) के स्तालिनवादी अधःपतन के विरोध के लिए हुई थी। चौथे
इंटरनेशनल ने, फासीवादियो से लड़ने के बहाने ब्रिटिश उपनिवेशवादियो का
समर्थन करती हुई, भाकपा
की स्तालिनवादी नीति का लगातार विरोध किया। त्रोत्स्की ने, द्वितीय विश्व युद्ध की पूर्व संध्या पर, भारतीय मजदूरों को लिखे अपने पत्र में, स्पष्ट किया कि मजदूरों को ब्रिटिश उपनिवेशवादियो और
कांग्रेस दोनों का विरोध करना चाहिए और सत्ता प्राप्त करने के लिए उनके विरुद्ध
संघर्ष करना चाहिए। त्रोत्स्किवादी पार्टी - बोल्शेविक लेनिनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया
(बी.एल.पी.आई.) ने भारतीय बुर्जुआजी और साम्राज्यवादियो के सामने सी.पी.आई. के
समर्पण के विरुद्ध, सतत
क्रांति की इसी रणनीति और कार्यक्रम के लिए संघर्ष किया।
1942 में, बुर्जुआ
कांग्रेस ने “भारत छोडो आन्दोलन” के
नाम से, ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ अपना
अंतिम आंदोलन किया। सी.पी.आई. नेब्रिटिश राज के विरुद्ध इस लोकप्रिय आंदोलन का भी
विरोध किया और 1946 में द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत तक ब्रिटिश सरकार के साथ खुले
सहयोग की नीति अपनाई और इस तरह वह मजदूरों-किसानों की दृष्टि में पतित हो गई।
ब्रिटिश शासन को युद्ध-प्रयासों में संलग्न होने में सक्षम बनाने के लिए, कांग्रेस और उसके नेता गाँधी ने, तुरंत ही यह आन्दोलन वापस ले लिया।
फ़रवरी 1946 में शाही नौसेना में विद्रोह उभरा, जो बम्बई से शुरू होकर कलकत्ता और कराची तक फैल गया, जिसमे ७८ जहाज़,२०
बन्दरगाह और २०,००० से
ज्यादा नाविक शामिल हुए। इस विद्रोह ने ब्रिटिश राज की नींव को हिला दिया। विद्रोह
में समर्थन के लिए बम्बई में आम हड़ताल का आह्वान किया गया, जिसमे त्रोत्स्किवादी पार्टी बी.एल.पी.आई. ने अग्रणी भूमिका
निभाई, और अन्य शहरो में भी ऐसी ही हड़ताले हुई। कांग्रेस और
मुस्लिम लीग ने, विद्रोहियों
पर हड़ताल ख़त्म करने का दबाव डालकर, फिर
से एक धोखेबाज की भूमिका निभाई। कांग्रेस से सरदार पटेल और मुस्लिम लीग से जिन्ना
ने, विद्रोह को ख़त्म करने और समर्पण करने के लिए,सरकार की ओर से उन्हें आश्वस्त करते हुए कि उनके खिलाफ कोई
कार्रवाई नहीं की जायेगी, नाविकों
को भ्रमित किया। विद्रोही इस जाल में फंस गए और विद्रोह ख़त्म कर दिया गया। ब्रिटिश
सरकार द्वारा आश्वासनों के विरुद्ध, विद्रोहियों
के निष्कासन और कोर्ट मार्शल किये गए, मगर
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता सामने नहीं आये।
तथापि, इस
नौसेना विद्रोह ने,ब्रिटिश
उपनिवेशवादियो के सामने यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया कि वे पुराने औपनिवेशिक ढंग से
शासन नहीं कर सकते। ब्रिटेन ने प्रथम विश्वयुद्ध में अपनी एकाधिकारी अवस्थिति खो
दी थी और फिर अमेरिका के पूंजीवादी दुनिया की नई धुरी के रूप में उभरने के साथ,द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन तबाह हो गया। अब
अनौप्निवेशीकरण की प्रक्रिया शुरू होनी थी, और
ब्रिटिश उपनिवेशवादी ब्रिटिश पूंजीपतियों के हित में इसका रेखाचित्र बनाने में
जुटे थे।
भारतीय बुर्जुआजी के साथ समझौता, शांतिपूर्ण सत्ता-हस्तांतरण, और
सांप्रदायिक आधार पर उपमहाद्वीप का विभाजन, इस
रेखाचित्र के तीन मुख्य आधार थे।
अपने को क्रांति के शीर्ष पर स्थापित कर, सर्वहारा ने निश्चय ही, साम्राज्यवाद
विरोधी आंदोलन के नेतृत्व में महान भूमिका निभाई होती और बहुत पहले ही सत्ता ले ली
होती। लेकिन, अफ़सोस कि उस वक़्त सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी और सर्वहारा की
विश्व पार्टी – कोमिन्टर्न, जो
विश्व सर्वहारा के मार्गदर्शक केंद्र थे,का
पूरा नियंत्रण स्तालिनवादी ब्यूरोक्रेसी के हाथ में चला गया था। स्तालिनवादियो ने
क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के इन संघर्षरत संगठनों को, 'एक देश में समाजवाद' के
नारे के तहत, विश्व पूंजीपति वर्ग के साथ सहयोग के अड्डों में तब्दील कर
दिया था। स्टालिन के नेतृत्व में कोमिन्टर्न की विनाशकारी नीतियों के कारण, चीनी क्रांति (1927) का गला घोंट दिया गया और जर्मनी में
(1932) हिटलर का उदय हुआ। स्तालिनवादी कोमिन्टर्न की एक शाखा, सीपीआई ने, पहले, इस स्तालिनवादी भ्रान्ति के आधार पर कि उपनिवेशों में
पूंजीपति वर्ग जनवादी क्रांति का नेता हैं, क्रांति
का नेतृत्व बुर्जुआ कांग्रेस के हाथो में दे दिया और फिर खुलेआम उपनिवेशवादियों से
हाथ मिलाकर, विषाक्त और भीतरघाती भूमिका अदा की। इस नीति के चलते, स्तालिनवादियो द्वारा, बुर्जुआजी
को स्वेच्छा से स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व और फिर सत्ता सौंपते हुए, मजदूर वर्ग को पूंजीपतियो के पुछल्ले में तब्दील कर दिया
गया था।
बुर्जुआजी, और
उसके पीछे स्तालिनवादी सी.पी.आई. ने, इस
योजना को क्रियान्वित करते हुए उपनिवेशवादियो से हाथ मिला लिया था।
विभाजन की त्रासदी और जनवादी क्रांति का दमन
1947 में भारत और पाकिस्तान की स्थापना, स्वतंत्रता नहीं, बल्कि
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ तालमेल में काम कर रहे और सांप्रदायिक आधार पर संगठित, भारत और पाकिस्तान के पूंजीपतियों के हाथो,साम्राज्यवाद-विरोधी, जनवादी
क्रांति का दमन था।
विभाजन का तात्कालिक परिणाम था- हिंसा का नंगा नाच, जिसमे २० लाख मौते हुई और 12-14 लाख लोग विस्थापित हुए।
उपमहाद्वीप की जीवित देह, बंगालियों, पंजाबियों और कश्मीरियों के, एक
नहीं अनेक विभाजनों में काट डाली गई, और
सांप्रदायिक आधार पर राष्ट्रीय सीमायें नियत की गईं, जिसने
आर्थिक, एतिहासिक और सांस्कृतिक तर्कों की अवहेलना की, जो अब भी जारी है।
“सांप्रदायिक समस्या” के
समाधान की जगह, इस विभाजन ने, दक्षिण
एशियाई राज्य प्रतिष्ठानों में सांप्रदायिक विभाजन करके, इसे और उलझा दिया है। इस विभाजन ने, भारत और पाकिस्तान के बीच एक प्रतिक्रियावादी
भौगोलिक-राजनीतिक संघर्ष को जन्म दिया है, जो
तीन घोषित युद्ध और अनगिनत युद्ध संकटों में परिणत हुआ है और जिसने महत्वपूर्ण
आर्थिक संसाधनो का अपव्यय किया है, और
आज यह एक ऐसे नाभिकीय दावानल का स्रोत बन चुका है, जिससे दक्षिण एशिया की जनता भयाक्रांत है और विश्व सभ्यता
के लिए जिसके परिणाम प्रलयंकर होंगे।
इस विभाजन ने, जल
संसाधनों के उपयोग सहित, तर्कसंगत
आर्थिक विकास को अवरुद्ध करके, और
अमेरिका तथा दूसरी बड़ी साम्राज्यवादी ताकतों को, एक
राज्य के संभ्रांत शासकों को दूसरे के विरुद्ध उकसाने के लिए, एक राजनीतिक तंत्र उपलब्ध कराके, दक्षिण एशिया पर साम्राज्यवाद के वर्चस्व को सुगम बनाया है।
दक्षिण एशिया, आज आर्थिक रूप से, दुनिया
का सबसे कम समेकित और संगठित क्षेत्र है।
भारतीय पूंजीपतियो और जमींदारों के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष
राज्य पर, कांग्रेस के हिस्सों के साथ गुंथी,आर.एस.एस. जैसी अतिवादी दक्षिणपंथी शक्तियों को राजनीतिक
मंच पर खेलने के लिए मिली खुली छूट के चलते, हमेशा
हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक स्वर, हावी
रहे। दूसरी ओर, ‘पाकिस्तान’की
सांप्रदायिक-राष्ट्रीय परियोजना, दक्षिण
एशिया के पूंजीपतियों और मुस्लिम जमींदारों, जिन्होंने
“मुस्लिम प्रतिनिधियों” के
रूप में सेवा करके और ब्रिटिश इंडियन आर्मी के लिए विभिन्न मुस्लिम संगठनो को
तोपों के चारे के रूप में उपयोग करने में सहायता करके, ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता से विशेषाधिकार हासिल किये थे, के निहित और संकीर्ण वर्ग हितों का प्रतिनिधित्व करती थी।
दोनों कट्टर सांप्रदायिक संगठन – आर.एस.एस. और मुस्लिम लीग, अभिजात
वर्ग के संगठन थे, और
मजदूरों, किसानो और कारीगरों, जिसमे
आज की तरह उस समय भी दक्षिण एशिया की जनसंख्या का विशाल बहुमत शामिल था, के प्रति तिरस्कार के लिए कुख्यात थे। इन दोनों सांप्रदायिक
संगठनों ने खुलेआम ब्रिटिश साम्राज्यवाद से संरक्षण मांगा और और प्राप्त किया।
यद्यपि, औपचारिक
रूप से,कांग्रेस हिन्दू-मुस्लिम एकता का पक्ष लेती रही, तथापि, ब्रिटिश
साम्राज्यवाद की‘बांटो और राज
करो’ के सूत्र पर आधारित विभाजन की रणनीति की सफलता के लिए, प्रथमतः और अन्ततः, और सबसे
ऊपर, उदीयमान भारतीय पूंजीपतियों की प्रमुख पार्टी- इंडियन नेशनल कांग्रेस- ही जिम्मेदार थी। अपने वर्ग-चरित्र
के कारण, दक्षिण एशिया की जनता को, औपनिवेशिक-जमींदार-पूंजीवादी
उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष में उनके सामान्य वर्ग हितों के लिए एक मंच पर एकजुट
करने के लिए संघर्ष करने के प्रति, उसका
रवैया पूरी तरह शत्रुतापूर्ण था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत में मजदूर-किसान संघर्ष के
उठते ज्वार और साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के अधिक विद्रोही होते जा रहे चरित्र के
भय से, बुर्जुआ शासन को स्थिर करने और ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा
निर्मित राज्य-यंत्र पर, अधिकाधिक
नियंत्रण पाने के लिए, कांग्रेस
की हताशा और बढती गई। उसने तेजी से अपने कार्यक्रम की प्रमुख मांगों को तिलांजलि
दे दी, जैसे कि सार्वजनिक मताधिकार के आधार पर चुनी हुई संविधान
सभा और अधीनस्थ अवस्थिति का के खात्मे की मांग, और
उपमहाद्वीप को विभाजित करने के लिए मुस्लिम लीग और ब्रिटिश शासकों के साथ एकता और
सहयोग का रास्ता चुना। वास्तव में, कांग्रेस
विभाजन की सबसे मज़बूत और प्रबल हिमायती बनकर उभरी, जिसने
यह दावा किया कि उपमहाद्वीप के सांप्रदायिक
विभाजन में बंगाल और पंजाब का विभाजन भी शामिल होना चाहिए।
अपने जन्म से ही, कांग्रेस
एक बुर्जुआ पार्टी थी, जो
राष्ट्रीय पूंजीवादी विकास के कार्यक्रम के लिए जनता को तैयार करने के लिए, और सर्वहारा को पूंजीपतियो के राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त
होने से रोकने के लिए छद्म-समाजवादी लफ्फाज़ी और लोकप्रिय नारे दे रही थी। उदार
भारतीय-राष्ट्रीय कांग्रेस ने, निम्न-बूर्ज्वा
समाजवाद को, उद्योगों की कुछ शाखाओं में राष्ट्रीयकरण सहित सुधारों की
एक समूची श्रृंखला के साथ मिलकर परोसा, जिसका
उद्देश्य राज्य द्वारा निदेशित पूंजीवादी विकास के कार्यक्रम का समर्थन था, जिसे बाद में एशिया अफ्रीका की कितनी ही नव-स्वाधीन
बूर्ज्वा सत्ताओं ने लागू किया है।
इस गद्दारी को सफल बनाने में स्तालिनवादी सीपीआई का अहम्
योगदान था। मास्को ब्यूरोक्रेसी, जिसने
सोवियत सर्वहारा से सत्ता छीन ली थी, के
प्रभाव तले, सीपीआई ने विभाजन के पूर्व, दो
दशको में लगातार अवसरवादी नीति अपनाई, जिसके
चलते कांग्रेस, साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन पर अपनी पकड़ मजबूत कर पाई। ‘दो चरणों’ वाली
क्रांति के मेन्शेविक-स्तालिनवादी सिद्धांत के आधार पर, स्तालिनवादियो ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में, कांग्रेस के नेतृत्व को किसी भी चुनौती का विरोध किया, और ब्रिटिश शासन के अंतिम वर्षों में मुस्लिम लीग की
राजनीति को अपना लिया। इसमें सांप्रदायिक पाकिस्तान की मांग को वैधता प्रदान करना
और उसके निर्माण के लिए सीपीआई के कार्यकर्ताओ को मुस्लिम लीग में भेजना भी शामिल
है। 1945 और 1947 के बीच, जब
कांग्रेस और मुस्लिम लीग कट्टर शत्रु के तौर पर आमने-सामने थी, बजाय उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन पर नेतृत्व के लिए, उन दोनों के खिलाफ संघर्ष करने के, सीपीआई
ने प्रतिद्वंद्वी बुर्जुआ पार्टियों को एकजुट होने और राष्ट्रीय क्रांति का
नेतृत्व करने की अपनी "जिम्मेदारी" पूरी करने के लिए निवेदन किया।
विभाजन को बुर्जुआ भारत और बुर्जुआ पाकिस्तान में अवतीर्ण
"आजादी" और “स्वतंत्रता” के बीच महज़ एक हादसे के रूप में परिभाषित किया गया और आज भी
किया जा रहा है। यह
विभाजन, हादसा नहीं, साम्राज्यवाद
विरोधी क्रांति का, पूंजीपति
और जमींदारों के हाथों विश्वासघात और उसके गर्भपात का सबसे हिंसक और त्वरित, स्पष्ट परिणाम था।
प्रारंभ से ही, स्तालिनावादियो
ने, सांप्रदायिक विभाजन द्वारा लागू की गयी पूंजीवादी
राष्ट्रीय-राज्य संरचना की वैधता को स्वीकार किया। भूमि-सुधारो को अंजाम देने, जनता की अन्य सामाजिक और जनवादी आवश्यकताओ को संबोधित करने
या बुनियादी नागरिक अधिकारों को कायम रखने में, संकट-ग्रस्त
भारतीय सरकार की विफलताएं, स्तालिनवादियों
के लिए तथाकथित 'प्रगतिशील
पूंजीपति वर्ग' के साथ गठजोड़ की जरूरत को उचित ठहराने के लिए नए तर्क बन
गयीं।
स्तालिनवादियों ने स्वयं को,निरंतर, कांग्रेस के अधीन बूर्ज्वा शासन के साथ बांधे रखा है, और इस तरह कांग्रेस के इस दावे को मजबूती प्रदान की है कि
वह सामाजिक प्रगति के जायज और सच्चे उपादान का प्रतिनिधित्व करती है।
दक्षिण एशिया के तमाम नए राज्यों ने, तबसे निरंतर, बड़े
ज़मींदारों, रजवाड़ों और व्यवसायियों, और
तमाम दूसरी संपत्ति और विशेषाधिकारों की सुरक्षा की है। इसने, पूंजीवादी विकास के लिए आवश्यक,मुट्ठी भर नामचीन्ह और कतिपय विखंडित सुधारों को अपनाने के
अलावा, ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य की मुख्य संस्थाओं और कानूनों को
बरक़रार रखा है।
भारत-पाक शत्रुता, और
सांप्रदायिक विभाजन के प्रतिक्रियावादी तर्क के तदनुरूप ही, दुनिया का कोई भी हिस्सा, आर्थिक
रूप से इस उपमहाद्वीप से अधिक विखंडित नहीं है।
मजदूर वर्ग को, सांप्रदायिक
विभाजन और दक्षिण एशिया में "स्वतंत्र" पूंजीवादी राष्ट्रीय सत्ताओं के छह दशकों के अनुभव से दूरगामी निष्कर्ष निकालने चाहिएं।
साम्राज्यवादी उत्पीड़न, औपनिवेशिक
शासन की विरासत और दक्षिण एशिया के विलम्बित पूंजीवादी विकास को सिर्फ सर्वहारा
नेतृत्व वाली समाजवादी क्रांति के जरिये ही लांघा जा सकता है, जिसे अनिवार्य रूप से, दक्षिण
एशिया की प्रतिक्रियावादी राज्य संरचना को चुनौती देनी होगी।
पूंजीपतियो के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन के नतीजो ने, हालाकि नकारात्मक रूप से ही, मगर
सतत क्रांति के सिद्धांत की निश्चित रूप से पुष्टि कर दी है।
१९४७ की भारत की औपचारिक स्वतंत्रता एक “अपूर्ण जीत” नहीं
थी, जैसा कि स्तालिनवादी दावा करते हैं, बल्कि स्तालिनवादी सीपीआई के समर्थन से, बुर्जुआजी के हाथो, साम्राज्यवाद
विरोधी क्रांति के प्रति, स्पष्ट
विश्वासघात था। वह भारत और पाकिस्तान के सत्तालोलुप पूंजीपतियों और साम्राज्यवाद
के बीच, दक्षिण एशिया में साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति को दबाने के
लिए किया गया एक प्रतिक्रियावादी समझौता था, जो
जनवादी क्रांति की महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक को भी हल नहीं कर पाया, फिर चाहे यह साम्राज्यवादी उत्पीड़न से मुक्ति हो, राष्ट्रीय एकीकरण का प्रश्न हो, जमींदारी का अंत हो, राज्य
से धर्म का अलगाव हो, या जाति उत्पीड़न का उन्मूलन।
इसके विपरीत, सांप्रदायिक
आधार पर उपमहाद्वीप का विभाजन, इस 'आजादी' का
सबसे विनाशकारी और सहज परिणाम था। उपमहाद्वीप के इस सांप्रदायिक विभाजन ने, न सिर्फ अभूतपूर्व पैमाने पर पुरुषों और महिलाओं को
विकलांगता और हत्या, लूट,बलात्कार और आगजनी
में परिणत, अविस्मरणीय अपराधों और त्रासदी को जन्म दिया, बल्कि इसका प्रतिक्रियावादी दुष्प्रभाव चिरस्थायी है। १९४७
के बाद से ही, दक्षिण एशिया की राष्ट्रीय-राज्य प्रणाली ने, तार्किक आर्थिक विकास की राह में एक प्रमुख बाधा के रूप में, और एक ऐसे तंत्र के रूप में काम किया है, जिसने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है, जिसके जरिये साम्राज्यवाद अपने वर्चस्व का प्रयोग करता रहा
है, और जिसने भारत
और पाकिस्तान के संभ्रांत वर्ग के
बीच एक प्रतिक्रियावादी भौगोलिक-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता पैदा की है, जो बार-बार युद्ध में विस्फोटित हुई है, और अब एक नाभिकीय दावानल से दक्षिण एशिया की जनता को
भयाक्रांत कर रही है।
१९४७ के बाद से राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का
शासन
जनवादी क्रान्ति से भीतरघात हुआ था, इसका अर्थ यह नहीं है कि समस्याएं आज भी उसी रूप में खड़ी
हैं, जिस रूप में वे १९४७ में मौजूद थीं।
औपनिवेशिक पूंजीवादी राज्य पर नियंत्रण के बाद, पूंजीपतियों ने, कुछ
सीमित सुधारों को अंजाम दिया है। इन सुधारों में रजवाड़ों, जमींदारों और साम्राज्यवाद के साथ वे सभी प्रकार के
प्रतिक्रियावादी समझौते शामिल हैं, जिनका
उद्देश्य था- जनता के असंतोष को तितर-बितर करना, पूंजीवादी
विकास को बढ़ावा देना और सामंती-कुलीन अवशेषो को समाविष्ट करके पूंजीवादी शासन को
स्थिर करना।
दक्षिण एशिया की मेहनतकश जनता और मजदूरों की जनवादी और
सामाजिक आकांक्षाओं के साथ बुर्जुआ शासन की पूरी तरह बेमेल और विरोधी प्रकृति, आज पहले किसी भी समय से अधिक स्पष्ट है। सांप्रदायिक आधार
पर उपमहाद्वीप के विभाजन और साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति के दमन के लिए, भारत और पाकिस्तान की सत्तालोलुप राष्ट्रीय बुर्जुआजी के
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ हाथ मिला लेने के छह दशक बाद, दक्षिण-एशिया कुपोषण के शिकारो और गरीब लोगों का दुनियाभर
में सबसे बडा क्षेत्र है।
छह दशक में, जनता
की ज्वलंत जनतांत्रिक और सामाजिक समस्याओ में से कोई भी हल नहीं हो पाई हैं। इसके
विपरीत, जमींदारियों,जाति
उत्पीडन और दूसरे मध्य-युगीन अवशेषों के, पूंजीवादी
शोषण के साथ अधिकाधिक घुलमिल जाने से, वे
हमेशा से अधिक घातक और विषाक्त हो गई हैं।
दुनियाभर के गरीबो में आधे भारतीय उपमहाद्वीप में रहते हैं।
दुनिया के अन्य किसी भी क्षेत्र की अपेक्षा यहां कुपोषित आबादी का अनुपात बड़ा है।
भारतीय, पाकिस्तानी या बांग्लादेशी, कोई
भी बूर्ज्वा राज्य, शिक्षा
और स्वास्थ्य पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का कुल 5 प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं करता
है।
जनता की समस्याओं के सामने कोई भी प्रगतिशील समाधान पेश
करने में असमर्थ, भारतीय
और पाकिस्तानी पूंजीपति वर्ग, उनके
प्रतिक्रियावादी भौगोलिक-राजनीतिक राज्य प्रतिद्वंद्विता के जरिये, और धार्मिक-सांप्रदायिक,राष्ट्रीय-नस्लीय
और जातिगत विभाजनो को हवा देकर, सामाजिक
तनावो को दूसरी दिशा में मोड़ने का प्रयास करते हैं।
इस्लामाबाद और नई दिल्ली - दोनों वाशिंगटन के कृपापात्र
बनने के लिए बेसब्री से परस्पर प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं।
भारत, जो
कल तक‘गुट-निरपेक्षता’ का
हिमायती बनता था, आज
चीन के विरुद्ध अमेरिका की रणनीति में शामिल है, और
अमेरिका की मदद से विश्व-शक्ति के रूप में उभरना चाहता है।
भारत की यह नयी नीति, उस
अमेरिकी नीति का प्रतिफल है जिसके चलते अमेरिका, सोवियत
संघ के साथ अपने शीत-युद्ध सहबंध से मुक्त हो चुके भारत को, अपने शिविर में खींचने को लालायित है।
एशिया में प्रभुत्व के लिए अमेरिकी रणनीति, पूरे क्षेत्र को अस्थिर कर रही है और भारत-पाक शत्रुता जैसे, पहले से ही मौजूद भौगोलिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों को और भी
विस्फोटक आयाम दे रही है। अफ़ग़ानिस्तान में शक्ति और प्रभाव के लिए संघर्ष, नई दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच प्रतिस्पर्धा के मुख्य
मुद्दों में से एक बन चुका है। भारत के साथ एक ‘विश्व
रणनीतिक सहबंध’कायम करके चीन को मात देने की अमेरिकी नीति, पाकिस्तानी बूर्ज्वाजी के दूरगामी रणनीतिक हितों के लिए
खतरा पैदा करती है। अफगान युद्ध ने, पाकिस्तान
के बड़े हिस्सों को गृह-युद्ध में धकेलकर, पाकिस्तानी
बूर्ज्वाजी के संकट को तीव्र कर दिया है।
भारत के प्रचारित आर्थिक अभ्युदय और भारत आधारित
अन्तर्राष्ट्रीय निगमों तथा भारतीय खरबपतियों की एक छोटी सी अल्पसंख्या का उदय, सीधे ग्रामीण आबादी की बहुसंख्या की बर्बादी और पाशविक रूप
से शोषित सर्वहारा के उदय के साथ जुड़ा हुआ है।
पिछले ६० सालों में, ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजीवादी संबंधों का विस्तृत प्रसार
हुआ है और फलतः एक कुलक किस्म की अपेक्षाकृत धनी किसानों की आबादी पैदा हुई है।
१९४७ से पूर्व के भारत में,यद्यपि, किसान वर्ग पहले ही वर्ग विभाजित था, जिसके चलते धनी किसान जातीय उत्पीडन में लगे थे, खेत मजदूरों को मजदूरी पर रखते थे, और महाजनी करते थे, तथापि
समूचे किसान वर्ग का सांझा हित ज़मींदारी और भूमि-कर के खात्मे में था। जबकि कृषि
प्रश्न आज भी मुख्य प्रश्न है, कृषि
में पूंजीवाद की घुसपैठ, किसान
वर्ग के अगणित स्तरों में विभाजन और ग्रामीण आबादी के सर्वहाराकरण ने, किसान वर्ग की सामाजिक-आर्थिक संहति को, एक समेकित वर्ग के रूप में, काफ़ी
घटा दिया है।
“स्वतंत्र” बुर्जुआ शासन के 63 साल: सामाजिक विनाश का कच्चा चिट्ठा
‘स्वतंत्र’ बुर्जुआ
शासन के 63 साल बाद, भारत
की पहचान, भीषण गरीबी और अभावों, घोर
सामाजिक असमानता, जर्जर
ढांचागत संरचना, राष्ट्रीय-नस्लीय, सांप्रदायिक,जातीय और अन्य संकीर्ण टकरावों, में होती है, जो
इस बात का ज्वलंत प्रमाण हैं कि यहां मध्ययुगीनता का राजनीतिक प्रभुत्व कायम है।
भारत में 80 लाख से अधिक लोग,आधिकारिक
गरीबी-रेखा के जीवन-स्तर से नीचे गुजर करते हैं, और
जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई हिस्सा १०० रुपये प्रति दिन से कम पर बसर करता है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, पांच
वर्ष से कम उम्र के 60 प्रतिशत भारतीय बच्चे साधारण या गंभीर रूप से कमजोर और
कुपोषण के शिकार हैं। जबकि मुट्ठी भर मुनाफाखोर- बड़े व्यवसायी, जमींदार, शीर्ष
नौकरशाह, अधिकारी और उनके व्यापारी सहकारी- विदेशी पूंजी के साथ
मिलकर देश की संपत्ति लूट रहे हैं।
निर्धनता और बुनियादी ढांचागत संरचना उपलब्ध
कराने में राज्य की विफलता के कारण, करोड़ों
लोगो की अभी भी स्कूलों, स्वास्थ्य
सुविधाओं, सफाई और बिजली तक पहुँच नहीं है। बिजली कटौतियां, सामाजिक-आर्थिक जीवन के लिए एक स्थायी व्यवधान बन गयी हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं विशेषतः उपेक्षित रहे हैं, जिसके कारण गरीब जनता, निजी
संस्थानों और कट्टरपंथी तथा धार्मिक चरित्र वाले संस्थानों की शरण में जाने को
विवश है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर भारतीय राज्य का कुल खर्च,सकल राष्ट्रीय उत्पाद के 5 प्रतिशत से भी कम है।
ग्रामीण इलाको में बुनियादी सुविधाओं की कमी और आजीविका
कमाने की कठिनाइयों के कारण ग्रामीण इलाको से शहरी इलाको में स्थानांतरण में
इजाफा हुआ है। ग्रामीण आबादी का सत्तर प्रतिशत हिस्सा, भूमिहीन है, जो
बटाईदार,किरायेदार और खेतिहर मजदूर के रूप में जीवन यापन करता है।
शहरों में भी, आबादी बुनियादी सार्वजानिक और सामाजिक सेवाओ तथा रोजगार की
कमी से जूझ रही है।
जनता की समस्याओं के लिए कोई प्रगतिशील समाधान प्रस्तुत
करने में असमर्थ, भारतीय
पूंजीपतियों ने, बढ़ते
सामाजिक आक्रोश को भ्रमित कर, प्रतिक्रियावादी
रास्तों की ओर मोड़ने और सर्वहारा वर्ग की एकता में दरार डालने के लिए, लगातार बढ़ते पाकिस्तान-विरोधी अंधराष्ट्रवाद, हिन्दू-कट्टरवाद और नस्लीय-राष्ट्रवाद को हवा दी है। भारत, सांप्रदायिक घृणा और धार्मिक मूलवाद का गढ़ बन गया है।
ज्यादातर लोगो के, अत्यंत
गरीबी और आर्थिक असुरक्षा में रहते हुए, भारत
में बुर्जुआ लोकतंत्र के समर्थकों का यह दावा, कि
राष्ट्रीय राज्य जनता को सुरक्षा और संरक्षण उपलब्ध कराएगा, एक क्रूर मजाक साबित हुआ है।
एशिया, मध्य-पूर्व
और अन्यत्र अमेरिकी राजनीतिक और सैन्य मंसूबों के लिए, भारतीय शासक वर्ग द्वारा उपलब्ध कराई गई ठोस सहायता के सीधे
परिणाम के रूप में, विश्व
पर साम्राज्यवादी वर्चस्व सुगम बना है। अमेरिकी नेतृत्व में इराक में चलाया जा रहे
युद्ध और हाल ही में अफगान-पाक युद्ध को भारत द्वारा दी गई सहायता, भारत के संभ्रांत शासक वर्ग की अमेरिकी साम्राज्यवादियों के
साथ मिलीभगत का प्रमाण है, जो
दक्षिण-एशिया में राजनीति और शासन-सत्ता पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के फंदे को मज़बूत
बना रही है।
संकटग्रस्त भारतीय पूंजीपति वर्ग, पाकिस्तान के साथ प्रतिक्रियावादी भौगोलिक-राजनीतिक शत्रुता
और अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ स्वार्थी गठबंधन की राजनीतिक धुरी पर निर्भर है।
पाकिस्तान में जुल्फिकार भुट्टो, श्रीलंका में मैडम भंडारनायके, और भारत में इंदिरा गांधी द्वारा अदा की गई समकालीन
भूमिकाओं में विचित्र साम्यताए देखने को मिलती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के
पूंजीवादी उत्कर्ष की समाप्ति के साथ, वर्ग-संघर्ष
के तीखा होने की परिस्थितियों में, इन
सब ने छद्म-समाजवादी लफ्फाजी और लुभावने-राष्ट्रवादी नारों के जरिये, सर्वहारा और उत्पीडित, मेहनतकश
जनता को पूंजीपति वर्ग के पीछे बांधने का प्रयास किया; शुरू में इन्होने कुछ अति-सीमित सुधार भी किये, मगर जल्द ही मजदूर वर्ग के विरुद्ध ये सभी सीधे संघर्ष में
उतरे और व्यापक असंतोष का दमन करने के लिए आपातकाल और अन्य आधिकारिक तरीके
प्रयुक्त किये।
इस चुनौती को, वामपक्ष
से कुंद करने के लिए, एक
तरफ लोक-लुभावने नारों और दूसरी तरफ़ दमन का सहारा लेते, वे सभी 1977 में पांच महीने के भीतर सत्ता से बाहर हो गए। इसके बाद, बुर्जुआ
राजनीति तेजी से दक्षिण की ओर मुड़ी, हालांकि
इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में वापसी के साथ,स्वयं
इस बदलाव को मूर्तरूप देने के लिए आगे आई। ये सरकारें, एक दीर्घकालिक प्रतिक्रियावादी विरासत छोड़ गईं- उनके “वाम” पाखंड
ने, जो अंध-राष्ट्रवाद और धार्मिक-सांप्रदायिक पहचान और
संबोधनों से ओतप्रोत था, ८०
के दशक में, समूचे दक्षिण-एशिया में नस्लीय-सांप्रदायिक राजनीति के गुणात्मक उत्कर्ष के बीज बोए।
स्तालिनवादियों और माओवादियों ने, सर्वहारा वर्ग को, इन
नामधारी-वामपंथी सरकारों से टकराने से रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे
मजदूर वर्ग को, बुर्जुआ सरकारों के खिलाफ, स्वतंत्र
राजनीतिक शक्ति के रूप में लामबंद करने के लिए संघर्ष करने में विफल रहीं।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार के साथ मोर्चे में सहभागी
थी, आपातकाल की स्थिति में भी। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी
ने, इस बीच, सर्वहारा
वर्ग को कांग्रेस के बुर्जुआ विपक्ष के मातहत कर दिया और अंततः जनता पार्टी को
सत्ता में आने में सहायता दी, जो
हिंदू-आधिपत्यवादी जनसंघ के कार्यकर्ताओं सहित कांग्रेस विरोधियों का अस्थायी
गठबंधन था। नक्सलवादियों (माओवादियों)ने, मज़दूर
वर्ग पर स्तालिनवादी संसदीय पार्टियों के राजनीतिक प्रभुत्व को चुनौती देने से
इंकार कर दिया। उन्होंने, बजाय
समाजवादी चेतना के विकास और सर्वहारा की राजनीतिक स्वतंत्रता और प्रभुत्व के लिए
संघर्ष को, क्रान्तिकारी संघर्ष के मुख्य अंतर्य के रूप में स्थापित
करने के, किसान-आधारित गुरिल्ला-वाद (दीर्घकालीन जनयुद्ध) का सहारा लिया। सी.पी.आई. और सी.पी.एम. ही की तरह नक्सलियों, माओवादियों ने भी, खुलेआम
समाजवादी क्रांति का विरोध किया और राष्ट्रीय जनवादी -यानी पूंजीवादी क्रांति- को
पूरा करने के लिए, पूंजीपति
वर्ग के ‘प्रगतिशील और देशभक्त’ तत्वों
से युक्त और किसानी वर्चस्व वाले, चार
वर्गों के मोर्चे की वकालत की।
वर्तमान संकट
गहरे वर्ग अंतर्विरोधों और जातीय-राष्ट्रीय व
सांप्रदायिक घर्षणों में लम्बे समय से घिरा भारत, हिन्दू
कट्टरवाद के उदय और दक्षिण-एशिया एवं मध्य-पूर्व पर वर्चस्व जमाने के अमेरिकी
आपराधिक अभियान में अपनी रणनीतिक साझेदारी के कारण, और
भी अस्थिर हो चुका है। 2008 के अंत में वैश्विक पूंजीवादी संकट के विस्फोट के साथ
ही, देश के गरीब श्रमिकों को विश्व बाज़ार के लिए सस्ते श्रम
निर्माता के रूप में प्रस्तुत करके, विदेशी
निवेशकों को लुभाकर, अर्थव्यवस्था
को विकसित करने के, भारतीय
पूंजीपति वर्ग के मंसूबों के पैरों तले से, जमीन
खिसक गयी है।
एक पिछड़ी अर्थव्यवस्था के आधार से, विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की भारतीय पूंजीपतियों
की चेष्टाओ के कारण, प्राकृतिक
और मानव संसाधनों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है और पर्यावरण के साथ-साथ, स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा और रोज़गार भी इसकी कुल्हाड़ी के तले हताहत हो रहे
हैं।
विश्व-अर्थव्यवस्था से संयोजन और मूलरूप से पिछड़ी
अर्थव्यवस्था पर नव-उदारवादी संरचनाओं का अधिरोपण, विनाशकारी
परिणाम दे रहा है- एक छोर पर अत्यंत गरीबी और दूसरे पर प्रचुर समृद्धि। जबकि
मुट्ठीभर पूंजीपति, ब्यूरोक्रेट्स
और टेक्नोक्रेट्स इस प्रक्रिया के असली लाभार्थी हैं, मजदूर वर्ग और ग्रामीण तथा शहरी मेहनतकश गरीब इसके शिकार
बने हैं। कीमतों में वृद्धि और खाद्य संकट, इस
प्रक्रिया के कई घटकों में से मात्र दो घटक हैं। भारत में पूंजीवाद का यह
प्रणालीगत संकट, पहले
से ही, क्रांतिकारी प्रक्रिया का आरम्भ कर चुका है।
बुर्जुआ कांग्रेस के नेतृत्व वाली प्रथम यू.पी.ए. गठबंधन
सरकार, जिसने हिंदू-फासीवादी भाजपा के नेतृत्व वाले एन.डी.ए गठबंधन
के विनाशकारी कुशासन के बाद सत्ता के गलियारे में फिर से प्रवेश किया था, के प्रति लोकप्रिय उत्साह तेजी से गायब हो गया है।
जनता की इच्छाओं और आकांक्षाओं की उपेक्षा करते हुए, यू.पी.ए सरकार ने एनडीए शासन की नीतियों को न सिर्फ जारी
रखा, बल्कि उन्हें और गहन बनाया। उसने, इराक और अफगानिस्तान में युद्ध सहित, एशिया और मध्य-पूर्व में, अमेरिकी
सामरिक रणनीति को निर्णायक समर्थन दिया, निजीकरण
और अन्य बाज़ार समर्थक “सुधारों” को आगे बढ़ाया, अंतर्राष्ट्रीय
मुद्रा कोष (आई.एम.एफ़) के कठोर निर्देशों को लागू किया, और बार-बार रक्षा-बजट में इजाफा किया।
खाद्य और ऊर्जा की लगातार बढ़ती कीमतों से, हाल के वर्षों में, जीवन-स्तर
एकदम नीचे गिर गया है। लेकिन सरकार और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जोर दे रहे हैं
कि बिजली, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस की कीमतो पर दी जानेवाली तमाम
रियायतें और सब्सिडी, चालू
वित्त वर्ष में समाप्त की जायें और तेजी से बढ़ते बजट घाटे को नियंत्रित करने के
लिए, सामाजिक खर्च में लगातार कटौती हो।
संभ्रांत शासक, सार्वजनिक
उपक्रमों और उद्यमों पर खर्च करना बंद कर रहे हैं और इसके स्थान पर ‘निजी-सार्वजनिक भागीदारी’पर
अधिकाधिक जोर दे रहे हैं, जो
दुनिया भर में बड़े उद्यमियों को, राज्य-निधि
को हड़पने के साधनो से लैस करने और आवश्यक सेवाओं की कीमत पर निश्चित लाभ सुरक्षित
करने के षड्यंत्र के सिवा कुछ नहीं है।
भारतीय जनता की प्राथमिक जनवादी और सामाजिक आकांक्षाओं-
मूलभूत नागरिक अधिकारों को सुनिश्चित करने, लैंगिक
असमानता,जातिगत भेदभाव, बाल
मजदूरी और बंधुआ मजदूरी का उन्मूलन तथा शिक्षा,स्वच्छता
एवं रोजगार की उपलब्धता- की पूर्ति का लक्ष्य, जमींदारी के उन्मूलन, साम्राज्यवाद द्वारा प्रायोजित नव-उदारवादी बुर्जुआ शासन की
समाप्ति, और बैंकों व बुनियादी उद्योगो को मेहनतकशो और मजदूरों के
जनवादी नियंत्रण के तहत रखने की मांग करता है। ये लक्ष्य, केवल मजदूरों-किसानों की सरकार द्वारा सत्ता हाथ में लेने
के बाद ही हासिल किये जा सकते हैं, जो
विश्व-पूंजीवाद का अंत करने के लिए, भारत
और दक्षिण एशिया में मेहनतकशों के भाग्य को, अंतर्राष्ट्रीय
मजदूर वर्ग के संघर्ष के साथ, सचेतन
रूप से एकाकार करे।
इस संघर्ष की अगुआई करने के लिए, सबसे जरूरी है, एक
नयी क्रांतिकारी सर्वहारा पार्टी का संगठन। इस पार्टी को, अपने कार्यक्रम और दृष्टिकोण को, भारत और समूचे दक्षिण एशिया सहित, विश्व सर्वहारा के रणनीतिक अनुभवों के निष्कर्षो पर आधारित
करना होगा।
जनवादी क्रांति और मजदूर वर्ग
हम मजदूर वर्ग की पार्टी हैं,चूंकि मजदूर वर्ग ही एकमात्र ऐसा वर्ग है, जिसके पास भारत की दमनकारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को
समाप्त करने के लिए, पर्याप्त
सामाजिक शक्ति और वर्ग सरोकार, दोनों
मौजूद हैं।
जनवादी क्रांति के अनसुलझे कार्यभार केवल भारतीय पूंजीपति
वर्ग और उसके राज्य के विरुद्ध क्रांति के जरिये ही संपन्न हो सकते हैं, और क्रान्ति को विजयी नेतृत्व देने की कूवत अकेले मजदूर
वर्ग के पास ही है। यह भारत में क्रांति के उद्देश्य के लिए एकमात्र संजीदा योद्धा
के रूप में, मजदूर वर्ग की वर्ग-स्थिति को, अन्य सभी सामाजिक वर्गों के सादृश्य, स्पष्ट करता है।
अनसुलझे जनवादी कार्यभार, उस
क्रांति के शक्तिशाली आवेग हैं, जो
मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनवादी और समाजवादी कार्यभारो को परस्पर एकजुट करेगी, अन्यथा असफल हो जाएगी।
भारत में पूंजीवाद का विकास,मजदूर
वर्ग की पांतों को तेज़ी से विस्तारित कर रहा है- वे जो जीवन-यापन के लिए अपने श्रम
की बिक्री पर निर्भर हैं, और
जहां निरंतर बढ़ती संख्या में छोटे किसान विस्थापित होकर खेतिहर और शहरी मजदूरों
में तब्दील हो रहे हैं।
निर्विवाद रूप से, भारत
में,मजदूर वर्ग और किसानों के बीच सहबंध विकसित किये बिना, क्रान्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। गरीब किसान भारत की
आगामी क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं, और करेंगे। परन्तु भारत में, जहां
तमाम शक्तियां दावा करती हैं कि किसान, क्रांति
की प्रमुख शक्ति हैं, हमारे
परिप्रेक्ष्य की विशिष्टता इस बात में निहित है कि हम मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी
क्षमता और मजदूरों तथा गरीब किसानो (यानि ऐसे किसान, जिनकी
आय बहुत कम है और वे केवल उस भूमि से अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं, जिसके वे मालिक हैं, वे, जो भूमि के मालिक होते हुए भी आजीविका के लिए अपनी
श्रम-शक्ति बेचने को बाध्य हैं; बटाईदार
और खेतिहर मजदूर) के क्रांतिकारी गठबंधन के नेता के रूप में उसके उभरने की
सम्भावना और आवश्यकता पर जोर देते हैं।
भूमि के छोटे मालिक-किसानों के बड़े हिस्से अथाह गरीबी में
रह रहे हैं। हमें आशा है कि वर्ग-संघर्ष के तेज़ होने के साथ, इस संस्तर के किसानो की बहुतायत, विश्व पूंजीवादी बाज़ार के प्रभुत्व और व्यापारियों, साहूकारों और जमींदारों के उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ने के लिए, सर्वहारा को अपने सहकारी-वर्ग के रूप में देखेंगे। कुछ,समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम के पक्ष में भी खड़े होंगे।
परन्तु ये वे होंगे, निम्न-बुर्जुआ
संपत्ति-धारको के रूप में अपने वर्तमान वर्ग-हितो की नहीं, बल्कि मार्क्स के शब्दों में, अपने
भावी वर्ग-हितो की रक्षा कर रहे होंगे, चूंकि
पूंजीवाद छोटे किसानो का अनिवार्यतः सर्वहाराकरण करता है।
निश्चित रूप से, सर्वहारा
को उपरोक्त सभी संस्तरों के साथ मिलकर संघर्ष सहबंध विकसित करना होगा, लेकिन इन संस्तरों के बीच अंतर को समझना महत्वपूर्ण है।
दक्षिण एशिया, जो
साम्राज्यवाद के सभी मुख्य अंतर्विरोधों का केंद्र बना हुआ है, और जिसमें सामाजिक-राजनीतिक टकराव और तनाव अपने चरम पर
पहुंच चुके हैं, के
भीतर अपनी प्रमुख रणनीतिक भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति और महत्त्व के
साथ भारत, एक सामाजिक क्रांति के लिए तैयार किला है। इस अपेक्षाकृत
पिछड़े देश के पास, सर्वोपरि, अपने विद्रोही गरीब किसानों के रूप में, जो आबादी का दो-तिहाई हिस्सा हैं, एक सामाजिक क्रांति के लिए तैयार उत्तोलक है।
भारत में आसन्न क्रान्ति,सन्निकट
अनसुलझे कार्यभारों के मामले में ही जनवादी क्रान्ति है, परन्तु अपने चरित्र, संभावनाओं
और नेतृत्व में यह अनिवार्य रूप से सर्वहारा समाजवादी है। कृषि क्रांति,ग्रामीण क्षेत्रों में संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन,इन तात्कालिक कार्यभारो की महत्वपूर्ण कार्यसूची में शामिल
हैं। हालांकि, ये तात्कालिक जनवादी कार्यभार, अपने आप में, सर्वहारा
समाजवादी क्रांति के लिए, एक
दहलीज़ का निर्माण करते हैं।
यह क्रांति, एक
एकल,एकीकृत प्रक्रिया के रूप में, सर्वहारा
को सत्ता में पहुंचाएगी, जो
गरीब किसानो द्वारा समर्थित, अपना
वर्ग अधिनायकत्व स्थापित करेगा। गरीब किसानो द्वारा समर्थित सर्वहारा तानाशाही में, मजदूरों और किसानों के बीच सहबंध मूर्तरूप लेगा। सर्वहारा
के सत्ता में आने के साथ, जनवादी
कार्यभारो का सीधे समाजवादी कार्यक्रम में विलय हो जाएगा। इस प्रकार, शुरू से ही सर्वहारा विशुद्ध जनवादी कार्यभारो की सीमाओं का
अतिक्रमण करेगा और अबाध क्रान्ति में पूंजीपतियों का स्वामित्वहरण करना शुरू कर
देगा।
भारत में सत्ता हथियाने के लिए, सर्वहारा, किसान
विद्रोहों की लहर का उपयोग करने में सफल हो सकता है, और
सत्ता लेकर समाजवाद-उन्मुख नीतियां, जिसमें
कृषि भूमि का स्वैच्छिक सामूहिकीकरण भी शामिल हैं, लागू
करते हुए अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण कर सकता है। हाथ में आई सत्ता का इस्तेमाल
वो क्रांति को पहले दक्षिण एशिया और फिर उसके जरिये विश्व के अन्य हिस्सों में
फैलाने के लिए करेगा। वो विश्व समाजवादी क्रांति के लिए अपनी सारी शक्ति लगाएगा।
सत्ता के लिए सर्वहारा का संघर्ष, बिना शर्त, पूंजीपतियों
की पार्टियों, राजनीतिक प्रतिनिधियों और दलालों से सम्बन्ध विच्छेद और
मजदूर वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग करता है। समाजवादी कार्यक्रम को लागू
करने की तो बात ही दूर, सर्वहारा
वर्ग सत्ता में भी नहीं आ सकता, यदि
उसके हाथ अन्य वर्गों के हितों के राजनीतिक प्रतिनिधियों के साथ राजनीतिक रूप से
दुर्बलकारी समझौतों से बंधे हों।
हालांकि यह बहुत स्पष्ट है कि सर्वहारा भारत में सत्ता तो
ले सकता है, और अपनी तानाशाही स्थापित कर सकता है,किन्तु उसका शासन ज्यादा देर तक टिक नहीं सकता और समाजवाद
का निर्माण नहीं कर सकता, जब
तक अन्य देशो में, मुख्यतः
विकसित देशो में, सर्वहारा
सत्ता नहीं ले लेता, और
भारत में सर्वहारा शासन के समर्थन में सामने नहीं आता। इसलिए, भारत में सत्ता लेने के बाद, हालांकि
सर्वहारा, बूर्ज्वा ढांचों को बड़े पैमाने पर नष्ट करना शुरू करेगा, लेकिन सर्वहारा वर्ग के सामने केंद्रीय कार्यभार, भारत में समाजवाद का निर्माण नहीं होगा, बल्कि अन्य देशो में क्रांति के प्रसार में सहायता करना
होगा। भारत में सर्वहारा के सत्ता लेते ही, प्रथमतः, दक्षिण एशियाई देशो में तुरंत क्रान्ति की ज्वालायें भड़क
उठेंगी जो चारों ओर क्रांतिकारी लहर को फैला देंगी और इस प्रकार, ‘दक्षिण एशियाई समाजवादी संघ’ की
संभावना पैदा करेंगी।
भारत में क्रांति, जिस
प्रक्रिया की शुरुआत करेगी वह अधिक-से-अधिक विश्व-पूंजीवाद को कमजोर कर सकती है।
तथापि, विश्व पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए विकसित देशो में
सर्वहारा का सत्ता में आना आवश्यक है, जिसके
बगैर समाजवादी समाज का निर्माण संभव नहीं हो सकता। अनेक देशो में सत्ता हासिल करके, जब तक विश्व सर्वहारा उसकी सहायता के लिए नहीं आता, तब तक भारत में सर्वहारा क्रांति अलग-थलग रहेगी, और अस्थायी रूप से निम्न-पूंजीवादी किसानो के समर्थन पर
टिकी रहेगी। क्रांति की लहरों से उत्पन्न प्रारंभिक ज्वार के बाद, क्रांति की दीर्घकालिक संभावनायें और गति अपेक्षाकृत मद्धिम
ही रहेंगे।
कृषि क्रांति: सर्वहारा और किसान
भारत में क्रांति, अपने अंतर्य में कृषि-क्रांति है, और इस प्रकार ग्रामीण किसान इसकी मुख्य शक्ति हैं। परन्तु
किसान, अपनी एतिहासिक सीमाओं के कारण, आसन्न सामाजिक क्रांति में नेतृत्वकारी या स्वतंत्र भूमिका
अदा नहीं कर सकते। आधुनिक पूंजीवाद के बजाय प्राक-पूंजीवादी समाज का एक वर्ग होने
के कारण, विषम और विखंडित संरचना तथा निम्न-बूर्ज्वा उदगम वाले किसान, केवल सर्वहारा-नेतृत्व का अनुसरण कर सकते हैं। हालांकि, सर्वहारा, क्रांति
करने में तब सफल नहीं हो सकता, जब
तक वह किसानों के गरीब हिस्सों को जीतने में सफल नहीं होता। विद्रोही किसानों के
रूप में, भारतीय सर्वहारा को, अपने
नेतृत्व में, क्रांतिकारी तख्तापलट के लिए तैयार उत्तोलक मिल जाता है।
भारत में, पूंजीपतियों
और सर्वहारा के बीच राजनीतिक संघर्ष, अपने
सामाजिक अंतर्य में, किसानों
को अपने प्रभाव में खींचने के लिए संघर्ष ही है। पूंजीपति वर्ग जब तक किसानों को
धोखा देने और उन्हें अपने प्रभाव में रखने में सफल होता रहेगा, तब तक भारत में क्रांति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
सत्ता के लिए राजनीतिक संघर्ष, इस प्रकार,पूंजीवादी
समाज के दो बुनियादी वर्ग- सर्वहारा और पूंजीपति वर्ग के बीच, प्रत्यक्ष संघर्ष है। मध्यस्थ वर्ग, मसलन किसान, जो
आधुनिक पूंजीवादी समाज का नहीं, बल्कि
प्राक-पूंजीवादी समाज का हिस्सा हैं, या
तो सर्वहारा या फिर पूंजीपतियों के नेतृत्व में रहेंगे। संख्या की दृष्टि से मजबूत
होते हुए भी, किसान, क्रांति
में कोई स्वतंत्र या नेतृत्वकारी भूमिका अदा करने में असमर्थ हैं। परन्तु भारत
जैसे कृषिप्रधान समाज में अपनी विशाल संहति और आकार के कारण, यह अभी भी स्वयं को निर्धारक और निर्णायक राजनीतिक कारक के
रूप में बनाये रखे हुए हैं। सत्ता-संघर्ष में विजयी होने के लिए सर्वहारा को
मेहनतकश किसानों का समर्थन प्राप्त करना होगा। भारत में बड़े पैमाने पर उत्पादकीय
पूंजी की घुसपैठ के सामने, भूमि
समूह और सामाजिक वर्ग, दोनों
ही रूप में, किसान,तेज़ी से नष्ट
हो रहे हैं और अपनी राजनीतिक संहति खोते जा रहे हैं। आम शहरीकरण और औद्योगिकीकरण
में बिम्बित हो रहे विश्व पूंजीवाद के विकास के साथ, गांव
पर शहर का अधिकाधिक बढ़ता जा रहा प्रभुत्व, राजनीतिक
शक्ति के रूप में किसानों को हाशिये पर डाल रहा है। जबकि मजदूर वर्ग की तुलनात्मक
संहति तेज़ी से बढ़ रही है, और
उसी अनुपात में किसानों का विनाश जारी है।
किसानो को जीतने का अर्थ है- जब-तब उभरनेवाले उनके स्थानीय
छिटपुट संघर्षो को, राजनीतिक
रूप से, सर्वहारा पार्टी और कार्यक्रम की धुरी के चारों ओर, जमींदारों और पूंजीपतियों के विरुद्ध निर्देशित और
राष्ट्रीय स्तर पर एक सचेतन संघर्ष में समेकित करना। क्रांतिकारी मार्क्सवादी होने
के नाते, हम किसानों की सहज और निरर्थक स्थानीय बगावतो की पूजा और
महिमामंडन नहीं करते, बल्कि
सर्वहारा नेतृत्व के गिर्द किसानों को राष्ट्रव्यापी संघर्ष के लिए एक सामाजिक
शक्ति के रूप में संगठित करते हैं, जो
सीधे सर्वहारा तानाशाही के तहत मजदूर-किसान राज्य की ओर आगे बढ़ेगा।
ग्रामीण सर्वहारा- खेतिहर सर्वहारा का उभार और अस्तित्व, एक बहुत महत्वपूर्ण कारक है। वह सिर्फ शहरी सर्वहारा की
पिछली पंक्ति ही नहीं है, बल्कि
ग्रामीण क्षेत्रो में सर्वाधिक क्रांतिकारी शक्ति है। बेशक, भारत में, किसानो
की अपेक्षा, मजदूर वर्ग संख्या में अभी भी छोटा है, परन्तु मजदूर वर्ग के लिए संख्या महत्वपूर्ण नहीं है। जहां
किसान, अपनी संख्यात्मक शक्ति के सहारे जीवित हैं, वहीँ सर्वहारा की शक्ति उसकी संख्या में नहीं, बल्कि इस तथ्य में निहित है कि आधुनिक पूंजीवादी समाज का
पहिया उसके हाथों से चलता है, और
उसके महत्वपूर्ण प्रतिष्ठान अपनी कार्य-प्रणाली के लिए मजदूर वर्ग पर निर्भर हैं।
मजदूरों की इच्छा के बिना, न तो
एक ट्रेन चल सकती हैं, न ही
एक टेलीफ़ोन।
निम्न-बुर्जुआ पार्टियां- सामाजिक-जनवादी, मध्यमार्गी, स्तालिनवादी, माओवादी- जो प्रत्यक्षतः स्वयं को मजदूर वर्ग पर आधारित
नहीं करतीं, सफल क्रांति का नेतृत्व भी नहीं कर सकतीं। ‘जनवादी क्रांति’ का
उनका सीमित कार्यक्रम, चाहे
वर्तमान में या भविष्य में, पूंजीवाद
के दायरे से आगे नहीं जा सकता, जबकि
समाजवादी क्रांति उनके लिए मरीचिका ही बनी रहेगी। एकमात्र सर्वहारा पार्टी- यानि
हमारी पार्टी- है, जो
सर्वहारा समाजवादी क्रांति के लिए, जिसके
लिए सभी आवश्यक पूर्वापेक्षाएं मौजूद हैं, मजदूर
वर्ग और उसका अनुसरण कर रहे, किसानों
का नेतृत्व करेगी।
राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की भूमिका
राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग, भारत में आसन्न क्रांति में केवल प्रति-क्रांतिकारी भूमिका
निभाएगा। वह 1947 से बहुत पहले ही, अपनी
सीमित ऊर्जा गंवा चुका था। विगत साढ़े छह दशकों में, उसके
शासन के तहत लोकतंत्र, अमीरों
द्वारा, अमीरों के लिए और अमीरों के शासन के रूप में पतित हो चुका
है।
बुर्जुआ राज्य की सत्ता, उसके
नियंत्रण में मौजूद विशाल सैन्य-शक्ति पर निर्भर करती है, जो मुख्यतः सीधे किसानो के हाथो में संगीनों पर टिकी होती
है। किसानों के विभिन्न संस्तरों का वस्तुगत हित, सर्वहारा
क्रांति की सफलता और जमींदारों-पूंजीपतियों के स्वामित्वहरण में निहित होता है।
यद्यपि साधारण समय में किसान पूंजीपतियों के नेतृत्व का अनुसरण करते हैं, मगर सर्वहारा जैसे ही एक क्रांतिकारी पार्टी के रूप में खुद
को संगठित करेगा और सबसे पहले तथा सबसे ऊपर किसानों के सबसे गरीब हिस्सों को अपने
साथ लेते हुए, किसान जनता के नेता के रूप में खुद को प्रस्तुत करेगा, यह राजनीतिक संतुलन बिगड़ जाएगा।
राष्ट्रीय आंदोलन से खुला विश्वासघात करते हुए और ब्रिटिश
उपनिवेशवादियों के साथ समझौते के जरिये, 1947
में सत्ता हाथ में लेने के बाद, राष्ट्रीय
पूंजीपति वर्ग, एक भी जनवादी कार्यभार सम्पन्न करने में सरासर विफल रहा है।
इन जनवादी कार्यभारों- भूमि सुधार, राष्ट्रीय
एकता, जन-शिक्षा, भाषाई, राष्ट्रीय, जातिगत
और धार्मिक मुद्दों, आदि
आदि, को इसने लगभग तिलांजलि दे दी है। सर्वहारा इन मुद्दों को
अपने संक्रमणकालीन कार्यक्रम में, परिघटनात्मक
रूप में उठाएगा, और
अपनी क्रांति के हिस्से के रूप में उन्हें सम्पन्न करेगा।
पूंजीपति वर्ग ने 1947 में सत्ता हासिल की, सामंतवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में नहीं, बल्कि विश्व पूंजीवाद के स्थानीय दलाल के रूप में, और स्थानीय प्रतिक्रिया से साथ संलयन के जरिये। इस संलयन के
कारण, भारत एक ऐसा दृश्य प्रस्तुत
करता है, जहां अर्थव्यवस्था और उत्पादन के सबसे पिछड़े रूप, दुनिया की सबसे उन्नत तकनीक और पूंजीवादी आविष्कारों के
साथ-साथ मौजूद हैं। दूसरी ओर, एक
पिछड़ा और परिधि पर खड़ा देश होने के नाते, भारत
की यह विशिष्टता, यह
तय करती है कि पुरातन मूढ़ता के साथ सर्वहारा आन्दोलन सबसे जुझारू और आकस्मिक
उभारों को मिला देगा,जिससे समूचा
राजनीतिक परिदृश्य, अचानक
ही धधक उठेगा। भारत में पूंजीवाद चूंकि, कदम-दर-कदम
विकसित नहीं हुआ, इसलिए
उसके विरुद्ध सर्वहारा के नेतृत्व में क्रांतिकारी आन्दोलन भी पुराने ढंग से
विकसित नहीं होगा।
विश्व पूंजीवाद के भीतर भारत का स्थान और भूमिका
बुर्जुआ लोकतंत्र की संस्थाओं पर आधारित, भारत, औपचारिक
रूप से एक स्वतंत्र देश बना हुआ है। पर सच यह है कि वह साम्राज्यवाद पर इतना
निर्भर और आधीन वह कभी नहीं था, जितना
आज है। उसके कालातीत प्राक-पूंजीवादी ढांचों को विश्व पूंजीवाद ने अपने साथ
संयोजित और अपने आधीन कर लिया है। उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली, सभी मौजूदा प्रणालियों पर हावी है और अर्थव्यवस्था की लय को
निर्धारित करती है। राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग, और
कुछ नहीं, विश्व पूंजीवाद का पिछलग्गू है। अन-औपनिवेशीकरण के उपक्रम
की विफलता ने बहुत पहले ही देश को साम्राज्यवाद के घातक आलिंगन में पहुंचा दिया
है। सत्तारूढ़ राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग, मुख्य
दलाल है, जो, कच्चे
माल के प्राकृतिक संसाधनों और सस्ते श्रम को, निर्बाध
शोषण के लिए, विश्व पूंजीवाद के समक्ष एक मंच के रूप में देश को प्रस्तुत
करता है।
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं कर समझौता, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के निर्देशों पर
चलते हुए, भारतीय बुर्जुआ शासक, पहले
से ही सीमित सामाजिक कल्याणकारी कार्यक्रमों और राष्ट्रीय विकास योजनाओं को ध्वस्त
कर चुके हैं, साम्राज्यवाद के नव-उदारवादी स्वरूप के साथ संरचनात्मक
तालमेल स्थापित कर चुके हैं, और
क्रमशः विदेशी बैंको के ऋण उगाहने वाले दलालों के रूप में अपने को ढाल रहे हैं।
विदेशी पूंजी को बेदखल करने के लिए लिए प्रयास करने के बजाय, राष्ट्रीय पूंजीपति, सस्ते
श्रम और अन्य संसाधनों के निर्बाध शोषण के लिए उसे आकर्षित करने के लिए अनुकूल
माहौल मुहैया करा रहे हैं, और
वैश्विक वित्तीय केंद्रों के माध्यम से विश्व बाजारों में अपनी पूंजी निर्यात कर
रहे है।
हालांकि उत्पादन के प्राक-पूंजीवादी स्वरूप -आदिम से लेकर
अपेक्षाकृत नये तक- अर्थव्यवस्था में मौजूद हैं, लेकिन
उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली ने उन सभी को अपने आधीन कर लिया है। इसलिए, राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग से हाथ मिलाकर, इन स्वरूपों के विरुद्ध स्वतन्त्र रूप से लड़ने का प्रश्न ही
पैदा नहीं होता। यह स्वरूप पूंजीवाद के साथ पूर्णतः घुलमिल चुके हैं, उसमें समाहित हो चुके हैं, और
इसलिए उनके उन्मूलन के लिए संघर्ष, शुरू
से ही, पूंजीवाद के उन्मूलन के लिए संघर्ष में, बदल जाता है।
स्तालिनवादी और माओवादी,दोनों, इससे इनकार हुए, राष्ट्रीय
पूंजीपति वर्ग में, क्रांति
का एक सहयोगी ढूंढते है। जबकि राष्ट्रीय पूंजीपति शासन करते हैं, ये झूठे क्रांतिकारी उनके लिए कुली-सेवा करते है। वे हमेशा
पूंजीपतियों के इस या उस हिस्से से खुद को चिपकाये रखते हैं।
हम पूंजीपतियों के किसी भी हिस्से के साथ कोई भी सहबंध
बनाने के विचार को सिरे से ख़ारिज करते हैं। हम,एकमात्र
संयुक्त मोर्चे का, सर्वहारा
पार्टियों और संगठनो के संयुक्त मोर्चे का प्रस्ताव रखते हैं, जो पूंजीपतियों के दोनों शिविरों, जनवादी और फासीवादी, के
विरुद्ध निर्देशित होगा।
बुर्जुआजी के स्थानीय हिस्सों के हितों का प्रतिनिधित्व
करती अनेक अनुचर पार्टियों के बीच, भाजपा
और कांग्रेस बड़े पूंजीपतियों की मुख्य राष्ट्रीय पार्टिया हैं। बुर्जुआ राजनीतिक
परिदृश्य पर कांग्रेस का मुख्यतः उदार हिस्से पर आधिपत्य है, वहीं दक्षिण हिस्से पर भाजपा का आधिपत्य है। अलग-अलग और
मिलकर ये दोनों, एक
ही शासक वर्ग- पूंजीपतियों और जमींदारों- का प्रतिनिधित्व करते हैं। बसपा जैसी
अन्य पार्टियां, जो
उत्पीड़ित अस्मिता के आधार पर पली-बढ़ी हैं, वे
भी इन हिस्सों के बुर्जुआ संस्तरों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
स्थानीय बुर्जुआजी की अन्य पार्टियां, जो मुख्यतः क्षेत्रीय पार्टी हैं, अपना प्रभाव रखती हैं, और इन
पार्टियों के जरिये स्थानीय बुर्जुआजी अपने लिए कुछ जगह बनाती है। सारतः, ये सभी पार्टियां, जमींदार
और पूंजीपति वर्गों के इस या उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करती हैं, और राजनीतिक रूप से मजदूर वर्ग को, पूंजीपति और निम्न-पूंजीपति वर्गों के मातहत, अलग-अलग हिस्सों में विभाजित करती हैं।
स्तालिनवादी और माओवादी सर्वहारा का दम घोंटते हैं
दक्षिण एशिया में दशको से स्तालिनवादियों ने
मजदूर वर्ग को राजनीतिक रूप से घोंट कर रखा है। इस आधार पर कि जनवादी क्रांति के
अनसुलझे कार्यभार, जिसमें
जमींदारी और जातिवाद का उन्मूलन तथा उपमहाद्वीप के असंख्य लोगों के बीच सच्ची
समानता की स्थापना शामिल हैं, केवल
पूंजीपतियों के नेतृत्व में “राष्ट्रीय” क्रांति के जरिये संभव हैं, स्तालिनवादियों
ने मजदूर वर्ग को, सुनियोजित
और व्यवस्थित ढंग से, विनाशकारी
परिणामों के साथ, राष्ट्रीय
पूंजीपति वर्ग के एक या दूसरे हिस्से के पीछे बांधे रखा है।
अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग के महत्वपूर्ण रणनीतिक अनुभवों को, उन अनुभवो को जो क्रांतिकारी मार्क्सवाद की निरंतरता का
प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली विभिन्न
धाराओं के बीच विवादों का की अंतर्वस्तु रहे हैं, छिपाते
हुए, स्तालिनावादियों, माओवादियों
और मध्यमार्गियों ने मजदूर वर्ग को, दशकों
से बुर्जुआ-राष्ट्रवाद, सामाजिक-जनवाद
और निम्न-बुर्जुआ-क्रांतिवाद के मातहत किये रखा है।
विश्व स्तर पर स्टालिनवाद की क्रान्ति-विरोधी भूमिका और
भारत में सीपीआई से लेकर नक्सलवादियों तक, उसकी
विभिन्न किस्मों के, ‘द्वि-स्तरीय’ क्रान्ति के मेन्शेविक-स्तालिनवादी सिद्धांत से चिपकने की
नीति को, मजदूर आन्दोलन के भीतर क्रान्ति-विरोधी धाराओं के रूप में
नंगा किए जाने और खुलासा किए जाने की जरूरत है।
एक वास्तविक विपक्ष, और
बुर्जुआ शासन का एक व्यवहार्य विकल्प प्रस्तुत कर पाने में
स्तालिनवादियों-माओवादियों की विफलता ने, बुर्जुआ
और निम्न-बुर्जुआ राष्ट्रवादी और सुधारवादी आंदोलनो के लिए जगह बना दी है।
इसलिए, हमें, विश्व पूंजीवाद को आगे बढ़ाने में स्तालिनवादियों, सोवियत कम्युनिस्ट ब्यूरोक्रेसी और उसकी अनुचर कम्युनिस्ट
पार्टियों की भूमिका की, एक
व्यवस्थित और ऐतिहासिक आलोचना विकसित करनी चाहिए। परन्तु यह जटिल समस्या है चूंकि
भारत में, मजदूर वर्ग और समाजवादी विचारों से प्रभावित मेहनतकश जनता
और बुद्धिजीवियों पर, माओवाद
सहित विभिन्न स्तालिनवादी धाराओं ने राजनैतिक-वैचारिक वर्चस्व कायम कर रखा है।
पूंजीवाद २०वीं सदी में कैसे जीवित रह सका, और
वे राजनैतिक समस्याएं जिसका अब मजदूर वर्ग सामना कर रहा है, न सिर्फ इन्हें समझने के लिए यह आलोचना एक मूलाधार है, बल्कि उस परिप्रेक्ष्य और कार्यक्रम पर भी यह तीव्र प्रकाश
डालती है, जो क्रांतिकारी उथल-पुथल के अगले दौर में सर्वहारा का
मार्गदर्शन करेगा।
स्टालिनवाद, उस
विशेषाधिकार-प्राप्त ब्यूरोक्रेसी की विचारधारा थी, जो
प्रथम विश्व-युद्धोत्तर काल में, जर्मन
सर्वहारा के क्रान्तिकारी उभार के बावजूद, अत्यंत
पिछड़े देश में क्रांति के अलग-थलग पड़ने की स्थितियों में, सोवियत संघ में मजदूर वर्ग के हाथ से सत्ता छीनने में सफल
रही। ब्यूरोक्रेसी ने, “एक
देश में समाजवाद” के
सिद्धांत पर बढ़ते हुए, अंतर्राष्ट्रीयतावादी
कार्यक्रम को, जिस पर क्रांति आधारित थी, तिलांजलि
दे दी, और पूंजीवादी विश्व व्यवस्था में एक मान्यता-प्राप्त स्थान
प्राप्त करने की ओर उन्मुख, उत्तरोत्तर
बढ़ती आत्म-चेतना के साथ, इस
प्रक्रिया में, दुनिया भर में राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टियों को, अपनी प्रति-क्रांतिकारी विदेश नीति के लिए एक औजार में
तब्दील कर दिया।
हमें यह समझना चाहिए कि स्टालिनवाद क्या था, और वह क्यों पैदा हुआ, मार्क्सवाद
के किन मुख्य संशोधनों के साथ यह जुड़ा हुआ है, जिनमें
एक देश में समाजवाद, क्रांति
का दो चरणों का सिद्धांत, सामाजिक-फासीवाद, बूर्ज्वाजी के साथ सांझे लोकमोर्चे की नीति और
विश्व बुर्जुआजी के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व आदि शामिल हैं, समझना चाहिए, और
विश्व सर्वहारा के उन महत्वपूर्ण रणनीतिक अनुभवों को इंगित करना चाहिए, जो
स्टालिनवाद की प्रतिक्रांतिकारी भूमिका को उजागर करते हैं, दक्षिण-एशियाई क्रांति पर इसके विनाशकारी प्रभाव का भेद
खोलते हैं, और अंततः उस यांत्रिकी के
रूप में सेवा प्रदान करनेवाली, सोवियत
और चीनी ब्यूरोक्रेसी की, कड़ी
आलोचना करनी चाहिए जिसके जरिये भूतपूर्व सोवियत संघ तथा चीनी लोक-गणतंत्र में
पूंजीवाद की पुनर्स्थापना हुई।
सोवियत स्तालिनवादी ब्यूरोक्रेसी ने व्यवस्थित ढंग से विश्व
समाजवादी क्रांति का गला घोंट दिया, और
एक राष्ट्रवादी-अवसरवादी विचारधारा और राजनीति को बढ़ावा दिया, जिसने, ट्रोट्स्की
के शब्दों में, विश्व सर्वहारा आंदोलन की सिफलिस के रूप में काम किया,और चौथे अंतरराष्ट्रीय के क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं पर
निर्दयता से अत्याचार किये, और
उनके सफाए के लिए अभियान छेड़ा।
नक्सलवादी आंदोलन सहित अपनी सभी शाखाओं के साथ
सीपीआई के उदय और विकास की समीक्षा करते हुए, भारत
में स्टालिनवाद के इतिहास का पुनरावलोकन करना भी आवश्यक है। यह अवलोकन स्पष्ट रूप
से दिखायेगा कि, दोनों
स्तालिनवादी पार्टियों- सीपीआई और सीपीआई(एम) को बुर्जुआ व्यवस्था का अभिन्न अंग
बनाते हुए, क्रांतिमना तत्वों
को स्टालिनवाद ने किस तरह व्यवस्थित ढंग से दिग्भ्रमित किया और कैसे उन्हें
विसंगठित किया।
एक बार फिर, मुख्य
चुनौती, पिछली सदी के महत्वपूर्ण अनुभवों को आत्मसात करने की है।
इसमें निश्चित रूप से सीपीआई की ऊहापोह शामिल होगी- 1920 के दशक के मध्य और अंत
में एक द्वि-वर्गीय पार्टी की समझ से लेकर, 1930
के दशक में कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रवादी आंदोलन की ओर एक अति-वामपंथी और
बहिष्कारवादी रवैया अपनाने तक, और
उसके बाद 1930के दशक के उत्तरार्ध में मजदूर वर्ग और किसानों के बढ़ते क्रांतिकरण
की परिस्थितियों में, गांधी
और कांग्रेस को जनवादी क्रांति के जायज नेता बताते हुए, सर्वहारा वर्ग को योजनाबद्ध तरीके से, उनके आधीन करने की नीति तक।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश शासन को, सीपीआई के आपराधिक समर्थन का उल्लेख करना यहां आवश्यक है, जिसने साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन पर कांग्रेस को अपना
नेतृत्व सुदृढ़ करने में मदद की, अलग
पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया, और
1945-47 की महत्वपूर्ण अवधि में, जब
भारत, सामाजिक संघर्षो के चलते दहल रहा था और एक क्रांतिपूर्व
स्थिति के मुहाने पर था, भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग की एकता के लिए शर्मनाक आह्वान किया। जब
राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की प्रतिद्वंद्वी पार्टियां, ब्रिटेन की कृपा पाने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हुए, एक दूसरे के खिलाफ तलवारें खींच रही थीं, तब भी सीपीआई, कांग्रेस
और मुस्लिम लीग को, जनवादी
क्रांति के नेता के रूप में उनकी प्रतिष्ठित और"ऐतिहासिक रूप से प्रदत्त"
भूमिका निभाने के लिए, बोगस
आह्वान जारी करने में जुटी थी।
सोवियत संघ और अमेरिका के बीच विकसित हो रहे शीतयुद्ध की
पृष्ठभूमि में तथा विगत काल में पार्टी की दयनीय अवसरवादी नीतियों से खिन्न
कार्यकर्ताओं की पांतों में आक्रोश के चलते, सीपीआई
ने अल्पकाल के लिए वाम मोड़ लिया और तेलंगाना के किसान विद्रोह से अपने को जोड़ा, मगर इसके तुरंत बाद भारतीय राज्य के समक्ष पूरी तरह घुटने
टेकने की नीति के चलते, यह
अल्पकालिक मोड़ फीका पड़ गया। 1960 के दशक में सीपीआई के संकट ने, सीपीआई के अंदर और बाहर के सभी प्रतिद्वंद्वी गुटों के
राजनीतिक दिवालियेपन को उजागर किया।1970 के दशक के संकट के दौरान, विभिन्न स्तालिनवादी धाराओं ने सर्वहारा वर्ग को
पूंजीपतियों के पीछे बांधने में बहुत ही घातक भूमिका निभाई। सोवियत संघ के पतन ने, स्तालिनवादी पार्टियों को मझधार में छोड़ दिया।
स्तालिनवादियों ने उत्तर-१९९१ में पूंजीपतियों की ‘नई
आर्थिक नीति’ को लागू करने में मदद की। स्तालिनवादियों के नेतृत्व वाली
सरकार ने, बड़े व्यवसायियों के लिए भूमि अधिग्रहण करने के लिए, पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम में किसानों के
विरुद्ध जमकर हिंसा की। स्तालिनवादी पार्टियों के संयुक्त मोर्चे, वाम-मोर्चे ने, बुर्जुआ
कांग्रेस के नेतृत्व वाली, अल्पमत
यू.पी.ए. (प्रथम) सरकार को सहारा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे सोवियत संघ
को १९९१ में उसके पतन तक ‘समाजवादी देश’ बताकर प्रचारित करते रहे और आज भी चीन को समाजवादी बता रहे
हैं। माओवाद (नक्सलवाद), स्टालिनवाद
की इसी मिट्टी से पैदा हुआ है, और
मार्क्सवाद के स्तालिनवादी विश्वासघात को स्थायित्व देता है।
स्तालिनवादी और माओवादी दोनों, राजनीतिक रूप से, चरणबद्ध
क्रांति की सांझी ज़मीन में गड़े हैं। चरणबद्ध क्रांति- यानि, क्रांति के दो चरण का मेन्शेविक सिद्धांत- ‘आज पूंजीवाद, कल
समाजवाद’- जिसके हिसाब से, पिछड़े
देशो में सर्वहारा, अपनी
संख्यात्मक दुर्बलता के कारण, न तो
अपनी तानाशाही स्थापित कर सकता है और न ही पूंजीपतियों को बेदखल कर सकता है। दोनों
ही,उलटे, राष्ट्रीय
बूर्ज्वाजी के साथ सहबंध बनाने को लालायित रहते हैं, जो
उनके अनुसार क्रान्तिकारी सहभागी हैं।
स्तालिनवादी और माओवादी दोनों ही इस सांझे विचार से खुद को
दिग्भ्रमित करते हैं कि भारत में क्रान्ति, उन्नीसवीं
सदी की यूरोपीय क्रांतियों की तर्ज पर ‘दो
चरण’ वाली राह का अनुसरण करेगी.साम्राज्यवाद के उदय और इसके
द्वारा दुनिया को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लेने के साथ, भारत में समाजवादी क्रान्ति से अलग, जनवादी क्रान्ति का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता. जनवादी
कार्यभार, जिन्हें राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी, साम्राज्यवाद के समक्ष अपनी अक्षमता के चलते पूरा नहीं कर
सकी, सर्वहारा के अधिनायकत्व के तहत,सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति के हिस्से के तौर पर पूरे
होंगे.
स्तालिनवादियों और माओवादियों दोनों के सांझे, बोगस और वर्ग-सामंजस्य की अवधारणा पर टिके इस मेन्शेविक
परिप्रेक्ष्य ने, पिछली
सदी में विश्व सर्वहारा क्रांति की संभावनाओं को बेहिसाब नुकसान पहुंचाया है। उनके
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण ने, उन्हें
धकेलकर, राष्ट्रीय बुर्जुआजी के आलिंगन में पहुंचा दिया है, और उन्होंने सर्वहारा को हाथ-पैर बांधकर, बुर्जुआजी के हवाले कर दिया है।
जबकि स्तालिनवादी, अपनी
पार्टियों, भाकपा, माकपा
और उनके नियंत्रण वाली ट्रेड-यूनियनों के जरिये, मजदूरों
को, पूंजीपतियों और उनकी सरकार के खिलाफ हल्ला बोलने से रोके
रखती हैं, माओवादी मजदूर वर्ग को हाशिये पर डालते हैं और खुद को सीधे
किसानो की ओर उन्मुख करते हैं। अपने सीमित राष्ट्रवादी कार्यक्रम के साथ, वे आसानी से विश्व सर्वहारा की अनदेखी करते हैं और अपने
राष्ट्रीय पूंजीपतियों का राजनीतिक हितसाधन करते हैं। वे राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग
के शिविर के 'वामपंथी' हैं।
वे दोनों, ‘सतत क्रांति’ और
सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद, जो
महान अक्टूबर क्रांति के आधार हैं, के
घोषित शत्रु हैं। सर्वहारा वर्ग और उसकी पार्टी को, इन
झूठे क्रांतिकारियों को प्रभावहीन करने के लिए प्रयास करना होगा।
इस सीमित और संकीर्ण राजनीतिक दृष्टिकोण के चलते, स्तालिनवादी और माओवादी, दोनों, मजदूर वर्ग और इसके पीछे करोड़ों किसानों का, भारत में बुर्जुआ शासन के खिलाफ, नेतृत्व करने से इनकार करते हैं। इसके विपरीत, मजदूरों और किसानों को तोप के चारे के रूप में इस्तेमाल
करके, वे राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के हिस्सों के साथ सहबंध में
सत्ता लेना चाहते हैं। अपने कार्यक्रम और कार्रवाई- दोनों में, वे इस नियम के अनुसार चलते हैं। पूर्णतः पथभ्रष्ट, इनके नेतृत्व वाली पार्टियां, अब
केवल अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए लड़ रही हैं।
स्तालिनवादियों ने सत्ता पर बूर्ज्वाजी की विजय को सुगम
बनाया
भारतीय पूंजीपति वर्ग, राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष से विश्वासघात करते हुए, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के साथ समझौते के जरिये, 1947 में सत्ता में आया। भारत के विभाजन की ऐतिहासिक
त्रासदी, इस समझौते का सीधा परिणाम थी।
राष्ट्रीय पूंजीपतियों ने इस विश्वासघात को, राष्ट्रीय स्वतंत्रता के रूप में प्रचारित किया। स्टालिन के
निर्देशों के तहत काम कर रही, भारत
की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने, न
सिर्फ ‘स्वतंत्रता’ की
इस भ्रान्ति को प्रचारित करने में, बल्कि
देश के विभाजन में भी नेहरु की बुर्जुआ सरकार के साथ खुलकर सहयोग किया। सीपीआई ने, राष्ट्रीय बुर्जुआजी के इस विश्वासघात का, ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता’ के
रूप में स्वागत किया, और
मजदूरों, किसानों तथा युवाओं को यह समझाते हुए गुमराह किया कि इस
स्वतंत्रता से प्रगति और समृद्धि की शुरुआत होगी। उसने खुलेआम भारत के विभाजन की
ब्रिटिश योजना का समर्थन किया, और
मुस्लिम लीग के साथ मिलकर, इस
तरह के विभाजन की मांग तक की। इस विभाजन का परिणाम था-हज़ारों लोगों की विकलांगता, बलात्कार, हत्याएं
और फिर दसियों लाख लोगो का विस्थापन। यह विभाजन,मजदूरों
और किसानों के बीच सांप्रदायिक विभाजन के लिए एक साजिश साबित हुआ, जिसने, राष्ट्रीय
पूंजीपतियों औरउपनिवेशवादियों के बीच हुए इस समझौते, और
भारत एवं पाकिस्तान में उनके शासन को कोई चुनौती देने से, मजदूरों-किसानों को अपाहिज कर दिया। मजदूर और किसान, नेतृत्व के लिए कम्युनिस्टों की ओर देख रहे थे,लेकिन स्तालिनवादी सीपीआई ने, उन्हें
हाथ-पैर बांधकर पूंजीपति वर्ग के सुपुर्द कर दिया।
स्टालिन ने ब्रिटिश और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों पर दबाव
डालकर उन्हें ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता’ की
मांग को तिलांजलि देने और इसे ‘उत्तरदायी
सरकार’ के सुधारवादी कार्यक्रम से प्रतिस्थापित करने के लिए, बाध्य किया।
1948 में, तेलंगाना
क्षेत्र में किसान विद्रोह शुरू हुआ, और
किसानों ने हैदराबाद के निज़ाम के सामंती राज्य को पंगु बना दिया। शुरू में, अल्पकाल के लिए, कार्यकर्ताओं
के दबाव के तहत सीपीआई ने तेलंगाना विद्रोह का समर्थन किया, लेकिन जल्द ही, स्टालिन
से आदेश मिलते ही, सीपीआई
अचानक संघर्ष से पीछे हट गयी, और
विद्रोही किसानों को भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए सलाह देने लगी।
इसका परिणाम था- किसानों का व्यापक कत्लेआम।
स्टालिन को नेहरु का बुर्जुआ शासन, प्रगतिशील और राष्ट्रवादी दिखाई दिया। उसने, सत्ता के लिए नेहरु सरकार के विरुद्ध संघर्ष चलाने के बजाय, भारतीय कम्युनिस्टो को, नेहरु
सरकार का समर्थन करने की सलाह दी, ताकि
वह दक्षिणपंथी ताकतों के खिलाफ लड़ने में सक्षम बने। पूंजीपतियों के साथ सहयोग की
इस कुत्सित नीति ने उस समय भारत में परिपक्व हो रही क्रांतिकारी स्थिति को उलटते
हुए, कांग्रेस के नेतृत्व में बुर्जुआ शासन के स्थिरीकरण में
सक्रिय रूप से सहायता प्रदान की। पूंजीपतियों के राष्ट्रीय और प्रगतीशील हिस्सों
की, स्तालिनवादियों की यह तलाश, आज
भी जारी है, और बूर्ज्वाजी के साथ सहयोग का एक स्थायी बहाना बन चुकी है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई)की स्थापना, लेनिन की मृत्यु के बाद, कानपुर
कांग्रेस में 1925 में हुई थी, जब
तीसरा इंटरनेशनल और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी व्यावहारतः स्टालिन के निर्देशों के
अधीन काम कर रहे थे। इसलिए यह अपने जन्म से ही, स्टालिन
के नेतृत्व से विरासत में मिली विकृतियों से घिरी रही है। हालांकि, बाद में, विश्व
कम्युनिस्ट आंदोलन पर प्रभुत्व के लिए स्टालिन और माओ के बीच चीन-सोवियत विवाद के
चलते, सीपीआई, 1964
में, दो टुकडो- सीपीआई और सीपीआई (एम) में विभाजित हो गयी थी, जिसमें सीपीआई मास्को और सीपीएम बीजिंग की ओर उन्मुख रही, किन्तु दोनों धडों ने ही तबसे ‘जनवादी क्रान्ति’ की
आड़ में बूर्ज्वाजी के साथ सहयोग की घृणित नीति को जारी रखा है। तेलंगाना संघर्ष के
बाद, जहां सी.पी.आई ईमानदारी से कांग्रेस से चिपकी रही है, वहीँ सीपीआई (एम) अलग-अलग समय पर, कांग्रेस और धुर-दक्षिणपंथियों सहित, अलग-अलग बुर्जुआ पार्टियों से गठबंधन बनाती रही है।
कांग्रेस शासन को, सत्ता
में बनाये रखने के लिए, सीपीआई
हंमेशा सहायक बनी रही है, और
कांग्रेस शासन को चुनौती देनेवाले हर राजनीतिक संकट को समाप्त करने में इसने
महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। 1974-77 के दौरान, आपातकाल
के समय भी, इसने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को समर्थन दिया, और संकट में, मजदूरों
और किसानों को, कांग्रेस शासन के खिलाफ हल्ला बोलने से रोके रखने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दूसरी ओर, सी.पी.आई
(एम) ने जनता पार्टी से गठबंधन कर, 1977
में उसे सत्ता में आने में मदद की। इसने वामपंथ की ओर से जनता पार्टी की सरकार का
समर्थन किया, जिसका एक घटक धुर-दक्षिणपंथी जनसंघ भी था। सी.पी.आई.(एम) ने, फिर वीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार का, वाम की ओर से, समर्थन
किया, जबकि दक्षिणपंथी भाजपा इसे दक्षिण से समर्थन दे रही थी।
सीपीआई और सीपीएम दोनों ने, बाद
में, भाजपा को सत्ता से दूर रखने के बहाने, पिछली लोकसभा में, कांग्रेस
के नेतृत्व में यू.पी.ए सरकार के बुर्जुआ गठबंधन को, चार
से अधिक वर्षो तक समर्थन दिया, जब
तक कांग्रेस ने ही इसे निकाल बाहर नहीं किया। दोनों स्तालिनवादी पार्टियां, फिर एक बुर्जुआ गठबंधन, कांग्रेस-विरोधी
पार्टियों के साथ “तीसरे
मोर्चे” में शामिल में हुए, जो
चुनाव में बुरी तरह से पिट गया।
स्तालिनवादियों का राजनीतिक दृष्टिकोण क्रांति के मेन्शेविक 'दो चरण के सिद्धांत' पर
आधारित है, जिसके अनुसार पिछड़े देशों में सर्वहारा समाजवादी क्रांति से
पहले एक जनवादी क्रांति होगी। यह त्रुटिपूर्ण सिद्धांत इस मेन्शेविक धारणा पर
आधारित है कि पूंजीपति वर्ग के हिस्से जनवादी क्रांति में सकारात्मक, प्रगतिशील और क्रांतिकारी भूमिका अदा करेंगे। स्तालिनवादियों
को सर्वहारा की शक्ति और संघर्ष में कोई विश्वास नहीं हैं। वे मानते हैं कि भारत
में सर्वहारा वर्ग, स्वतंत्र
राजनीति करने, और अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए, सत्ता हाथ में लेने के लिए, पर्याप्त
रूप से दृढ़ और परिपक्व नहीं है, इसलिए
उसे प्रगतिशील बुर्जुआजी के नेतृत्व का अनुसरण करना पड़ेगा। यह प्रगतिशील बुर्जुआजी,उन्हें कभी कांग्रेस में तो कभी इससे बाहर नजर आती है। इसे
वे क्रान्ति का जनवादी बताते हुए, समाजवाद
के प्रश्न को अनिश्चित कल के लिए टाल देते हैं।
माओवादी, स्तालिनवादियों के चीनी संस्करण हैं और ठीक उसी राजनीति में
धंसे हैं
मास्को और पीकिंग के बीच,विश्व-कम्युनिस्ट आन्दोलन पर प्रभुत्व के लिए संघर्ष के
चलते, हालांकि माओवादियों ने ज्यादा क्रान्तिकारी लफ्फाज़ी का
प्रयोग किया, तथापि दोनों ‘द्वि-स्तरीय
क्रान्ति’ से उदभूत उसी राजनीति का अनुसरण करते हैं और दोनों ही ‘सतत क्रान्ति’ के
कार्यक्रम के दृढ़ शत्रु हैं।
1848 में मार्क्स द्वारा प्रतिपादित अवधारणा पर आधारित, और बाद में ट्रोट्स्की द्वारा विकसित, ‘सतत क्रांति’ का
कार्यक्रम, चरणबद्ध क्रांति के सिद्धांत को राजनीतिक या एतिहासिक रूप
से जायज नहीं मानता, बल्कि
यह मानता है कि चूंकि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग, क्रांति
संपन्न करने के लिए अत्यंत दुर्बल है, इसलिए
यह सर्वहारा का ऐतिहासिक दायित्व है कि वह सत्ता हाथ में ले, अपनी तानाशाही स्थापित करे, और
क्रांति को आगे बढ़ाये। इसके लिए उसे बुर्जुआजी के खिलाफ संघर्ष करना होगा, न कि उनसे गठबंधन,जैसा
कि स्तालिनवादी सोचते हैं। पूंजीपति वर्ग के साथ गठबंधन में जनवादी क्रांति का कोई
सवाल ही नहीं है- या तो मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी तानाशाही,या फिर पूंजीपति वर्ग की प्रतिक्रांतिकारी तानाशाही। किसान, चाहे उनकी संख्यात्मक शक्ति कितनी भी मजबूत हो, एक या दूसरे वर्ग को सत्ता हासिल करने में केवल सहायक
भूमिका ही निभाएंगे। विभिन्न देशों में मौजूद, पूंजीवादी
विकास के विभिन्न स्तर, केवल
सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी तानाशाही के समक्ष, भिन्न-भिन्न
कार्यभार प्रस्तुत करेंगे और इसलिए विभिन्न देशों में क्रान्ति के कार्यभार और गति
भी, अलग-अलग रहेंगे।
स्तालिनवादियों की भांति, माओवादी
भी, ‘क्रांति के दो चरणों’ के
सिद्धांत की वकालत करते हैं, पूंजीपतियों
के हिस्सों के प्रति वैसी ही शर्मनाक निष्ठा रखते हैं। माओवादी, सर्वहारा को दरकिनार करते हुए सोचते हैं कि कृषिप्रधान
देशों में, किसान दीर्घकालीन युद्ध के जरिये क्रांति को अंजाम देंगे।
माओवादी, 1925-1927 की चीनी 'जनवादी
क्रांति', जो 1926 में परिपक्व होती सर्वहारा क्रांति का गला घोंट दिए
जाने के बाद, असफलता के साथ समाप्त हुई, की
कुत्सित स्तालिनवादी नीति से पैदा हुए हैं। जबकि वाम-विपक्ष ने, 1926 की चीनी क्रांति की सुरक्षा के लिए, इस स्तालिनवादी नीति के खिलाफ लड़ाई लड़ी, माओवादी बजाय इससे लड़ने के, स्तालिनवादी
नीतियों के कारण हुई हार से समझौता करते हुए, शहरों
से मुंह मोड़कर और मजदूर वर्ग को पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। सर्वहारा को दरकिनार कर, वे किसानों की ओर मुड़े और बाद में, इसके आधार पर, ‘किसान समाजवाद’ की
एक पूरी थीसिस ही गढ़ ली। माओवादियों ने, ‘दो
चरणों में क्रांति’ के
बोगस स्तालिनवादी कार्यक्रम से कभी खुद को अलग नहीं किया, बल्कि आज वे उसके अधिक दृढ़ पैरोकार हैं। 'चार वर्गों के मोर्चे' की
माओवादी थीसिस, सर्वहारा वर्ग के लिए, जिसे
पूंजीपतियों के साथ इस सांझे मोर्चे के अंदर बैठने के लिए आमंत्रित किया जाता है, के लिए मौत के परवाने से कम नहीं है। नेपाल, माओवादी राजनीति की घोर विफलता का ताज़ा और जीवंत उदाहरण है।
स्तालिनवादियों की भांति, माओवादी
भी यह सोचते हैं कि पूंजीपतियों के हिस्से प्रगतिशील हैं और इसलिए वे भारत में
क्रांतिकारी भूमिका अदा करेंगे। इसके चलते, वे
बार-बार पूंजीपतियों के ऐसे कल्पित हिस्सों की ओर मुड़ते हैं। स्तालिनवादियों की ही
तरह, भारत में माओवादियों का इतिहास भी, पूंजीपति वर्ग के हिस्सों के साथ सहयोग और गठबन्धनों के ऐसे
उदाहरणों से भरा पड़ा है। हाल ही में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले तृणमूल कांग्रेस
के साथ उनका खुला गठबंधन, इसका
एक, मगर एकमात्र नहीं, उदाहरण
है. इससे पहले भी, इन्होनें, विभिन्न बुर्जुआ पार्टियों के साथ गठजोड़ जारी रखा है, और युवा, मजदूरो
और किसानों को, जो इनकें नेतृत्व का अनुसरण करते हैं, इन बुर्जुआ पार्टियों के पीछे बांधे रखा है। आंध्रप्रदेश
में, इन्होनें कांग्रेस के राजशेखर रेड्डी को सता में आने के लिए
समर्थन दिया था, झारखण्ड
में इन्होनें शिबू सोरेन के नेतृत्व वाले झारखण्ड मुक्ति मोर्चे (जे.एम.एम) को
समर्थन दिया था, इन्होनें
बसपा को समर्थन दिया था, आदि-आदि.
माओवादी, मजदूरों और किसानों को, बुर्जुआ
संसद और विधानसभाओ से दूर रहने की सलाह देते हैं, पर
वे सत्ता पर कब्जा करने के लिए बुर्जुआ पार्टियों को सहायता देते हैं। ‘नव-जनवाद’ का
माओवादियों का कार्यक्रम और कुछ नहीं, सिर्फ
जनवादी क्रांति के स्तालिनवादी कार्यक्रम की अनुकृति है।
जनवादी क्रांति के नाम पर, स्तालिनवादी, सर्वहारा को बुर्जुआजी के इस या उस हिस्से से बांधे रखते
हैं, और बुर्जुआजी के खिलाफ आगे बढ़ने से रोकते हैं, वहीं माओवादी सर्वहारा को राजनीतिक हाशिये पर धकेलकर, किसानो की ओर रुख करते हैं। स्तालिनवादी और माओवादी, दोनों, अपने-अपने
तरीके से, मजदूरों को, विश्व
समाजवादी क्रांति के हिस्से के रूप में, भारत
में पूंजीपतियों और जमींदारों के शासन के खिलाफ, राष्ट्रीय
क्रांति के शीर्ष पर अपना स्थान लेने और अपनी तानाशाही स्थापित करने से रोकते हैं।
स्तालिनवादियों और माओवादियों ने पिछली शताब्दी में, बार-बार परिपक्व क्रांतिकारी स्थितियों को उलटकर, पूंजीपतियों को संकट से उबारकर, न सिर्फ भारत, बल्कि
पूरी दुनिया में शर्मनाक भूमिका अदा की है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, विश्व
पूंजीवाद बच गया और पुनरुज्जीवित होने में सफल हुआ है तो सिर्फ स्तालिनवादियों और
माओवादियों की उसके साथ इसी मिलीभगत के कारण। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और बाद
में, स्टालिन ने खुले तौर पर बुर्जुआ नेताओं के साथ सहयोग किया, और विश्व बुर्जुआजी के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के युग
में प्रवेश करते हुए, विश्व
के शांतिपूर्ण विभाजन में शामिल रहा, जिसे
निकिता ख्रुश्चेव ने बाद में, स्टालिन
के सच्चे शिष्य के रूप में, शांतिपूर्ण
सह-अस्तित्व को एक पूरी अवधारणा के रूप में विकसित किया। माओ ने खुद, निक्सन के तहत अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ हाथ मिला
लिया, और वियतनाम युद्ध के दौरान, संदिग्ध
और शर्मनाक भूमिका निभाई।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, विश्व बुर्जुआ नेतृत्व को संतुष्ट करने, और उन्हें पूरी तरह आश्वस्त करने के उद्देश्य से, कि विश्व समाजवादी क्रांति के उपक्रम को तिलांजलि दे दी गई
है, स्टालिन द्वारा, १९४२
में, लेनिन और ट्रोट्स्की के नेतृत्व में संगठित, सर्वहारा की विश्व-पार्टी, तीसरे
अन्तर्राष्ट्रीय(कोमिन्टर्न), को
औपचारिक रूप से भंग किये जाने से पूर्व ही यह अधिकाधिक विघटित होती चली गई थी।
स्तालिनवादियों और माओवादियों दोनों ने, विश्व पूंजीवाद को पुनःस्थिर होने और दुनिया के विभिन्न
देशों में सत्ता में बने रहने के लिए सहायता प्रदान की। उनके नेतृत्व वाली
पार्टियां और ट्रेड यूनियनें, जब-तब
संकट में घिरे पूंजीपतियों के लिए संकट-मोचक बन गयी हैं।
विश्व इतिहास ऐसे हवालों से भरा पड़ा है, और इसलिए यह समझना कोई मुश्किल कार्य नहीं कि
स्तालिनवादियों और माओवादियों ने कैसे विश्व बुर्जुआजी को सत्ता में बने रहने के
लिए सहायता की है। लेकिन, यदि
विश्व बुर्जुआजी को स्तालिनवादियों-माओवादियों ने सत्ता में बनाए रखा है, तो फिर स्तालिनवादियों और माओवादियों को किसने सत्ता में
बनाए रखा? वे मध्यमार्गी थे! वाम-विपक्ष के भीतर मध्यमार्गी, चौथे अंतर्राष्ट्रीय के भीतर मध्यमार्गी!
स्टालिन के अधीन कोमिन्टर्न की झूठी राजनीतिक नीतियों के
कारण, 1927 में चीनी क्रांति की हार, और फिर 1932में जर्मनी में हिटलर के सत्ता में आने के बाद, यह लगभग स्पष्ट हो गया था कि तीसरा अंतर्राष्ट्रीय, विश्व सर्वहारा का नेतृत्व करने में अब सक्षम नहीं रहा।
1937 में स्पेनिश क्रांति के गर्भपात ने इसकी और पुष्टि की। अब तक कोमिन्टर्न के
भीतर काम कर रहा, वाम-विपक्ष, ट्रोट्स्की के नेतृत्व में, ‘सतत क्रांति’ के
कार्यक्रम के गिर्द, नए, चौथे अंतर्राष्ट्रीय का गठन करने के लिए, कोमिन्टर्न से बाहर निकला। स्टालिन के भाड़े के हत्यारे, रैमन मर्केडर द्वारा 1940 में ट्रोट्स्की की हत्या किये
जाने तक, और फिर चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय का नेतृत्व मिशेल पाब्लो और
उसके बाद अर्नेस्ट मंडेल के हाथो में पड़ने तक, चौथे
अंतर्राष्ट्रीय ने, अपने
चारो ओर, क्रांतिकारी शक्तियों को संगठित करने में बड़ी भूमिका
निभाई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान और बाद में, बुर्जुआजी
से सहयोग करते, स्टालिनवाद ने खुद को, और
साथ में पूंजीवाद को भी, मजबूत
किया। मगर इतिहास द्वारा प्रस्तुत नई स्थिति और तदनुसार कार्यभारों को समझने में
असमर्थ, चौथे इंटरनेशनल के नए नेता, इस
झूठी आशा में एक मध्यमार्गी स्थिति की ओर मुड़े कि स्तालिनवादी, इतिहास की उभरती वास्तविकताओं के सामने, विश्व बुर्जुआजी से लड़ने के लिए विवश होंगे।
इस प्रकार, नए
नेतृत्व द्वारा, चौथे
अंतर्राष्ट्रीय की पार्टियों को, विभिन्न
देशों में, स्तालिनवादी पार्टियों के भीतर से काम करने के लिए निर्देश
दिए गए, बजाय उनका पर्दाफ़ाश करने और उनके खिलाफ लड़ने के। चौथा
अंतर्राष्ट्रीय और उसकी पार्टियां, पाब्लो
और फिर मंडेल के नए नेतृत्व की मध्यमार्गी नीतियों की शिकार हुईं। बोल्शेविक
लेनिनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (बी.एल.पी.आई) उनमे से एक थी। इसे कांग्रेस सोशलिस्ट
पार्टी (सी.एस.पी.) की शरण में धकेल दिया गया और अन्ततः यह उसी में विलीन हो गई।
बी.एल.पी.आई. का एक अल्पकालिक, लेकिन गौरवशाली क्रांतिकारी इतिहास है। पार्टी ने, वाम-विपक्ष के नेतृत्व में स्टालिनवाद के अध:पतन का मुकाबला
करने के लिए खुद को ‘सतत क्रांति’ के कार्यक्रम के गिर्द संगठित किया। स्तालिनवादी सी.पी.आई
के विपरीत, जिसने मुंबई में 'भारत
छोड़ो' प्रस्ताव का विरोध करते हुए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के साथ
सहयोग किया, ट्रोट्स्की-वादी बी.एल.पी.आई. ने उत्साहपूर्वक इस प्रस्ताव
और आंदोलन का समर्थन किया। उसने १९४६ में ब्रिटिश शासन के खिलाफ बंबई नौसेना
विद्रोह का समर्थन किया, और
बम्बई, मद्रास में मजदूरों के प्रदर्शन का नेतृत्व किया।
स्तालिनवादी सी.पी.आई ने, जब
मुस्लिम लीग से मिलकर अलग पाकिस्तान बनाने की मांग और विभाजन की वकालत की, बी.एल.पी.आई. ने, मजदूरों
और मेहनतकशो के बीच सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने के उद्देश्य से, उपनिवेशवादियों द्वारा तैयार की गयी, विभाजन की योजना का पुरजोर विरोध किया। स्तालिनवादियों ने
क्रान्तिकारी इतिहास के इस चमकते बी.एल.पी.आई.अध्याय को गायब कर दिया है।
चौथे इंटरनेशनल के भीतर से, जेम्स
पी. केनन के नेतृत्व में, मध्यमार्गी
नेतृत्व के खिलाफ मजबूत विरोध उठ खड़ा हुआ, लेकिन
देर से, तब तक नुकसान हो चुका था। स्पष्ट रूप से यह दिखाते हुए कि
बजाय बुर्जुआजी के विरुद्ध लड़ने के, स्तालिनवादी
और माओवादी, अधिकाधिक विश्व बुर्जुआजी की पांतों में फिसल गए हैं, पाब्लो और मंडेल को इतिहास ने ख़ारिज कर दिया। लेकिन, मध्यमार्गी प्रवृत्तियों ने, स्तालिनवादियों
और माओवादियों के प्रति विभिन्न स्वीकृतियों और सहयोग की मांग करते हुए, ट्रोट्स्कीवादी आंदोलन के अंदर एक से अधिक रूपों में
वर्चस्व जमाए रखा है।
स्तालिनवादियों ने, बुर्जुआजी
को सत्ता में बने रहने के लिए मदद की, और
मध्यमार्गियों ने उसी तरह स्तालिनवादियों को मदद दी, बजाय रूस,चीन, पूर्वी यूरोप और दूसरे देशो में, मजदूर वर्ग को उनके खिलाफ राजनीतिक क्रांतियों के लिए तैयार
करने के। मध्यमार्गियों ने, मजदूर
वर्ग को, स्तालिनवादियों-माओवादियों से टक्कर लेने से रोके रखा, जबकि स्तालिनवादियों-माओवादियों ने, मजदूरों को, पूंजीपतियों
के खिलाफ लड़ने से रोके रखा। इसलिए, पूंजीपतियों
और उनके राजनीतिक दलालों- फासिस्टों, उदारवादियों, सामाजिक-जनवादियों
के खिलाफ प्रभावशाली संघर्ष करने के लिए, पहले
मध्यमार्गियों,स्तालिनवादियों और माओवादियों से निपटना आवश्यक है। इसलिए, मार्क्सवादी क्रांतिकारियों के सामने सबसे महत्वपूर्ण
कार्यभार हैं, खुद को ‘सतत क्रांति’ के कार्यक्रम के गिर्द संगठित करना, और विजातीयधाराओं
के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष छेड़ना।
स्तालिनवादियों, माओवादियों और मध्यमार्गियों के खिलाफ प्रत्यक्ष संघर्ष में
बी.एल.पी.आई. का पुनर्गठन करो
पिछले कई दशकों में, इतिहास ने बार-बार, महती
क्रांतिकारी संभावनाएं प्रस्तुत की हैं। परन्तु, बुर्जुआ
शासन के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष में, मजदूर
वर्ग और उसके पीछे पूरे राष्ट्र को नेतृत्व देने और निदेशित करने में सक्षम, एक क्रांतिकारी कार्यक्रम के अभाव में, इन अवसरों का असफलता में परिणत होना जारी है।
विश्व पूंजीवाद की हालिया गहरी डुबकी ने, भारत में कृषि क्षेत्र में तीव्र संकट के साथ मिलकर, भारत में सत्तारूढ़ पूंजीपति वर्ग के लिए एक नया राजनीतिक
संकट पैदा कर दिया है। यदि यह संकट एक क्रांतिकारी स्थिति में परिवर्तित नहीं हो
पाता है, तो इसका कारण, स्पष्तः
राजनीतिक रूप से हाशिये पर जा लगने की वजह से, इस ऐतिहासिक
अवसर पर उठ खड़े होने में मजदूर वर्ग की असफलता होगी, जो
सर्वहारा आंदोलन पर स्तालिनवादियों, माओवादियों
और मध्यमार्गियों के वर्चस्व की स्थितियों में परिपक्व हुआ है।
इस प्रकार, राजनीतिक
ठहराव और ऐतिहासिक दुविधा की वह स्थिति बनी हुई है जिसमें सत्ता संभालने के लिए
आवश्यक किसी वास्तविक शक्ति के बगैर ही पूंजीपति राजनीतिक सत्ता को संभाले हुए हैं, जबकि उनके स्तालिनवादी, माओवादी
और मध्यमार्गी दलाल, सर्वहारा
को, इस सत्ता के खिलाफ आगे बढ़ने से रोके हुए हैं। पूंजीपतियों
की सत्ता को नष्ट करने के लिए, इसलिए
यह और भी जरूरी है कि पहले पुरानी सत्ता के इन दलालों का शिकंजा तोड़ फेंका जाय।
परन्तु, जैसा
कि सफलताओं और असफलताओं की एक पूरी श्रृंखला के जरिये. पिछली शताब्दी का इतिहास
दिखाता है, मजदूर वर्ग, अपनी
पार्टी- क्रांतिकारी पार्टी, क्रांतिकारी
मार्क्सवाद के कार्यक्रम से लैस पार्टी- के नेतृत्व में, खुद को इतिहास के इन रणनीतिक सबको से लैस किये बिना, इस ऐतिहासिक मिशन को पूरा नहीं कर सकता।
इस कार्यक्रम का उद्देश्य, उस
बोल्शेविक-लेनिनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (बी.एल.पी.आई.) की पुनर्स्थापना करना है, जो तीसरे इंटरनेशनल और उसके विरुद्ध विद्रोह करने में अक्षम
रहीं विभिन्न देशो की कम्युनिस्ट पार्टियों, के
स्तालिनवादी अधःपतन के खिलाफ, त्रोत्स्की
के नेतृत्व में छेड़े गए समझौताहीन संघर्ष के हिस्से के रूप में उभरी थीं। न सिर्फ
औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ, बल्कि
उसके राजनीतिक पिछलग्गुओं- बुर्जुआ कांग्रेस और स्तालिनवादी सीपीआई- के भी खिलाफ, बी.एल.पी.आई. द्वारा छेड़ा गया छोटा मगर शानदार संघर्ष, हमारा
पथ आलोकित करता है। हालांकि, बाद
में, चौथे अन्तर्राष्ट्रीय के आंदोलन पर मिशेल पाब्लो और
अर्नेस्ट मंडेल के मध्यमार्गी नेतृत्व ने बी.एल.पी.आई. को पथभ्रष्ट और लगभग नष्ट
कर दिया गया था, तथापि, वह कार्यक्रम, जिसके
लिए उसने संघर्ष किया, अब
भी एक क्रांतिकारी आंदोलन के निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण आधारशिला है। छह
दशक का वक़्त, हमारे और उस बी.एल.पी.आई के बीच मौजूद है, जिसे आधी सदी बाद अपनी ही राख से उठ खड़े होना है!
दक्षिण एशियाई समाजवादी संघ के लिए
भारत और पाकिस्तान के सर्वहारा के लिए एक
रणनीतिक अनिवार्यता है- भौगोलिक विभाजन
को पाटना और अपने सांझे शत्रुओं- उपमहाद्वीप की प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रीय
बूर्ज्वाजी और विश्व साम्राज्यवाद- के विरुद्ध अपने संघर्षों में तालमेल बैठाना।
चौथे और संभावित रूप से विनाशकारी भारत-पाक नाभिकीय युद्ध के खतरे के खात्मे, साम्प्रदायिकता के कोढ़ के अंत, और मेहनतकश जनता के हित में तार्किक और समतामूलक विकास के
लिए, दक्षिण एशिया के देशों में, राष्ट्रीय
बूर्ज्वाजी और साम्राज्यवाद द्वारा थोपे गए, प्रतिगामी
राज्य प्रणालियों को उखाड़ फेंकना और उपमहाद्वीप की जनता का स्वैच्छिक आधार पर ‘दक्षिण एशियाई संयुक्त समाजवादी संघ’ में एकीकरण जरूरी है।
भारत और पाकिस्तान के पूंजीपति वर्ग, अपने-अपने देशों में मौजूद असंख्य जातीय, नस्लीय, राष्ट्रीय, धार्मिक और सांप्रदायिक, समूहों
के बीच सच्ची समानता स्थापित करने में, पूर्णतः
असमर्थ साबित हुए हैं। १९४७-४८ के राजनीतिक घाव, सिर्फ
और गहरे और विकृत ही हुए हैं। पाकिस्तान, श्रीलंका, और बांग्लादेश की ही तरह भारत में भी, पूंजीपति वर्ग ने, नस्लीय-राष्ट्रीय
और सांप्रदायिक मतभेदों को हवा देने और इनके धूर्ततापूर्ण इस्तेमाल को, राजनीतिक और वैचारिक नियंत्रण की अपनी व्यवस्था का, अभिन्न अंग बना लिया है। इस नीति ने, असंख्य राष्ट्रवादी-जातीय और अलगाववादी आंदोलनों के उदय के
लिए उपजाऊ जमीन उपलब्ध कराई है।
भारत और चीन में, बीसवीं
सदी के पूर्वार्ध के राष्ट्रीय आंदोलनों ने, साम्राज्यवाद
के खिलाफ सांझे संघर्ष में, जनता
के विलग हिस्सों के बीच एकता कायम करने का प्रगतिशील कार्यभार सामने रखा- ऐसा
कार्यभार, जो राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में अलभ्य साबित
हुआ। मगर, इस के विपरीत, राष्ट्रवाद
का नया रूप, स्थानीय शोषकों के लाभ के लिए, मौजूदा राज्यों को विभाजित करने के उद्देश्य से, जातीय, भाषाई
और धार्मिक आधार पर अलगाववाद को बढ़ावा देता है। इस तरह के आंदोलनों का
साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के साथ कुछ लेना-देना नहीं हैं, और न ही उन्होंने, किसी
भी मायने में, उत्पीडित जनता की जनवादी आकांक्षाओं को अंगीकार किया है। वे
बस मजदूर वर्ग को विभाजित करते हैं और वर्ग-संघर्ष को नस्लीय-सांप्रदायिक संघर्ष में पथभ्रष्ट करते हैं।
ये आन्दोलन, बात
तो जायज जनवादी और सामाजिक-आर्थिक मुद्दों की करते हैं, लेकिन राष्ट्रवादी-अलगाववादी कार्यक्रम, जिसे ये प्रस्तावित करते हैं, किसी
भी तरह, दक्षिण एशिया के मजदूर वर्ग के हितों के अनुरूप नहीं हैं।
उपमहाद्वीप का बाल्कन राज्यों की तरह बिखराव, साम्राज्यवादी
उठापटक और उत्पीड़न को सुगम बनाएगा, मजदूर
वर्ग के एकीकरण में नई बाधाएं पैदा करेगा, तथा
नस्लीय-जातीय और सांप्रदायिक राजनीति और अलगाव को संस्थागत रूप देगा।
राष्ट्रीय-अलगाववादी आंदोलन, पूंजीपतियों
के स्थानीय हिस्सों द्वारा अपने नस्लीय-जातीय राज्य स्थापित करने के प्रयासों को
स्वर देते हैं, ताकि अपनी समृद्धि शोषण की संभावनाओं को, विशेष रूप से अंतरराष्ट्रीय पूंजी के साथ सौदों के जरिए, और विस्तार दे सकें। उनकी राजनीति, १९४७-४८ में दक्षिण एशिया पर थोपी गई प्रतिक्रियावादी
राष्ट्रीय-राज्य प्रणाली को उलटने की ओर नहीं, बल्कि
अक्सर उग्रवादी आन्दोलनों के सहारे और महाशक्तियों के कृपापात्र बनकर, प्रबल पूंजीपति गुट पर दबाव बनाकर, अपनी कुछ सीमाओं में फेरबदल करने की ओर निदेशित है।
"कश्मीर, कश्मीरियों के लिए" "नागालैंड, नागाओ के लिए" और "असम, असमियों के लिए"- ऐसे नारे देकर, ये आन्दोलन, दूसरी नस्लों-जातियों-राष्ट्रीयताओं के मजदूरों और मेहनतकशों को
अंधराष्ट्रवादी निंदा और हिंसा का निशाना बनाते हैं और निषेधात्मक भाषाई और नागरिक
कानूनों की पैरोकारी करते हैं।
असंख्य राष्ट्रीय समस्याएं जो आज दक्षिण एशिया में पसरी हुई
हैं, स्वतन्त्र बूर्ज्वा शासन और बूर्ज्वा राष्ट्रवाद की असफलता
का सीधा परिणाम हैं। जनवादी क्रांति के दूसरे अनसुलझे कार्यभारो की ही तरह, राष्ट्रीय उत्पीड़न के तमाम रूपों के उन्मूलन का कार्यभार
भी, विश्व समाजवादी क्रांति के साथ बंधा हुआ है। यह दिखाते हुए
कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंककर ही वास्तविक जनवाद, राष्ट्रीय समानता और साम्राज्यवाद से मुक्ति हासिल की जा
सकती है, सतत क्रांति के कार्यक्रम के अनुक्रम में, मजदूर वर्ग को, बूर्ज्वाजी
और निम्न-बूर्ज्वाजी से मेहनतकश जनता का नेतृत्व छीन लेना चाहिए।
श्रीलंका में लिट्टे से लेकर असम में उल्फा, और नागालैंड में एन.एस.सी.एन से कश्मीर में आज़ादी आन्दोलन
तक, तमाम उग्रवादी निम्न-बुर्जुआ आंदोलनो की असफलता अंततः उनके
संकीर्ण वर्ग उद्देश्यों का परिणाम है। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग और
मेहनतकश जनता का आह्वान नहीं किया और न करेंगे, बल्कि
ये आंदोलन लगातार जनता के बीच अलगाव पैदा करते हैं। इस अनुभव ने व्यवहारतः यह
सत्यापित कर दिया है कि दक्षिण एशिया की जनता के जनवादी अधिकारों को हासिल करने के
लिए, केवल समाजवादी क्रांति ही ऐतिहासिक दृष्टि से व्यवहार्य
कार्यक्रम है।
भारत-पाकिस्तान की प्रतिक्रियावादी राज्य प्रतिद्वंद्विता
में, जो महती भूमिका इसने अदा की हैं, और कर रहा है, उससे
कश्मीर प्रश्न का एक विशेष महत्त्व है। भारतीय और पाकिस्तानी दोनों संभ्रांत
शासकों ने, कश्मीर की जनता का दमन और दलन किया है। १९८७ में, भारत के आधिपत्य वाले जम्मू-काश्मीर राज्य के चुनावों में
जब भारत सरकार द्वारा की गई जबरदस्त धांधली ने विद्रोह को हवा दी तो पाकिस्तान ने
तुरंत विद्रोहियों के बीच सबसे सांप्रदायिक मानसिकता वाले और इस्लामी-कट्टरपंथी
तत्वों को, यह हिसाब लगाते हुए कि वे उसके नियंत्रण के लिए सबसे पहले
तैयार होंगे, बढ़ावा देने के लिए हस्तक्षेप किया।
मजदूर वर्ग को, भारत
और पाकिस्तान दोनों राज्यों के प्रतिद्वंद्वी क्षेत्रीय दावों का सख्त विरोध करना
चाहिए। नई दिल्ली और इस्लामाबाद द्वारा प्रस्तावित सभी समाधान- कश्मीर का
पाकिस्तान में समावेश, जम्मू
और कश्मीर के भारतीय राज्य के सांप्रदायिक विभाजन, अधिक
स्वायत्तता, आदि- उन सांझी सांप्रदायिक नीतियों की निरंतरता पर आधारित
हैं, जो मौजूदा संघर्ष की जड़ हैं और केवल नए तनावों को ही जन्म
देंगे। मजदूर वर्ग को, कुछ
कश्मीरी राष्ट्रवादियों की ‘आजाद कश्मीर’ की मांग को भी समर्थन नहीं देना चाहिए। ‘आज़ाद कश्मीर’ की
यह मांग, दक्षिण एशिया में एक और पूंजीवादी राष्ट्रीय-राज्य की रचना
का कार्यक्रम है, जो
कश्मीरी अभिजात वर्ग के हिस्सों की इस गणना पर आधारित है, वे कि रूस के नजदीक और भारत, पाकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान की सीमा को छूते एक राज्य के रूप में, आज़ाद कश्मीर के भौगोलिक-रणनीतिक महत्व का लाभ उठा सकते हैं।
प्रगतिशील आधार पर कश्मीरी लोगों के एकीकरण और सामान्यतः
दक्षिण एशिया के सभी असंख्य लोगों के बीच न्यायसंगत संबंधों का विकास, केवल, विभाजन
को नीचे से ध्वस्त करने के कार्यक्रम के हिस्से के रूप में- जीर्ण-शीर्ण बुर्जुआ
शासन के खिलाफ, और दक्षिण एशियाई राज्यों के संयुक्त समाजवादी संघ के लिए-
मजदूर वर्ग के नेतृत्व में एकजुट संघर्ष के परिणाम के रूप में ही संभव होगा।
हम, भारत
और पाकिस्तान के प्रतिद्वंद्वी राज्यों और विभाजन की बुनियाद पर खड़ी
प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक विचारधारा समेत, राष्ट्रवादी
व सांप्रदायिक राजनीति और राष्ट्रवाद के सभी स्वरूपों का विरोध करते हैं, और उन ताकतों का भी विरोध करते हैं, जो राष्ट्रीय-नस्लीय श्रेणियों के अनुसार भारत के विभाजन की
वकालत करती हैं।
वर्तमान में, एक
नए क़िस्म का राष्ट्रवाद सामने आया है, जो
धर्म, जाति, पंथ
आदि के आधार पर जनता के विभाजन के लिए आह्वान करता है। बुर्जुआजी के स्थानीय
हिस्सों के नेतृत्व में, बुर्जुआ
राज्यों से छोटे प्रदेशों के अलगाव की मांग करनेवाले कितने ही राष्ट्रीयता आंदोलन
उभरे हैं। बड़े पूंजीपतियों को दरकिनार कर, स्थानीय
पूंजीपति वर्ग, विश्व पूंजीवाद से सीधे जुड़ने, और राज्य को विश्व पूंजी के समक्ष श्रम के शोषण के एक सस्ते
गढ़ के रूप में प्रस्तुत करके, लूट
का हिस्सा सीधे हड़पने के उद्देश्य से, इन
छोटे प्रदेशो को, अपने
उदगम स्थलों के रूप में उपयोग करने की आकांक्षा रखता है। इन आंदोलनों का सांझा
लक्षण है- इनमे से कोई भी चरित्र में साम्राज्यवाद-विरोधी नहीं हैं, और विभिन्न उदगमों, भाषा, संस्कृति, जाति
और नस्ल के लोगों को एकजुट करने के बजाय, वे
इन प्रतिक्रियावादी आधारों पर लोगों के विभाजन पर टिके हैं। वे कट्टरपंथी
विचारधारा और यहां तक कि दूसरे देशों, भाषा, नस्ल, जाति
और धर्म के मजदूरों और मेहनतकशों के प्रति घृणा पर आधारित हैं। ये आन्दोलन, किसी भी मायने में, साम्राज्यवाद-विरोध
की अनिवार्यता से प्रेरित नहीं हैं।
बिचौलिये, बड़े
पूंजीपतियों, को दरकिनार कर, और
विश्व पूंजी के साथ सीधा संबंध स्थापित करके समृद्धि प्राप्त करने के आवेग से
प्रेरित, स्थानीय पूंजीपति, ताइवान, हांगकांग और सिंगापुर की तर्ज पर, छोटे द्वीपों की स्थापना करने के लिए मौजूदा बुर्जुआ
राज्यों को विभाजित करने की मांग करते हैं। इसके लिए, पूंजीपतियों के स्थानीय हिस्से, मजदूरों-मेहनतकशों की पिछड़ी जातीय, धार्मिक, भाषाई
और राष्ट्रीय भावनाओं को भड़काते हैं। व्यापक राष्ट्रीय मंच पर विविध अस्मिताओं को
एकजुट करने के बजाय, ये
आंदोलन, अस्मिताओं के प्रतिक्रियावादी आधारों पर मजदूरों को विभाजित
करने की कोशिश करते हैं। स्पष्ट रूप से, ये
आंदोलन, अपना अस्तिव बनाए रखने के लिए साम्राज्यवादियों का समर्थन
तलाशते, साम्राज्यवादियों के इस या उस गुट से चिपके रहते हैं।
राष्ट्रीय प्रश्न, चूंकि
अनिवार्य रूप से, सामान्यतः
पूंजीवाद के विकास के साथ जुड़ा हुआ है, इसलिए
वैश्विक स्तर पर गतिशील पूंजी के वर्तमान युग ने, इन
छोटे राष्ट्रीय-राज्यों का अस्तित्व, बचाव
और विकास संभव बना दिया है। 'नव-राष्ट्रवाद' के ये आंदोलन, वास्तव
में, पूंजीवादी-वैश्वीकरण की यांत्रिकी से जन्म लेते हैं और
सिर्फ उसी के हितों की सेवा करते हैं।
यद्यपि हम बुर्जुआ शासन के हाथों, कमजोर राष्ट्रीयताओ के उत्पीड़न का बिना शर्त विरोध करते
हैं और 'अलगाव सहित, आत्मनिर्णय
के अधिकार' के लिए उत्पीडित राष्ट्रीयताओ की मांग का समर्थन करते हैं, तथापि हम केवल इस ‘अधिकार
के समर्थन’ तक ही खुद को सीमित करते हैं। हम अलगाववादी आंदोलनों का
सख्त विरोध करते हैं, क्योंकि
विभिन्न राष्ट्रीयताओ के मजदूरों को चालाकी से विभाजित कर, वे केवल पूंजीपतियों के हिस्सों का हितसाधन करते हैं।
उत्पीड़क बुर्जुआ शासकों द्वारा कमजोर राष्ट्रीयता के उत्पीड़न का विरोध और
उत्पीडित राष्ट्रीयता के मुद्दों, और
अलगाव सहित आत्मनिर्णय के उनके अधिकार का समर्थन करना, उत्पीड़क राष्ट्रीयता के सर्वहारा का क्रांतिकारी कर्तव्य
है। इसी तरह, उत्पीडित राष्ट्रीयता के सर्वहारा का क्रांतिकारी कार्यभार
हैं- दोनों राष्ट्रीयता के पूंजीपतियों के क्रमशः उत्पीडन और अलगाव के राष्ट्रीय
उपक्रमों का विरोध करने के लिए, उत्पीड़क
राष्ट्रीयता के सर्वहारा के साथ एकजुट होना। इस प्रकारइस सम्बन्ध में कार्यभार, दोहरा कार्यभार हैं, मजदूर
वर्ग का द्विपक्षीय कर्तव्य है, जिसका
उद्देश्य हैं, पूंजीपतियों और निम्न-पूंजीपतियों के विषैले राष्ट्रवादी
प्रभाव से मजदूर वर्ग को मुक्त करना।
अस्मिता आधारित आंदोलनों के बारे में
अवसरवाद का दूसरा रूप, जिसने मजदूर वर्ग की एकता के लिए संघर्ष को क्षीण करने में
और वर्ग-चेतना को गिराने में, महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है, वह
है- वर्ग-स्थिति से परे, राष्ट्रीय, नस्लीय, जातीय, भाषाई, धार्मिक, और लिंग आधारित भेदों पर आधारित, 'पहचान' की
राजनीति के असंख्य रूपों का पोषण। वर्ग से अस्मिता की ओर यह प्रस्थान, उन समस्याओं के वास्तविक कारणों की समझ न होने से पैदा हुआ
है, जो समूची मेहनतकश जनता को प्रभावित करते हैं, और जिनकी जड़ पूंजीवाद में है। सबसे ऊपर, इसने आरक्षण के नाम पर शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश और
नौकरियों व अन्य 'अवसरो' के लिए विभिन्न "अस्मिताओं" के बीच प्रतिस्पर्धा
को बढ़ावा दिया है, जो, एक समाजवादी समाज में, ऐसे
शर्मनाक, अमानवीय और मनमाने विभेदों के बिना ही सभी लोगों को आसानी
से उपलब्ध होगा। आरक्षण से ज्यादा से ज्यादा मध्यवर्ग के एक छोटे से संस्तर को ही
लाभ हुआ है।
मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलनों की पराजय के माहौल में, इस तरह की कई निम्न-पूंजीवादी धाराओं और आंदोलनो का
सूत्रपात हुआ है और वे जनता को लुभाने में सफल भी रहे हैं। नस्लीय, सांस्कृतिक, लैंगिक, राष्ट्रीय, भाषाई, धार्मिक, जातीय
और साम्प्रदायिक अस्मिता पर आधारित आंदोलन, इसकी
सबसे व्यापक अभिव्यक्तियां हैं। मजदूर वर्ग को यह समझने से रोककर कि इंसान के हाथो
इंसान के उत्पीड़न के विभिन्न रूप, 'मुनाफाखोरी' की
ओर उन्मुख इस पूंजीवाद के क्रियान्वयन का आवश्यक परिणाम हैं, और उसे केवल समूचे मजदूर वर्ग के संयुक्त प्रयासों के जरिये, पूंजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करके ही, ख़त्म किया जा सकता हैं, तथा
मजदूर वर्ग के संयुक्त प्रतिरोध को कमजोर करके, मजदूर
वर्ग को, अगणित अस्मिताओं के आधार पर अनेकानेक धाराओ में बांटनेवाले
ये आंदोलन, सत्तारूढ़ वर्ग के प्रतिक्रियावादी उद्देश्यों की सेवा करते
हैं।
ट्रेड यूनियन ब्यूरोक्रेसी के विरुद्ध
'मुक्त प्रतियोगिता' पर
आधारित पुराने राष्ट्रीय पूंजीवाद के उदभव के समय, बेहतर
श्रम-परिस्थितियों के लिए मोल-भाव की प्रणाली से, मुख्यतः
पूंजीपतियों के हाथों श्रम की बिक्री के बेहतर मूल्य के लिए, मजदूरों के समूहों के रूप में ट्रेड यूनियनो का उदय हुआ।
लेकिन, साम्राज्यवाद के उदय के बाद, ट्रेड
यूनियन आंदोलन, अवसरवाद और संशोधनवाद के लिए एक तैयार गढ़ बन गया, और पहले साम्राज्यवादी देशो में और फिर समूचे विश्व में पतित
होने लगा। वैश्विक स्तर पर गतिशील पूंजी और उसके तले राष्ट्रीय आर्थिक ढांचों के
नष्ट होने के इस युग में, ट्रेड
यूनियनें अपनी सारी शक्ति खो चुकी हैं। सर्वत्र, श्रमिक-अभिजात्य
वर्ग के आधिपत्य में फंसी, ये
ट्रेड-यूनियनें, ट्रेड
संकीर्णता में घिरी हैं।
न सिर्फ सबसे उन्नत जर्मन ट्रेड यूनियनों ने 'आम हड़ताल' की
रणनीति पर सभी प्रकार की चर्चा पर पाबन्दी लगा दी थी, और महान अक्तूबर समाजवादी क्रांति के खिलाफ संकल्प प्रस्ताव
लिए थे, बल्कि जैसा कि पिछली पूरी शताब्दी का इतिहास बताता हैं, इन ट्रेड यूनियनों ने, हड़ताले
भंग करने, मजदूरी कम करने, उपलब्धियों
को नष्ट करने, नौकरियों में कटौती करने और कारखानों को बंद कराने में, प्रमुख भूमिका निभाई है। अपने साधारण सदस्यों की कठिनाइयों
के प्रति उदासीन, और “स्वतः चंदा कटौतियों” तथा
दूसरे श्रम कानूनों द्वारा संरक्षित, ये
ट्रेड यूनियनें, पूंजीवादी
राज्य और निगमों से हज़ारों धागों से बंधी हैं। ट्रेड यूनियन, ज्यादा से ज्यादा, बस ‘शोषित जनता’ के
रूप में श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करती हैं, न कि
‘क्रांतिकारी वर्ग’ के
रूप में। राष्ट्रवाद और संशोधनवाद के युग के पतन के युग में, ट्रेड यूनियनों की भूमिका का भी अंत हो चुका है।
हम, इन
व्यर्थ, संकीर्ण और भ्रष्ट नौकरशाहाना संगठनों से सम्बन्ध विच्छेद
का आह्वान करते हैं, जो
अब किसी भी रूप में आधुनिक सर्वहारा के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इसके
बजाय, हमें नए स्वतंत्र संगठनों के गठन पर ध्यान केंद्रित करना
चाहिए, जैसे कि कारखाना और दूसरी कार्यस्थल समितियां, जो सही मायने में साधारण मजदूरों के हितों का प्रतिनिधित्व
करती हैं और जो सीधे मजदूर सोवियतो में तब्दील होने की क्षमता रखती हैं।
भारतीय सर्वहारा वर्ग के महत्वपूर्ण अनुभव
भारतीय मजदूर वर्ग के महत्वपूर्ण अनुभवों की
समीक्षा से, दो बुनियादी निष्कर्ष सामने आते हैं।
• पूंजीपति वर्ग के सभी हिस्से, भारतीय
मजदूरों और मेहनतकशो की जनवादी और सामाजिक आकांक्षाओ के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, और उन्हें साकार करने में सर्वथा असमर्थ हैं।
• भारतीय मजदूर वर्ग एक शक्तिशाली सामाजिक शक्ति है, जिसने एक समाजवादी राज्य की स्थापना का अपना ऐतिहासिक मिशन
पूरा करने की क्षमता और जुझारूपन दोनों का प्रदर्शन किया था। लेकिन, विभिन्न रंगों वाले स्तालिनवादियों और माओवादियों ने इसे
बारम्बार पथभ्रष्ट किया है, जिनका
कई पार्टियों और ट्रेड यूनियनों पर नियंत्रण है, जिन्होंने
इसे भारतीय बूर्ज्वा पार्टियों और राजनीति के साथ बांधे रखा है।
भारत में मार्क्सवादी क्रांतिकारियों के
महत्वपूर्ण कार्यभार
दक्षिण एशिया के सर्वाधिक वर्ग-चेतन सर्वहारा
और समाजवादी रुझान वाले युवा और बुद्धिजीवी, ट्रोट्स्कीवाद
की ओर मुड़ते हुए क्रांतिकारी मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य को पुनर्जीवित करने की
जरूरत महसूस करने लगे हैं।
चौथे अन्तर्राष्ट्रीय के भीतर राजनीतिक संघर्ष के
निष्कर्षों, और दक्षिण एशिया में मजदूर वर्ग के अपरिहार्य रणनीतिक
अनुभवों, की समीक्षा पर आधारित हमारा कार्यक्रम, भारतीय मजदूर वर्ग द्वारा 'सतत
क्रांति' की रणनीति पर अपने संघर्ष की को आधारित करने की आवश्यकता को
दर्शाता है।
किसी भी विज्ञान की तरह, मार्क्सवाद
को भी, केवल अतीत के सबको के निरंतर कार्यान्वयन और समकालीन
छद्म-मार्क्सवाद की समालोचना के जरिये ही विकसित किया जा सकता है। इस प्रकार, हमारा पहला और सबसे प्रमुख कर्तव्य है, क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की समूची विरासत और उसके
कार्यान्वयन के एक भाग के रूप में उस इतिहास का अवगाहन करना।
औपनिवेशिक भारत में, सतत
क्रांति की रणनीति तैयार करने के लिए, बोल्शेविक
लेनिनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (बी.एल.पी.आई.) का
अगुआ प्रयास, तथा 1947 के समझौते और जनवादी क्रांति के प्रति भारतीय
पूंजीपतियों द्वारा किए गए विश्वासघात का, इस
द्वारा किया गया मुख्य विश्लेषण, हमारी
ऐतिहासिक समझ के मूल और उस पर आधारित आज की राजनीतिक रणनीति को निर्धारित करता है।
सबसे महत्वपूर्ण कार्यभारो में से एक हैं, क्रांतिकारी मार्क्सवादियों की पांतों के भीतर यह प्रचार
करना कि, अपने राजनीतिक विकासक्रम में इस समय उनके सामने सबसे बड़ी
चुनौती है, उस क्रान्तिकारी थाती को अनावृत्त करने के उद्देश्य से, जिससे भारत में क्रांतिकारियों की आगामी पीढ़ियों को विलग कर
दिया गया था, मार्क्सवाद के पूरे इतिहास का एक व्यवस्थित
सैद्धांतिक-राजनीतिक अवगाहन करना।
लेकिन यह सब महत्वपूर्ण और आवश्यक होते हुए भी, सबसे पहले, क्रांतिकारी
कार्यकर्ताओ को, जो
यह कार्यभार हाथ में लेंगे, पहले
इकठ्ठा होने की जरूरत है और वे इकठ्ठा होंगे, बीसवीं
सदी के विश्व मार्क्सवादी आंदोलन के महान प्रश्नों- सोवियत संघ और तीसरे इंटरनेशनल
का उदय और पतन, स्टालिनवाद और उसके एक भिन्न-रूप जिसे माओ ने “चीनी चरित्र वाले मार्क्सवाद” के
नाम से विकसित किया, के
मार्क्सवादी विकल्प की मौजूदगी, और
सतत क्रांति के ट्रोट्स्कीवादी कार्यक्रम की केन्द्रीयता- पर स्पष्टीकरण के लिए
संघर्ष के दौरान।
निश्चित रूप से, भारत
में मार्क्सवादियों को, कृषि-सबंधी
और राष्ट्रीय प्रश्नों का विस्तृत अध्ययन करना होगा। इसी तरह, उन्हें, विश्व
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में भारत की बदलती भूमिका का नए सिरे से विश्लेषण करना
होगा और भारत के उदय के विस्तार और सीमाओं, दोनों
की पड़ताल करनी होगी।
एक सच्ची क्रांतिकारी धारा को, हर वक़्त, विश्व
पार्टी और उसके आवश्यक राष्ट्रीय हिस्सों के निर्माण के लिए संघर्ष करना होगा। भारत में, या इसी तरह, विश्व
के किसी भी अन्य हिस्से में, क्रांतिकारी
पार्टी, विश्व सर्वहारा के अनुभवों और उसके निष्कर्षो में प्रशिक्षित
होनी चाहिए, और उसे व्यवस्थित ढंग से, क्रांति
की समस्याओ पर, अपने देश सहित, अंतर्राष्ट्रीय
परिप्रेक्ष्य से, काम
करना होगा।
अपने कार्यभारों और वर्तमान राजनीति की हमारी समझ, अवरुद्ध साम्राज्यवाद-विरोधी क्रांति जिसने बीसवीं सदी के
पूर्वार्द्ध में भारत को दहला दिया था, १९४७
में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का इस क्रांति से विश्वासघात, स्तालिनवादी सीपीआई की स्वीकृति से भारत के सांप्रदायिक
विभाजन, और भारतीय राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के शासन में भारत के
सामाजिक-आर्थिक ढांचे के बाद के विकास, की
जांच पर आधारित होनी चाहिए।
चौथे अन्तर्राष्ट्रीय का निर्माण करो और
बी.एल.पी.आई. का पुनर्गठन करो
भारतीय मजदूर वर्ग की एक नई क्रांतिकारी पार्टी
का निर्माण करने के लिए संघर्ष का एक महत्वपूर्ण कार्यभार, स्तालिनवादियों और माओवादियों को, जो बुर्जुआ व्यवस्था के स्थायी राजनीतिक संकट की पृष्ठभूमि
में, मजदूर वर्ग की पराजय और उसे हाशिये पर धकेल दिए जाने के
परिणामस्वरूप भारत में सर्वहारा आंदोलन पर वर्चस्व जमाए हुए हैं, सैद्धांतिक-राजनीतिक रूप से बेनकाब करना है।
विकट अवसरवादियों, सीपीआई
और सीपीआई(एम) जैसी छद्म मार्क्सवादी पार्टियों ने, सर्वहारा
को पीछे खींचे रखकर, पूंजीपतियों
को सत्ता में बनाए रखने में, निपट
घृणास्पद भूमिका निभाई है। वे, मजदूरों
और समाजवादी रुझान वाले युवाओं को, सच्चे
और क्रांतिकारी मार्क्सवाद से जुड़ने से रोकते हैं। लाल झंडे के सम्मान का दुरुपयोग
करते हुए, वे ट्रेड यूनियन ब्यूरोक्रेसी और बूर्ज्वा राज्यतंत्र के
साथ मिलकर ऐसे दक्षिणपंथी दांव-पेंच लड़ाते रहते हैं, जो
उस सब के विरुद्ध हैं, जिसके
पक्ष में क्रान्तिकारी मार्क्सवाद खड़ा है।
स्तालिनवादी पार्टियों के समूह- वाम मोर्चे ने- छः दशको से अधिक समय से, भारत के शासक वर्ग के प्रवक्ता और उसके हिस्से के रूप में
काम किया हैं। वे जोर देकर कहते हैं कि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग और उसकी
धर्मनिरपेक्ष पार्टियां जैसे कांग्रेस, जिसने
उपनिवेशवाद-विरोधी जन-आन्दोलन के उभारों के दौरान मजदूर वर्ग को राजनीतिक रूप से
पूंजीपतियों के पक्ष में साधने के लिए एक औजार का काम किया, अभी भी प्रगतिशील भूमिका अदा करेंगे। वास्तव में, फर्जी-लोकरंजक, छद्म-धर्मनिरपेक्ष
और समाजवादी रूप-रंग-धारी, कांग्रेस
का कार्यक्रम, मजदूरों और मेहनतकशो के प्रति एक धोखा है। क्रांतिकारी
मार्क्सवाद के दृष्टिकोण से, उसकी
लोकरंजक राजनीति का भंडाफोड़, मजदूर
वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता और आधिपत्य के लिए संघर्ष का अनिवार्य हिस्सा है।
ट्रोट्स्की-वादी आन्दोलन के भीतर, मध्यमार्गी, एक
विनाशकारी धारा, पाब्लोवाद
के राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं, जिसका
उदय जो चौथे इंटरनेशनल के भीतर, द्वितीय
विश्वयुद्ध के बाद, पूंजीवाद
के पुनःस्थिरीकरण की परिस्थितियों में हुआ था। मिशेल पाब्लो, जो द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद के वर्षों में चौथे
इंटरनेशनल का सचिव था, और
उसके बाद अर्नेस्ट मंडेल इस धारा के प्रमुख नेता थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के नतीजों के परिणामस्वरूप, सोवियत कम्युनिस्ट ब्यूरोक्रेसी के सुदृढ़ीकरण और पूंजीवाद
के तीव्र प्रसार की परिस्थितियों में, मजदूर
वर्ग के लिए कुछ लाभ हासिल करने की सामाजिक-जनवाद की क्षमता से प्रभावित, पाब्लोवादियों ने, ट्रोट्स्की
के क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य को कालातीत घोषित कर दिया। पाब्लो ने बेशर्मी से दावा
किया कि चौथे इंटरनेशनल के नेतृत्व में मजदूर वर्ग का पुनर्संगठन, समाजवादी संघर्ष में “न्यूनतम
सम्भावना” वाला विकल्प था। इसके स्थान पर, पाब्लोवादियों ने तर्क दिया कि ऊपर से साम्राज्यवाद और नीचे
से आम जनता के दबाव के नीचे, स्तालिनवादी
ब्यूरोक्रेसी और अन्य शत्रु वर्ग-शक्तियां, बूर्ज्वाजी
का सर्वस्वहरण करने के लिए बाध्य होंगी, जिससे
शताब्दियों तक विकृत सर्वहारा राज्य कायम होते रहेंगे।
पाब्लोवादियों ने, स्तालिनवादी
और सामाजिक-जनवादी पार्टियों, तथा
साथ ही विभिन्न निम्न-बुर्जुआ क्रांतिवादी और राष्ट्रवादी आंदोलनों को, मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी लामबंदी में राजनीतिक रूकावटो के
रूप में नहीं, बल्कि समाजवाद को साकार करने के लिए वैकल्पिक मंचों के रूप
में देखा। इसलिए पाब्लोवादियों के अनुसार, कार्यभार, चौथे इंटरनेशनल के स्वतंत्र परिप्रेक्ष्य से, इन संगठनो का विरोध नहीं, बल्कि
चौथे इंटरनेशनल को, सर्वहारा
के मौजूदा नेतृत्व और राष्ट्रीय आंदोलनों
और पर एक दबाव-समूह में बदल देने का था। पाब्लोवादियों ने, स्टालिनवादियों और बुर्जुआ राष्ट्रवादियों के
प्रतिक्रांतिकारी चरित्र पर ट्रोट्स्की के जोर को खारिज करते हुए, उन्हें ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील भूमिका प्रदान की। “जन-आंदोलनो में एकाकार होने” के
अपने दृष्टिकोण के अनुसरण में, वे, चौथे इंटरनेशनल की मौजूदा पार्टियों को राजनीतिक और
संगठनात्मक रूप से खंडित कर डालने के काम में जुट गए।
इस परिप्रेक्ष्य के परिणाम- चौथे अंतरराष्ट्रीय की
पार्टियों के प्रतिक्रांतिकारी लेबर-ब्यूरोक्रेसी की पूंछ बन जाने और बूर्ज्वा
सत्ता के दोयम सम्बलों में बदल जाने- के रूप में दक्षिण एशिया में राजनीतिक
घटनाक्रम में स्पष्ट देखे जा सकते थे। पाब्लोवाद की इस पुछाल्लावादी नीति के तहत ही, गौरवशाली
बोल्शेविक लेनिनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (बी.एल.पी.आई.) ने, कांग्रेस
सोशलिस्ट पार्टी (सी.एस.पी) में प्रवेश किया और उसी में विलीन हो गई और शानदार
लंका सम-समाज पार्टी (एल.एस.एस.पी.), सिंहली लोकरंजना के ढांचे में ढल गयी। उन्होंने
ट्रेड-यूनियन और संसदीय अवसरवाद के पक्ष में, सतत
क्रांति के कार्यक्रम को तिलांजलि दे दी। १९६४ में एल.एस.एस.पी, मेडेम भंडारनायके और उसकी लंका फ्रीडम पार्टी की अध्यक्षता
में, बुर्जुआ गठबंधन सरकार में शामिल हुई।
१९५३ में, चौथे
इंटरनेशनल के भीतर, पाब्लोवाद
के खिलाफ शुरू हुए संघर्ष में सच्चे ट्रोट्स्की-वादी, पाब्लोवाद के खिलाफ एकजुट रहे हैं, और बाद के दशकों में, विश्व
समाजवादी क्रांति के कार्यक्रम की रक्षा और विकास के लिए उन्होंने दृढ़ संघर्ष
चलाया है। मार्क्सवादी और ट्रोट्स्की-वादी सिद्धांतो की रक्षा के लिए चलाए गए
संघर्ष के कई दशकों में प्राप्त विशाल राजनीतिक अनुभव के साथ, चौथे अन्तराष्ट्रीय का आन्दोलन, विश्व सर्वहारा द्वारा सचेतन रूप से अपने संघर्षों को
संयोजित करने और मरणासन्न पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की आवश्यकता का, प्रतिनिधित्व करता है।
अतः हमारा केंद्रीय कार्यभार है- ‘चौथे अंतर्राष्ट्रीय’ आंदोलन, विश्व सर्वहारा के हरावल, का
निर्माण, जो सर्वहारा के स्वतःस्फूर्त जन-संघर्षो में हस्तक्षेप करने
और स्तालिनवादियों, माओवादियों
और मध्यमार्गी अवसरवादियों का मुक़ाबला करने और राजनीतिक रूप से उन्हें परास्त करने, तथा सर्वहारा को स्पष्ट क्रांतिकारी कार्यक्रम और
परिप्रेक्ष्य से लैस करने में सक्षम होगा।
हम मजदूरों और युवाओं से अनुरोध करते हैं कि वे इस
कार्यक्रम का अध्ययन करें और मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के लिए
हमारी पांतों और हमारे संघर्ष में शामिल हो।
संक्रमणकालीन कार्यक्रम की आवश्यकता
आज वैश्विक स्तर पर गहन प्रणालीगत संकट से घिरा
पूंजीवाद, उन वस्तुगत परिस्थितियों को परिपक्व बना रहा है, जो सामाजिक क्रांति के जरिये इसका विघटन करेंगी। मगर, ऐसी सामाजिक क्रांति का नेतृत्व करने में सक्षम, एकमात्र शक्ति, सर्वहारा, इन अवसरों पर उठ खड़ा होने में विफल हो रहा है, और क्रांतिकारी शैली में इस संकट में कार्रवाई करने में
असमर्थ है। सर्वहारा की यह कमजोरी, साम्राज्यवाद
के पुनर्स्थापन का, विशेष
रूप से स्टालिनवाद, जिसने
अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा के विघटन में अहम भूमिका निभाई, की सक्रिय सहायता से, द्वितीय
विश्वयुद्ध के बाद उसके पुनःस्थिरीकरण का परिणाम है। इस परिदृश्य में, सर्वहारा ने अपनी शक्ति में विश्वास खो दिया है, और क्रांतिकारी समाजवादी चेतना तथा दुनिया से पूंजीवाद को
मिटा देने के अपने ऐतिहासिक मिशन से परे हट गया हैं।
इस प्रकार, एक
ओर विश्व समाजवादी क्रांति के लिए परिपक्व हो चुकी वस्तुगत परिस्थितियों, और दूसरी ओर सर्वहारा की पिछड़ी राजनीतिक चेतना के बीच, एक बड़ी खाई पैदा हो गयी है। इसलिए, इन दो दूरवर्ती ध्रुवों को जोड़ने के लिए, इनके बीच एक पुल बनाते हुए एक ऐसे संक्रमणकालीन कार्यक्रम
की जरूरत पैदा होती है जो मजदूरों की निवर्तमान, अत्यावश्यक
और सहज बोधगम्य मांगो से शुरू करके, सर्वहारा
के महान ऐतिहासिक मुक्तिदायी ध्येय – राजसत्ता
पर विश्व-विजय और समाजवादी समाज की स्थापना तक ले जाता हो।
इस अंतर को पाटने और एक समाजवादी समाज के अंतिम लक्ष्य की
ओर प्रस्थान हेतु, हम
संक्रमणकालीन मांगों का एक खाका, सिर्फ
एक खाका भर, प्रस्तुत करते हैं, जिसे
वास्तविक संक्रमण के क्रम में समय और स्थान की आवश्यकता के अनुसार, जोड़ा, घटाया
या परिवर्तित किया जा सकता है।
स्पष्तः, हमारा
उद्देश्य, पूंजीवाद को सुधारना नहीं, बल्कि
उसे उखाड़ फेंकना है। मगर इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु, व्यापक सर्वहारा जनता से पार्टी का अविभाज्य सम्बन्ध और
उनकी तुरत आवश्यकताओं को संबोधित करती मांगों को व्यवस्थित करना अनिवार्य है। एक
ओर समाजवादी क्रांति के अंतिम लक्ष्य और कार्यक्रम, तथा
दूसरी ओर उन ठोस संघर्षों, जिनमे
मजदूर वर्ग शामिल है, के
बीच वास्तविक कड़ी की स्थापना, अनिवार्य
है। इस सन्दर्भ में, हमारा
कार्य संक्रमणकालीन कार्यक्रम में मूर्त, चौथे
इंटरनेशनल के दृष्टिकोण से निर्देशित है। ट्रोट्स्की लिखते हैं, कि “दैनिक
संघर्ष की प्रक्रिया में, वर्तमान
मांगों और क्रांति के समाजवादी कार्यक्रम के बीच, पुल
खोजने के लिए, जनता की मदद करना जरूरी है। इसमें, संक्रमणकालीन मांगों की एक श्रंखला सम्मिलित होनी चाहिए जो
वर्तमान परिस्थितियों और मजदूर वर्ग के व्यापक संस्तरों की वर्तमान चेतना से
प्रस्थान करते हुए अनिवार्यतः एकमात्र और अंतिम निष्कर्ष- राजसत्ता पर सर्वहारा की
विजय- तक जाती हो”।
इन मांगों में शामिल है- सार्विक रोजगार, बढ़िया चिकित्सा सुविधाओं, शिक्षा
तथा अच्छे आवास पर अबाधित अधिकार; बेदखलियों
से निजात; मुद्रास्फीति के अनुकूल वेतन में वृद्धि; वेतन में कटौती के बिना काम के घंटो में कमी; कार्यशालाओं का जनवादीकरण; बैंकों, वित्तीय संस्थानों और निगमों के वित्त-अभिलेखों का जनता
द्वारा अबाध निरीक्षण; कार्यपालिका
के वेतन पर सीमा-विराम; एक
वास्तविक प्रगतिशील आयकर; सभी
प्रकार के अप्रत्यक्ष करों का उन्मूलन; उत्तराधिकार
के ज़रिये बड़ी निजी संपत्ति के हस्तांतरण पर सार्थक प्रतिबंध; राष्ट्रीय और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण बड़े
निगमों पर मजदूरों के जनवादी नियंत्रण की स्थापना और उनका राष्ट्रीयकरण; नागरिक, न्यायिक, और सैनिक ब्यूरोक्रेसी का उन्मूलन तथा ऊपर से नीचे तक
निर्वाचित प्रतिनिधियों के निकायों से उनका प्रतिस्थापन; भाड़े की सेनाओं का खात्मा तथा मजदूरों द्वारा नियंत्रित और
निर्वाचित अधिकारियों वाली ‘लोकप्रिय
मिलिशिया’ को उनकी सत्ता का हस्तांतरण; और
जनवादी तथा सामाजिक रूप से लाभप्रद चरित्र वाली अन्य मांगें।
ये अस्थायी मांगे, समाजवादी
क्रांति के कार्यक्रम और एक निश्चित समय पर जनता की चेतना के बीच, पुल बनाते हुए, समाजवाद
के लिए संघर्ष में, एक
संक्रमणकालीन कार्यक्रम प्रस्तुत करती हैं, इसलिए, विभिन्न शक्तियों के पारस्परिक संबंध में परिवर्तन के साथ, मांगो में भी परिवर्तन जारी रहेगा।
संक्रमणकालीन मांगे
१) नौकरशाही के सभी विशेषाधिकारों का बिना शर्त
उन्मूलन
२) निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के जनता के अधिकार के साथ, कार्यकारी और न्यायिक, सभी
अधिकारियो का चुनाव
३) नियमित सेनाओं
और पुलिस का उन्मूलन, तथा
मजदूरों के नियंत्रण में सार्विक हथियारबंदी के जरिये, जन-मिलिशिया से उनका प्रतिस्थापन
४) अपनी पसंद के हथियार रखने पर लागू सभी प्रतिबंधो का
उन्मूलन
५) अधिकारियों द्वारा भ्रष्टाचार, दमन और अकर्मण्यता के मामलो में, निर्वाचित न्यायाधीशों के साथ फ़ास्ट ट्रैक न्यायालय और अधिकारियों पर मुक़दमा चलाने का नागरिकों को
अबाध अधिकार
६) सभी सार्वजनिक और निजी कंपनियों, बैंकों, कार्यालयों और संस्थानों के खातों और
अभिलेखों का, तुरंत और बिना किसी परेशानी के, निरीक्षण करने का सभी नागरिकों को सुनिश्चित अधिकार
७) पब्लिक लिमिटेड कंपनियों के अधिकारियों और सार्वजनिक
पदाधिकारियों के वेतन की अधिकतम सीमा का निर्धारण। लिमिटेड कंपनियों में तथा
सार्वजनिक क्षेत्र में, सरकारी
कर्मचारियों, नौकरशाहों व विशेषज्ञों की तनख्वाह, और मजदूरों के वेतन, का
अनुपात, सभी प्रकार के भत्तों और लाभों सहित, किसी भी हालत में, १:३
से अधिक न हो
८) तेज़ी से बढ़ते आयकर की व्यवस्था और सभी अप्रत्यक्ष करों, बिक्री कर, सेवा
कर आदि की समाप्ति
९) निजी संपत्ति के उत्तराधिकार पर प्रभावी अधिकतम सीमा का
निर्धारण
१०) अभिव्यक्ति की पूर्ण और अबाधित स्वतंत्रता तथा इसके लिए
राज्य के खर्च पर सर्वहारा के लिए सभी आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था
११) सभी आप्रवासी मजदूरों को समान अधिकार और व्यवहार के साथ, देश
के किसी भी भाग में जाने या बसने की पूर्ण स्वतंत्रता
१२) धार्मिक, राष्ट्रीय, नस्ली और जातिगत अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों, बच्चों और समाज के अन्य कमजोर तबको के नागरिक अधिकारों की
अनुल्लंघनीयता तथा उल्लंघन करने वालों पर मुकदमा चलाने और सज़ा देने के लिए विशेष
न्यायालय
१३) मुआवजे के बिना, विदेशी
और घरेलू दोनों, इजारेदारियों
की जब्ती और राष्ट्रीयकरण
१४) भूमि सुधार। जमींदारों की कुल ५० एकड़ से अधिक खेतिहर
संपत्तियों की बिना मुआवजा जब्ती, और
उन पर भूमिहीन और गरीब किसानों के सामूहिक निकायों का सीधा नियंत्रण
१५) सुनिश्चित रोज़गार या वर्ष में ३६५ दिन के लिए बेरोज़गारी
भत्ता
१६) सार्विक और नि:शुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सभी नागरिकों के लिए अच्छे आवास
१७) 6 घंटे का कार्यदिवस; 5
दिन प्रति सप्ताह
१८) मजदूरों द्वारा चुने गए न्यायाधीशों वाले औद्योगिक न्यायालय
१९) श्रम
कानूनों की पुनर्रचना और कार्यान्वयन तथा उन्हें भंग किये जाने पर कड़ी सजाओं का
प्रावधान
२०) नई संविधान सभा
२१) कार्यपालिका और न्यायपालिका तथा राज्य के तमाम दूसरे
अंगों पर संसद की सर्वोच्चता
२२) औपनिवेशिक कानूनों, संस्थाओं
और सभी प्रकार की औपनिवेशिक विरासतो का उन्मूलन
२३) युद्ध-विरोधी संधियों सहित पड़ोसी देशों के साथ अच्छे
संबंध
२४) पासपोर्ट और वीजा पद्धति का अंत, और दुनिया के किसी भी हिस्से में जाने, बसने की
पूर्ण स्वतंत्रता
अनुवाद: कल्पेश डोबरिया
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