- रजिंदर कुमार/ २.४.२०१८
अनूसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम १९८९, के विभिन्न प्रावधानों, विशेष रूप से धारा १८, जो आरोपी के अग्रिम जमानत के अधिकार को बाधित करती है, की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ विभिन्न अस्मितावादी, अम्बेडकरी संगठनों ने २ अप्रैल को भारत बंद का आह्वान किया है. अपनी अस्मिता को किसी तरह बचाने की जुगत में जुटी विभिन्न स्तालिनवादी और माओवादी पार्टियों ने भी इस बंद को समर्थन दिया है.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली दक्षिणपंथी भाजपा सरकार ने अधिनियम के प्रावधानों में संशोधन करते हुए, २०१६ में नए अपराधों को इसमें शामिल करने के साथ ही, दंड प्रक्रिया को और त्वरित बनाने के लिए भी नए प्रावधान इस अधिनियम में जोड़े थे. ये संशोधित प्रावधान २६ जनवरी २०१६ से लागू हो गए थे.
अधिनियम में पहले से ही किसी भी शिकायत पर तुरंत मुकदमा दर्ज करने, आरोपी की गिरफ़्तारी और अग्रिम जमानत न दिए जाने के अत्यंत कड़े प्रावधान हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यह अधिनियम सर्वाधिक दुरूपयोग वाले कानूनों में एक है और पिछले दशकों में यह दुरूपयोग बढ़ता गया है. इस अधिनियम के तहत कड़े प्रावधानों का लाभ सत्ताधारियों और पुलिस द्वारा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को झूठे मुकदमों में फंसाने के लिए ही बहुधा किया गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में मुकदमा दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करने और तुरंत गिरफ़्तारी न करने की अनुशंसा की है. साथ ही अग्रिम जमानत के खिलाफ रोक को भी हटा दिया है.
नरेंद्र मोदी सरकार के निर्देश पर, भारत सरकार के महाधिवक्ता की ओर से, तुरंत ही इस आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका प्रस्तुत की जा रही है जिसमें इस फैसले को निरस्त करने की मांग की गई है.
निस्संदेह, जातिवादी समीकरण भारत के सामाजिक विन्यास में गहरे पैठे हैं और इस जाति आधारित सामाजिक सोपान में निचले पायदान पर खड़ी जातियों का दलन-दमन एक ठोस वास्तविकता है. अस्पृश्यता और जातीय दमन, हिंसा सैंकड़ों रूपों में प्रतिदिन सामने आते है जिनमें दलित जातियों के लोगों को पानी के स्रोतों तक से वंचित करना, महिलाओं से दुर्व्यवहार और यौन अपराध, और तरह-तरह की हिंसा शामिल है. जातियों के विरुद्ध हिंसा, मध्ययुगीन हिंसा का, जो आज भी ग्रामीण जीवन में व्याप्त है, मुख्य रूप है.
बुर्जुआ सरकारों द्वारा बनाए गए कानून, जातिवादी दलन को रोक पाने में पूरी तरह असमर्थ रहे हैं. इन कानूनों से, सत्ता और सरकारों में बैठे लोगों ने, नौकरशाही और पुलिस ने, सिर्फ अपने हाथ ही मज़बूत किए हैं. जितना ही कानून कड़े किए गए हैं, पुलिस, नौकरशाहों और सत्ता, सरकारों का शिकंजा उतना ही मजबूत होता गया है.
जातीय दमन का शिकार आमतौर से जो अत्यंत गरीब और कमज़ोर लोग होते हैं, उन्हें शक्तिशाली आरोपियों के खिलाफ इन कानूनों से कोई मदद नहीं मिलती. भगाणा जैसे कितने ही पाशविक काण्ड इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि इन कानूनों से हिंसा के गरीब और साधनहीन शिकारों को कभी कोई मदद नहीं मिली. इन्हें हथियार बनाकर, नेताओं, अफसरों और शक्तिशाली लोगों ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को जरूर फंसाया है.
इस मामले में यह अधिनियम अकेला नहीं है बल्कि सभी कानूनों के साथ यही हुआ है. बुर्जुआ कानून, गरीबों, दलितों, वंचितों के लिए नहीं, बल्कि बुर्जुआ राज्य और उसके पुलिस-तंत्र को मजबूत करने के उद्देश्य से बनाए और अमल में लाए जाते हैं. जितना ही कानून कड़े होते जाते हैं, बुर्जुआ राज्य और उसका तंत्र उतना ही मजबूत होता जाता है.
फिलहाल, मोदी सरकार एक तीखे अंतर्विरोध को संतुलित करने की जोड़तोड़ में जुटी है. यह अंतर्विरोध, एक ओर जातीय दमन और अत्याचार के निवारण के लिए बनाए गए कानूनों के अनुपयोग और साथ ही निरंकुश दुरूपयोग से भी, पैदा हुए दोहरे और व्यापक आक्रोश और दूसरी ओर जाति दमन और उत्पीड़न की सच्चाई के साथ-साथ दलित जातियों के बीच बड़े वोट बैंक को हाथ से न जाने देने की जुगत के बीच मौजूद है.
जातीय दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध, बुर्जुआजी के सारे कानून पूरी तरह निष्फल सिद्ध हुए हैं. बुर्जुआ राज्य, उसकी पुलिस और अदालतें, जिस मध्ययुगीन सामाजिक ढांचे पर टिकी हैं वह जातिवाद और उससे पैदा होने वाले पूर्वाग्रहों से ग्रसित है. यह राज्य इन कानूनों से खुद को सशस्त्र और सुदृढ़ करके, गरीबों, दलितों, वंचितों को ही शिकार बनाता है और मनमानी करने तथा निरंकुशता कायम रखने के लिए इन कानूनों को हथियार की तरह इस्तेमाल करता है. जातीय हिंसा के शिकारों को इन कानूनों का कोई लाभ कभी नहीं मिलता बल्कि शक्तिशाली लोगों द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वियों को फंसाने, फ़र्ज़ी मुकदमे बनाने के लिए ही ये कानून सत्ताधारियों के काम आते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बहाना बनाते हुए, जातीय अस्मिता के पैरोकार अम्बेडकरियों ने, इस फैसले का विरोध करते हुए इसे कथित ब्राह्मणवाद और मनुवाद से प्रेरित कहा है और ‘संविधान की सुरक्षा’ का आह्वान किया है. सर्वहारा क्रान्ति, मार्क्सवाद और समाजवाद का विरोध करते, अम्बेडकरियों ने लम्बे समय से बुर्जुआ संविधान का गुणगान किया है और उसे महिमामंडित करते हुए दलित मुक्ति का सर्वोच्च दस्तावेज़ बताते हुए, दलित मेहनतकश जनता को भ्रमित करने का प्रयास जारी रखा है. कथित ‘ब्राह्मणवाद’ और ‘मनुवाद’ के खिलाफ, इलीट अम्बेडकरी नेताओं की ज़हरीली और कुटिल जातिवादी मुहिम का उद्देश्य, जातिगत खाई को और गहरा करना, मेहनतकश जनता के बीच जातीय विग्रह को और तीखा करना है ताकि मेहनतकश दलित जनता को बुर्जुआ लोकतंत्र और संविधान के पीछे बांधे रखा जा सके.
अम्बेडकरी, नीले फ़ासिस्ट है. वे बुर्जुआजी के पक्के दलाल हैं. उनकी अस्मितावादी राजनीति का एकमात्र उद्देश्य मेहनतकश जनता की कतारों में जातीय आधार पर फूट डालते हुए, उन्हें छिन्न-भिन्न करना है. अम्बेडकरी अम्बानी-अडानी के नेतृत्व वाली बुर्जुआ तानाशाही को लोकतंत्र बताते हैं और उसका अमूर्त आदर्शीकरण करते हुए मेहनतकश जनता से उसकी सुरक्षा के लिए अपील करते हैं. अम्बेडकरियों का एक-सूत्री कार्यक्रम बुर्जुआ आधिपत्य वाले भारतीय राज्य को और उसके कानूनों के शिकंजे को अधिक से अधिक मजबूत बनाने में सहयोग देना है. इनकी कुल राजनीतिक भूमिका, बुर्जुआ सत्ता को सुदृढ़ करने में निहित है.
अम्बेडकरियों द्वारा आहूत इस बंद को, स्तालिनवादी और माओवादी पार्टियों, संगठनों ने भी समर्थन दिया है. बहुत पहले ही इन लुटे-पिटे, झूठे वाम नेताओं ने, क्रान्ति और मार्क्सवाद की तरफ पीठ फेरते हुए, अम्बेडकरियों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था. भारत में जाति प्रश्न को मार्क्सवाद की पकड़ और पहुंच से बाहर बताते हुए, इन फ़र्ज़ी वामियों ने, दलित मेहनतकश जनता पर, बुर्जुआ दलाल, अम्बेडकरियों के नेतृत्व को स्वीकृति दे दी थी और खुद उनकी पूंछ पकड़ ली थी. क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की पार्टी, वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी (WSP) ने अम्बेडकरियों के इस झूठे दावे को निरस्त करते हुए और स्तालिनवादियों के आत्मसमर्पण की कड़ी निंदा करते हुए, मार्क्सवाद को भारत में जाति प्रश्न की एकमात्र कुंजी बताया और उसे दलित मुक्ति के एकमात्र दर्शन और आन्दोलन के तौर पर पुनर्प्रतिष्ठित किया. देखें: http://workersocialist.blogspot.in/2017/05/blog-post_16.html
सभी संदेहों से परे हमने यह दिखाया और सिद्ध किया कि भारत में जातीय विषमता और अन्याय उस मध्ययुगीन सामाजिक ढांचे का अनिवार्य हिस्सा हैं जिसके चलते जमीन और हथियारों पर कुछ अग्रणी जातियों का नियंत्रण रहा है और जिसे तोड़ने में भारतीय बुर्जुआजी की सत्ता साथ दशकों से अधिक के शासन के बावजूद विफल रही है. इस सत्ता ने, औपनिवेशिक सत्ता की ही तरह मध्ययुगीन सामाजिक ढांचों को चुनौती देने की जगह उनसे संलयन किया है. दलित मुक्ति का प्रश्न, देहात में जमीनों और हथियारों पर दलितों, पिछड़ों, वंचितों, मेहनतकशों के सामूहिक नियंत्रण के बिना हल करना संभव नहीं है.
WSP यह दावा करती है कि जातीय उत्पीड़न, दमन, शोषण और उसके विरुद्ध सामाजिक न्याय का रास्ता, बुर्जुआ राज्य और उसके कानूनों से होकर नहीं जाता, बल्कि उस महान सामाजिक क्रान्ति से होकर गुजरेगा जो सर्वहारा द्वारा राज्यसत्ता पर कब्ज़े के साथ खुलेगी.
इस क्रान्ति की अनिवार्य और प्राथमिक शर्त है- मजदूर वर्ग और उसके गिर्द सभी मेहनतकशों की अन्तर्राष्ट्रीय एकता, यानि जाति, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता की तमाम संकीर्णताओं को लांघते हुए, उस लाल झंडे के नीचे, वर्ग आधारित एकजुटता, जिस पर उस आदि विद्रोही मार्क्स के ये शब्द अंकित है- “दुनिया के श्रमजीवियो! एक हो”.
यह आन्दोलन, सामाजिक समानता के लिए, दलित, मेहनतकश जनता की अत्यंत न्यायपूर्ण और उचित आकांक्षाओं का विकृत परावर्तन है. जनता की इन न्यायोचित आकांक्षाओं को, अम्बेडकरियों और स्तालिनवादियों की पूंजीपरस्त राजनीति से अलग कर देखे जाने की जरूरत है. भारत बंद के दौरान, दलित, मेहनतकश जनता के बीच फूट रहा गुस्सा, पूंजीवाद और मध्ययुगीनता के दमघोंटू गठजोड़ के दोहरे जुए के नीचे असह्य होती जा रही जीवन स्थितियों के खिलाफ, लगातार गहराते सामाजिक अन्याय और बढ़ती विषमता के खिलाफ, मेहनतकश जनता के संगठित आक्रोश की नैसर्गिक अभिव्यक्ति है जिसका अम्बेडकरी नेताओं के बुर्जुआ परस्त, सीमित और बौने कार्यक्रम से कोई मेल नहीं है.
हम उन सभी की कड़ी निंदा करते हैं जो २ अप्रैल के दंगों की, उनके हिंसक चरित्र के लिए निंदा कर रहे हैं. इस हिंसा और अतिरेक को, हम उत्पीडित की न्यायोचित चीख के रूप में मान्यता देते हैं. यह दूसरी किसी तरह न तो हो ही सकता था और न ही इतिहास में कभी हुआ है.
लेकिन साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि यह आक्रोश और इसकी अभिव्यक्ति, दोनों निष्फल रहेंगे, जब तक यह क्रान्ति के सचेत कार्यक्रम की ओर, सर्वहारा क्रान्ति की ओर, निदेशित नहीं होते.
यह भी देखें: http://workersocialist.blogspot.in/2017/10/blog-post.html
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