Wednesday 21 March 2018

भाकपा-माले का मानसा सम्मलेन और उसकी अपील, दक्षिणपंथ की ओर खुले झुकाव की उद्घोषणा है!

रजिंदर कुमार एवं सौरव भट्टाचार्य/ २१.३.२०१८ 


भाकपा-माले पंजाब के मानसा में पार्टी का १०वां सम्मलेन करने जा रही है. इस सम्मलेन की दिशा तय करते हुए इसने जो अपील जारी की है, वह है- “फासीवाद को हराओ! जनता का भारत बनाओ!”

यह अपील, स्तालिनवादी भाकपा-माले की कुल राजनीति के अनुरूप होने के साथ-साथ, और वर्तमान में उसकी व्यावहारिक जरूरतों के भी अनुरूप है.

बिहार के कुछ पिछड़े, किसानी जिलों में प्रभाव क्षेत्र वाली भाकपा-माले, शहरी मजदूर वर्ग से, मजदूर वर्ग के हिरावल से पूरी तरह कटी रही है और इन किसानी क्षेत्रों में जाति और क्षेत्रवाद से लबरेज़ संकीर्ण समीकरणों से अपनी जड़ों को पोषित करती रही है. इस प्रक्रिया में, विशेष रूप से पिछले तीन दशकों में यह अधिक से अधिक दक्षिण की ओर हटती चली गई है.

लगातार दक्षिण की ओर हटते हुए, भाकपा-माले, उस कृत्रिम अभिनय को भी अब तिलांजलि दे रही है जिसे माकपा से अलग होते उसने ओढ़ा था. नक्सलबाड़ी के किसान संघर्ष को पीठ दिखाकर, संसदवाद की गर्त में उतरते, भाकपा-माले ने, कुछ समय, भाकपा और माकपा की, उनकी संसदवादी राजनीति के लिए, आलोचना जारी रखी थी. पिछले दशकों में, दूसरी स्तालिनवादी पार्टियों, भाकपा और माकपा की ही राह पर चलते हुए, भाकपा-माले ने बिहार में कभी लालू तो कभी नितीश कुमार जैसे प्रतिक्रियावादियों के साथ चुनावी गठबंधन बनाने की जी-तोड़ कोशिशें की हैं और इसके नेताओं ने इन दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं की तारीफ में कसीदे पढ़े हैं.

भाकपा-माले का राजनीतिक आधार, बिहार के भीतर कुछ विशेष जातियों के पिछड़े हिस्सों के बीच समर्थन तक सीमित है, जिसे बनाए, बचाए रखने के लिए माले ने अम्बेडकरवाद जैसी क्रांतिविरोधी प्रवृत्तियों के सामने बहुत पहले ही आत्मसमर्पण करते हुए ‘जय भीम, लाल सलाम’ जैसे झूठे और पाखंडी नारे ईजाद किए थे. माले ने सर्वहारा को कभी भी अपनी राजनीति की धुरी नहीं बनाया बल्कि अम्बेडकरियों की इस संकीर्ण और झूठी प्रस्थापना को गले लगाया है कि भारत में जाति ही वर्ग हैं. बिहार के भीतर, पिछड़े जाति समीकरणों पर टिकी यह पार्टी, बिहार के बाहर भी प्रतिक्रियावादी ‘बिहारी क्षेत्रवाद’ में अपना आधार तलाशती रही है. पंजाब में, जहां बड़ी संख्या में बिहार से मजदूरी के लिए प्रवास जारी रहता है, माले इसी संकीर्ण क्षेत्रवाद में अपना आधार ढूंढती है. अलबत्ता जाति और क्षेत्रवाद के समीकरणों में सराबोर अपनी प्रतिक्रियावादी राजनीति को यह लाल झंडे और जनवाद की लफ्फाजी से ढकती है.

भाकपा और माकपा जैसी स्तालिनवादी पार्टियों की ही तरह, भाकपा-माले भी, राजनीति में मजदूर-वर्ग की नेतृत्वकारी , अग्रणी भूमिका और विशेष रूप से उसकी केन्द्रीयता को, पूरी तरह नकारती है. सभी स्तालिनवादियों की तरह, भाकपा-माले भी सतत क्रान्ति पर आधारित इस प्रस्ताव को ख़ारिज करती है कि मजदूर वर्ग सत्ता ले सकता है और अपना वर्ग-अधिनायकत्व कायम कर सकता है.

भाकपा-माले के अनुसार, लड़ाई पूंजीवाद से नहीं है बल्कि सामंती अवशेषों से है. फासीवाद को भी वह परिपक्व पूंजीवाद से नहीं, बल्कि अविकसित पूंजीवाद और सामंती ज़मीन से ही उद्भूत परिघटना समझती है और उसके खिलाफ बुर्जुआ लोकतंत्र और उसकी सत्ता को सुदृढ़ करने का आह्वान करती है. इस तरह, माले, न सिर्फ पूंजीवाद को जमानत देकर बरी करती है बल्कि उसके हिस्सों, पार्टियों, नेताओं के साथ जोड़-तोड़ के लिए अपने दोनों हाथ खोल लेती है.

फासीवाद के खिलाफ़ संघर्ष, भाकपा-माले के लिए पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष नहीं है, विश्व-पूंजीवाद के खिलाफ तो कतई नहीं, बल्कि पूंजीवाद से इतर संघर्ष है, जिसमें लालू-नितीश-माया-ममता जैसे बुर्जुआ नेताओं और उनकी पार्टियों के साथ गठबंधन संभव है. इन्हें वह ‘अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियां’ कहती है.

भाकपा-माले की यह राजनीति, घोर अवसरवादी, बुर्जुआ-परस्त राजनीति है जो भाकपा, माकपा की ही तरह अपने अनुयायियों को बुर्जुआ नेताओं और पार्टियों के पीछे बांधकर, पूंजी की व्यवस्था के आगे लाचार करती है और उसके विरुद्ध, क्रान्तिकारी संघर्ष से उन्हें विरत करती है.

माले की अपील, “फासीवाद को हराओ, जनता का भारत बनाओ” को समझने के लिए हमें इन दोनों को एक साथ पढना होगा. फासीवाद को हराने की बात कहते ही माले, “जनता का भारत” बनाने का आह्वान करती है. इस अपील के, गूढ़ राजनीतिक निहितार्थ हैं. यह नारा वास्तव में पूंजीवाद को बड़ी जमानत देकर, व्यापक भाजपा विरोधी चुनावी मोर्चे का आह्वान करता है. वर्ग-संघर्ष को धता बताते, “जनता का भारत” बनाने की यह अपील, वर्ग-समन्वय का मंच है. यह स्टालिन के नेतृत्व में १९३५ में ‘जनमोर्चों’ की उस राजनीति का सिलसिला है जिसके चलते स्टालिन ने पहले तो ‘सर्वहारा संयुक्त मोर्चे’ के ट्रॉट्स्की के प्रस्ताव का विरोध करते हुए, हिटलर से हाथ मिला लिया था और फिर हिटलर के घात से बचने के लिए चर्चिल की शरण ली थी.

भाकपा-माले की यह अपील उसी घृणित और शर्मनाक राजनीति की पुनरावृत्ति है.

फासीवाद, संकटग्रस्त पूंजीवाद की ही अभिव्यक्ति है और बुर्जुआ शासन की हिंसक निरंतरता है. उसे किसी भी तरह पूंजीवाद से अलग करके नहीं देखा जा सकता. फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में सर्वहारा ही एकमात्र स्थिर राजनीतिक शक्ति है जो अपने गिर्द मेहनतकश जनता को संगठित कर उसे परास्त कर सकता है. लेकिन यह रास्ता सीधे सर्वहारा अधिनायकत्व और पूंजीवाद के विनाश की ओर खुलता है.

भाकपा-माले इस रास्ते से इनकार करते हुए, सर्वहारा अधिनायकत्व के प्रस्ताव को ख़ारिज करते हुए, ‘जनता का भारत’ बनाने के लिए संघर्ष करने का प्रस्ताव रखती है. यह दोगली अपील, जो देखने में ऐसी लगती है कि यह मज़दूरों-मेहनतकशों का भारत बनाने के लिए आह्वान है, वास्तव में ‘चार वर्गों के ब्लॉक’ की क्रांतिविरोधी स्तालिनवादी अवधारणा है जिसमें मजदूर-किसानों के अलावा पूंजीपति और निम्न-पूंजीपति वर्ग के हिस्से भी शामिल हैं, जिन्हें स्तालिनवादी राष्ट्रवादी-जनवादी-प्रगतिशील पूंजीपति कहते हैं. पूंजीपति वर्ग के इन हिस्सों को ‘अन्य लोकतान्त्रिक शक्तियों’ की कुटिल अवधारणा के पीछे छिपाते, स्तालिनवादी, अपने लिए वे रास्ते खुले रखते हैं जिनके जरिए लालू-नितीश से लेकर राहुल-केजरीवाल तक, कहीं भी, कभी भी, पहुंचा जा सके.

नौ दशकों से दुनिया भर में स्तालिनवादी और माओवादी पार्टियां यही करती आई हैं. इन जनमोर्चों के नाम पर झूठे वामियों ने हिटलर, चर्चिल, च्यांग-काई-शेक, जनरल याह्या खां, निक्सन, आइजनहावर जैसे अगणित क्रांति-विरोधियों के साथ मोर्चे बनाते हुए, क्रान्ति और समाजवाद के लिए संघर्ष को सूली पर चढ़ा दिया. “जनता का भारत” बनाने की अपील, ऐसे ही जनमोर्चे के लिए अपील है.

फासीवाद को हारने के लिए, ‘जनता का भारत’ नहीं, बल्कि मजदूर वर्ग के नेतृत्व में, पूंजीवाद विरोधी मजदूर-किसान सरकार की स्थापना ही एकमात्र सही और सच्ची कम्युनिस्ट अपील हो सकती है.

हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि फासीवाद गलते-सड़ते पूंजीवाद की राजनीतिक अभिव्यक्ति है जिसे हराने के लिए पूंजीवाद को मिटाना होगा. ठीक इसके विपरीत, भाकपा-माले पूंजीवादी पार्टियों और नेताओं के साथ गठबंधन की स्वीकृति को ‘जनता का भारत बनाओ’ के नारे के पीछे छिपा रही है. दरअसल, स्तालिनवादी माले, भारत के पूंजीवादी सत्ता प्रतिष्ठान, पार्टियों और नेताओं को आश्वस्त करना चाहती है कि उसका उद्देश्य बुर्जुआ लोकतंत्र को चुनौती देना नहीं है.

माले की अपील “फासीवाद को हराओ, जनता का भारत बनाओ” किसी भी तरह बुर्जुआ जनवाद के पार नहीं जाती बल्कि एक ऐसी राष्ट्रीय सरकार की परिकल्पना पर आधारित है जिसमें बुर्जुआ विपक्ष से लेकर स्तालिनवादी वाम तक सब शामिल हों.

स्तालिनवादी भाकपा-माले के लिए यह राजनीतिक सूत्र कोई नया नहीं है. इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आई.पी.एफ़.) का संगठन करते हुए, इसके तत्कालीन नेता विनोद मिश्र ने स्पष्ट कहा था कि उनका उद्देश्य “नागभूषण पटनायक से लेकर वी.पी.सिंह तक सबको एक मंच पर लाना है”. इस बोगस, दक्षिणपंथी, जनमोर्चे की नीति के बुरी तरह पिटने पर माले ने कालांतर में इस नीति से किनारा करते हुए आई.पी.एफ़. को भंग कर दिया था जब १९९२ में बिहार में इसके छः में से पांच विधायक आई.पी.एफ़. छोड़कर लालू से जा मिले थे. मगर वाम की ओर हटने के बजाय, यह तबसे और दक्षिण की ओर हटती चली गई है. तबसे माले, जाति और क्षेत्रवाद की राजनीति में, संसदवाद में, और गहरे धंसती गई है.

पिछले दिनों भाकपा-माले लालू की राजद के साथ गठबंधन की बार-बार कोशिश करती रही है, मगर लालू ने इसे रास्ता नहीं दिया. २०१९ के आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भाकपा-माले आरा और सीवान की दो सीटें मिलने पर सौदेबाज़ी के लिए पूरी तरह तैयार है. इन दो सीटों पर जाति समीकरण ऐसे हैं कि लालू की राजद के समर्थन से माले दोनों सीट जीत सकती है.

पिछले कई दशकों का इतिहास हमें बताता है कि संसद में सीटों की जोड़तोड़ के लिए, स्तालिनवादी पार्टियां राजनीतिक अवसरवाद की किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार हैं.

लालू की पार्टी के नेता और मंत्री शाहबुद्दीन द्वारा भाकपा माले नेता चंद्रशेखर सहित कितने ही दूसरे नेताओं की निर्मम हत्या के बावजूद, अवसरवादी स्तालिनवादी नेता, लालू और उसकी पार्टी के साथ चिपके रहे हैं. शाहबुद्दीन द्वारा चंद्रशेखर की हत्या के बाद, तहलका अखबार में छपी, चंद्रशेखर की मां की चिट्ठी, स्टालिनवादी नेताओं की अवसरवादी और कायराना राजनीति का कच्चा चिट्ठा है. अपने युवा नेता चंद्रशेखर की हत्या के बाद, किसी कार्रवाई को अंजाम देने में असमर्थ, माले नेताओं ने, सीवान में, चंद्रशेखर की मूर्ति लगाने की घोषणा की थी और उसके नाम पर चंद्रशेखर की मां से, ४० हज़ार की, उसकी सारी जमा-पूंजी, हड़प ली थी जो उसके दिवंगत पिता के प्रोविडेंट फण्ड से मिली थी.

“जनता का भारत” जैसे निपट अवसरवादी नारे, जो क्रान्ति और मजदूर-वर्ग की सत्ता के खुले नकार पर आधारित हैं, इसी राजनीतिक अवसरवाद की परिणति और अभिव्यक्ति हैं.

मौजूदा समय में फासीवाद को हराने और जनता का भारत बनाने के क्या मायने हो सकते हैं? क्या यह क्रान्ति के लिए, पूंजीवाद को ध्वस्त करने और मजदूर-किसान सत्ता की स्थापना के लिए आह्वान है? नहीं! यदि यह आह्वान मजदूर-किसान सरकार की स्थापना के लिए होता तो भाकपा-माले खुलकर यह बात कह सकती थी. यह आह्वान मजदूर-किसान सरकार की स्थापना के लिए नहीं बल्कि इसके विरुद्ध, विपक्षी बुर्जुआ पार्टियों के नेतृत्व में सरकार के गठन के लिए आह्वान है जिसमें स्तालिनवादी पार्टियों को भी कुछ जूठन हासिल हो.

भाकपा, माकपा और भाकपा-माले जैसी स्तालिनवादी पार्टियां, लाख लफ्फाज़ी के बावजूद, कभी भी मज़दूर-किसान सत्ता के लिए अपील को अपने फौरी एजेंडे पर नहीं ला सकतीं. इन पार्टियों का आधार निम्न-बुर्जुआ वर्ग के बीच है और ये बुर्जुआ सत्ता-प्रतिष्ठान से हजारों सूत्रों से बंधी हैं. “जनता का भारत बनाओ” जैसे भोंथरे और निरर्थक, नारों, अपीलों के पीछे ये अपनी छद्म और कुटिल बुर्जुआ-परस्त राजनीति को छिपाती हैं. इनकी यह राजनीति, वास्तव में बुर्जुआ जनवाद की पैरोकार है और उसकी सुरक्षा में तैनात है.

अपनी इस दिवालिया राजनीति को ढकने-ढांपने के उद्देश्य से, स्तालिनवादी एक के बाद एक, प्रतिक्रियावादी कुकर्म करते रहे हैं. अपने दसवें राष्ट्रीय सम्मलेन के अवसर पर, पंजाब के मानसा में शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की मूर्तियां लगाने के लिए, भाकपा-माले ने देश भर से चंदा जुटाया है. चंदा वसूलने-बटोरने की इस बेहूदा कवायद को छोड़ भी दें, तो भी क्रांतिकारियों को मूर्ति बनाने का यह सिलसिला, जिसे स्टालिन ने ट्रॉट्स्की सहित तमाम बोल्शेविक नेताओं के विरोध के बावजूद, लेनिन के शव की ममी बनाकर शुरू किया था, शर्मनाक प्रतिक्रियावादी और क्रांतिविरोधी अपराध है. ऐसे कुकर्म वही करते हैं, जो क्रान्ति की ओर पीठ करके खड़े होते हैं. जनता के सबसे पिछड़े हिस्सों की अराजनीतिक चेतना पर टिके और उसे पोषित कर रहे स्तालिनवादी, मूर्तिपूजा जैसे दकियानूस और वाहियात छल-छद्म का सहारा लेते हैं. इस मूर्तिपूजा से, मार्क्सवाद का, दूर का भी सम्बन्ध नहीं है. मूर्तिपूजक मार्क्सवादी नहीं हो सकते.

WSP ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि भारत में क्रान्ति, दक्षिण एशिया में क्रान्ति का हिस्सा और उसका अवयव है और उसी रूप में यह सफल हो सकती है. उत्तर पूर्व और विशेष रूप से काश्मीर का राष्ट्रीय प्रश्न सिर्फ भारत में क्रान्ति के दायरे में हल नहीं हो सकता. हमारी क्रान्ति का स्वरुप और अंतर्य, दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय हैं. भारतीय उपमहाद्वीप का पुनरेकीकरण, इस क्रान्ति का अनिवार्य हिस्सा है. माले का नारा, "जनता का भारत बनाओ" अत्यंत पिछड़ा, दकियानूस, संकीर्ण राष्ट्रवादी नारा है, जिसका हमारी क्रान्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है.

‘फ़ासीवाद को मिटाओ’ बिलकुल सही है. मगर यह निरर्थक हो जायगा यदि हम इसे पूंजीवाद के ध्वंस और सर्वहारा सत्ता यानि मजदूर-किसान सरकार की स्थापना के नारे अलग करके, उसके मातहत न रखकर, इसे राहुल-लालू-माया जैसे बुर्जुआ नेताओं और उनकी पार्टियों के साथ चुनावी गठबंधन का बहाना बना लेते हैं. तब यह सर्वहारा से खुला घात है!

फासीवाद को हराओ का अर्थ ही है- पूंजीवाद को मिटाओ! यह कभी भी बुर्जुआ पार्टियों के साथ मोर्चे बांधकर नहीं किया जा सकता. यह तो उनके विरुद्ध अनम्य और मिर्मम संघर्ष में ही होगा.

फ़ासीवाद के विरुद्ध जिस सांझे मोर्चे की जरूरत है, वह दरअसल संयुक्त सर्वहारा मोर्चा है. यह मोर्चा, चुनावी मोर्चा नहीं हो सकता. न ही यह पार्टियों और नेताओं के बीच मोर्चा हो सकता है.

इस मोर्चे का कार्यक्षेत्र, संसद के भीतर तो है ही नहीं. इसका कार्यक्षेत्र है सड़क पर जहां इस मोर्चे को फासीवादियों से निपटना है, उन्हें ध्वस्त करना है. इस उद्देश्य के लिए अलग-अलग विचारों और कार्यक्रमों से जुड़े मज़दूरों को आपसी तालमेल में, फासीवादियों के खिलाफ सीधी और सांझी कार्रवाइयों के लिए साथ आना है.

वर्तमान परिस्थितियों में इस संयुक्त सर्वहारा मोर्चे के जरिए ही फासीवाद के विरुद्ध, जनवाद के लिए, कारगर संघर्ष हो सकता है.

जनवाद का संघर्ष, बुर्जुआ जनवाद की संस्थाओं और व्यवस्था को बचाने का संघर्ष कतई नहीं है, जैसा कि स्तालिनवादी भ्रम फैलाते हैं, बल्कि यह पूंजीपतियों और ज़मींदारों की इस सत्ता, इस तानाशाही, जनवाद के इस फ़र्जीवाड़े के विरुद्ध, मजदूर-किसानों का संघर्ष है जिसका उद्देश्य पूंजीवाद का ध्वंस और मजदूर-किसान सरकार की स्थापना है.

क्या माले या दूसरी स्तालिनवादी पार्टियों के नेता इस संयुक्त मोर्चे के प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? कतई नहीं! वे, ‘फासीवाद को मिटाओ’ नहीं, बल्कि ‘फासीवाद को हराओ’ की बात कर रहे हैं, जिससे उनका एकमात्र आशय भाजपा को चुनाव में हराना है. स्पष्ट है कि यह कांग्रेस, राजद, सपा, बसपा की पूंछ पकड़कर ही किया जा सकता है. वे इसी की तैयारी कर रहे हैं.

जिस दक्षिणपंथी जनमोर्चे की परिकल्पना पर आई.पी.एफ़ टिका था, उससे भी सौ कदम, धुर दक्षिण की ओर हटते हुए, भाकपा-माले नेता, आज संसद में महज़ दो सीटों के लिए, लालू जैसे बुर्जुआ दक्षिणपंथी, जातिवादी, क्षेत्रवादी, नेताओं और उनकी पार्टियों से हाथ मिलाने के लिए तत्पर हैं.

पिछले दशकों में स्तालिनवादियों का आधार पूरी तरह खिसक चुका है. बदली हुई परिस्थितियों में, विशेष रूप से फासीवाद के प्रभुत्व के चलते अब बुर्जुआजी को, मज़दूरों, युवाओं को पूंजीवाद के पीछे बांधे रखने के लिए इन दलाल वाम नेताओं की कोई जरूरत नहीं रह गई है. अब इन नेताओं के पास अपने बचे-खुचे आधार को जिस किसी तरह बचाए रखने और अपनी राजनीतिक दुकानें चलाए रखने के लिए, बुर्जुआजी के हिस्सों के साथ चिपकने के सिवा और कोई रास्ता शेष नहीं रह गया है.

फ़ासीवाद को हराने के नाम पर, भाकपा-माले, बुर्जुआ पार्टियों और नेताओं के साथ चुनावी गठबंधन की बेशर्म और खुली अपील कर रही है. उसके बेडौल और आकृति-विहीन नारे, 'फासीवाद को हराओ, जनता का भारत बनाओ' का सारांश यही है.

वर्ग सचेत मज़दूरों और क्रांतिमना युवाओं का दायित्व है कि वे माले और दूसरी स्तालिनवादी पार्टियों के इन फिसड्डी, बुर्जुआ-परस्त कार्यक्रमों, नारों, अपीलों के निहितार्थ को पकड़ें, समझें और इन प्रतिक्रांतिकारियों के विरुद्ध सचेत और निर्णायक संघर्ष में संगठित हों.

वाम शिविर पर नियंत्रण किए हुए इन क्रान्ति के शत्रुओं को परास्त किए बिना हम इस शिविर को पूंजीवाद विरोधी दिशा नहीं दे सकते और इसलिए फासीवाद को कभी परास्त नहीं कर सकते. इन रंगे सियारों की पराजय, पूंजीवाद-फासीवाद के ध्वंस की अनिवार्य पूर्वशर्त है!

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