Thursday 15 March 2018

महाराष्ट्र में किसान आन्दोलन, पूंजीवाद के तहत गहराते कृषि-संकट की चेतावनी है!

राजेश त्यागी/ १४.३.२०१८

महाराष्ट्र सरकार द्वारा, प्रदर्शन शुरू होने से पहले ही, किसानों की सभी मांगे लिखित में स्वीकार लिए जाने पर, किसान आन्दोलन वापस ले लिया गया है. महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में रैली के उद्देश्य से पहुंचे किसान वापस लौट गए हैं.

दक्षिणी मुंबई के आज़ाद मैदान में जमा हुए लगभग ४० हज़ार किसानों ने, नासिक से मुंबई तक १८० किलोमीटर का फासला, छह दिन के पैदल मार्च में तय किया था.

किसानों की मुख्य मांगें थीं- पिछले वर्ष महाराष्ट्र सरकार द्वारा घोषित क़र्ज़ माफ़ी योजना में लाभ से वंचित रहे सभी किसानों के क़र्ज़ माफ़ किए जाएं, कपास की नष्ट फसल पर ४० हज़ार रूपये प्रति एकड़ की दर से मुआवजा मिले, किसान अधिकार अधिनियम २००६ के तहत जंगलात की ज़मीनों के बोने वालों को स्थायी पट्टे दिए जाएं, सभी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार लागत से डेढ़ गुने दामों पर पुनर्निर्धारित किया जाय, शहरी विकास के लिए किसानों की जमीनों का जबरन अधिग्रहण बंद किया जाय, गुजरात को महाराष्ट्र के पानी से हिस्सा देना बंद किया जाय, बिजली-पानी के बिल माफ़ हों, दूध का न्यूनतम सरकारी खरीद मूल्य ४० रुपये प्रति लीटर तय हो, राशन की दुकानों पर राशन उपलब्ध हो, वृद्धावस्था पेंशन और बेसहारा भत्ता मिले.

इस किसान यात्रा का आयोजन स्तालिनवादी सीपीएम से जुड़ी अखिल भारतीय किसान सभा ने किया था.

मुंबई में किसान यात्रा के अगले ही दिन दिल्ली में भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले दिल्ली के संसद मार्ग पर भी बड़ी संख्या में किसान जमा जमा हुए, जिन्होंने सभी कृषि कर्जे माफ़ करने और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने की मांग की.

विधान सभा पर मार्च से पहले ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने, किसानों की मांगों के निपटारे के लिए छह मंत्रियों की समिति बना दी थी. सभी मांगों का निपटारा होने पर किसानों को विशेष ट्रेनों से वापस भेजने का प्रबंध भी महाराष्ट्र सरकार ने पहले ही कर दिया था.

केंद्र और महाराष्ट्र में सत्ता चला रही भाजपा की नेता पूनम महाजन ने किसान आन्दोलन में शामिल गरीब किसानों को निशाना बनाते हुए और उनके प्रति पूंजीवादी सत्ता की घृणा को खुली अभिव्यक्ति देते हुए, इस आन्दोलन को माओवादी आतंकवाद का औजार बताया. महाजन ने कहा कि माओवादी किसानों को बहका रहे हैं और उनकी चिंता किसानों के हाथ में लाल झंडों को लेकर है.

हालांकि कॉर्पोरेट मीडिया ने जोरशोर से यह प्रचारित किया कि किसानों की सभी मांगें मान ली गई हैं, मगर वास्तविकता कुछ और है. दोनों मुख्य मांगें- क़र्ज़ माफ़ी और ज़मीनों में मालिकाना हक़- ऐसी मांगें हैं जो पहले से ही विभिन्न योजनाओं और कानून के तहत पूरी की जा रही हैं, जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का मामला केंद्र सरकार के आधीन है और इस मामले में महाराष्ट्र सरकार ने केवल औपचारिक आश्वासन ही दिया है कि वह केंद्र सरकार से बात करेगी.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने हाल ही में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का आश्वासन देते हुए, फसल के लागत मूल्य से डेढ़ गुना समर्थन मूल्य सुनिश्चित बनाने की घोषणा की थी.

महाराष्ट्र में, २००६ की क़र्ज़ माफ़ी योजना के तहत चिह्नित ४६ लाख २० हज़ार किसानों में से ३५ लाख ५० हज़ार किसानों को क़र्ज़ माफ़ी योजना का लाभ मिल चुका है, १० लाख ७० हज़ार को मिलना अभी शेष है. जिन किसानों को क़र्ज़ माफ़ी योजना का लाभ नहीं मिला है उन्हें छत्रपति शिवाजी शेतकरी सम्मान योजना के तहत २००१ से क़र्ज़ माफ़ी देने की बात स्वीकार की गई है. इंदिरा गांधी वृद्धावस्था पेंशन योजना और राजीव गांधी निराधार योजना के तहत लाभ देने का काम भी पहले से जारी है.

जहां तक गुजरात को महाराष्ट्र से पानी न दिए जाने का प्रश्न है, यह संकीर्ण क्षेत्रवादी मांग खुद महाराष्ट्र सरकार के हित में है जो किसान आन्दोलन को बहाना बनाकर गुजरात को पानी की सप्लाई रोकने में रूचि रखेगी. विशेष रूप से सत्ता में भागीदार शिवसेना इस मांग के समर्थन में है और उसी के दबाव में यह मांग आन्दोलन में रखी गई है. इसके पीछे शिवसेना का मकसद, गुजरात में शासन चला रही भाजपा को दुविधा में डालकर राजनीतिक लाभ बटोरना है.

जबकि किसान यात्रा में हिस्सा ले रहे अधिकांश किसान, बहुत गरीब पृष्ठभूमि से थे मगर आन्दोलन की मांगें और उसके तरीके, संपन्न किसानों से जुड़े थे और उनके हित में थे.

फसलों और दूध के ऊंचे दाम, क़र्ज़ माफ़ी, बिजली पानी के बिलों से छूट आदि ऐसी मांगें हैं जो संपन्न किसानों के हितों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं और जिनका महाराष्ट्र में गरीब किसानों को, जो किसान वर्ग का बहुमत हैं, कोई लाभ नहीं है. वास्तव में, ये गरीब किसान न तो बाज़ार के लिए कोई उत्पादन करते हैं, न ही इन्हें क़र्ज़ मिले हैं और न ही ये ट्यूबवेलों के मालिक हैं जो बिजली या पानी खेती के लिए इस्तेमाल करते हों.

स्तालिनवादी सीपीएम से जुड़ी अखिल भारतीय किसान सभा और ऐसे ही तमाम कथित किसान संगठनों की नेतृत्वकारी समितियों में, जो संगठन और उसके नेतृत्व में आंदोलनों की रूपरेखा और मांगों को तय करती हैं, गरीब किसानों का प्रतिनिधित्व शून्य है. यह नेतृत्व गांव-शहर के मध्यम-वर्ग से आता है

आन्दोलन के तरीके भी उस पर संपन्न किसानों के प्रभुत्व को ही व्यक्त कर रहे थे. आन्दोलन का मध्यवर्गीय स्वरुप, जिसमें आयोजकों की चिंता का केंद्र किसानों के हित नहीं बल्कि मुंबई में जन-जीवन को सुचारू बनाए रखना था, मध्यवर्ग की मानसिकता और राजनीति की ही अभिव्यक्ति था. इस आन्दोलन में सरकार पर दबाव बनाने का या पूंजीवाद के प्रबंध पर चोट करने का कोई सचेत और वास्तविक प्रयास नहीं किया गया था बल्कि जानबूझकर इसे ऐसे संगठित किया गया था कि यह दबाव कम से कम रहे.

किसान यात्रा के आयोजकों के अनुमानों के विपरीत, कहीं बड़ी संख्या में किसान इस यात्रा में शामिल हुए. अधिकतम पांच हज़ार के अनुमान को पीछे छोड़ते, ४० हज़ार से भी अधिक किसान इस यात्रा में जुट गए. यह खुद आयोजकों के लिए आश्चर्य का विषय था.

यह जुटान, संजीदा राजनीतिक विचारकों के लिए, कतई अप्रत्याशित नहीं था. महाराष्ट्र में लगातार फैलते कृषि संकट के बीच किसानों में जो हताशा और आक्रोश व्याप्त है उसके चलते यह जुटान भी कम ही था. पिछले दो दशकों में समूचे भारत में कृषि संकट तेज़ी से गहराता गया है और कपास जैसी बाज़ार उन्मुख फसलों का मुख्य उत्पादक होने के नाते महाराष्ट्र उन राज्यों में शामिल है जो इस कृषि संकट के पहले शिकार हैं. यही कारण है कि किसानों की आत्महत्या में, महाराष्ट्र का नाम सबसे ऊपर है. 

१९९५ से अब तक महाराष्ट्र में ७५ हज़ार से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं. पिछले वर्ष, २०१७ में, जनवरी से अक्टूबर के बीच दस माह में ही २४१४ किसानों ने महाराष्ट्र में आत्महत्या कीं. ये सरकारी आंकड़े हैं, वास्तविक इससे कहीं अधिक हो सकते हैं. सरकार ने आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों को एक लाख रुपये प्रति परिवार मुआवजा घोषित करके अपने दायित्व की इतिश्री कर ली है. इनमें से भी अब तक सिर्फ १२७७ परिवारों को ही यह मुआवजा मिला है.

किसानों की ये आत्महत्याएं जो सीधे कृषि संकट, विशेष रूप से क़र्ज़ संकट से जुड़ी हैं, उन तमाम सरकारी क़र्ज़ माफ़ी योजनाओं और क़र्ज़ नियंत्रण कानूनों के बावजूद बदस्तूर जारी रही हैं, जिन्हें लेकर सरकारें बार-बार  लम्बे-चौड़े दावे करती रही हैं और लाखों-लाख करोड़ की धनराशियां भी इन योजनाओं की भेंट चढ़ाती रही हैं. इसका कारण है- सरकारी मशीनरी में फैला असीमित और निरंकुश भ्रष्टाचार और बुर्जुआ नौकरशाही की निष्ठुर निष्क्रियता. बड़ी संख्या में मौजूद झूठे खातों और अफसरों, कर्मचारियों तथा बिचौलियों के बीच मिलीभगत के चलते, क़र्ज़ माफ़ी योजनाओं के लिए नियत राशि का बड़ा हिस्सा, गरीब किसानों तक पहुंचने से पहले ही निगल लिया जाता है.

महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र, जिनमें राज्य के कुल ३६ जिलों में से १९ आते हैं, कृषि संकट की खुली प्रदर्शनी हैं. इन क्षेत्रों में किसानों की आत्महत्याएं, अपवाद नहीं एक रूटीन बन गई हैं. क़र्ज़ दाय अधिनियम २००८, जैसे कानून मज़ाक का विषय हैं, जो किसानों को कर्जदाताओं के चंगुल से किसी तरह मुक्त नहीं करते. बैंकों से क़र्ज़ मुक्ति की योजनाएं सिर्फ उन संपन्न किसानों को लाभ पहुंचाती हैं जिनकी पहुंच बैंकों और कर्जों तक है. गरीब किसान इससे कोसों दूर हैं.

कोई किसान संगठन इन गरीब किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता. शेतकरी किसान संगठन, भारतीय किसान यूनियन और अखिल भारतीय किसान सभा जैसे तमाम संगठन, संपन्न किसानों के नियंत्रण में हैं और उन्ही का प्रतिनिधित्व करते हैं. इन गरीब किसानों को, जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत शोचनीय है, जिन्हें ये संगठन, यात्रा और रैली कर सरकारों पर दबाव बनाने और अपने लिए रियायतें हासिल करने के लिए, सिर्फ तोप के चारे की तरह इस्तेमाल करते हैं.

स्वतंत्र किसान संगठनों और आंदोलनों का चरित्र ऐसा ही होगा. वे संपन्न संस्तरों के ही हितों का प्रतिनिधित्व करेंगे और गरीबों को मूर्ख बनाकर किसान आन्दोलन के नाम पर सिर्फ झंडे उठवाएंगे और पैदल मार्च कराएंगे. ये संगठन पूंजीवाद की व्यवस्था से मजबूती से बंधे हैं और उसके अभिन्न अंग हैं. गरीब किसानों के हित इन ‘किसान सभाओं’ से पूरे नहीं हो सकते. उन्हें अपने अलग संगठन बनाने होंगे और मुख्यतः जमीनों के सामूहिकीकरण और रोजगार की मांग के लिए संघर्ष करना होगा. यह संघर्ष वे सिर्फ शहरी और ग्रामीण सर्वहारा के साथ मिलकर, उसके नेतृत्व में ही संगठित कर सकते हैं. भारत में मौजूद कृषि संकट का हल, ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसानों के इस सांझे संघर्ष में ही निहित है, जिसका उद्देश्य पूंजीवाद का ध्वंस है.

महज़ क़र्ज़ माफ़ी योजनाएं, कृषि संकट का हल नहीं हो सकतीं जब तक उस तंत्र को ध्वस्त नहीं किया जाता जिससे कृषि संकट पैदा हुआ है. यह तंत्र खुद पूंजीवाद है. पिछड़े देशों में पूंजीवाद के विकास और अ-विकास दोनों के परिणाम घातक हैं, विशेष रूप से शहरी और उससे भी अधिक ग्रामीण गरीबों के लिए, जो इन दो पाटों के बीच बुरी तरह पिस रही है. तमाम क़र्ज़ माफ़ी योजनाओं के चलते, ग्रामीण गरीबों की तबाही, मौतें और आत्महत्याएं बदस्तूर जारी है. ये मौतें और आत्महत्याएं, अपने अंतर्य में, पूंजीवाद द्वारा की जा रही सामूहिक, जघन्य, हत्याएं ही हैं.

पिछले ७० सालों का इतिहास गवाह है कि पूंजीपतियों के नियंत्रण वाली सरकारों द्वारा किए गए तमाम सुधार, योजनाएं और कानून व्यर्थ रहे हैं. उनसे सिर्फ बिचौलियों, दलालों और अफसरों, कर्मचारियों का हितसाधन हुआ है. 

विडम्बना है कि जिस राज्य में भारतीय पूंजीवाद का केंद्र और वाणिज्यिक राजधानी मुंबई मौजूद है, जिस राज्य में, अडानी-अम्बानी जैसे देश और दुनिया के सबसे अमीर पूंजीपति रहते हैं, उसी राज्य में दुनिया के सबसे गरीब, विपन्न किसान भी रहते हैं.

यह विडम्बना कोई अपवाद नहीं है बल्कि पूंजीवाद का सामान्य नियम है. पूंजीवाद के एक छोर पर बेपनाह अमीरी और दौलत है तो दूसरे  पर अथाह गरीबी, अभाव और विपन्नता का दौरदौरा. अंतर्विरोधों और विपरीत ध्रुवों के इस बेमेल जोड़ का नाम ही पूंजीवाद है.

करोड़ों किसानों की मुक्ति का रास्ता कृषि संकट के हल में है और कृषि संकट का, पूंजीवाद के ध्वंस के अतिरिक्त और कोई हल नहीं है. इसलिए किसानों की मुक्ति, पूंजीवादी सुधारों में नहीं, पूंजीवाद के सचेत विनाश में निहित है. मगर किसान, जो पूंजीवाद का उत्पाद नहीं है बल्कि उसके अतीत से आयातित उत्पादक समूह है, ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से उस युगांतरकारी शक्ति से वंचित है जो पूंजीवाद को मिटाकर उसे मुक्त कर सकती है. क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में संगठित होकर ही किसान-वर्ग उस सामाजिक उत्तोलक की भूमिका अदा कर सकता है, जो पूंजीवाद को जड़ से उखाड़ फेंके.

इस अर्थ में, भारत के व्यापक देहात में फैले, कृषि संकट का हल, बड़े शहरों में सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच संघर्ष के परिणाम पर निर्भर करेगा और यह परिणाम अपने आप में शहरी सर्वहारा के साथ उसके देहाती हिस्सों और उनके साथ गरीब किसानों के मजबूत गंठबंधन और पूंजीवाद के विरुद्ध सचेत संघर्ष पर निर्भर करेगा, जिसका  फौरी उद्देश्य, पूंजीपतियों की सत्ता को उखाड़ फेंककर, मजदूर वर्ग के अधिनायकत्व में मजदूर-किसान सरकार का गठन है. 

इस संघर्ष और उसकी सफलता के लिए पहली जिम्मेदारी खुद मजदूर-वर्ग के कंधे पर आ जाती है कि वह भारत में उस कृषि-क्रान्ति के नेता के रूप में सामने आए जो दक्षिण एशिया में जनवादी कार्यभारों का अनिवार्य और प्रमुख हिस्सा है. इसके लिए मजदूर वर्ग और युवाओं के अग्रणी तत्वों को सतत क्रान्ति के उस कार्यक्रम से सशस्त्र किए जाने की जरूरत सर्वोपरि है, जो अक्टूबर क्रान्ति की धुरी था और जो दक्षिण एशिया में सर्वहारा क्रान्ति के जनवादी और समाजवादी कार्यभारों को एक अटूट लड़ी में पिरोता है.

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