Wednesday 28 March 2018

झारखण्ड विधानसभा में, राज्यसभा के लिए हुए मतदान ने, स्तालिनवादियों को नंगा किया!

- अनुराग पाठक एवं राजेश त्यागी/ २९.३.२०१८

झारखण्ड विधानसभा से राज्यसभा की दो सीटों के लिए, इस सप्ताह हुए मतदान में, स्तालिनवादी वाम की दो पार्टियों, भाकपा माले और मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) के एकल विधायकों द्वारा किए गए कुटिल मतदान ने, सीधे भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में संतुलन बना दिया.

राजधनवार से माले के विधायक राजकुमार यादव और निरसा से मासस के अरूप चटर्जी पर भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में कुटिलता से वोट प्रयोग करने और उनकी जीत में मदद पहुंचाने के सीधे आरोप के बाद, इन दोनों विधायकों ने अपने फ़र्जी स्पष्टीकरण रखे.

जहां माले विधायक ने इसे वोट डालने में ‘गलती’ बताते हुए अपना बचाव किया, मासस विधायक ने इससे इंकार करते हुए और भी हास्यास्पद खुलासा किया कि उसने अपना वोट, भाजपा नहीं, कांग्रेस के धीरज प्रसाद साहू के पक्ष में दिया था.

चटर्जी ने राष्ट्रपति और मुख्य निर्वाचन अधिकारी को अपना वोट सार्वजनिक करने के लिए आवेदन भी किया है. यह जानते हुए भी कि विधायक का वोट सार्वजनिक करने का अधिकार सिर्फ विधानसभा अध्यक्ष का है, चटर्जी ने जानबूझकर उसे अब तक कोई निवेदन नहीं दिया है.

वोट भाजपा को डाला जाय या कांग्रेस को, यह पूंजीवाद के पक्ष में ही वोट है और इन दोनों में कोई अंतर नहीं है. दोनों ही स्थिति में यह वोट, अडानी-अम्बानी के नेतृत्व वाली पूंजीवाद की व्यवस्था को मज़बूत करता है और उसके राजनीतिक संकट को हल करता है. सभी स्तालिनवादी पार्टियां, दशकों से फासीवाद से लड़ने के नाम पर इसी तरह बुर्जुआजी के कथित ‘जनवादी’ विंग के साथ चिपकी हुई पूंजीवाद को सहारा दे रही हैं. भाजपा विरोध के नाम पर वे कांग्रेस, राजद, सपा, बसपा जैसी पार्टियों के साथ मोर्चे बनाकर, मज़दूरों, युवाओं, मेहनतकशों को उनके पीछे बांधती आ रही हैं.

झारखण्ड में हुए इस क्रॉस-वोटिंग का किस्सा तो इससे भी आगे निकल गया है. यहां माले और मासस जैसी स्तालिनवादी पार्टियों ने वोट के लिए कांग्रेस से सौदा पटाया था लेकिन उनके विधायकों ने भाजपा से अलग से सौदा पटा लिया. इन दोनों ने ही भाजपा से सांठ-गांठ कर, इस तरह वोट डाला कि वह रद्द हो जाए और भाजपा प्रत्याशी को उसका लाभ मिल जाए.

विधायकों द्वारा वोटिंग के पीछे तथ्य और मंशा कुछ भी हो मगर एक बात स्पष्ट है कि माले और मासस, स्तालिनवादी वाम की दोनों ही पार्टियों ने, राज्यसभा चुनाव के लिए, कांग्रेस के साथ सांठ-गांठ की थी.

क्रान्तिकारी राजनीतिक दृष्टि से, दो विधायकों द्वारा भाजपा के साथ अलग से सांठ-गांठ और कुटिल मतदान और भाजपा प्रत्याशी की जीत इतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी स्तालिनवादी वाम की पार्टियों, माले और मासस द्वारा बुर्जुआ दक्षिणपंथ की पार्टियों के साथ गुप्त गठजोड़ महत्वपूर्ण है.

बुर्जुआजी के कथित जनवादी और फासीवादी, दोनों ही हिस्से, मजदूर वर्ग और समाजवाद के शत्रु हैं और एक दूसरे के बहुत निकट हैं. फासीवाद, बुर्जुआ जनवाद का ही अगला पायदान है. इस स्थिति में फासीवाद के विरोध के नाम पर बुर्जुआ विपक्ष से चिपकी हुई, स्तालिनवादी वाम की पार्टियां, सर्वहारा को धोखा दे रही हैं और पूंजीवाद के सत्ता प्रतिष्ठान को दृढ़ता और संतुलन दे रही है.

स्तालिनवादी पार्टियों का समूचा इतिहास, बुर्जुआ पार्टियों, नेताओं के साथ मिलीभगत और दलाली का और मजदूर वर्ग तथा क्रान्ति से गद्दारी का इतिहास है.

भाकपा माले, नक्सलबाड़ी के भगोड़ों की पार्टी है जिसने नक्सलबाड़ी से घात करते, उसके विरुद्ध संसदवाद की राह पकड़ी है. इससे पहले भी बिहार में उसके छह में से पांच विधायक ९० के दशक के शुरू में ही लालू प्रसाद से सौदा पटाकर माले छोड़ उससे जा मिले थे. झारखण्ड विधानसभा चुनावों में माले नेताओं ने कांग्रेस से सौदा किया मगर इसके विधायक ने भाजपा से सांठ-गांठ कर ली.

भाकपा माले और मासस जैसी छोटी स्तालिनवादी पार्टियां, अपने समर्थकों को धोखा देने और अपना मुंह उजला करने के लिए, सीपीआई, सीपीएम जैसी बड़ी स्तालिनवादी पार्टियों की इस नीति का विरोध करती रही हैं कि भाजपा से लड़ने के नाम पर कांग्रेस की पूंछ पकड़ी जाय. मगर झारखण्ड विधानसभा में इस मतदान ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये पार्टियां भी राजनीतिक रूप से सीपीआई, सीपीएम से कम दिवालिया नहीं हैं. इनकी नीति भी उतनी ही बोगस और अवसरवादी है. रंग-बिरंगे झंडों, बैनरों और लफ्फाजी के बावजूद, सभी स्तालिनवादी पार्टियों की घोषित-अघोषित नीति बुर्जुआजी के एक हिस्से के खिलाफ दूसरे का समर्थन करने की ही नीति है.

यह नीति, स्टालिन नीत उस कुत्सित नीति का सिलसिला है जिसे लागू करते हुए स्टालिन ने च्यांग काई शेक, हिटलर, चर्चिल, आइजनहावर और ट्रूमन जैसे क्रांतिविरोधी बुर्जुआ नेताओं के साथ जन-विरोधी गठजोड़ कायम किए थे और क्रान्ति को रसातल में उतारा था.

स्टालिनवाद की दूसरी पैरोकार, मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस), धनबाद आधारित एक घोर अवसरवादी,  व्यक्ति-केन्द्रित और दक्षिणपंथी संगठन है जिसका जड़ें झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जैसे संकीर्ण जातिवादी, क्षेत्रवादी आन्दोलन से जुड़ी हैं और जिसका कोई राजनीतिक कार्यक्रम तक नहीं है.

मासस का संस्थापक और नेता, अरुण कुमार रॉय, १९६६ से १९७१ तक स्तालिनवादी सीपीएम से जुड़ा था. नक्सलबाड़ी संघर्ष के दौरान, जबकि सीपीएम नक्सलबाड़ी पर दमन में साझीदार थी, रॉय सीपीएम के साथ रहा. इस जुड़ाव के दौरान, सीपीएम की मदद से उसने १९६७ और १९६९ के विधानसभा चुनाव जीते. नक्सलबाड़ी के कुचले जाने के बाद, रॉय ने, १९७१ में, ‘फ्रंटियर’ में, सीपीएम की नीति को उचित और नक्सलबाड़ी को अनुचित ठहराते हुए, ‘वोट और क्रान्ति’ शीर्षक से एक अवसरवादी और धूर्ततापूर्ण लेख लिखा. मगर इस लेख के अर्थ और अंतर्य को न समझते हुए, सीपीएम नेताओं ने रॉय को पार्टी से निकाल दिया.

सीपीएम से अलग होने के बाद उसने १९७१ में जनवादी संग्राम समिति बनाई जो स्थानीय जातिवादी, क्षेत्रवादी आंदोलनों के बीच जगह तलाशती रही. १९७२ में फिर से विधानसभा चुनाव जीतने के बाद रॉय ने इसे मार्क्सवादी समन्वय समिति में विकसित कर दिया. इसके शीर्ष नेताओं में अव्वल दर्जे के अवसरवादी शामिल थे. इनमें से कृपा शंकर महतो, बाद में सीधे कांग्रेस में शामिल हुआ. हाल ही में, भाजपा के पक्ष में मत प्रयोग करने वाले मासस विधायक अरूप चटर्जी के पिता, गुरुदास चटर्जी, के खिलाफ भी भ्रष्टाचार और सांठ-गांठ के चौंकाने वाले प्रमाण मिले थे, मगर किसी कार्रवाई से पहले ही वर्ष २००० में उसकी हत्या हो गई.

१९७३ में, तेज़ी से, और भी दक्षिणपंथ की ओर घूमते हुए ए.के. रॉय ने ‘सोनत संथाली समाज’ और ‘शिवाजी समाज’ जैसे संकीर्ण जातिवादी संगठनों के नेताओं, शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो से हाथ मिला लिया और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का संगठन किया. इस मोर्चे का कुल कार्यक्रम, बिहार को विभाजित करके, एक स्वायत्त झारखण्ड राज्य की स्थापना की प्रतिक्रियावादी मांग पर आधारित था, जो झारखण्ड की नवोदित बुर्जुआजी के आर्थिक-राजनीतिक हितों को अभिव्यक्त करती थी.

झामुमो बाद में कांग्रेस और कांग्रेस-विरोधी, गुटों में बंटता चला गया, जिसमें अरुण कुमार रॉय के नेतृत्व वाले गुट ने, दक्षिणपंथी जनता पार्टी से निकटता बनाई.

१९७७ में मासस नेता, अरुण कुमार रॉय ने जनता पार्टी के सहयोग से धनबाद से सांसद का चुनाव जीता और फिर १९८० और १९८९ में भी क्षेत्रवादी, दक्षिणपंथी समूहों की मदद से यह चुनाव जीता.

झामुमो बाद में कुख्यात सांसद रिश्वत काण्ड में, कांग्रेस से करोड़ों की रिश्वत लेकर केंद्र में उसकी सरकार के पक्ष में लोकसभा में मतदान करने के लिए नंगा हुआ. बाद में झामुमो भाजपा के निकट चला गया.

दूसरी तमाम स्तालिनवादी पार्टियों की तरह ही, मासस और इसके नेताओं का पूरा इतिहास, राजनीतिक अवसरवादिता और संसदवाद की दलदल में कीच-क्रीड़ा का शर्मनाक इतिहास है.

माले और मासस, दोनों स्तालिनवादी पार्टियां, बुर्जुआजी के वाम-पक्ष की पार्टियां हैं और उसके साथ मजबूती से बंधी हैं. जनवाद और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर  इन पार्टियों ने मज़दूरों, उत्पीड़ितों, युवाओं को, बुर्जुआ पार्टियों और नेताओं के मातहत करने  का काम किया है. पिछले आठ दशकों के दौरान, जर्जर पूंजीवाद, अपने पैरों पर नहीं, बल्कि मजदूर वर्ग के इन घातियों की बैसाखियों के सहारे खड़ा रहा है.  

पूंजीवाद की दलाल ये पार्टियां और इनके नेता, भारत में ‘दो चरण की क्रान्ति’ और ‘राष्ट्रीय समाजवाद’ के समर्थक हैं. वे सर्वहारा अन्तर्रष्ट्रीयता और सतत क्रान्ति के कार्यक्रम के घोर विरोधी हैं जिस पर अक्टूबर क्रान्ति आधारित थी.

स्टालिनवाद के झूठे मेंशेविक कार्यक्रम पर खड़ी ये पार्टियां, हाथों में लाल झंडे उठाए, मजदूर वर्ग को धोखा दे रही हैं. इनके नेताओं का भ्रष्ट और कुत्सित आचरण, अपने आप में कोई विचलन नहीं है, बल्कि इन पार्टियों की बोगस मेन्शेविक-स्तालिनवादी राजनीति की निरंतरता और उसकी तार्किक परिणति है. ये नेता और उनके प्रभाव वाली पार्टियां, पूंजीवाद के स्थायी स्तम्भ बन चुकी हैं जिन्हें ढहा देना, क्रान्ति को गति देने की अनिवार्य शर्त है.

स्तालिनवादियों की समूची राजनीति इस सूत्र के गिर्द संगठित है कि भाजपा सत्ता में है तो उसे हटाने के नाम पर और सत्ता से बाहर है तो उसे सत्ता लेने से रोकने के नाम पर, मज़दूरों, मेहनतकशों, युवाओं को, बुर्जुआ  विपक्ष की दूसरी तमाम दक्षिण-वाम,  प्रतिक्रियावादी पार्टियों के पीछे स्थायी रूप से बांध कर रखा जाय और इस तरह हर स्थिति में, सर्वहारा की राजनीतिक स्वतंत्रता और किसी भी स्वतंत्र पहलकदमी को, नष्ट कर दिया जाय. आठ दशकों से जारी, स्तालिनवादियों की इस घृणित नीति का परिणाम, फासीवादियों द्वारा सत्ता पर कब्ज़े के रूप में हमारे सामने है.

हम इस बात से इंकार करते हैं कि बुर्जुआ विपक्ष की पार्टियों की पूंछ थामकर, उन्हें समर्थन देकर, उनके लिए वोट करके, किसी भी तरह फ़ासीवाद से लड़ा जा सकता है. फ़ासीवाद, संकट में घिरे पूंजीवाद का आतंकी सामाजिक आन्दोलन है. यह पूंजीवाद से ही पैदा होता है और उसी के साथ नष्ट होगा. इसलिए किसी भी पूंजीवादी पार्टी या नेता को समर्थन, फासीवाद को कमज़ोर नहीं, बल्कि और मज़बूत करेगा. फासीवाद के विरुद्ध एकमात्र सामाजिक शक्ति, सर्वहारा है. उसे धुरी बनाकर, करोड़ों-करोड़ मेहनतकशों को पूंजीवाद-विरोधी संघर्ष में गोलबंद करके ही फासीवाद को चुनौती दी जा सकती है.

फासीवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष का तमाम विमर्श निराधार और अर्थहीन होगा जब तक वाम शिविर के भीतर, पूंजीवाद के ये क्रीतदास डेरा जमाए हुए हैं. ये क्रान्तिघाती नेता कभी भी युवाओं और सर्वहारा को पूंजीवाद के विरुद्ध निर्णायक मोर्चा नहीं खोलने देंगे और उसे पूंजीपतियों के एक या दूसरे हिस्से, उसके नेताओं और पार्टियों के पीछे बांधे रखेंगे. इसलिए क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों का पहला और सर्वोपरि कार्यभार, इन झूठे नेताओं को वाम शिविर से खदेड़ बाहर करना है.

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