Thursday 27 July 2017

बिहार में राजनीतिक संकट, बूर्ज्वा जनवाद के स्थायी संकट का हिस्सा है!

- राजेश त्यागी/ २७.७.२०१७


बिहार के मुख्यमंत्री नितीश ने राजद-जदयू गठबंधन तोड़ते हुए त्यागपत्र दे दिया. बिहार में इस गठबंधन के टूटने से भाजपा के विरुद्ध देशव्यापी विपक्षी गठबंधन की बची-खुची संभावनाएं और धूमिल हो गईं.

नितीश के त्यागपत्र का फौरी उद्देश्य, प्रतिपक्षी राजद और उसके नेता लालू यादव को किनारे लगाना और भाजपा नीत केंद्र सरकार के साथ पटरी बिठाना है. नितीश द्वारा त्यागपत्र की घोषणा के चंद घंटों के भीतर ही भाजपा ने बिहार में न सिर्फ नितीश को समर्थन बल्कि सांझी सरकार की घोषणा कर दी. यह संदेह से परे है कि नितीश ने लम्बे समय से भाजपा से सांठगांठ की थी और नई सरकार के लिए रास्ता साफ़ कर लिया था.


जदयू इससे पहले भी भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक मोर्चे का घटक रह चुकी है. भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को अपने नेता के रूप में चुनने के बाद, नितीश ने यह कहते हुए मोर्चे से जदयू को अलग कर लिया था कि मोदी उन्हें राष्ट्रीय मोर्चे के नेता के रूप में स्वीकार नहीं हैं. इस अस्वीकृति का कारण मोदी का कलुषित सांप्रदायिक अपराधिक इतिहास था जिसमें उस पर २००२ में गुजरात में मुस्लिम विरोधी सामूहिक हत्याकांड का आपराधिक षड्यंत्र रचने का दोष लगाया गया था. उसी मोदी के नेतृत्व में नितीश ने फिर से भाजपा का हाथ थाम लिया और सहयोगी राजद से विग्रह कर लिया.

राजद और जदयू के बीच यह विग्रह अपेक्षित ही था चूंकि दोनों पार्टियां बिहार में एक दूसरे का सफाया करने के लिए लम्बे समय से उत्सुक और तत्पर रही हैं. दोनों पार्टियों के विगत गठबंधन का उद्देश्य शुरू से ही सत्ता पर अपने नियंत्रण को सुदृढ़ करना और एक-दूसरे को कमज़ोर करना था. कभी कांग्रेस विरोध और कभी भाजपा विरोध के बैनर तले मजमा लगाने वाले नितीश और जदयू में उनके दूसरे साथियों का उद्देश्य जिस किसी तरह सत्ता पर काबिज़ रहना है.

नितीश के इस कदम ने किसी को भी चकित नहीं किया. विपक्ष की सांझी उम्मीदवार, मीरा कुमार के मुकाबिल राष्ट्रपति चुनाव में, भाजपा उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन देकर नितीश ने पहले ही अपना रुख स्पष्ट कर दिया था. सोनिया गांधी के निर्देश पर विपक्ष को साधने में लगे स्तालिनवादी नेता सीताराम येचुरी की लाख कोशिशों के बावजूद नितीश ने विपक्ष को धता बता दिया. पिछले वर्ष भी नितीश ने इसी तरह नोटबंदी के प्रश्न पर मोदी सरकार का समर्थन करके इसके विरुद्ध विपक्ष की लामबंदी को पलीता लगा दिया था.

भाजपा से सौदेबाज़ी करके विपक्ष को एकजुट होने से रोकने वालों में मुलायम और मायावती जैसे नेता सबसे आगे रहे हैं. राष्ट्रपति चुनाव में मुलायम ने तो कोविंद को समर्थन दिया ही, मायावती ने भी इस पर एडियां रगड़ते हुए अंतिम क्षण में ही कदम पीछे हटाया.

नितीश के इस्तीफे के साथ ही बिहार में सरकार के पुनर्गठन के लिए कवायद तेज़ हो गई है. जहां भाजपा-जदयू विधानसभा सदन में १२२ की वांछित संख्या से मामूली बढ़त होते हुए भी सौदेबाज़ियों के खेल से आशंकित हैं वहीं राजद और कांग्रेस में बिखराव भी कोई दूर की गोटी नहीं है.

कुटिल उठापटक की यह राजनीति, ‘सिद्धान्तहीन’ या ‘अवसरवादी’ नहीं है, जैसा संत-पूंजीवाद के स्वप्नद्रष्टा हमें विश्वास दिलाते हैं, बल्कि पूंजीवाद के सेवकों के बीच बिरादराना संघर्ष है. इस संघर्ष के बावजूद, ये नेता और इनकी पार्टियां मिलकर पूंजीवाद की सांझी सेना का निर्माण करते हैं और उन उद्देश्यों के प्रति जी-जान से समर्पित हैं जो पूंजीवाद और उसके लूट और शोषण के ताने-बाने को कायम रखते हैं. क्रान्ति, समाजवाद और मजदूर वर्ग के प्रति ये सभी वैर और घृणा से लबरेज़ हैं.

भाजपा नेता अरुण जेटली के अनुसार, नितीश से पहले लालू यादव भाजपा के साथ इसी तरह की सौदेबाज़ी करने के लिए प्रयासरत थे और नितीश सरकार को गिराने के एवज़ में अपने और अपने परिवार के सदस्यों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुक़दमे बंद करने की मांग कर रहे थे. भ्रष्टाचार के ये मामले लालू परिवार की हजारों करोड़ की अवैध, अकूत संपत्ति की जांच से जुड़े हैं. जेटली के आरोप को दरकिनार भी करें तो भी इससे तस्वीर बदलती नहीं है.

जातिवाद-क्षेत्रवाद की प्रतिक्रियावादी शक्तियों पर टिकी राजद और जदयू दोनों दक्षिणपंथी बुर्जुआ पार्टियों और इनके नेताओं का काला इतिहास, हर तरह के अवसरवादी समझौतों, कुटिल चालों, जनविरोधी अपराधों और घातों से भरा पड़ा है. दोनों ही गरीबों, पिछड़ों, दलितों की राजनीति करने का दावा करती हैं, लेकिन दोनों ही गरीबों को जाति-बिरादारी में विभाजित कर उन्हें पूंजी की राज्य व्यवस्था के पीछे बांधती हैं और इस सेवा के एवज़ में दोनों पार्टियों के नेता गरीबों, दलितों, मज़दूरों के शोषण पर टिकी इस व्यवस्था में अपने लिए तमाम सुख-सुविधा सुरक्षित करते हैं जिनके बारे में गरीब सोच भी नहीं सकते.

भाजपा से सांठगांठ कर नितीश ने लालू के असीमित भ्रष्टाचार को अपनी कुटिल राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हुए उसका खुलासा किया. उधर लालू ने नितीश के आपराधिक इतिहास से पर्दा उठा दिया. अपराध और भ्रष्टाचार के मामले में राजद और जदयू दोनों ही चोटी की पार्टी हैं. दोनों ही पार्टियों की कतारों में ऊपर से नीचे तक उन अपराधियों, भ्रष्टाचारियों का प्रभुत्व है जिन्होंने बिहार की मेहनतकश जनता की बेतहाशा लूट और शोषण में पूंजीपतियों की दलाली की है. इसका अर्थ यह नहीं है कि शेष पूंजीवादी पार्टियां राजद-जदयू से किसी अर्थ में भिन्न हैं. भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा सभी पार्टियां जनविरोधी शातिर अपराधियों और लफंगों के गिरोह ही हैं.

आश्चर्य नहीं कि राजद और जदयू दोनों ही जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया जैसे झूठे और लफ्फाज़ समाजवादियों की विरासत से अपना रिश्ता जोड़ते हैं जिन्होंने अपने समय में मज़दूरों, किसानों को बुर्जुआ लोकतंत्र के पीछे बांधकर उसके सबसे विकट दौर में राजनीतिक संकट से उबारा था और जिसके लिए पूंजीवाद के पुरोधा आज भी उनके प्रति कृतज्ञ हैं.

नितीश के त्यागपत्र के तुरंत बाद छद्म-मार्क्सवादी नेताओं ने हमेशा की तरह मोर्चे संभाले. उन सबने मिलकर, गठबंधन तोड़ने के लिए नीतीश को कोसते हुए, राजद और जदयू के बीच अंतर तलाशने शुरू किए.

स्तालिनवादी भाकपा-माले जो बिहार के जातिवादी समीकरणों से पटरी बिठाए, लालू और उसकी राजद से बहुत निकटता से जुड़ी रही है, ने तुरंत ही बयान जारी कर नितीश के त्यागपत्र की आलोचना करते हुए नितीश के त्यागपत्र को बिहार में जनादेश से धोखा बताया. इसका स्पष्ट अर्थ है कि भाकपा-माले के आंकलन में अब तक बिहार में पूंजीपतियों-ज़मींदारों के दलालों, नितीश-लालू की, जनविरोधी नहीं बल्कि जनादेश की सरकार चल रही थी. इसी राजद के नेता शहाबुद्दीन ने भाकपा-माले के छात्र नेता चंद्रशेखर की नृशंस हत्या की थी. नितीश द्वारा गठबंधन को बिखेरन की आलोचना करते, सीताराम येचुरी ने इसे जनवाद पर आघात कहा है जो फासीवाद के खिलाफ एकता को कमज़ोर करेगा. ठीक ऐसी ही प्रतिक्रिया शेष स्तालिनवादी पार्टियों, नेताओं की तरफ से भी आई है जिन्होंने एक स्वर में नितीश की आलोचना करते हुए त्यागपत्र को जनादेश से घात घोषित किया है.

बिहार, भारत में सबसे गरीब और मेहनतकश आबादी वाला राज्य है, जहां प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और तमाम संसाधनों का आज भी घोर अभाव है. राज्य की इस स्थिति के लिए राजद और जदयू सहित वे सभी पूंजीवादी पार्टियां और नेता जिम्मेदार हैं जिन्होंने पटना और दिल्ली में एक के बाद एक दक्षिणपंथी सरकारें कायम कीं और बिहार के प्राकृतिक और मानव संसाधनों का भरपूर दोहन करने में पूंजीपतियों की मदद की.


पूंजीपति वर्ग के इन टहलुओं के मौजूदा सत्ता संघर्ष से मजदूर वर्ग और मेहनतकशों का कुछ लेना देना है तो सिर्फ यह कि इस कलह और भंडाफोड़ों का लाभ उठाकर पूंजीपतियों के शासन के विरुद्ध संघर्ष को और तीखा और व्यापक बनाया जाना चाहिए और उसे चुनौती देने के लिए शोषित जन-समुदायों की लामबंदी को और तेज़ किया जाना चाहिए.

बिहार में राजनीतिक संकट, बूर्ज्वा जनवाद के स्थायी संकट का हिस्सा है! इस संकट ने बुर्जुआ जनवाद को उसकी ऐतिहासिक नियति की ओर एक कदम और आगे धकेल दिया है. 


पूंजीवाद का संकट, सबसे पहले और सबसे ऊपर पूंजी की राजसत्ता के संकट में अभिव्यक्त होता है. १९८९ के बाद, बुर्जुआ जनवाद की कोई एक पार्टी केंद्र में अकेले सरकार नहीं बना सकी. राष्ट्रीय स्तर पर तो क्या, अकेले राज्यों में भी शासन को स्थिर रखना कठिन हो रहा है. इस स्थिरता के लिए पूंजीपतियों को फासीवादियों का सहारा लेना पड़ रहा है. फासीवादी पूंजीवाद के उन अंतर्विरोधों को जिन्होंने पूंजीवाद को पूरी तरह अस्थिर कर दिया है लुप्त नहीं कर सकते सिर्फ उन्हें अस्थायी रूप से ओझल ही कर सकते हैं.  

हमें झूठे वामी नेताओं, जिनमें स्तालिनवादी प्रमुख हैं, के इन दावों को सिरे से ख़ारिज करना चाहिए कि लालू-नितीश जैसे भ्रष्ट, चरित्रहीन, ठगों और मसखरों के साथ मोर्चे बनाकर फासीवाद को कोई कारगर चुनौती दी जा सकती है.

फासीवाद के विरुद्ध हमारा संघर्ष हर स्थिति में पूंजीवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष का अभिन्न अंग है जिसका अर्थ है कि यह संघर्ष लालू-नितीश जैसे पूंजीवाद के भ्रष्ट दलालों के साथ मिलकर नहीं बल्कि उनके विरुद्ध लड़ा जाना है. यह संघर्ष मजदूर वर्ग की मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व में मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता के शहरी और देहाती हिस्सों को लामबंद कर लड़ा जाना है, जिसका स्पष्ट उद्देश्य है- मज़दूर-वर्ग के अधिनायकत्व में मज़दूर-किसान सरकार की स्थापना. 

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