Thursday 27 July 2017

माओवादियों से हमारे मतभेदों के प्रश्न पर

-राजेश त्यागी/ ९.५.२०१०
अनुवाद- कल्पेश डोबरिया 

माओवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष में हम सबसे पहले यह स्वीकार करते हैं कि कई ऐसे ईमानदार और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता, माओवादी आंदोलन से जुड़े हैं, जो अपने चारों ओर व्याप्त और निरंतर हो रहे अन्याय को खत्म करने की इच्छा से अनुप्रेरित हैं। लेकिन साथ ही हम यह जोड़ना चाहते हैं कि सिर्फ ऐसी प्रेरणाएं, समाज के क्रान्तिकारी रूपांतरण के लिए पर्याप्त नहीं हैं, और वे सामाजिक वास्तविकताओ की गंभीर एवं वैज्ञानिक समझ के विकास का कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं कर सकतीं।

स्टालिनवाद के चीनी संस्करण, माओवाद में, क्रांतिकारी मार्क्सवाद जैसा कुछ नहीं है। स्तालिनवादियों के साथ मिलकर, उन्होंने पिछड़े देशों में युवाओ और मज़दूरो की पीढ़ियों को गलत शिक्षा देकर दिग्भ्रमित किया है तथा उन्हें क्रांति के पथ पर आगे बढ़ने से रोका है।

यहां हम माओवाद से अपने मतभेदों और दृष्टिकोण को क्रमशः और संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं:

माओवादियों के खिलाफ़ विवाद में, हमारा पहला और सबसे महत्वपूर्ण विभेद उनकी वर्ग उन्मुखता, विशेषतः उनकी राष्ट्र-उन्मुख राजनीति से संबंधित है। अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद के खिलाफ़ वे उस राष्ट्रवादी आधार से लड़ने का संकल्प करते हैं, जहां से अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद यानि साम्राज्यवाद का आविर्भाव हुआ है, और जिसकी सीमाओ का, पूंजीवाद बहुत पहले ही उल्लंघन कर चुका है। सर्वहारा नीति, यानि वित्तीय पूंजी की आर्थिक नीति को, साम्राज्यवाद को, सर्वहारा का उत्तर, लोकतंत्र और मुक्त व्यापार की राष्ट्रीय नीति, उनकी स्थापना या उन्हें बहाल करना नहीं हो सकता, बल्कि पूंजीपति-वर्ग का स्वामित्वहरण करके, पूंजीवाद को ख़त्म करके, सभी प्रकार की प्रतिस्पर्धाओं के पूर्ण उन्मूलन में ही निहित हो सकता है।

माओवादी, प्रतिक्रियावादी हैं, क्योंकि वे मुक्त प्रतियोगिता पर आधारित लोकतंत्र की ओर वापस जाने का प्रस्ताव करते हैं, और इस तरह, साम्राज्यवाद द्वारा उत्पन्न, समाजवाद की ओर अग्रसर शक्तियों से हाथ मिलाने और उन पर विश्वास करने के बजाय, वे, विकसित पूंजीवाद, साम्राज्यवाद से पीछे की ओर कदम हटाते हैं।

माओवादी, सतत-क्रांति की रणनीति, जिस पर 1917 की रूसी क्रांति आधारित थी, के उग्र विरोधी हैं, जिसके दो पहलू हैं: पहला यह कि अपने दृष्टिकोण और दिशा में वे राष्ट्रवादी हैं; और दूसरा कि वे क्रांति के दो चरणों के मेन्शेविक-स्तालिनवादी सिद्धांत की वकालत करते हैं। मानवजाति के एक उत्पादन प्रणाली से दूसरी में संक्रमण की मार्क्स की रूपरेखा की यांत्रिक समझ पर आधारित यह बोगस अवधारणा दावा करती है कि विश्व के सभी हिस्से और देश समान सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विकास से गुजरेंगे, और इसलिए, विलम्बित पूंजीवादी विकास वाले देशो में, समाजवादी क्रांति इनके एजंडे पर नहीं हैं. उलटे इनका लक्ष्य बुर्जुआ-जनवादी क्रांति संपन्न करना है।
हमारी दृष्टि में, ऐसे देशो में, जहां पूंजीवाद का विकास देर से हुआ, मुख्यतः औपनिवेशिक और अर्ध-औपनिवेशिक देशो में, जनवाद और राष्ट्रीय मुक्ति प्राप्त करने के हमारे कार्यभारो का पूर्ण और वास्तविक समाधान, केवल सर्वहारा तानाशाही के ज़रिए ही हो सकता है।

न सिर्फ कृषि-संबंधी, अपितु राष्ट्रीय प्रश्न में भी, वे पिछड़े देशों में आबादी के भारी बहुमत, किसानो के लिए जनवादी क्रांति में विशेष स्थान निर्धारित करते हैं। यद्यपि पिछड़े देशों में किसानों की राजनीतिक संहति निर्णायक महत्व रखती है,परन्तु वह न तो नेतृत्वकारी हो सकती है, न ही स्वतंत्र। किसान या तो पूंजीपतियों का या फिर सर्वहारा का अनुसरण करेंगे। इन देशो में चूंकि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के पास निभाने के लिए कोई क्रांतिकारी भूमिका नहीं है, किसानों के साथ सर्वहारा के सहबंध के बगैर जनवादी क्रांति के कार्यभारो को हल करना तो दूर, संजीदगी से उनका निरूपण तक नहीं किया जा सकता। किन्तु इन दो वर्गों के बीच सहबंध, किसानों पर नेतृत्व के लिए, राष्ट्रीय उदार बुर्जुआजी के खिलाफ़ सर्वहारा के अनम्य संघर्ष के अतिरिक्त अन्य किसी तरीके से स्थापित नहीं हो सकता।

क्रांति के परिघटनात्मक और आनुषांगिक चरण अलग अलग देशों में जो भी हों, इससे इस बात को  कोई फर्क नहीं पड़ता कि सर्वहारा और किसानों के बीच क्रांतिकारी सहबंध की स्थापना, केवल कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में, संगठित सर्वहारा हरावल के राजनीतिक नेतृत्व में, ही हो सकती है। सर्वहारा तानाशाही, जिसकी नींव किसानों के साथ सहबंध पर टिकी होगी और जो सर्वप्रथम जनवादी क्रांति के सभी कार्यभारो को हल करेगी, के ज़रिए ही, जनवादी क्रांति में विजय हासिल हो सकती है।

विश्व-क्रान्ति का उपरोक्त विन्यास, स्तालिनवादी कोमिन्टर्न के कार्यक्रम द्वारा प्रस्तुत, उस पंडिताऊ और निष्प्राण वर्गीकरण को जो दुनिया के देशों को समाजवाद के लिए परिपक्व या अपरिपक्व, दो श्रेणियों में बांटता है, ध्वस्त कर देता है। पूंजीवाद ने वैश्विक स्तर पर एकीकृत उत्पादक शक्तियों, वैश्विक श्रम-विभाजन, और विश्व बाज़ार को जन्म देकर, विश्व अर्थतंत्र को, उसकी समग्रता में, समाजवाद में संक्रमण के लिए परिपक्व बना दिया है।

अलग-अलग राष्ट्र, इस प्रक्रिया से अलग-अलग गति से गुजरेंगे। पिछड़े देशों में, कुछ निश्चित परिस्थितियों में, सर्वहारा, उन्नत देशों की अपेक्षा, अपनी तानाशाही जल्दी स्थापित कर सकता है, किन्तु समाजवाद का निर्माण वे उन्नत देशों की अपेक्षा विलम्ब से कर सकेंगे। जिन पिछड़े औपनिवेशिक या अर्द्ध-औपनिवेशिक देशों में, सर्वहारा, किसानो को एकजुट करते हुए सत्ता हाथ में लेने के लिए पर्याप्त रूप से तैयार नहीं है, वहां, इसलिए, वह जनवादी क्रांति संपन्न करने में भी असमर्थ है। इसके विपरीत, जिस देश में, जनवादी क्रांति के परिणामस्वरूप सत्ता सर्वहारा के हाथ आ जाती है, समाजवाद और सर्वहारा तानशाही का भाग्य, अंतिम विश्लेषण में, केवल राष्ट्रीय उत्पादक शक्तियों पर निर्भर नहीं होगा, बल्कि सर्वप्रथम वह अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी क्रांति के विकास पर निर्भर होगा।

माओवादियों ने सशस्त्र संघर्ष को क्रांतिकारी कारवाई के प्रथम सिद्धांत के रूप में विकसित किया है। मार्क्सवाद, दूसरी ओर, सर्वप्रथम और सर्वोपरि एक सशक्त क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का तकाज़ा करता है, जिसका पहला कार्यभार है, सर्वहारा की वर्ग-चेतना को ऊपर उठाना। यह बोल्शेविक और जर्मन क्रांतिकारी आन्दोलन, दोनों के दौरान दृष्टिगोचर होता है, जिन्होंने अविरत और अथक राजनीतिक कार्य के ज़रिए सफलतापूर्वक सर्वहारा के व्यापक क्रांतिकारी आंदोलन खड़े किये थे। सर्वहारा को अपने एतिहासिक मिशन का एहसास दिलाने के क्रम में, उसकी वर्ग-चेतना ऊपर उठाने के लिए, कठिन राजनीतिक संघर्ष चलाना, मार्क्सवादियों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यभार है।

माओवाद का एक दुखद परिणाम यह भी है कि उसने सशस्त्र संघर्ष पर आधारित विभिन्न क़िस्म के निम्न-बुर्जुआ आंदोलनो को जन्म दिया है। मार्क्सवादियों के लिए हथियारों के उपयोग का प्रश्न तब तक नहीं उठता, जब तक जनता मनोगत रूप से क्रांति के लिए तैयार नहीं होती, जिसके लिए पूंजीवाद के वस्तुगत अंतर्विरोधों की परिपक्वता, और प्रभावपूर्ण, वर्ग-चेतन क्रांतिकारी हरावल का संगठन दोनों अनिवार्य हैं। आवश्यक परिपक्व समय से पहले हथियारों का प्रयोग, अनिवार्यतः हमें दुस्साहसवाद की ओर ले जाएगा, जो निम्न-बुर्जुआ आंदोलनो का लक्षण है।

माओवादी, यदि पूर्ण रूप से नहीं तो मोटे तौर पर, ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रो तक  सीमित, अपने दीर्घकालीन जन-युद्ध के लिए, किसानो पर निर्भर रहते हैं. क्रांतिकारी मार्क्सवादी यह अच्छी तरह जानते हैं कि किसान, जो पिछड़े देशो में उत्पीड़ित जनता का एक बड़ा हिस्सा है, क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा, मगर ग्रामीण इलाकों में पूंजीवादी संबंधों की गहरी पैठ के साथ तेज सामाजिक विभेदन के दौर से गुजरते तथा पुरातन उत्पादन-प्रणाली पर आधारित एक विषम सामाजिक समूह के रूप में मौजूद किसान, अपनी अवस्थिति के कारण, एक स्वतंत्र और सुसंगत क्रांतिकारी भूमिका निभाने में असमर्थ है और विश्व के पिछड़े देशों में पिछली शताब्दी में हुए कई क्रांतिकारी किसान संघर्ष, कई बार इसकी पुष्टि भी कर चुके हैं। अधिकतर मामलों में, माओवादी आंदोलन, संभ्रांत वर्गों के विभिन्न हिस्सों के साथ छद्म कार्यनीतिक सहबंध बनाते हुए, अलग-अलग जमींदारों और अन्य ग्रामीण शोषको के खिलाफ ख़ूनी मुहिमों तक सीमित हो, राजनीतिक पतन का शिकार हो चुके हैं। मार्क्सवादी वर्ग-विश्लेषण जोर देता है कि मजदूर वर्ग, आधुनिक, वैश्विक स्तर पर संगठित उत्पादन से उत्पन्न और सम्पत्तिहीन वर्ग, दोनों ही  रूप में, अपनी स्थिति की हैसियत से, सुदृढ़ क्रांतिकारी वर्ग है, जिसका ऐतिहासिक मिशन, पूंजीवाद को और उसके वर्ग-शासन को समग्रता में उखाड़ फेंकना है।

किसान, अनिवार्यतः या तो सर्वहारा या फिर बुर्जुआ और निम्न-बुर्जुआ वर्ग के संघात का अनुसरण करता है। माओवादियों ने व्यवहारतः शहरी विस्तार में, सर्वहारा से पूरी तरह पीठ फेरे रखी है, और खुद को ग्रामीण सशस्त्र संघर्ष तक सीमित रखा है। मजदूर वर्गस्तालिनवादी पार्टियों के प्रभाव के अधीन रहा है, जिसने स्पष्ट रूप से मजदूर वर्ग को बार-बार राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के अधीन करते हुए उसके जरिए अंतरराष्ट्रीय पूंजी के पीछे बाँध दिया है। व्यवहार में, बुर्जुआजी के प्रति स्टालिनवादियों की यह वफ़ादारी, क्रांति के उस दो-चरणों वाले मेन्शेविक सिद्धांत से निकलती है, जो क्रांति के प्रथम चरण के दौरान सचेतन रूप से मज़दूर वर्ग को, राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के अधीन कर देता है।सोवियत संघ में स्टालिनवादी ब्यूरोक्रेसी के उभार ने, बोल्शेविक अंतर्राष्ट्रीयतावाद के स्थान पर स्टालिनवादी-मेन्शेविक राष्ट्रवाद को स्थापित किया था। पिछड़े देशों में, पुरानी कम्युनिस्ट पार्टियां, जो इस स्टालिनवादी विरासत के कारण, राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के लिए एक वाम-आलम्ब के रूप में, उभरीं, वे अब विश्व पूंजीवादी बाज़ार के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराने की दिशा में नव-उदारवादी सुधारवादी कार्यक्रम पर अमल के लिए, राष्ट्रीय बुर्जुआजी को खुलकर सहायता प्रदान कर रही हैं। स्टालिनवादी पार्टियों को कोसते हुए भी, माओवादी, व्यवहार में, अपना पूरा ध्यान केवल सशस्त्र किसान संघर्ष की ओर लगाते हैं और सर्वहारा को संसदीय स्टालिनवादी पार्टियों के पीछे बंधने के लिए छोड़ देते हैं।

किसानो के प्रति माओवादियों की यह उन्मुखता, पिछड़े देशों में भावी क्रांति के कार्यभार और अंतर्य के प्रति उनकी मेन्शेविक-स्टालिनवादी धारणा पर टिकी है। इस तथ्य को आधार बनाकर कि जातिवाद और जमींदारी के उन्मूलन सहित बुर्जुआ-जनवादी क्रांति के प्रमुख कार्यभारो को संपन्न नहीं किया गया है, माओवादी तर्क देते है कि समाजवादी क्रांति से पहले एक नव-जनवादी क्रांति को पूरा किया जाना चाहिए और इस क्रांति के लिए, प्रमुख क्रांतिकारी शक्ति, किसान, है। मगर अक्तूबर क्रान्ति ने सकारात्मक रूप से, तथा दक्षिण एशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों को सत्ता के हस्तांतरण के साथ इन देशों में साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति के दमन ने, नकारात्मक रूप से, हमें दिखा दिया कि साम्राज्यवाद के युग में जनवादी क्रांति के कार्यभार केवल तभी पूरे हो सकते हैं, जब मजदूर वर्ग, जनवादी चरण को समाजवादी चरण में अंतर्गुन्थित करती हुई और विश्व समाजवादी क्रांति के अभिन्न अंग के रूप में अपनी अवस्थिति के प्रति सचेत, सर्वहारा क्रांति में, किसानों का नेतृत्व करे।

१४) स्तालिनवाद ने, 'एक देश में समाजवाद' के सिद्धांत के चलते, समाजवाद को, राष्ट्रीय आर्थिक विकास के सिद्धांत के रूप में घटा दिया, जिसने सोवियत संघ में मज़दूर वर्ग से बलात सत्ता हड़पने वाली, विशेषाधिकार प्राप्त नौकरशाही के हितों की सेवा की। राष्ट्र-राज्य की सीमाओं में समाजवाद को साकार करना असंभव है और यह, सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के अन्य देशों के स्पष्ट और दुखद पतन द्वारा, एवं अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के लिए सस्ते श्रम के साधक के रूप में, चीनी स्टालिनवादियों के शासन की परिणति के द्वारा, स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया है। ट्रॉट्स्कीवादियों के लिए इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं, क्योंकि विश्व-क्रांति के पुनःप्रवर्तन और ब्यूरोक्रेसी के विरुद्ध राजनीतिक क्रांति की अनुपस्थिति के चलते, सोवियत संघ के मामले में इस प्रकार के परिणाम की अनिवार्यता का, १९३० के दशक में ही, ट्रॉट्स्की ने, शानदार ढंग से पूर्वानुमान लगा लिया था।

'एक देश में समाजवाद' और क्रांति के 'दो चरण के सिद्धांत'- दोनों का समर्थन करते हुए, माओवादियों ने, मार्क्सवाद के साथ स्टालिन के सैद्धांतिक विश्वासघात के प्रति, अपनी पूर्ण सहमति की घोषणा की। वे सोवियत संघ में स्तालिनवादी शासन के अपराधिक राजनीतिक इतिहास, जिसमें झूठे और फर्जी मास्को मुकदमों में बोल्शेविक नेतृत्व का सामूहिक विनाश, शुद्धिकरण की मुहिम और ट्रॉट्स्की की हत्या शामिल है, का समर्थन करते हैं। कोमिन्टर्न की उन नीतियों का भी उन्होंने स्वागत किया, जो १९३० के दशक में मजदूर वर्ग को एक के बाद एक विनाशकारी पराजय की ओर ले गयीं, जिसमें 'जन-मोर्चे' के नाम पर स्पैनिश क्रांति का गला घोंट दिया जाना और नाज़ीवाद के सामने जर्मन मज़दूर वर्ग को विखंडित कर दिया जाना भी शामिल है। पूरे विश्व में औपनिवेशिक आंदोलनों का नेतृत्व, कथित ‘राष्ट्रवादी और प्रगतिशील’ पूंजीपति वर्ग के हवाले कर देने के लिए स्तालिनवाद जिम्मेदार है। पूंजीपतियों के प्रति सर्वहारा आंदोलन की इस प्रकार की अधीनता ही है, जिसने १९२६-२७ में चीन में और बाद में १९६५ में इंडोनेशिया में मज़दूरों के भीषण हत्याकांड और दक्षिण एशिया में १९४७ में ब्रिटिश भारत की स्वतंत्रता और विभाजन के साथ पुनर्गठित पूंजीवादी व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण को संभव बनाया।

भारत, नेपाल या लैटिन अमेरिका में माओवादियों की मौजूदा राजनीति और कथित चीनी रास्ते के बीच हमें कोई मौलिक अंतर दिखाई नहीं देता। किसान-आधारित दीर्घकालीन जन-युद्ध की ओर माओ की दिशा, उन दुखद पराजयों के साथ व्यावहारिक संलयन थी जिन्हें १९२५-२७ के बीच, स्तालिनवादी कोमिन्टर्न की बोगस नीतियों के तहत पूंजीवादी कोमिनतांग के समक्ष चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की अधीनता के चलते, चीनी क्रांति को झेलना पड़ा। १९२० के दशक में रूस में स्टालिनवाद के सुदृढ़ीकरण का, सबसे त्वरित प्रभाव, चीनी क्रान्ति के विकास पर पड़ा। स्टालिन के नेतृत्व वाले कोमिन्टर्न ने, न केवल बुर्जुआ च्यांग-काई-शेक के साथ एक सहबंध का समर्थन किया, यहां तक कि ‘किसान अंतर्राष्ट्रीय’ बनाकर च्यांग को उसका सम्मानित अध्यक्ष बनाया, बल्कि चीनी  कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को, कम्युनिस्ट पार्टी में अपनी सदस्यता कायम रखते व्यक्तिगत रूप से कोमिनतांग में सदस्यता लेने पर बाध्य किया. इस नीति ने कोमिनतांग के वर्ग-चरित्र और क्रान्ति में उसकी भूमिका को लेकर बहुत भ्रम फैला दिया   और कम्युनिस्ट पार्टी की सैद्धांतिक और संगठनात्मक शक्ति पर गहन प्रभाव डाला।

१९२२ से १९२७ के बीच मजदूर वर्ग के एक बड़े उभार का नेतृत्व करते, कम्युनिस्ट पार्टी ने शहरों में बड़ी शक्ति हासिल कर कर ली थी। किन्तु अप्रैल १९२७ में, शांघाई मज़दूरों के कई उभारों के तुरंत बाद कोमिनतांग ने अपने सहयोगियों से मिलकर, कम्युनिस्ट पार्टी और मजदूर चौकियों को नृशंस हमलों का निशाना बनाया, जिसका परिणाम था- भीषण नरसंहार। स्तालिनवादी कोमिन्टर्न की बोगस नीतियों के चलते, कम्युनिस्ट पार्टी को इस आकस्मिक हमले के विरुद्ध कारगर प्रतिरक्षा के लिए, या इसका पूर्वानुमान लगाने के लिए तैयार नहीं किया गया था. मजदूर वर्ग को खून में डुबोकर कोमिनतांग शहरों में सुदृढ़ हुआ और उसने कम्युनिस्ट पार्टी को भूमिगत और ग्रामीण क्षेत्रों की ओर धकेल दिया. 

कोमिनतांग के प्रति कम्युनिस्ट पार्टी की अधीनता का माओ डटकर समर्थन करता रहा  और जोर देता रहा कि कोमिनतांग के प्रति कम्युनिस्ट पार्टी की यह अधीनता, १९२७ के बाद भी सही थी. वह कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर, किसान छापामार युद्ध पर आधारित नयी नीति के पक्षधर के रूप में उभरा। १९२७ में चीनी क्रांति की पराजय, कदापि अनिवार्य नहीं थी। ट्रॉट्स्की और उनके सहयोगियों ने, मज़दूर वर्ग की राजनीतिक स्वतंत्रता पर जोर देते हुए, साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के प्रति पूंजीपति वर्ग के अवश्यम्भावी विश्वासघात के विरुद्ध जनता को तैयार करने की आवश्यकता पर, आधारित, एक पूरी तरह विपरीत दिशा के लिए संघर्ष किया। इस प्रश्न ने, स्टालिन-गिरोह के विरुद्ध ट्रॉट्स्की और वाम-विपक्ष में उनके सहयोगियों के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो १९२० के दशक के दौरान चीन में घटनाक्रम का विश्लेषण करते हुए, ट्रॉट्स्की द्वारा लिखे गए उत्कृष्ट लेखों और भाषणों के रूप में संग्रहित हैं।

कोमिनतांग शासन के पतन, और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी में संगठित सशस्त्र किसानों के आधार पर कम्युनिस्ट पार्टी की शक्ति में वृद्धि का, दूसरे विश्व-युद्ध के बाद के माहौल की रौशनी में, जहां विश्व पूंजीपति वर्ग को, स्टालिन के तहत रूस से या माओ के तहत चीन से, अपनी सत्ता के लिए कोई ख़तरा नज़र नहीं आता, आलोचनात्मक विश्लेषण किये जाने की ज़रूरत है। क्रांतिकारी सर्वहारा की विश्व-पार्टी के तौर पर लेनिन और ट्रॉट्स्की द्वारा संगठित कोमिन्टर्न को स्टालिन ने पहले शक्तिहीन और बाद में, १९४३ में, भंग कर दिया। यहां हम कुछ बुनियादी बिंदुओं पर गौर करें। जब तक माओ कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष पर बना रहा, बीजिंग शासन ने स्तालिनवाद के मूलभूत अवयवों का प्रदर्शन किया: मजदूर आन्दोलन के किसी भी स्वतंत्र संगठन का क्रूर दमन, प्रचंड राष्ट्रवाद, आर्थिक क्षेत्र में अवसरवाद और अनियंत्रित अराजकता के बीच विलोडन, जो कथित 'लम्बी छलांग’ और 'सांस्कृतिक क्रांति' के मामले में परिलक्षित हुआ। बीजिंग शासन ने कभी भी एक क्रांतिकारी अंतरराष्ट्रीय बनाने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किये। बल्कि, विश्व-स्तर पर, उसने, पैंतरेबाज़ी से काम लिया, जो पाकिस्तानी तानाशाही के साथ उसके गठजोड़ के दृष्टान्त में स्पष्ट रूप से दिखता है। इस शासन ने, पूंजीवाद की पुनर्स्थापना  की ओर मोड़, निक्सन के तहत वाशिंगटन के साथ माओ की घनिष्ठता के चलते, खासकर वियतनाम युद्ध के समय, लिए था।

 माओवाद, उस स्टालिनवाद का ही एक संस्करण है, जो खुद, विश्व क्रांति में लगातार विलम्ब और पराजयों के परिणामस्वरूप एक पिछड़े देश में, जो अभी सामंतवाद की विरासत से पीछा छुड़ाने के प्रयास ही कर रहा था, सर्वहारा राज्य के अलगाव के परिणामस्वरूप, सोवियत संघ में सत्ता में आयी नौकरशाही द्वारा जनित विचारधारा है। इस नौकरशाही ने, सोवियत संघ में मार्क्सवादी प्रवृत्तियों और मजदूर वर्ग के अग्रिम हिस्सों के क्रूर दमन के जरिए अपना शासन सुदृढ़ किया और विश्व साम्राज्यवाद के साथ गठबंधन के उद्देश्य से, मजदूर वर्ग के संघर्ष को साजिशों और दमन का शिकार बनाकर, अपने विशेषाधिकारों की सुरक्षा की तथा सोवियत संघ में अंततोगत्वा पूंजीवाद की पुनर्स्थापना कर दी।

माओवाद को, जिस सीमा तक स्टालिनवाद से अलग समझा जा सकता है, वह किसान और सशस्त्र संघर्ष के महिमामंडन, गंभीर विश्लेषण की जगह नारेबाज़ी, और बौद्धिकता-विरोधी अपने रुझान के मामले में ही दिखाई देता है। १९४९ में माओ और कम्युनिस्ट पार्टी की जीत ने, सभी प्रकार के निम्न-पूंजीवादी हिस्सों को यह तर्क देने के लिए प्रोत्साहित किया कि अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग से इतर शक्तियों के भरोसे, समाजवाद हासिल करना संभव है। इस तरह के भ्रमपूर्ण विश्लेषण ने, चौथे इंटरनेशनल के भीतर भी, काफी हानियों, विभाजनों और भ्रमों को जन्म दिया।

बुर्जुआ संसद के रणनीतिक बहिष्कार की माओवादी नीति के ठीक विपरीत, समाजवादियों के लिए, पूंजीवादी संसद, न केवल धोखेबाजो और उनके प्रच्छन्न छलपूर्ण सौदों, जो पूंजीवादी राजनीति में हर रोज़ की घटना है, को बेनकाब करने के लिए एक साधन प्रदान करती है, बल्कि मजदूर वर्ग और अन्य दमितों के हितों का सशक्त रूप से पक्ष रखने के लिए भी, एक राष्ट्रीय मंच प्रदान करती है। वास्तव में, कानूनी कार्य, बड़े पैमाने पर जन-आंदोलन के निर्माण के लिए राजनीतिक मंच प्रदान करेगा, जिसका अंतिम लक्ष्य सत्ता प्राप्ति है। इस प्रकार की शक्तियों के निर्माण से पहले सशस्त्र संघर्ष की सभी बाते या वकालत, हमें दुस्साहसवाद ओर ले जाती हैं और जनवादी अधिकारों के दमन को उचित ठहराने के लिए पूंजीपति वर्ग को बहाने मुहैया कराते हुए, वास्तव में, स्वतंत्र सर्वहारा पार्टी के निर्माण और उसके घनीभूत होने की प्रक्रिया को पीछे घसीटती हैं। बुर्जुआ संसद के बहिष्कार या उसे उखाड़ फेंकने का अधिकार पाने के लिए, हमें, पूंजीवादी शासन के विरुद्ध, मजदूर वर्ग और उसके पीछे किसानों को लामबंद करने के लिए, सक्षम होना चाहिए।

माओवाद से हमारा विरोध, मूलभूत चरित्र का है और बुर्जुआ संसद में हिस्सेदारी या उसके बहिष्कार के बारे में उनकी मान्यता से परे और काफी आगे जाता है। उपरोक्त बिंदुओं के अतिरिक्त, हम यह भी जोड़ना चाहते हैं कि माओवादी, एक प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण की वकालत करते हैं जो समाजवाद को, विपन्नता के सामान वितरण  के रूप में समझता है और श्रम उत्पादकता के विकास पर कोई जोर नहीं देते जिसे पूंजीवाद ने पहले ही हासिल कर लिया है. जैसा कि मार्क्स ने गहन निरीक्षण कर प्रस्थापना दी कि समाजवाद का निर्माण, अभाव के आधार पर आगे नहीं बढ़ सकता, बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था के संसाधनों और श्रम उत्पादकता के उच्चतम स्तर के इस्तेमाल से, आर्थिक उत्पादन को बढ़ाकर ही, संभव है।

मूल अंग्रेजी लेख के लिए देखें: http://workersocialist.blogspot.in/2010/05/our-viewpoint-on-maoism.html#more

No comments:

Post a Comment