Monday 16 February 2015

आर.सी.एल.आई के गप्प-शास्त्र के उत्तर में दो शब्द

- रामेश्वर दत्त/ १६.२.२०१५   

स्तालिनवादी-माओवादी पार्टियां, अज्ञान और झूठ की नींव पर खड़े रहकर, युवा कार्यकर्ताओं को गुमराह करती आई हैं. रूस, चीन और तमाम दूसरी क्रांतियों में सफलताओं-असफलताओं की इन्ही झूठी और मनगढ़ंत व्याख्याओं पर आधारित प्रचार के जरिये इन्होने कई पीढ़ियों को भ्रमित किया है. 

शशि/ कात्यायनी की रेवोलुशनरी कम्युनिस्ट लीग ऑफ़ इंडिया (आर.सी.एल.आई), जो ‘जनचेतना प्रकाशन’, ‘प्रतिबद्ध’(पंजाबी), ‘दिशासंधान’(हिंदी), आह्वान, मजदूर बिगुल, अरविन्द ट्रस्ट, अनुराग ट्रस्ट, और ऐसे दर्जनों व्यावसायिक ट्रस्टों, प्रकाशनों के नाम से सक्रिय है, झूठ और प्रपंच के इस खेल में सबसे आगे है.

दिसंबर ३०, २००९ के ‘मजदूर बिगुल’ नाम के अखबार में शशि प्रकाश ने ‘सत्यप्रकाश’ के नाम से स्टालिन का महिमामंडन करते, उसके जन्मदिन पर, एक लेख लिखा- “जोसेफ स्टालिन: क्रांति और प्रतिक्रांति के बीच की विभाजक रेखा”. यह लेख एक ओर तो निरर्थक मनोगत लफ्फाजी और दूसरी ओर ऐतिहासिक तथ्यों के मिथ्याकरण का क्लासिकीय उदाहरण है.

खालिस लफ्फाजी से शुरूआत करते हुए, लेख की प्रस्तावना में मजदूर बिगुल  लिखता है: "यह अफसोस की बात है कि आज आम घरों के नौजवानों और मज़दूरों में से भी बहुत कम ही ऐसे हैं जो स्तालिन और उनके महान कामों और विश्व क्रान्ति में उनके योगदान के बारे में जानते हैं। बुर्जुआ कुत्सा प्रचार के चलते बहुतों के मन में झूठी धारणाएँ बैठी हुई हैं। बहुतेरे प्रगतिशील बुद्धिजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ता भी निरन्तर और चौतरफा बुर्जुआ प्रचार के कारण पूर्वाग्रह ग्रस्त और भ्रमित हैं। लेकिन क्रान्तिकारी आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि स्तालिन को ठीक से समझा जाये और सही पक्ष में खड़ा हुआ जाये। स्तालिन का नाम और उनके काम क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के बीच की विभाजक रेखा बन चुके हैं।"

आम घरों के नौजवानों और मजदूरों को महान स्टालिन के बारे में अनभिज्ञता के लिए कोसने के बाद, ज्ञानवान लेखक अपने ज्ञान का परिचय देना शुरू करता है. लेखक लिखता है: “इन दिनों रूस में जगह-जगह स्तालिन की मूर्तियाँ लगायी जा रही हैं।" 

शुक्र है कि लेखक ने स्टालिन की मूर्तियों को देवालय में स्थापित नहीं कराया, मूर्तियां बनाकर ही रुक गया! क्रान्ति का दमन कर, सोवियत संघ में कुलकों और ब्यूरोक्रेसी की मदद से सत्ता-हड़प करने वाले स्टालिन के प्राधिकार पर लहालोट लेखक यह भूल जाता है कि मूर्तिमान होना सांस्कृतिक-राजनीतिक पतन का प्रतीक है, न कि उत्कर्ष का. मगर सत्ता और प्राधिकार के साथ खड़ा रहने को लालायित और उठापटक के कुत्सित खेल में विजेता स्टालिन के साथ जुड़कर अपना कद ऊंचा करने को उत्सुक, इस लेखक को तो बस स्टालिन के चारण-गान से मतलब है!

स्टालिन की लगभग दिव्य शक्ति का बखान करते लेखक लिखता है, “उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया और फिर साइबेरिया निर्वासित कर दिया गया। लेकिन 1904 में वे साइबेरिया के निर्वासन से पुलिस को चकमा देकर निकल आये और फिर से मज़दूरों को संगठित करने में जुट गये।" 

हालांकि लेखक यह नहीं बताता कि कितनी बार गिरफ्तार किया गया, चूंकि इस बारे में परस्पर अंतर्विरोधी किम्वदंतियां खुद स्टालिन ने ही प्रचारित की थीं. कई बार गिरफ्तार करने पर भी, हर बार स्टालिन पुलिस को कैसे चकमा दे सका? स्टालिन के अनुसार, जाली पासपोर्टों के सहारे! मगर जाली पासपोर्ट बनाने के लिए जो तकनीक और सामग्री चाहिए थी वह साइबेरिया में उपलब्ध ही नहीं थी. वास्तव में, बोल्शेविक नेताओं में रैमन मैलिनोवसकी के अलावा जारशाही पुलिस का दूसरा एजेंट स्टालिन ही था. मैलिनोव्सकी का भंडाफोड़, अनायास ही हुआ था, जबकि स्टालिन एक्सपोज़ नहीं हो पाया. हर बार जारशाही पुलिस 'ओखराना' उसे निर्वासित कराती थी और फिर 'भागने' की नौटंकी, जिससे स्टालिन, क्रान्तिकारी होने का छल-छद्म बनाये रखता था.

लेख कहता है, “1905 की असफल रूसी क्रान्ति के दौरान और उसके कुचले जाने के बाद स्तालिन प्रमुख बोल्शेविक भूमिगत और सैनिक संगठनकर्ताओं में से एक थे।“ 

कोरा झूठ! हमारे लेखक महोदय सम्भवतः यह नहीं जानते कि न तो १९०५ के दौरान और न उसके बाद ही स्टालिन के पास पार्टी के भीतर, बाहर कोई प्रमुख सैनिक जिम्मेदारी थी.
लेखक आगे लिखता है: “पार्टी से जुड़ने के समय ही स्तालिन ने समझ लिया था कि लेनिन ही क्रान्ति के मुख्य सैद्धान्तिक नेता हैं और पार्टी के भीतर चलने वाले वैचारिक संघर्षों में वे हमेशा पूरी मज़बूती के साथ लेनिन की सही लाइन के पक्ष में खड़े रहे। 1912 में उन्हें केन्द्रीय कमेटी में चुना गया।“ 

यहाँ लेखक अपने दिवालियेपन का पूरा खुलासा कर देता है. क्या किसी “नेता” के पीछे मजबूती से खड़े भर रहना कोई राजनीतिक उपलब्धि कही जा सकती है? यहां लेखक अपनी इस कूपमंडूकता का भी हमें परिचय देता है कि लेनिन की ‘लाइन’ ही हमेशा सही लाइन थी. जबकि इतिहास हमें बताता है कि हर महत्वपूर्ण मामलों में बोल्शेविक नेतृत्व दो नहीं, कई गुटों में बंटा रहता था और कितनी ही बार लेनिन अल्पमत में थे. फरवरी १९१७ में, रूसी क्रांति के सबसे महत्वपूर्ण मोड़ पर स्टालिन, लेनिन के विरोधी शिविर में ही था.
स्टालिन को इंगित करते हुए, लेखक का दावा है कि, “उनके प्रेरक नेतृत्व और कुशल सेनापतित्व में सोवियत जनता ने हिटलर की फासिस्ट फौजों को मटियामेट करके दुनिया को फासीवाद के कहर से बचाया।“

यहां लेखक अपने पाठकों को यह नहीं बताता कि अगस्त १९३९ में हिटलर से युद्ध संधि करके उसे यूरोप में रास्ता देने वाला स्टालिन ही था. इस संधि के जरिये स्टालिन ने न सिर्फ यूरोप बल्कि अफ़्रीकी राज्यों को भी हिटलर से मिलकर हड़प जाने की योजना बनाई थी. इस संधि के तहत हिटलर को न सिर्फ लाखों पूद अनाज, बल्कि लाखों बैरल तेल भी दिया गया, जिसके बिना नाज़ी फौजों का आगे बढ़ना असंभव था. पोलैंड को दबोचने में स्टालिन ने हिटलर को सीधी मदद दी और उसकी जीत पर बधाई सन्देश भी दिया. हिटलर के सत्ता में आने से ठीक पहले भी स्टालिन के नेतृत्व वाली जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी ने हिटलर को ‘रेड रेफ्रेंदम’ के जरिये खुला सहयोग दिया था. स्टालिन की इन बोगस नीतियों की मदद के बिना हिटलर का सत्ता में आना या यूरोप में जीत हासिल करना लगभग असंभव होता.  

लेख कहता है “क्रान्तिकारी होने का दावा करने वाली रूस की ज्यादातर पार्टियों ने यह कहना शुरू कर दिया कि रूसी सर्वहारा वर्ग अभी इतना कमज़ोर और पिछड़ा हुआ है कि वह राजनीतिक सत्ता नहीं सँभाल सकता। उनकी दलील थी कि सर्वहारा को अभी नयी बुर्जुआ सरकार का समर्थन करना चाहिए और पूँजीवादी विकास को आगे बढ़ाने में मदद करनी चाहिए। समाजवादी क्रान्ति अभी भविष्य की बात है। बोल्शेविकों के भीतर भी इस तरह के विचार घुसपैठ कर गये थे। मार्च में कैद से छूटकर स्तालिन जब केन्द्रीय कमेटी के निर्देश पर सेण्ट पीटर्सबर्ग में काम सँभालने आये तो उन्होंने पाया कि पार्टी के भीतर तीख़ा आन्तरिक संघर्ष जारी है। उन्होंने लेनिन का पक्ष लिया कि मज़दूर वर्ग को तत्काल समाजवादी क्रान्ति की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। स्तालिन को बोल्शेविकों के अख़बार प्रावदाकी ज़िम्मेदारी सौंपी गयी और उन्होंने इस विचार को व्यापक अवाम के बीच ले जाने के लिए अख़बार का बख़ूबी इस्तेमाल किया।“

यहाँ लेखक, फरवरी १९१७ में मौजूद राजनीतिक मतभेदों पर अपने घोर अज्ञान का परिचय देता है. जो नेता सर्वहारा को कमज़ोर और अस्थायी बूर्ज्वा सरकार को शक्तिशाली बता रहे थे, उनमें मेंशेविकों के साथ-साथ बोल्शेविक नेताओं में खुद स्टालिन प्रमुख था. इस झूठी प्रस्थापना के विरुद्ध, लेनिन की चिट्ठियों को प्रावदा में न छापने वाला स्टालिन ही था. लेनिन के रूस लौटने के बाद जब लेनिन की “अप्रैल थीसिस” का विरोध हुआ तो स्टालिन विरोधियों के पाले में था. बाद में पार्टी के अन्दर और बाहर, सचेत मजदूरों और ट्रोट्स्की, स्वेर्द्लोव जैसे नेताओं के समर्थन से जैसे-जैसे लेनिन का पलड़ा भारी होता गया, बोल्शेविक नेता पासा बदलते गए. इनमें स्टालिन भी शामिल था.

शशि प्रकाश का यह आदर्श नेता, जोसेफ स्टालिन, दोयम दर्जे का नेता था और उसकी यह चारित्रिक विशेषता थी कि वह कभी किसी राजनीतिक बहस में हिस्सा नहीं लेता था, बल्कि किनारे बैठ जाता था और फिर चुपचाप जीतने वाले के पीछे-पीछे हो लेता था. 

इसके आगे लेखक स्तालिनवादी जहालत पर उतर आता है और जिनोविएव, कामेनेव और रीकोव पर आरोप लगता है कि उन्होंने “बुर्जुआ अखबारों को बता दिया” “बुर्जुआ पार्टियों से गुप्त समझौता किया”. लेख कहता है: “....और अक्टूबर में जब केन्द्रीय कमेटी ने फैसला कर लिया कि सेण्ट पीटर्सबर्ग के मज़दूर और सैनिक उसके नेतृत्व में शीत प्रासाद पर धावा बोलकर सर्वहारा सरकार की स्थापना करेंगे तो कई बुद्धिजीवी नेताओं को इससे बड़ी परेशानी हुई। ये लोग क्रान्ति की बातें तो करते रहे थे लेकिन शायद उन्हें उम्मीद नहीं थी कि एक वास्तविक क्रान्तिकारी परिस्थिति उनके सामने खड़ी हो जायेगी। इनमें से दो, ज़िनोवियेव और कामेनेव ने तो बुर्जुआ अख़बारों को बता दिया कि बोल्शेविक सत्ता पर कब्ज़ा करने की गुप्त योजना बना रहे हैं। सत्ता पर कब्ज़े के बाद केन्द्रीय कमेटी के एक और सदस्य राइकोव ने इन दोनों के साथ मिलकर बुर्जुआ पार्टियों से गुप्त समझौता किया जिसके तहत बोल्शेविक सत्ता से इस्तीफा दे देते, प्रेस फिर से बुर्जुआ वर्ग के हाथों में सौंप दिया जाता और लेनिन को कोई भी पद नहीं सँभालने दिया जाता। लेकिन उनकी एक न चली।“ 

फरवरी १९१७ में शीर्ष बोल्शेविक नेताओं के बीच वास्तविक मतभेदों, और ज़िनोविएव, कामेनेव और रीकोव के विचारों, और उनकी भूमिका पर कालिख पोतते, लेखक यह नहीं बताता कि ये सभी नेता अक्टूबर क्रांति के बाद लेनिन के मंत्रिमंडल में दायें-बाएं के सर्वोच्च नेता थे. वे क्रांति-विरोधी नहीं थे, बल्कि पुराने बोल्शेविक फ़ॉर्मूले “दो चरण की क्रांति” से चिपके थे, जिसे लेनिन ने अप्रैल थीसिस में खारिज कर दिया था. यह लेखक की बिलकुल मनगढ़ंत गप्प है कि रीकोव ने ज़िनोविएव और कामेनेव से मिलकर क्रांति के बाद बुर्जुआ पार्टियों से गुप्त समझौता किया. 

इसी गप्प शास्त्र को आगे बढाते, लेखक कहता है कि, "अक्टूबर क्रान्ति के बाद चले लम्बे गृहयुद्ध के दौरान स्तालिन एक दृढ़निश्चयी, कुशल और प्रेरक सैन्य नेता के रूप में उभरे। त्रात्स्की लाल सेना का प्रमुख था लेकिन मज़दूरों और आम सिपाहियों पर भरोसा करने के बजाय वह ज़ारशाही फौज के अफसरों को अपनी ओर मिलाने और उन्हें क्रान्तिकारी सेना की कमान सौंपने की कोशिशों में ज्यादा समय ख़र्च करता था। जनता के जुझारूपन और साहस पर भरोसा करने के बजाय वह तकनीक पर ज्यादा यकीन करता था। इसका नतीजा था कि लाल सेना को एक के बाद एक हारों का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर स्तालिन मज़दूरों और किसानों के नज़रिये से सैन्य स्थिति को समझते थे और उनकी क्षमताओं और सीमाओं से अच्छी तरह वाकिफ थे।" 

पहली बात तो यह कि लेखक की जानकारी के ठीक उलट, जारशाही अफसरों को लाल सेना में भरती करने और सैनिकों की सोवियतों के कड़े नियंत्रण में उनसे काम लेने का प्रस्ताव ट्रोट्स्की का नहीं खुद लेनिन का था. ट्रोट्स्की ने इस प्रस्ताव का सिर्फ अनुमोदन किया था. दूसरे, ‘लाल सेना’ के विचार का द्रष्टा, संगठनकर्ता और सर्वोच्च कमांडर, ट्रोट्स्की था. लाल सेना ट्रोट्स्की के सफल नेतृत्व में लगभग तमाम मुख्य मोर्चों पर विजयी ही रही. लेखक का यह दावा कि लाल सेना को एक के बाद एक हारों का सामना करना पड़ा, पूरी तरह अनैतिहासिक प्रलाप है.

उदाहरण के लिए लेखक जिस ज़ारित्सिन के मोर्चे पर हार का जिक्र करता है, उसके लिए तो सीधे स्टालिन खुद जिम्मेदार था. आइये, इस बारे, पहले, लेखक को सुनें. लेखक का दावा है, “1919 में स्तालिन को वोल्गा नदी के किनारे महत्वपूर्ण शहर ज़ारित्सिन के मोर्चे पर रसद आपूर्ति बहाल करने की ज़िम्मेदारी देकर भेजा गया। ज़ारित्सिन को क्रान्ति की दुश्मन फौजों ने घेर रखा था और शहर के भीतर भी दुश्मन की ताकतों ने घुसपैठ कर लिया था। स्तालिन ने त्रात्स्की का अतिक्रमण करके फौरन कमान अपने हाथों में सँभाल ली और फौलादी हाथों से काम लेते हुए फौजी अफसरों और पार्टी के भीतर से प्रतिक्रान्तिकारियों को निकाल बाहर किया और फिर शहर और पूरे क्षेत्र को दुश्मन से आज़ाद करा दिया। नाराज़ त्रात्स्की ने स्तालिन को वापस बुलाने की माँग की लेकिन इसके बाद तो स्तालिन को गृहयुद्ध के हर अहम मोर्चे पर भेजा जाने लगा। हर जगह स्तालिन ने फौरन ही क्रान्तिकारी जनता का सम्मान अर्जित कर लिया और कठिनतम परिस्थितियों में भी जीत हासिल करने में उनका नेतृत्व किया। गृहयुद्ध ख़त्म होने तक स्तालिन एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर स्थापित हो चुके थे जिसे मालूम था कि काम कैसे किया जाता है। यह गुण अभिजात वर्गों से आये उन बुद्धिजीवी कम्युनिस्ट नेताओं में नहीं था जो अपने को सर्वहारा वर्ग के महान नेता समझते थे। अप्रैल 1922 में स्तालिन को कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी का जनरल सेक्रेटरी बनाया गया।“

यह पूरा पैराग्राफ गप्प का पुलंदा है! १९१९ के गृह-युद्ध में जारित्सिन के मोर्चे पर बोल्शेविकों की विजय नहीं बल्कि पराजय हुई थी, जिसके लिए सिर्फ स्टालिन जिम्मेदार था. दरअसल इन्टरनेट से कॉपी-पेस्ट करते, इस विद्वान लेखक ने, जारित्सिन के दो युद्धों- १९१९ का गृह-युद्ध और द्वितीय विश्व-युद्ध के मोर्चे- को आपस में गड्ड-मड्ड कर दिया है. १९१९ के गृह-युद्ध में, जारित्सिन को क्रांति की दुश्मन फौजों ने नहीं घेर रखा था, जैसा लेखक कहता है, बल्कि लाल फ़ौज ने घेर रखा था. रूस के इस दक्षिण-पूर्वी शहर ज़ारित्सिन, पर जनरल रेंगल के नेतृत्व में श्वेत फौजों का कब्ज़ा था. स्टालिन को, ट्रोट्स्की ने ही वहां रसद आपूर्ति के लिए भेजा था. मगर स्टालिन ने रसद आपूर्ति की योजना में हेर-फेर कर दिया. आपूर्ति न हो पाने से लाल-सेना के तीन दिन के शानदार युद्धकौशल के बावजूद, दो बोल्शेविक रेजिमेंट्स नष्ट हुईं और शेष तीन को समर्पण के लिए बाध्य होना पड़ा. स्टालिन वहां से दुम दबाकर भाग निकला. इस युद्ध में बोल्शेविकों की भारी क्षति हुई. नौ हज़ार सैनिक बंदी बनाए गए, ११ तोपें और सौ मशीन-गन गंवानी पड़ीं. 

जारित्सिन की हार का पूरा उत्तरदायित्व स्टालिन पर था. स्टालिन को कभी भी किसी युद्ध में बड़ी सैनिक जिम्मेदारी नहीं दी गई थी. ज़ारित्सिन की हार के बाद तो वह बिलकुल किनारे लग गया. मगर, शशि प्रकाश की प्रगल्प, तमाम ऐतिहासिक तथ्यों को मुंह चिढाती हुई अपना शंख बजाती चलती है. उसका आलाप जारी रहता है. इतिहास को झुठलाते, शशि प्रकाश जारित्सिन के युद्ध के बारे में कहता है, "स्तालिन ने त्रात्स्की का अतिक्रमण करके फौरन कमान अपने हाथों में सँभाल ली और फौलादी हाथों से काम लेते हुए फौजी अफसरों और पार्टी के भीतर से प्रतिक्रान्तिकारियों को निकाल बाहर किया और फिर शहर और पूरे क्षेत्र को दुश्मन से आज़ाद करा दिया।"

इसी तरह, १९२२ में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी में स्टालिन की जनरल-सेक्रेटरी के रूप में नियुक्ति, महज़ औपचारिकता भर थी, चूंकि पार्टी का वास्तविक नेतृत्व तो लेनिन और ट्रोट्स्की जैसे नेताओं के ही हाथ था, जिनके पास पार्टी में कोई पद नहीं थे. 

ट्रोट्स्की पर निशाना साधते, लेखक कहता है, “लेनिन के निधन के बाद रूस में समाजवाद का निर्माण जारी रखने के सवाल पर पार्टी के भीतर एक तीख़ा संघर्ष छिड़ गया। त्रात्स्की और उसके समर्थकों का कहना था कि सर्वहारा वर्ग अकेले सोवियत संघ में शासन में टिका नहीं रह सकेगा और वे यूरोप के सर्वहारा वर्ग के उठ खड़े होने पर उम्मीदें लगाये हुए थे। दूसरी ओर स्तालिन का मानना था कि शोषित-उत्पीड़ित किसानों की भारी आबादी क्रान्ति में रूसी सर्वहारा का साथ देगी और सोवियत जनता अपने बूते पर न केवल समाजवाद का निर्माण करने में सक्षम है बल्कि देश के भीतर और बाहर के ताकतवर दुश्मनों से उसकी हिफाज़त भी कर सकती है। पार्टी के भीतर के निराशावादियों और बाहरी प्रतिक्रान्तिकारियों की हरचन्द कोशिशों और साज़िशों के बावजूद इतिहास ने साबित किया कि स्तालिन सही थे।"

यहाँ लेखक फिर अपनी अज्ञानता को सामने लाता है. यह प्रस्थापना कि विकसित यूरोप में क्रांतियों के बगैर रूसी क्रांति भी टिक नहीं सकती, ट्रोट्स्की की ही नहीं, लेनिन की भी थी. कोमिन्टर्न की तीसरी कांग्रेस में लेनिन ने कहा- “हमें यह स्पष्ट था कि अन्तर्रष्ट्रीय विश्व क्रांति की मदद के बिना, रूस में सर्वहारा क्रांति की विजय असंभव है. क्रांति से पहले और उसके बाद भी हम निश्चित थे कि या तो दूसरे देशों में, अग्रणी पूंजीवादी देशों में, तुरंत या शीघ्र ही क्रांति फूट पड़ेगी, या फिर हम भी नष्ट हो जायेंगे.” लेनिन ने बारम्बार इस प्रस्थापना को दोहराया है. वास्तव में लेनिन, ट्रोट्स्की सहित सभी शीर्ष बोल्शेविक नेता इस बात पर सहमत थे कि समाजवाद का निर्माण तो दूर, साम्राज्यवादियों से घिरे रूस में क्रांति ही नहीं टिक सकती, यदि उसे विजयी यूरोपीय सर्वहारा का समर्थन नहीं हासिल हो. मगर लेनिन की मृत्यु के फ़ौरन बाद, स्टालिन ने विश्व समाजवादी क्रांति के प्रोजेक्ट से पीठ फेरते हुए, ‘एक देश में समाजवाद’ के राष्ट्रवादी-प्रतिक्रियावादी प्रोजेक्ट की ओर मुंह किया. एक देश में समाजवाद का यह प्रोजेक्ट, साम्राज्यवादी ताकतों के साथ “शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व” की नीति पर आधारित था, जिसके चलते, क्रांति पर ही ब्रेक लगाते हुए स्टालिन ने साम्राज्यवादियों से संधियाँ कर लीं, पहले नाज़ी जर्मनी से, फिर ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका से. साम्राज्यवादियों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर मुहर लगाते हुए, स्टालिन ने विश्व सर्वहारा क्रांति की ओर पीठ कर ली और ‘एक देश में समाजवाद’ के प्रतिक्रियावादी प्रोजेक्ट की ओर मुड़ गया.

स्टालिन के शासन में, तमाम उठा-पटक और साम्राज्यवादियों के साथ एक के बाद एक शर्मनाक समझौतों के चलते, सोवियत संघ,  क्रांति का दुर्ग नहीं, बल्कि साम्राज्यवाद का पुछल्ला बन चुका था. स्टालिन के शासन के तहत, सोवियत संघ के उत्तरोत्तर पतन और अंततः विनाश ने साबित कर दिया कि स्टालिन का 'एक देश में समाजवाद' का प्रोजेक्ट, फर्जीवाडा था और विश्व-सर्वहारा क्रांति के पैरोकार लेनिन और ट्रोट्स्की सही थे. इतिहास ने स्टालिन को गलत साबित किया.

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