Sunday 1 June 2014

भगाना से बदायूं तक, पाशविक अपराधों का सिलसिला, पूंजीवाद की सामाजिक व्यवस्था की उपज है


वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी द्वारा जारी विज्ञप्ति
२ जून २०१४

भगाना से बदायूं तक जघन्य अपराधों की अटूट श्रृंखला यह इंगित कर रही है कि अपराध, अपवाद न रहकर, सामाजिक जीवन का नित्यक्रम बन चुके हैं. कहने की जरूरत नहीं कि समाज के सबसे कमजोर हिस्से- औरतें, बच्चे, दलित इन अपराधों का शिकार बन रहे हैं.

अपराधों को रोकने में नाकाम पूंजीवादी सरकारें, पार्टियां और नेता इन अपराधों को एक-दूसरे को लांछित करने और अपने वोट-बैंक का विस्तार करने के अवसर के रूप में देख रहे हैं.

इस सबके चलते, पूंजीपतियों के नेतृत्व वाले, समूचे राज्य-तन्त्र का अपराधीकरण हो गया है. पूंजी की सत्ता बहुत पहले ही अपराधियों के हाथ जा चुकी है. पूंजीपतियों की यह सत्ता, जिसे वे झूठमूठ ही लोकतंत्र बताते हैं, उसे अपराधी चला रहे हैं. ऊपर से नीचे तक, अपराधियों का एक जाल इस सत्ता पर काबिज है.

हम, बर्बर आपराधिक सत्ता के जुए तले सड़ते समाज में रह रहे हैं.
पूरी दुनिया में बाज़ार और मुनाफों पर टिकी पूंजीवादी समाज व्यवस्थाएं, ऐसे ही अनगिनत अपराधों का घर बनी हुई हैं. पूंजीवाद और इसकी ये सत्ताएं, एक सामाजिक कोढ़ बन चुकी हैं, जो अपने मातहत समाजों के अंग-प्रत्यंग में जहर घोलते हुए उन्हें विषाक्त कर रही हैं.

भारत जैसे पिछड़े देशों में, जहां पूंजीवाद मध्ययुगीन सामाजिक संरचनाओं पर टिका है, नित नए क्षेत्रों में इसके प्रसार के साथ, अपराध, और भी हिंसक और बर्बर स्वरूप में सामने आ रहे हैं और जातीय, सांप्रदायिक रंगत लिए हुए हैं. १९८४ में दिल्ली में सिख विरोधी दंगों और २००२ में गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगों में, जहां दोनों ही ‘राज्य’ द्वारा प्रायोजित और सुनियोजित थे, इन्ही पाशविक अपराधों का बड़े पैमाने पर प्रदर्शन देखने को मिला था. इन दंगों को प्रायोजित करने वाले पूंजीवादी नेता और उनकी पार्टियां, बारी-बारी से सत्ता संभालती आ रही हैं. १९४७ से लेकर अब तक ऐसे हजारों संगठित अपराधों की अनंत श्रृंखला मौजूद है और आगे बढ़ रही है.        

भारत में पूंजीपतियों ने एक तरफ जमींदारों और दूसरी तरफ साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर, राष्ट्रीय क्रान्ति का दमन करते हुए १९४७ में सत्ता ली थी. अपने जन्म से ही पूंजीपतियों की यह सत्ता, प्रतिगामी और घोर क्रान्ति-विरोधी सत्ता रही है. मेहनतकश जनता के विरुद्ध, तमाम तरह के अकथनीय अपराधों- जुल्म, हिंसा, दमन और आतंक- के सहारे ही इस सत्ता ने अपने को टिकाये रखा है. पिछले ६७ सालों में इस अपराधी सत्ता ने अपने ही बनाये ‘कानून के शासन’ की धज्जियां उड़ाते हुए, पूरे समाज का अपराधीकरण कर छोड़ा है.

शासक पूंजीपति लोकतंत्र का लबादा ओढ़ने के लिए बाध्य तो हुए, मगर मुनाफों के लिए मेहनतकश जनता की लूट और शोषण की अनियमित होड़ और उसके विरुद्ध मेहनतकश जनता के आक्रोश और संघर्ष ने तुरंत ही ‘लोकतंत्र’ और ‘कानून’ दोनों के चीथड़े उड़ा दिए. शासक पूंजीपतियों ने तुरंत ही नंगे आतंक का सहारा लेते हुए अपराधी गिरोह संगठित किये. बम्बई में बाल ठाकरे की अगुवाई में अपराधियों के समूहों से संगठित ‘शिव सेना’, संजय गांधी के नेतृत्व में संगठित ‘यूथ कांग्रेस’, दक्षिणपंथी संघ परिवार द्वारा संगठित ‘बजरंग दल’ जैसे आपराधिक संगठन, इसी मुहिम का हिस्सा हैं. इन सबका सांझा कार्यक्रम है- गरीबों, मजलूमों का दमन और उत्पीडन. आज तमाम पूंजीवादी पार्टियों और फलतः सत्ता के तमाम प्रतिष्ठानों पर, इन तत्त्वों का पूरा नियंत्रण है.

काफ़ी देर हो चुकी है, फिर भी मानवजाति को आपराधिक समाज और सामाजिक अपराधों के इस कोढ़ से निज़ात हासिल करनी ही है. जिसका अर्थ है: सामाजिक क्रान्ति, यानि विघटित, जर्जर और पतित पूंजीवाद का बलपूर्वक अंत!

इस क्रान्ति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है- पूंजी की राजसत्ता. इसलिए सामाजिक क्रान्ति सबसे पहले और सबसे ऊपर राजनीतिक क्रान्ति का रूप ले लेती है और मौजूदा राजसत्ता के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष को तात्कालिक कार्यभार के रूप में प्रस्तुत करती है.             

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