Friday 23 May 2014

‘एक देश में समाजवाद’ या ‘सतत क्रान्ति’?




‘एक देश में समाजवाद’ या ‘सतत क्रान्ति’? यह प्रश्न कोमिन्टर्न और विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर उस सर्वप्रमुख और केन्द्रीय प्रश्न के रूप में सामने आया था, जिसने आन्दोलन को दो धुर विरोधी धाराओं में बांट दिया था और जिस पर शेष सभी महत्वपूर्ण विवाद निर्भर करते थे.

रूसी क्रान्ति के नेता, लियॉन ट्रॉट्स्की ने, १९२४ में लेनिन की मृत्यु के बाद, स्टालिन द्वारा प्रचारित इस प्रतिक्रांतिकारी सूत्र की, जो अक्टूबर क्रान्ति के विरुद्ध एकजुट सोवियत ब्यूरोक्रेसी के राष्ट्रवादी कार्यक्रम पर आधारित था और सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद का स्पष्ट नकार था, कड़ी आलोचना की थी. ट्रॉट्स्की ने अक्टूबर क्रान्ति से निष्कर्ष निकालते हुए, ‘सतत क्रान्ति’ के सिद्धांत का विस्तार किया था, जो अक्टूबर क्रान्ति की हमारी समझ को गहन बनाता है और ‘एक देश में समाजवाद’ के राष्ट्रीय-ब्यूरोक्रेटिक प्रोजेक्ट को, क्रान्ति-विरोधी प्रतिक्रिया के रूप में नंगा करता है.

यहां हम ‘एक देश में समाजवाद’ के प्रश्न पर, पार्टी की नीति को, पाठकों की समझ के लिए, प्रश्नोत्तर के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं.

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प्रश्न : वर्कर सोशलिस्ट ‘एक देश में समाजवाद’ के विरोध में बहुत मुखर रहे हैं. क्या इसका अर्थ यह है कि आप पूरी दुनिया में एक साथ क्रांति चाहते हैं और एक देश में समाजवादी क्रांति का विरोध करते हैं?

उत्तर : यह बिलकुल गलत है, और एक ऐसा भ्रम है जिसे इस प्रश्न पर विवाद के अंतर्य को लेकर, स्तालिनवादी नेता खुद को और साथ ही युवा क्रांतिकारियों को भ्रमित करने के लिए प्रयोग करते रहे हैं. वास्तव में ये स्तालिनवादी नेता ‘एक देश में सर्वहारा क्रांति’ और ‘एक देश में समाजवादी निर्माण’ की, दो बिलकुल अलग अवधारणाओं को आपस में गड्ड-मड्ड करते रहे हैं. निश्चित रूप से क्रांति का आगाज़ एक देश से ही होगा और यह कुछ देशों से होती हुई तमाम देशों में फैल जायगी. रूसी क्रांति में वह एकमात्र नेता लियॉन ट्रॉट्स्की ही था जिसने १९०६ में ही भावी क्रांति में सर्वहारा के एकल वर्ग अधिनायकत्व की स्थापना की भविष्यवाणी की थी.

प्रश्न : फिर ‘एक देश में समाजवाद’ के प्रश्न पर स्तालिनवादियों के साथ आपका विरोध किस बिंदु पर आधारित है?

उत्तर : ‘एक देश में समाजवाद’ के सिद्धांत से हमारा विरोध, इस सिद्धांत के प्रतिगामी राष्ट्रीय-ब्यूरोक्रेटिक चरित्र, जो विश्व-समाजवादी क्रान्ति के अंतर्राष्ट्रीय उपक्रम को तिलांजलि देकर, एक देश में समाजवाद के निर्माण के बोगस दिवास्वप्न की अनुशंसा करता है, और विजयी क्रान्तिकारी सर्वहारा के राजनीतिक कार्यभार की अंतरर्राष्ट्रीय दिशा और प्राथमिकताओं की ओर पीठ फेरता है, के विरोध पर आधारित है.

एक या कुछ देशों में सत्ता हाथ में ले लेने पर विजयी सर्वहारा का कार्यभार एक देश के भीतर सिकुड़कर उसके संकीर्ण दायरों में समाजवाद का निर्माण करना नहीं है, बल्कि उस देश सहित, दुनिया भर में पूंजीवाद को नष्ट करना और सर्वहारा सत्ता का प्रसार करना है. इस अर्थ में, क्रांति के पहले दौर में सर्वहारा का कार्यभार मूलतः नकारात्मक है. लेनिन और ट्रॉट्स्की सहित सभी शीर्ष मार्क्सवादी नेता इसी अंतर्राष्ट्रीय नीति का समर्थन करते हैं.

इसके ठीक विपरीत, राष्ट्रीय-समाजवाद के पैरोकार, स्तालिनवादी, अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी क्रान्ति के घोर विरोधी हैं. लेनिन की नीति के विरोधी, स्टालिन और कई अन्य दक्षिणपंथियों ने, न सिर्फ फरवरी क्रान्ति के दौरान मजदूर वर्ग द्वारा सत्ताहरण का विरोध और अस्थायी पूंजीवादी सरकार का समर्थन किया था बल्कि सोवियत-पोलिश युद्ध के समय यूरोप में लाल सेना के दुर्दम्य सैनिक अभियान का विरोध और उससे खुला घात करते हुए उसकी पराजय को सुनिश्चित किया था, जिसके चलते स्टालिन को दक्षिणी मोर्चे पर राजनीतिक कमिसार के पद से हटा दिया गया था. लेनिन और ट्रॉट्स्की के नेतृत्व में जर्मनी के दरवाज़े तक जा पहुंची लाल सेना की इस पराजय ने, न सिर्फ यूरोप में क्रांतियों की पराजय को सुनिश्चित किया बल्कि इस पराजयों के चलते खुद सोवियत क्रान्ति को लम्बे समय के लिए अलग-थलग डाल दिया. इन पराजयों से उपजी हताशा के बीच, कुलकों और दक्षिणपंथी-राष्ट्रवादी ब्यूरोक्रेसी ने पहले बुखारिन और फिर स्टालिन के नेतृत्व में 'एक देश में समाजवाद' की कीच-क्रीडा शुरू की और उसे जारी रखा.

प्रश्न : समाजवाद के निर्माण से आपका क्या अभिप्राय है और इसकी ठोस प्रक्रिया क्या होगी?

उत्तर : समाजवाद के निर्माण से हमारा अभिप्राय है कि दुनिया को आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीक, समृद्धि और संस्कृति के उस स्तर से आगे ले जाया जाय जहां तक पूंजीवाद पहले ही उसे ले आया है. स्तालिनवादियों की सतही समझ के विपरीत, समाजवाद, अभाव और विपन्नता का बंटवारा नहीं है, बल्कि यह पूंजीवाद द्वारा खड़ी की गई बाधाओं को हटाते हुए, मानवजाति द्वारा इतिहास में इससे आगे की यात्रा है. इस अर्थ में ‘समाजवादी निर्माण’ का कार्य सबसे विकसित पूंजीवादी देशों में सबसे पहले और सबसे आसानी से शुरू होगा, चाहे वे अपनी सर्वहारा क्रांतियां देर से ही क्यों न संपन्न करें.

प्रश्न : एक या अधिक पिछड़े देशों में सत्ता ले लेने पर, विजयी सर्वहारा समाजवाद का निर्माण क्यों नहीं कर सकता?

उत्तर : उत्पादन शक्तियां इतिहास में बहुत पहले ही राष्ट्रीय-राज्य की सीमाओं को लांघकर विश्व-स्तर पर ऐक्यबद्ध हो चुकी हैं. उन्हें वापस राष्ट्रीय पिंजरों में कैद नहीं किया जा सकता. ऐसे किसी भी उपक्रम की परिकल्पना ही राजनीतिक दृष्टि से हास्यास्पद और असंभव तथा ऐतिहासिक दृष्टि से प्रतिगामी होगी. इसमें इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसे पूंजीवाद के नाम पर किया जा रहा है या समाजवाद के. दरअसल समाजवाद दुनिया को इतिहास में वापस नहीं खींचेगा, उसे राष्ट्रीय पिंजरों में कैद नहीं करेगा, न कर ही सकता है, बल्कि उसे आगे ले जाएगा, राष्ट्रीय सीमाओं को मिटाएगा और दुनिया को, उसके आर्थिक और राजनीतिक जीवन को पूरी तरह ऐक्यबद्ध करेगा.

इसलिए पिछड़े देशों में, यानि ऐतिहासिक रूप से पिछड़े देशों में, जिन्होंने पूंजीवाद में देर से पदार्पण किया है, विकसित देशों से पहले सत्ता ले लेने पर, सर्वहारा के सामने तात्कालिक कार्यभार होगा- सर्वप्रथम शिक्षा, विज्ञान, तकनीक, संस्कृति, समृद्धि में वह स्तर हासिल करना, जो विकसित देशों में पहले ही से मौजूद है, तभी उसे लांघते हुए समाजवादी निर्माण का प्रश्न आएगा. यह अंतर इतना अधिक है कि इसे पाटते, साधारण प्रक्रिया में, कई पीढियां निकल जाएंगी. नवोदित सर्वहारा राज्य को वक्त पूंजीवादी ताकतें कभी नहीं देंगी. जैसा लेनिन ने कहा था कि जल्दी ही या तो एक या फिर दूसरा नष्ट हो जायगा.

प्रश्न : तो क्या विकसित देश में सत्ता लेने पर सर्वहारा उस देश में समाजवाद का निर्माण कर सकता है?

उत्तर : सिद्धांततः विकसित पूंजीवादी देशों में समाजवादी निर्माण के दौर में सीधे संक्रमण की सारी संभावनाएं मौजूद हैं. लेकिन व्यवहार में दूसरी समस्या यहां भी मौजूद है. क्या शेष दुनिया पर हावी साम्राज्यवादी ताकतें नवोदित सर्वहारा राज्य को समाजवादी निर्माण तो दूर, टिकने का भी अवसर देंगी? हमारे युग की अर्थ-व्यवस्था एक एकीकृत विश्व-व्यवस्था है, जिसमें तमाम देश, विकसित-अविकसित दोनों ही, अस्तित्व और विकास के लिए, एक दूसरे पर निर्भर हैं. अस्तित्व के लिए अनिवार्य शर्त है- अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, विनिमय, विज्ञान, तकनीक तथा कच्चे मालों के स्रोतों तक पहुंच. कोई भी एक देश, इस विश्व-व्यवस्था से अलगाव में, अपने अभेद्य खोल में बंद, जीवित नहीं रह सकता. सोवियत संघ के भीतर, स्टालिन के नेतृत्व में, ब्यूरोक्रेटिक प्रतिक्रांति की विजय और अक्टूबर क्रांति के पतन का प्रमुख कारण अक्टूबर क्रांति का अलगाव ही था, जिसे पश्चिम यूरोप में सर्वहारा की पराजयों ने उस पर थोप दिया था. आर्थिक जीवन स्रोतों पर कब्ज़ा किये साम्राज्यवादी, नवोदित सर्वहारा राज्य को कुछ ही समय में घोंट देंगे.

इस जकडबंदी को तोड़ने के लिए, विजयी सर्वहारा का प्रमुख कार्यभार होगा- विश्व पूंजीवाद के खिलाफ क्रान्तिकारी और सतत युद्ध. इस युद्ध का परिणाम ही क्रान्ति के भाग्य का निर्णय करेगा, और लेनिन के शब्दों में ‘या तो एक या फिर दूसरा जल्दी ही नष्ट हो जायगा’.

प्रश्न : फिर सोवियत संघ १९१७ से लेकर १९९१ तक कैसे टिका रहा?

उत्तर : १९१७ से १९९१ के इस दौर को दो हिस्सों में देखना होगा.
१९१७-१९२३ के पहले दौर में, लेनिन और ट्रॉट्स्की के नेतृत्व में, सोवियत राज्य, सर्वहारा और मेहनतकशों की उस क्रान्तिकारी ऊर्जा के भरोसे जिसे अक्टूबर क्रांति ने उत्पन्न किया था, भीतर और बाहर प्रतिक्रांति से लड़ता रहा. कहने की जरूरत नहीं कि इस युद्ध में उसकी सबसे शानदार शक्तियां नष्ट हुईं और सोवियत संघ अकाल और तबाही के कगार पर आ गया. लेनिन और ट्रॉट्स्की दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि पश्चिम में विजयी सर्वहारा क्रांतियों के अभाव में यह स्थिति अधिक देर नहीं टिक सकती. उन्होंने सर्वहारा की विश्व पार्टी, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, की स्थापना ही इस उद्देश्य से की थी कि विश्व पूंजीवाद का जल्दी से जल्दी विनाश किया जाय.

दूसरा दौर, १९२४ से १९९१ तक, स्टालिन और उसके उत्तराधिकारियों का दौर है. इस दौर में, जो लेनिन की मृत्यु के साथ शुरू होकर १९९१ तक जाता है, अंतर्रराष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के लेनिनवादी कार्यक्रम को उलट दिया गया था, और विश्व बूर्ज्वाजी के साथ, कभी उसके एक तो कभी दूसरे हिस्से के जरिये, तालमेल बना लिया गया था. पिछड़े देशों में जनवादी क्रांति के नाना रूपों में सर्वहारा के एकल वर्ग अधिनायकत्व का छद्म विरोध करते, स्तालिनवादियों ने दुनिया भर में पूंजी की सत्ता को सुरक्षा की जमानत दे दी थी और उसके साथ ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ कायम कर लिया था. इसके बाद, स्टालिन ने कभी फासिस्ट तो कभी उदार पूंजीपतियों से, ‘पितृदेश की प्रतिरक्षा’ और ‘जनवाद’ के झूठे नारों के पीछे गठजोड़ कायम किये, और अंत में एंग्लो-फ्रेंच साम्राज्यवादियों को आश्वस्त करने के लिए कोमिन्टर्न को भी भंग कर दिया था. इस तरह, १९२४-१९९१ तक स्टालिन और उसके उत्तराधिकारियों के तहत सोवियत संघ, विश्व सर्वहारा क्रांति के किले के रूप में नहीं, बल्कि प्रतिक्रांति के सामने नतमस्तक होकर, उसका अंग बनकर जीवित रहा.

प्रश्न : क्या इसका अर्थ यह है कि एक देश में विजयी सर्वहारा, हाथ पर हाथ धरे बैठा विश्व क्रान्ति संपन्न होने की प्रतीक्षा करेगा?

उत्तर: बिलकुल नहीं! हाथ पर हाथ धरे प्रतीक्षा नहीं करेगा बल्कि विश्व-क्रान्ति को संपन्न करने के लिए सबसे प्रभावी और निर्णायक कदम उठाएगा जिनमें शेष देशों में क्रांतियों को राजनीतिक और सैनिक सहायता के अतिरिक्त लाल सेना के सीधे सैनिक अभियान शामिल होंगे. जैसा लेनिन ने कहा कि एक देश में पूंजीपतियों का तख्ता उलट देने के बाद, उस देश का विजयी सर्वहारा बुर्जुआ का सर्वस्व-हरण कर लेगा यानि अर्थव्यवस्था, संपत्ति और साधनों-संसाधनों को अपने नियंत्रण में लेकर राजकीय एकाधिकार स्थापित कर लेगा और उसके बाद शेष दुनिया के विरुद्ध उठ खड़ा होगा यानि शेष देशों में क्रान्तिकारी सैनिक अभियान चलाएगा.

वास्तव में, विश्व-समाजवादी क्रान्ति की ओर निदेशित, एक देश में विजयी सर्वहारा की यह सबसे सक्रिय और क्रान्तिकारी नीति है. इसके विपरीत, 'एक देश में समाजवाद' की बोगस नीति सर्वहारा को एक देश के भीतर सिकुड़ जाने, दूसरे देशों में दखल न देने और उनमें पूंजीवाद को मान्यता देने तथा पूंजीवादी दुनिया के साथ 'शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व' के झूठे सपने के आगे घुटने टेकते हुए, हाथ पर हाथ धरे दूसरे देशों में क्रान्ति की अनंत काल तक प्रतीक्षा करने की नीति है. एक देश में विजयी सर्वहारा का कार्यभार, एक देश में समाजवाद के निर्माण की झूठी मरीचिका और दिवास्वप्न का पीछा करते, हाथ पर हाथ धरे विश्व-क्रान्ति की प्रतीक्षा करना नहीं है बल्कि विजित देश को एक सैनिक दुर्ग में बदलते हुए, शेष दुनिया में क्रांतियों और क्रान्तिकारी सैनिक अभियानों का नेतृत्व करना है.

प्रश्न: तो क्या उन देशों में जहां सत्ता सर्वहारा के हाथ होगी, संसाधनों और अर्थव्यवस्था का प्रबंध पूंजीवादी नीति के तहत ही चलेगा?
उत्तर : नहीं, कभी नहीं! विजयी सर्वहारा की क्रान्तिकारी नीति का सबसे मुख्य पहलू होगा- तुरंत ही आर्थिक संसाधनों पर से पूंजीपति वर्ग के नियंत्रण को ख़त्म करना. सबसे पहले विदेशी व्यापार और विनिमय पर राज्य की एकाधिकारिता कायम करना, फिर यथासंभव तेज़ी से, छोटे पूंजीवादी उपक्रमों को राज्य के हाथ में लेना और इस प्रक्रिया में पूंजीवाद को नष्ट करते हुए, समाजवाद की ओर निदेशित अर्थव्यवस्था को तैयार करना. मगर यह समाजवाद नहीं होगा, अधिक से अधिक राजकीय एकाधिकार ही होगा और यह तब तक चलेगा जब तक विश्व सर्वहारा, समाजवादी क्रांति के जरिये पूंजीवाद के कोढ़ को दुनिया से नेस्तनाबूद नहीं कर देता. जब तक यह नहीं होता, तब तक अलग-अलग देशों में विजयी सर्वहारा का कार्यभार उन देशों में समाजवाद का निर्माण नहीं, बल्कि दुनिया भर में क्रांति को विस्तार देना होगा. एक देश में सर्वहारा की विजय शेष देशों में सर्वहारा की विजय और परिणामतः पूंजीवाद की पराजय के साथ अभिन्न रूप से बंधी है.

प्रश्न : तो क्या लेनिन और ट्रॉट्स्की ‘एक देश में समाजवाद’ के सिद्धांत को नहीं मानते थे?

उत्तर : बिलकुल नहीं! लेनिन और ट्रॉट्स्की ही नहीं, दुनिया भर में किसी संजीदा मार्क्सवादी ने कभी ऐसा प्रस्ताव नहीं रखा था. यह स्पष्ट ही था, चूंकि जिस पूंजीवाद को उलटकर समाजवाद का निर्माण किया जाना था, वह खुद अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था थी जो राष्ट्रीय-राज्य की सीमाओं को बहुत पहले ही लांघ चुकी थी. सर्वहारा क्रांति ने इतिहास में वापस नहीं लौटना था, बल्कि उससे आगे चलना था, दुनिया को और एकजुट करना था, बूर्ज्वा राष्ट्रों का सोवियतों के संघ में विलय करना था, न कि ‘समाजवाद’ को राष्ट्रों की पुरानी पड़ चुकी परिसीमाओं में सीमित करना था. इसलिए एक देश में समाजवाद के निर्माण का कभी कोई प्रश्न या विवाद था ही नहीं.

प्रश्न : फिर ‘एक देश में समाजवाद’ का यह सिद्धांत कहां से आया? विस्तार से बताएं?

उत्तर : ‘एक देश में समाजवाद’ का विचार सबसे पहले बुखारिन ने व्यक्त किया था. बुखारिन, बोल्शेविक पार्टी में धुर दक्षिणपंथी पक्ष में था. ट्रॉट्स्की के नेतृत्व में संगठित क्रान्तिकारी सर्वहारा ‘वाम विपक्ष’ के विरुद्ध यह दक्षिण-पक्ष कुलकों और ब्यूरोक्रेसी के हितों की ओर झुका हुआ था. ट्रॉट्स्की के विरुद्ध सत्ता संघर्ष में, बुखारिन-स्टालिन ने ‘एक देश में समाजवाद’ के सिद्धांत को अपना औजार बना लिया और उसे लेनिन-ट्रॉट्स्की के ‘विश्व समाजवादी क्रांति’ के सिद्धांत के खिलाफ खड़ा कर दिया. सोवियत संघ के भीतर कुलक और ब्यूरोक्रेसी पहले ही ‘विश्व समाजवादी क्रांति’ के कार्यक्रम को तिलांजलि देकर विश्व बूर्ज्वाजी के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व कायम करने के लिए दबाव डाल रहे थे. दुर्भाग्य से पश्चिमी यूरोप में सर्वहारा क्रांतियों की लगातार पराजय और उसके साथ ही लेनिन की मृत्यु से ‘विश्व समाजवादी क्रांति’ के कार्यक्रम को और धक्का लगा और ब्यूरोक्रेसी, कुलक और स्टालिन-बुखारिन के नेतृत्व में दक्षिणमार्गी मज़बूत होते गए. इस दक्षिणपंथ का ही कार्यक्रम था- ‘एक देश में समाजवाद’. स्टालिन जिसने फरवरी १९२४ में “लेनिनवाद के मूल सिद्धांत” की भूमिका में लिखा कि ‘एक देश में समाजवाद संभव ही नहीं है”, उसी भूमिका को संशोधित करते अगस्त १९२४ में स्टालिन ने लिखा कि “एक देश में समाजवाद न सिर्फ संभव है बल्कि एकमात्र रास्ता है”. ‘एक देश में समाजवाद का यह कार्यक्रम, विश्व सर्वहारा क्रांति के ठीक उलट था और उसके कार्यक्रम से पीछे हटने की खुली और स्पष्ट उदघोषणा थी, जिसका मकसद था देश के भीतर कुलकों और ब्यूरोक्रेसी को और बाहर साम्राज्यवादियों को आश्वस्त करना कि विश्व सर्वहारा क्रांति के कार्यक्रम को तिलांजलि दे दी गई है. एक देश में समाजवाद का अर्थ था- शेष देशों में पूंजीवाद को मान्यता और स्वीकृति, यानि पूंजीवादी राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व. इस तरह ‘एक देश में समाजवाद’ का स्तालिनवादी कार्यक्रम राष्ट्रीय-समाजवाद का कार्यक्रम था, जो समाजवाद के नाम पर कोरी लफ्फाजी और वास्तव में पूंजीवाद के साथ सह-अस्तित्व पर टिका था.

प्रश्न : लेकिन ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ के कार्यक्रम के लिए तो निकिता ख्रुश्चेव को जिम्मेदार ठहराया जाता है.

उत्तर : निकिता ख्रुश्चेव ने स्टालिन के कार्यक्रम पर केवल मुहर लगायी थी. स्टालिन ने ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ की बुनियाद तब डाली थी, जब तक ख्रुश्चेव राजनीति से जुड़ा भी नहीं था. ‘एक देश में समाजवाद’ का अर्थ ही था- पूंजीवाद के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व. ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व’ की यह थीसिस कोमिन्टर्न की छठी कांग्रेस में दिमित्रोव द्वारा स्टालिन की सहमति से प्रस्तुत की गई थी, और भारत में सीपीआई की पी.सी.जोशी लाइन इसी से निकली थी. १९५१ में ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के लिए, स्टालिन के निदेशन में तैयार किये गए दस्तावेज़ ‘ब्रिटिश रोड टू सोशलिज्म’ ने इसी थीसिस का पुनर्पाठ किया था.

प्रश्न : जैसा आपने कहा कि ‘एक देश में समाजवाद’ का कार्यक्रम पश्चिमी यूरोप में सर्वहारा की हार और अक्टूबर क्रांति के विलगाव से निकला था. तो उन परिस्थितियों में स्टालिन-बुखारिन के सामने विकल्प क्या था?

उत्तर : क्रांतियों की पराजय, लेनिन के जीवनकाल में ही हो चुकी थी. १९१९ से १९२३ का दौर, दुनिया भर में उन क्रान्तिकारी आशाओं और अनुमानों के विपरीत गया था, जिन्हें अक्टूबर क्रांति ने पैदा किया था. जैसा हमने ऊपर कहा है, सोवियत-पोलिश युद्ध में स्तालिनवादियों के भीषण घात ने यूरोप में क्रांतियों की पराजय और सोवियत क्रान्ति के अलगाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पश्चिम में क्रांतियों की पराजय ने पार्टी और सोवियत सत्ता के भीतर स्पष्तः दो शिविर बना दिए थे. पहला, जो प्रथम पंक्ति के नेतृत्व -लेनिन और ट्रॉट्स्की के नेतृत्व- में संगठित था, पश्चिम में पराजयों को अस्थायी मानता था और विश्व समाजवादी क्रांति के कार्यक्रम पर दृढ़ता से डटे रहकर, पराजयों को उलट देने का आह्वान कर रहा था. दूसरा शिविर, दूसरी पंक्ति के नेताओं, कुलक समर्थकों और ब्यूरोक्रेटस का था, जो विश्व सर्वहारा क्रांति के कार्यक्रम से पीछे हटने, पूंजीवाद से समझौता करने और सोवियत संघ के भीतर सिमटने की बात कर रहा था. लेनिन की मृत्यु के साथ ही, विश्व क्रान्तिकारी आन्दोलन में आये ठहराव, और उससे उत्पन्न निराशा का लाभ उठाकर यह दूसरा शिविर राजसत्ता के भीतर दृढ़तर होता गया. ‘एक देश में समाजवाद’ इसी का कार्यक्रम था. इस दूसरे शिविर ने, सर्वहारा की अस्थायी पराजयों के विरुद्ध संघर्ष में जुटने के बजाय, उनसे समझौता कर लिया और इन पराजयों को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. १९२४ में कोमिन्टर्न और सोवियत सत्ता पर नियंत्रण करके, स्तालिनवादी ब्यूरोक्रेसी ने पहले १९२५ में चीनी क्रांति को विफल किया, १९२६ में ब्रिटिश खदान मजदूरों की राजनीतिक हड़ताल को विफल किया, १९२९-१९३३ में हिटलर को सत्ता लेने में सहयोग किया, १९३७ में स्पेनिश क्रांति को नाकाम किया आदि आदि.

प्रश्न : मगर यह कैसे हो सकता है कि वह पार्टी जिसने कुछ ही वर्ष पहले अक्टूबर क्रांति संपन्न की थी, वह विश्व सर्वहारा क्रांति के साथ इस घात पर चुप रह जाए?

उत्तर : वह पार्टी जिसने अक्टूबर क्रांति संपन्न की थी, उसके सबसे बेहतरीन हिस्से क्रांति, गृह-युद्ध और साम्राज्यवादी दखल के चलते खेत रहे, जिनमें लेनिन स्वयं थे. मगर पार्टी चुप नहीं थी. स्टालिन-बुखारिन की इस प्रतिक्रांतिकारी नीति के विरुद्ध जबरदस्त विरोध आया था. विशेष रूप से पेत्रोग्राद जैसे औद्योगिक इलाकों में इस नीति का खुला विरोध हुआ. इस नीति को समर्थन, मास्को और निज्नी-नवगोरोद जैसे किसानी इलाकों से आया था. १९२४ में ही स्टालिन ने ‘लेनिन लेवी’ के नाम से ढाई लाख ऐसे नए रंगरूट पार्टी में भर्ती किये थे, जो पार्टी जीवन और राजनीति की बारीकियों से अपरिचित थे. दूसरी ओर, उन दसियों हज़ार पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुटिल नीति के तहत पार्टी से अलग किया गया, जो इस नीति के विरोधी थे. १९२८ में ‘एक देश में समाजवाद’ की आधिकारिक घोषणा के तुरंत बाद न सिर्फ ट्रॉट्स्की को निष्कासित कर दिया गया, बल्कि पुलिस-तंत्र के सहारे नृशंस दमन का ऐसा कुचक्र चलाया गया, जिसमें ३० लाख से ज्यादा सरकारी और गैर-सरकारी हत्याएं की गईं. क्रांति और प्रतिक्रांति के बीच यह जंग डेढ़ दशक से ज्यादा चली, तभी जाकर स्तालिन के नेतृत्व में ब्यूरोक्रेसी, क्रांति को निर्णायक रूप से कुचल सकी.

प्रश्न : एक देश में समाजवाद के इस कार्यक्रम का शेष दुनिया के लिए क्या महत्व था?

उत्तर : जैसा मैंने कहा है कि एक देश में समाजवाद का ही दूसरा पहलू था- शेष दुनिया में पूंजीवाद को स्वीकृति, उसके साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व और साथ ही विश्व समाजवादी क्रांति के कार्यक्रम से निर्णायक सम्बन्ध विच्छेद. स्टालिन और उसके तहत कोमिन्टर्न तथा सोवियत सत्ता ने विश्व सर्वहारा से, और विश्व सर्वहारा ने कोमिन्टर्न और सोवियत सत्ता से, किनारा कर लिया. इस तरह स्टालिन के तहत कोमिन्टर्न और सोवियत सत्ता, क्रेमलिन ब्यूरोक्रेसी के राष्ट्रीय हितों के भोंपू बनकर रह गए.

प्रश्न : ‘एक देश में समाजवाद’ के इस राजनीतिक कैनवास पर माओवादी कहां खड़े हैं?

उत्तर : स्तालिनवादियों की ही तरह, माओवादी भी एक देश में समाजवाद के समर्थक हैं. १९४९ में किसानी सेनाओं के माध्यम से चीन में सत्ता लेने वाले माओवादियों ने भी ‘एक देश में समाजवाद’ के कार्यक्रम पर अमल करते हुए, विश्व सर्वहारा और विश्व समाजवादी क्रांति की तरफ पीठ किये रखी. जहां स्टालिनवादी राष्ट्रीय सत्तायें ख्रुश्चेव, गोर्बाचेव, चाउशेस्कू जैसे उत्तराधिकारी सामने लाईं, वहीँ माओवादी सत्ता देंग और पोलपोट को सामने लाईं. जब तक ‘एक देश में समाजवाद’ का राष्ट्रीय-समाजवादी फर्जीवाड़ा रूस तक सीमित रहा, यह छिपा रहा, मगर जैसे ही चीन, पूर्वी यूरोप, वियतनाम में इसे लागू किया गया, तुरंत ही यह उनके सीमित राष्ट्रीय हितों के मंच के रूप में सामने आया, जो सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद के ठीक उलट और उसके प्रति शत्रुतापूर्ण था. इसी के चलते इन स्तालिनवादी-माओवादी देशों में उनके राष्ट्रीय हितों की प्रतिनिधित्व ब्यूरोक्रेसी स्थापित हुईं और ये देश पूंजीवाद के विरुद्ध एकजुट संघर्ष में शामिल होने के बजाय एक दूसरे के विरुद्ध साम्राज्यवादी गुटों में बंट गए. सोवियत संघ को भारत की नेहरु सरकार में क्रान्ति की झलक दिखाई दी तो माओ को अमेरिका की निक्सन सरकार में. ‘एक देश में समाजवाद’ के राष्ट्रीय-समाजवादी (करनी में राष्ट्रवादी, कथनी में समाजवादी) उपक्रम की यह ऐतिहासिक नियति थी.

प्रश्न : ‘एक देश में समाजवाद’ के कार्यक्रम का भारत और विश्व क्रांति के वर्तमान और भविष्य के लिए क्या अर्थ है?

उत्तर : ‘एक देश में समाजवाद’ के प्रछन्न पूंजीवादी और निम्न-पूंजीवादी उपक्रम, रूस, पूर्वी यूरोप, चीन, वियतनाम, क्यूबा सब अपनी ऐतिहासिक नियति को प्राप्त हो चुके हैं. वे विश्व पूंजीवाद के इंजन के पीछे बंधे डब्बों से ज्यादा कोई महत्त्व नहीं रखते. स्तालिनवादी प्रतिक्रांति ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को सौ वर्ष पीछे घसीट दिया है. मगर इस विनाश से सबक लेते हुए, क्रान्तिकारी युवाओं की एक नई पीढ़ी, उस क्रान्तिकारी कार्यक्रम को, जिसे पिछली सदी में बूर्ज्वाजी और स्टालिनवाद के सांझे बर्बर दमन ने हाशिये पर लगा दिया था, फिर से क्रान्तिकारी राजनीति के केंद्रक में ला रही है.

भारत में सत्ता लेने के बाद विजयी सर्वहारा, मेहनतकशों-किसानो की मदद से अपना अधिनायकत्व स्थापित करेगा और दक्षिण एशिया के देशों, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, बर्मा, में पूंजीवादी राज्यों में क्रान्तिकारी तख्ता-पलट में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, इन देशों को दक्षिण एशियाई राज्यों के समाजवादी संघ में एकजुट करना प्रथम और सर्वोच्च कार्यभार होगा. दक्षिण एशिया में सफल सर्वहारा क्रांति का यह मज़बूत किला, विश्व समाजवादी क्रांति का जुझारू दुर्ग होगा, जिसके दरवाजे पर लिखा होगा: ‘पूंजीवाद के कलंक को दुनिया से मिटा देंगे’.

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