- राजेश त्यागी/ २५.१२.२०१७
२१ वर्ष पुराने, लगभग एक हज़ार करोड़ के चारा घोटाले में, सीबीआई विशेष न्यायालय ने, एक बार फिर, लालू प्रसाद यादव सहित १५ दोषियों को दोषसिद्ध घोषित कर दिया है, जबकि जगन्नाथ मिश्र सहित अनेक दोषियों को दोषमुक्त घोषित किया है.
यह मामला उन ६४ मामलों में से सिर्फ एक है जो साल दर साल, १९८५ से १९९६ तक, एक दशक चले चारा घोटाले में दर्ज किए गए और जिन्हें अलग अलग चलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे. इन ६४ मामलों में लालू छह में अभियुक्त हैं और चाईबासा के १९९४-९५ के मामले में वे पहले ही दोषी करार दिए जा चुके हैं और दण्डित हो चुके हैं, जिसमें लगभग ३८ करोड़ का घोटाला हुआ था. चाईबासा, डोरंडा, रांची, दुमका, पटना में गबन से जुड़े शेष मामलों में भी लालू अभियुक्त हैं.
चारा घोटाला, जिसका केंद्र बिहार सरकार का पशुपालन विभाग रहा, उसकी जड़ें १९८५ में ही महालेखापरीक्षक टी.एन.चतुर्वेदी की एक रिपोर्ट में सामने आई थीं जिसके चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की कुर्सी गई थी. इस के बाद दोबारा यह घोटाला १९९६ में लालू काल में सामने आया. उस समय सौ करोड़ से शुरू हुआ यह घोटाला १९९६ में लालू सरकार के तहत एक हज़ार करोड़ के आसपास जा पहुंचा.
१९९६ में तत्कालीन राज्य सचिव वी.एस.दुबे के आदेश पर की गई जांच में पूरा घोटाला सामने आया. पशुपालन विभाग के जिला कार्यालयों और अधिकारियों पर डाले गए व्यापक छापों में ठोस साक्ष्य जमा होते चले गए.
१९९३ में आयकर विभाग की छापेमारी में तथ्य सामने आने शुरू हुए. ९४ में गुप्तचर विभाग ने कुछ मामले पकड़े. ९५ और ९६ में ऐसी ही कार्रवाइयों में काफी मामले सामने आए. मामलों की जांच जन कोष समिति के सुपुर्द हुई तो उसके अध्यक्ष जगदीश शर्मा ने जो जगन्नाथ मिश्र का दांया हाथ था, ख़ुफ़िया विभाग की जांच पर रोक लगा दी.
१९९७ में एक जनहित याचिका पर संज्ञान लेते हुए पटना उच्च न्यायालय ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपी थी. जांच के बाद सीबीआई ने राज्यपाल से तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाने की आज्ञा मांगी तो लालू को पद छोड़ना पड़ा मगर उसने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया.
रांची की विशेष सीबीआई अदालत ने ३० सितम्बर २०१३ को जगन्नाथ मिश्र और लालू प्रसाद दोनों को दोषसिद्ध घोषित करते हुए दण्डित किया था. उसी अदालत ने गत २३ दिसंबर को लालू को दोषसिद्ध और जगन्नाथ मिश्र को दोषमुक्त कर दिया है.
जगन्नाथ मिश्र की दोषमुक्ति, निश्चित रूप से अवांछित और अनुचित है. निस्संदेह, मिश्र के विरुद्ध दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद था. सीबीआई, अदालतें और सत्ता के तमाम दूसरे अंग एक दूसरे के साथ तालमेल में काम करते हैं और सत्ताधारियों के हाथ में खेलते हैं.
लालू के दोषसिद्ध और मिश्र के दोषमुक्त होने के पीछे सत्ताधारी भाजपा के साथ दोनों के संबंधों का गणित और बिहार के राजनीतिक समीकरण हैं. इनके चलते, यह फैसला इन बुर्जुआ नेताओं और पार्टियों के बीच पहले ही से जारी गलाकाट लड़ाई को और तेज़ करेगा.
यह मामला उन ६४ मामलों में से सिर्फ एक है जो साल दर साल, १९८५ से १९९६ तक, एक दशक चले चारा घोटाले में दर्ज किए गए और जिन्हें अलग अलग चलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे. इन ६४ मामलों में लालू छह में अभियुक्त हैं और चाईबासा के १९९४-९५ के मामले में वे पहले ही दोषी करार दिए जा चुके हैं और दण्डित हो चुके हैं, जिसमें लगभग ३८ करोड़ का घोटाला हुआ था. चाईबासा, डोरंडा, रांची, दुमका, पटना में गबन से जुड़े शेष मामलों में भी लालू अभियुक्त हैं.
चारा घोटाला, जिसका केंद्र बिहार सरकार का पशुपालन विभाग रहा, उसकी जड़ें १९८५ में ही महालेखापरीक्षक टी.एन.चतुर्वेदी की एक रिपोर्ट में सामने आई थीं जिसके चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की कुर्सी गई थी. इस के बाद दोबारा यह घोटाला १९९६ में लालू काल में सामने आया. उस समय सौ करोड़ से शुरू हुआ यह घोटाला १९९६ में लालू सरकार के तहत एक हज़ार करोड़ के आसपास जा पहुंचा.
१९९६ में तत्कालीन राज्य सचिव वी.एस.दुबे के आदेश पर की गई जांच में पूरा घोटाला सामने आया. पशुपालन विभाग के जिला कार्यालयों और अधिकारियों पर डाले गए व्यापक छापों में ठोस साक्ष्य जमा होते चले गए.
१९९३ में आयकर विभाग की छापेमारी में तथ्य सामने आने शुरू हुए. ९४ में गुप्तचर विभाग ने कुछ मामले पकड़े. ९५ और ९६ में ऐसी ही कार्रवाइयों में काफी मामले सामने आए. मामलों की जांच जन कोष समिति के सुपुर्द हुई तो उसके अध्यक्ष जगदीश शर्मा ने जो जगन्नाथ मिश्र का दांया हाथ था, ख़ुफ़िया विभाग की जांच पर रोक लगा दी.
१९९७ में एक जनहित याचिका पर संज्ञान लेते हुए पटना उच्च न्यायालय ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपी थी. जांच के बाद सीबीआई ने राज्यपाल से तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाने की आज्ञा मांगी तो लालू को पद छोड़ना पड़ा मगर उसने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया.
रांची की विशेष सीबीआई अदालत ने ३० सितम्बर २०१३ को जगन्नाथ मिश्र और लालू प्रसाद दोनों को दोषसिद्ध घोषित करते हुए दण्डित किया था. उसी अदालत ने गत २३ दिसंबर को लालू को दोषसिद्ध और जगन्नाथ मिश्र को दोषमुक्त कर दिया है.
जगन्नाथ मिश्र की दोषमुक्ति, निश्चित रूप से अवांछित और अनुचित है. निस्संदेह, मिश्र के विरुद्ध दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद था. सीबीआई, अदालतें और सत्ता के तमाम दूसरे अंग एक दूसरे के साथ तालमेल में काम करते हैं और सत्ताधारियों के हाथ में खेलते हैं.
लालू के दोषसिद्ध और मिश्र के दोषमुक्त होने के पीछे सत्ताधारी भाजपा के साथ दोनों के संबंधों का गणित और बिहार के राजनीतिक समीकरण हैं. इनके चलते, यह फैसला इन बुर्जुआ नेताओं और पार्टियों के बीच पहले ही से जारी गलाकाट लड़ाई को और तेज़ करेगा.
मगर इससे लालू का भ्रष्ट इतिहास नहीं धुल सकता. चारा घोटालों में लालू, उसके परिजनों और उसके अधीनस्थों ने पशुओं के चारे के लिए निगमित धनराशि का गबन करके सबसे गरीब, दलित, भूमिहीन मेहनतकशों को चूना लगाया है.
जगन्नाथ मिश्र की ही तरह, लालू प्रसाद भी भ्रष्टतम नेताओं में से एक है. उसने दशकों समाजवाद के नाम पर पूंजीवाद की जमकर सेवा की है और दोनों हाथों से जनधन को लूटकर अपने और अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर अकूत संपत्ति एकत्र की है. बिहार में गरीब, मेहनतकश जनता के आंदोलनों पर हिंसात्मक पुलिस दमन में लालू ने रिकॉर्ड कायम किया है. रणवीर सेना, शहाबुद्दीन जैसों की पीठ पर हाथ रखकर लालू ने गरीबों-मेहनतकशों के कितने ही सामूहिक नरसंहारों को अपनी सत्ता के जरिए शह दी है. लालू के जंगल राज में, भूमिहीन-किसान आन्दोलन सत्ता के दमन के निशाने पर रहे हैं. जातिवादी, क्षेत्रवादी संकीर्ण राजनीति की बिसात पर पैंतरेबाज़ी में लालू माहिर हैं. इन्ही संकीर्ण समीकरणों को लफ्फाजी से जोड़कर वे मेहनतकश जनता की अति-पिछड़ी चेतना को आधार बनाकर बिहार में जाति और पितृसत्ता की राजनीति करते रहे हैं. लोकरंजक, मगर घोर जनविरोधी राजनीति के शातिर खिलाड़ी, लालू यादव ने बिहार में दलितों-पिछड़ों के नाम पर मेहनतकश जनता को खूब ठगा है. बिहार में बाहुबल, दंभ और गुंडागर्दी की राजनीति के शीर्ष खिलाडियों में एक वह भी हैं.
हाल ही में रेलवे टेंडर घोटाले में लालू, उसकी बेटी मीसा और बेटे तेजस्वी का नाम आने के बाद बिहार में नितीश के साथ लालू का गठबंधन टूट गया था और तेजस्वी को बिहार के उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था. इस टेंडर घोटाले की जांच में, लालू और उसके परिजनों के नाम सैंकड़ों करोड़ की संपत्ति सामने आई है जिसमें दिल्ली तक में फार्महाउस और फ्लैट शामिल हैं.
बिहार, भारत के सबसे गरीब और पिछड़े राज्यों में से एक है. बिहार में इस लूट का अर्थ, सबसे निर्धन और अभावग्रस्त मेहनतकश जनता के व्यापक हिस्सों की लूट है. उसी बिहार में जहां कमरतोड़ श्रम करने वाले लाखों लोग दो वक़्त की रोटी नहीं जुटा पाते, मिश्र और लालू जैसे नेताओं ने सार्वजनिक कोष को लूटकर अपनी तिजोरियां भर ली हैं.
लालू की इस पतित और दूषित राजनीति को कायम रखने और चमकाने में स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों की विशेष भूमिका रही है. लालू की पत्तल चाटते, इन झूठे वामियों ने उसे धर्मनिरपेक्ष और गरीब-परस्त नेता के रूप में जमकर प्रचारित किया है और आज भी कर रहे हैं. इन छद्म वामियों की कुल भूमिका बिहार में लालू और उसकी जनविरोधी पार्टी को एक झूठा जनवादी मुखौटा देने की रही है. भाकपा और माकपा लम्बे समय से बिहार में लालू की पार्टी राजद के साथ मिलकर सांझे चुनाव मोर्चे बनाते रहे हैं, जबकि भाकपा माले यह अवसर हासिल करने के लिए लम्बे समय से उत्सुक है. माले महासचिव, दीपांकर भट्टाचार्य ने २०१४ में पटना के काली कमली मैदान में लालू की धर्मनिरपेक्षता और जनवादिता की प्रंशसा के पुल बांधे थे. जबकि भाकपा-माकपा शुरू से ही लालू से चिपकी हैं, माले लुक-छिप खेलती रही है. १९९४ में, लालू द्वारा माले के चार विधायक तोड़ लेने के बाद माले नितीश कुमार से जा चिपकी थी और लालू ने माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) की पीठ पर हाथ रख दिया था. नितीश के भाजपा नीत एन.डी.ए. में जुड़ जाने के बाद से ही लावारिस हुई माले लालू की शरण में जाने तो तत्पर है. २०१९ के चुनाव में बिहार में माले और राजद का गठजोड़ लगभग तय है. भाकपा और माकपा इस गठजोड़ में होंगी ही.
जगन्नाथ मिश्र की ही तरह, लालू प्रसाद भी भ्रष्टतम नेताओं में से एक है. उसने दशकों समाजवाद के नाम पर पूंजीवाद की जमकर सेवा की है और दोनों हाथों से जनधन को लूटकर अपने और अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर अकूत संपत्ति एकत्र की है. बिहार में गरीब, मेहनतकश जनता के आंदोलनों पर हिंसात्मक पुलिस दमन में लालू ने रिकॉर्ड कायम किया है. रणवीर सेना, शहाबुद्दीन जैसों की पीठ पर हाथ रखकर लालू ने गरीबों-मेहनतकशों के कितने ही सामूहिक नरसंहारों को अपनी सत्ता के जरिए शह दी है. लालू के जंगल राज में, भूमिहीन-किसान आन्दोलन सत्ता के दमन के निशाने पर रहे हैं. जातिवादी, क्षेत्रवादी संकीर्ण राजनीति की बिसात पर पैंतरेबाज़ी में लालू माहिर हैं. इन्ही संकीर्ण समीकरणों को लफ्फाजी से जोड़कर वे मेहनतकश जनता की अति-पिछड़ी चेतना को आधार बनाकर बिहार में जाति और पितृसत्ता की राजनीति करते रहे हैं. लोकरंजक, मगर घोर जनविरोधी राजनीति के शातिर खिलाड़ी, लालू यादव ने बिहार में दलितों-पिछड़ों के नाम पर मेहनतकश जनता को खूब ठगा है. बिहार में बाहुबल, दंभ और गुंडागर्दी की राजनीति के शीर्ष खिलाडियों में एक वह भी हैं.
हाल ही में रेलवे टेंडर घोटाले में लालू, उसकी बेटी मीसा और बेटे तेजस्वी का नाम आने के बाद बिहार में नितीश के साथ लालू का गठबंधन टूट गया था और तेजस्वी को बिहार के उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था. इस टेंडर घोटाले की जांच में, लालू और उसके परिजनों के नाम सैंकड़ों करोड़ की संपत्ति सामने आई है जिसमें दिल्ली तक में फार्महाउस और फ्लैट शामिल हैं.
बिहार, भारत के सबसे गरीब और पिछड़े राज्यों में से एक है. बिहार में इस लूट का अर्थ, सबसे निर्धन और अभावग्रस्त मेहनतकश जनता के व्यापक हिस्सों की लूट है. उसी बिहार में जहां कमरतोड़ श्रम करने वाले लाखों लोग दो वक़्त की रोटी नहीं जुटा पाते, मिश्र और लालू जैसे नेताओं ने सार्वजनिक कोष को लूटकर अपनी तिजोरियां भर ली हैं.
लालू की इस पतित और दूषित राजनीति को कायम रखने और चमकाने में स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों की विशेष भूमिका रही है. लालू की पत्तल चाटते, इन झूठे वामियों ने उसे धर्मनिरपेक्ष और गरीब-परस्त नेता के रूप में जमकर प्रचारित किया है और आज भी कर रहे हैं. इन छद्म वामियों की कुल भूमिका बिहार में लालू और उसकी जनविरोधी पार्टी को एक झूठा जनवादी मुखौटा देने की रही है. भाकपा और माकपा लम्बे समय से बिहार में लालू की पार्टी राजद के साथ मिलकर सांझे चुनाव मोर्चे बनाते रहे हैं, जबकि भाकपा माले यह अवसर हासिल करने के लिए लम्बे समय से उत्सुक है. माले महासचिव, दीपांकर भट्टाचार्य ने २०१४ में पटना के काली कमली मैदान में लालू की धर्मनिरपेक्षता और जनवादिता की प्रंशसा के पुल बांधे थे. जबकि भाकपा-माकपा शुरू से ही लालू से चिपकी हैं, माले लुक-छिप खेलती रही है. १९९४ में, लालू द्वारा माले के चार विधायक तोड़ लेने के बाद माले नितीश कुमार से जा चिपकी थी और लालू ने माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) की पीठ पर हाथ रख दिया था. नितीश के भाजपा नीत एन.डी.ए. में जुड़ जाने के बाद से ही लावारिस हुई माले लालू की शरण में जाने तो तत्पर है. २०१९ के चुनाव में बिहार में माले और राजद का गठजोड़ लगभग तय है. भाकपा और माकपा इस गठजोड़ में होंगी ही.
माले के कई नेताओं, कार्यकर्ताओं की हत्या में लालू का प्रत्यक्ष या परोक्ष हाथ रहा है. युवा चंद्रशेखर इनमें से एक था जिसकी शहाबुद्दीन द्वारा हत्या करा दिए जाने पर लालू ने शहाबुद्दीन को न सिर्फ राजनीतिक संरक्षण दिया बल्कि उसे बाकायदा अपनी कैबिनेट में मंत्री बना दिया.
इसके बावजूद, लालू के दोषसिद्ध घोषित होने पर झूठे वामियों ने जमकर विरोध किया. तरह तरह के बहाने बनाते उन्होंने इस फैसले की निंदा की. स्तालिनवादी पार्टियों के नेताओं, कार्यकर्ताओं की फेसबुक लालू की प्रशंसा और फैसले की निंदा से भरी पड़ी हैं. वे भ्रष्ट लालू और मिश्र की निंदा करने के बजाय, मिश्र की ही तरह लालू के लिए भी दोषमुक्ति मांग रहे हैं.
स्तालिनवादी, युवाओं और मेहनतकशों को लालू जैसे भ्रष्ट, शातिर, जनद्रोहियों के पीछे बांधते हैं. ये रंगे सियार तर्क देते हैं कि वे लालू के सहारे भाजपा और उसके फासीवाद से लड़ेंगे. यह परले दर्जे का झूठ और मक्कारी है. पूंजीवाद के दलाल, लालू जैसे भ्रष्ट अपराधियों से जुड़कर फासीवाद से कभी नहीं लड़ा जा सकता. फासीवाद, पूंजीवाद का कवच है. इन दोनों को ध्वस्त करने के लिए, मजदूर वर्ग को धुरी बनाकर तमाम मेहनतकश जनता को क्रान्तिकारी संघर्ष में एकजुट करना होगा. बिहार में यह संघर्ष लालू जैसे भ्रष्ट दलालों के साथ सहबंध बनाकर नहीं, बल्कि ठीक उनके विरुद्ध लड़ा जाएगा.
इस संघर्ष से इनकार कर रही, स्तालिनवादी पार्टियां, खुले अवसरवाद की पार्टियां हैं जो बिहार में लालू की ही तरह जाति और क्षेत्रवाद की राजनीति में आकंठ डूबी हुई हैं. स्तालिनवादियों और लालू दोनों का समर्थन जनता के एक ही हिस्से में है. ये दोनों भी शेष पार्टियों की ही तरह, जनता की दकियानूस, संकीर्ण चेतना को ही संबोधित करते हैं. दोनों, क्रान्ति और सर्वहारा के शत्रु हैं.
बिहार, भारत में क्रान्तिकारी अंतर्विरोधों की मुख्य भूमि है. यहां किसान युद्धों के साथ ही शहरी सर्वहारा संघर्ष मौजूद हैं. शहरों में पूंजीवादी आधुनिकता, विस्तृत ग्रामीण अंचलों में फैले अति-पिछड़ेपन के साथ घुलमिल गई है. यहां एक तरफ लालू और मिश्र हैं तो दूसरी तरफ दुनिया के सबसे गरीब और विपन्न मेहनतकश जनता के व्यापक समुदाय.
मार्क्सवादियों का कार्यभार है कि वे बिहार के इस विस्फोटक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इन दो संघर्षों पर सर्वहारा के स्वतंत्र राजनीतिक विकल्प का निर्माण करें. इसके लिए जरूरी है कि स्तालिनवादी पार्टियों की घृणित मेन्शेविक राजनीति से, जो बुर्जुआ नेताओं के साथ मजबूती से बंधी है, पूरी तरह किनारा किया जाय और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की एकमात्र पार्टी, वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी के गिर्द अग्रणी युवाओं और सर्वहारा के अगुआ तत्त्वों को जमा कर, सर्वहारा की राजनीतिक स्वतंत्रता और केन्द्रीयता के लिए लड़ते हुए, एक नए क्रान्तिकारी आन्दोलन की धुरी तैयार की जाय.
स्तालिनवादी, युवाओं और मेहनतकशों को लालू जैसे भ्रष्ट, शातिर, जनद्रोहियों के पीछे बांधते हैं. ये रंगे सियार तर्क देते हैं कि वे लालू के सहारे भाजपा और उसके फासीवाद से लड़ेंगे. यह परले दर्जे का झूठ और मक्कारी है. पूंजीवाद के दलाल, लालू जैसे भ्रष्ट अपराधियों से जुड़कर फासीवाद से कभी नहीं लड़ा जा सकता. फासीवाद, पूंजीवाद का कवच है. इन दोनों को ध्वस्त करने के लिए, मजदूर वर्ग को धुरी बनाकर तमाम मेहनतकश जनता को क्रान्तिकारी संघर्ष में एकजुट करना होगा. बिहार में यह संघर्ष लालू जैसे भ्रष्ट दलालों के साथ सहबंध बनाकर नहीं, बल्कि ठीक उनके विरुद्ध लड़ा जाएगा.
इस संघर्ष से इनकार कर रही, स्तालिनवादी पार्टियां, खुले अवसरवाद की पार्टियां हैं जो बिहार में लालू की ही तरह जाति और क्षेत्रवाद की राजनीति में आकंठ डूबी हुई हैं. स्तालिनवादियों और लालू दोनों का समर्थन जनता के एक ही हिस्से में है. ये दोनों भी शेष पार्टियों की ही तरह, जनता की दकियानूस, संकीर्ण चेतना को ही संबोधित करते हैं. दोनों, क्रान्ति और सर्वहारा के शत्रु हैं.
बिहार, भारत में क्रान्तिकारी अंतर्विरोधों की मुख्य भूमि है. यहां किसान युद्धों के साथ ही शहरी सर्वहारा संघर्ष मौजूद हैं. शहरों में पूंजीवादी आधुनिकता, विस्तृत ग्रामीण अंचलों में फैले अति-पिछड़ेपन के साथ घुलमिल गई है. यहां एक तरफ लालू और मिश्र हैं तो दूसरी तरफ दुनिया के सबसे गरीब और विपन्न मेहनतकश जनता के व्यापक समुदाय.
मार्क्सवादियों का कार्यभार है कि वे बिहार के इस विस्फोटक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इन दो संघर्षों पर सर्वहारा के स्वतंत्र राजनीतिक विकल्प का निर्माण करें. इसके लिए जरूरी है कि स्तालिनवादी पार्टियों की घृणित मेन्शेविक राजनीति से, जो बुर्जुआ नेताओं के साथ मजबूती से बंधी है, पूरी तरह किनारा किया जाय और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की एकमात्र पार्टी, वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी के गिर्द अग्रणी युवाओं और सर्वहारा के अगुआ तत्त्वों को जमा कर, सर्वहारा की राजनीतिक स्वतंत्रता और केन्द्रीयता के लिए लड़ते हुए, एक नए क्रान्तिकारी आन्दोलन की धुरी तैयार की जाय.
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