Thursday, 14 December 2017

लगातार दरकते जन-समर्थन के बीच, नेपाली मेंशेविकों की जीत, राजनीतिक संकट को और तेज़ करेगी!

- राजेश त्यागी/ १४.१२.२०१७


नेपाल में चौथी संघीय संसद के २७५ सदस्यों वाले निचले सदन, ‘प्रतिनिधि सभा’ के लिए २६ नवम्बर और ७ दिसंबर को दो चरण में मतदान संपन्न हुआ. २७५ में से १६५ सीटों के लिए सीधे ‘एकल सदस्यीय क्षेत्र’ के आधार पर चुनाव हुआ जबकि ११० सीटों के लिए ‘एकल राष्ट्रीय क्षेत्र’ के आधार पर पार्टीगत आनुपातिक प्रणाली से चुनाव हुआ. सभी मतदाताओं ने, दोनों प्रणालियों में, दो अलग-अलग बैलट पत्रों के जरिए मतदान किया. २०१३ में मौजूद २४० चुनाव क्षेत्रों को, इस बार १६५ में पुनर्संगठित कर लिया गया था, जो व्यवस्था अगले दो दशक मान्य रहेगी. ११० सीटें पार्टियों के बीच राष्ट्रीय स्तर पर उनके पक्ष में कुल वोटों के अनुपात में विभाजित होंगी, जिसमें सीट हासिल करने के लिए पार्टी को कुल मतों का न्यूनतम ३% अनिवार्य रूप से चाहिए.

शनिवार रात घोषित हुए नतीजों में स्तालिनवादी नेकपा (संयु.माले) और नेकपा (माओवादी) के वाम गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल हो गया, जबकि नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथी मोर्चे को पराजय का सामना करना पड़ा.


एकल सदस्यीय क्षेत्र के सीधे चुनाव में नेकपा (सं.माले) को ८०, नेकपा (माओवादी) को ३६ और नेपाली कांग्रेस को २३ सीटें हासिल हुईं. फ़ेडरल सोशलिस्ट फोरम को दस और राष्ट्रीय जनता पार्टी को ११ सीटें मिलीं. राष्ट्रीय जनमोर्चा, नया शक्ति पार्टी, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी और नेपाल वर्कर्स एंड पीजेन्ट्स पार्टी को एक-एक सीट मिली.

बाबूराम भट्टाराई के नेतृत्व वाली नया शक्ति पार्टी पहले वाम मोर्चे में शामिल थी मगर बाद में भट्टाराई को गोरखा क्षेत्र से टिकट न मिलने के कारण उसने किनारा कर लिया. उसे कुल एक सीट मिली. कुछ सीटों पर राष्ट्रीय जनमोर्चा जैसी स्थानीय स्तालिनवादी, माओवादी पार्टियां भी वाम मोर्चे में शामिल रहीं. नेपाली कांग्रेस की अगुवाई वाले दक्षिणपंथी मोर्चे में, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी और मधेसी पार्टियां शामिल थीं. कुल ८८ राजनीतिक दल इस चुनाव में हिस्सा ले रहे थे.

नेपाली कांग्रेस के राम चन्द्र पोड्याल, के.पी.सितौला, और विजय गछादर जैसे दिग्गज खेत रहे. नेपाली कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री, शेर बहादुर ड्यूबा खुद तो चुनाव जीते लेकिन उनकी पत्नी आरजू राणा चुनाव हार गईं.

शासक धडों के बीच गहराते विग्रह के चलते चुनाव हिंसक रहा. भारत-नेपाल की सीमा को २२ जगह सील कर दिए जाने के बावजूद, लगभग सौ बम धमाके हुए जिनमें एक डांग में प्रधानमंत्री ड्यूबा की चुनाव सभा में ठीक उनके सामने हुआ. इन बम धमाकों में एक पुलिस अधिकारी मारा गया, जबकि दर्जनों घायल हुए. गाड़ी पर फेंके गए बम से उदयपुर से नेपाली कांग्रेस प्रत्याशी नारायण कार्की घायल हुए, जबकि एक विस्फोट ने पूर्व स्वास्थ्य मंत्री गगन थापा को घायल कर दिया.

जबकि बुर्जुआ नेपाली कांग्रेस और नेकपा (संयु.माले) का वोट प्रतिशत २००८ से लगातार बढ़ता गया है, माओवादियों का वोट प्रतिशत तेज़ी से गिरा है. नेकपा (माओवादी) के वोट बैंक में एक तरफ नेपाली कांग्रेस और नेकपा (संयु.माले) ने सेंध लगाई है तो दूसरी तरफ क्षेत्रीय पार्टियों ने भी उसका वोट काटा है. हाल के चुनाव में नेकपा (माओवादी) और नेकपा (संयु.माले) के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन होने से हालांकि सटीक मत विग्रह संभव नहीं है.

नेकपा (संयु.माले) को २०१७ में २३७३०९३ (३४.४३%), २०१३ में २४९२०९० (२७.५५%) और २००८ में २२२९०६४ (२१.६३%) वोट मिले. नेकपा (माओवादी) को २०१७ में ९३२९७९ (१३.५४%), २०१३ में १६०९१४५ (१७.७९%) और २००८ में ३१४५५१९ वोट मिले. नेपाली कांग्रेस को २०१७ में २२८६२९१ (३३.१७ %), २०१३ में २६९४९८३ (२९.८०%) और २००८ में २३४८६९० (२२.७९%) वोट मिले.

वाम पार्टियों का कुल वोट प्रतिशत २००८ के बाद से गिरता गया है, जबकि बुर्जुआ नेपाली कांग्रेस, मधेसी और बुर्जुआ दक्षिणपंथ की दूसरी पार्टियों के हिस्से में निरंतर वृद्धि हुई है.

नेपाल में इन मेंशेविक पार्टियों का गिरता ग्राफ़, उन घातों का सीधा परिणाम है जो २००६ के आन्दोलन के बाद से ही इन्होने अबाध जारी रखे है. इन घातों की फेहरिस्त में, राजा ज्ञानेंद्र का बचाव और सुरक्षा, नेपाली सेना के बजाय छापामार दस्तों का विसंगठन, कृषि क्रान्ति के दौरान छीनी हुई ज़मीनों को वापस करने के आदेश, दलित मधेसियों के अधिकारों का निर्मम दमन, भारत और चीन जैसी महाशक्तियों के राजनीतिक वर्चस्व और दखल को स्वीकृति आदि, प्रमुख हैं.

नेपाल में मेंशेविक वाम-मोर्चे की यह चुनावी विजय, किसी वास्तविक उपलब्धि या चमत्कार का परिणाम नहीं है, बल्कि लगातार गिरते जन-समर्थन से निराश और हतोत्साहित वाम नेताओं के बीच सिद्धान्तहीन और अवसरवादी गठबंधन का बीजगणित है. इस निरंतर गिरते जन-समर्थन के बीच, चुनावी गठजोड़, माओवादियों और स्तालिनवादियों दोनों की बाध्यता थी. इसके बिना ये दोनों ही किनारे लग गए होते और नेपाली संसद में एक छोटी सी अल्पसंख्या में सिमट कर रह गए होते.

चुनावी गठजोड़, यानि जोड़तोड़ की राजनीति ने, मेंशेविक मोर्चे को सत्ता में तो पहुंचा दिया है लेकिन दो विरोधी महाशक्तियों- चीन और भारत- के बीच बंटी इसके दो घटकों की परस्पर विरोधी राजनीतिक निष्ठाएं, जल्द ही इस मोर्चे का तिया-पांचा कर देंगी.

इन चुनावों में भी चीन और भारत की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने बड़ी भूमिका अदा की है. नेपाल का चुनाव, सही अर्थों में चीन और भारत के शासकों के बीच एक सीधा संघर्ष था जिसमें चीनी शासकों ने जीत हासिल की है.

भारत की पूंजीवादी सत्ता, माओवादियों के साथ-साथ, बल्कि उनसे ऊपर, नेपाली कांग्रेस को प्राथमिकता पर समर्थन देती है. भारत के शासक माओवादियों पर वाम-मोर्चा न बनाने के लिए भरसक दबाव डालते रहे मगर माओवादी पार्टी के पास कोई चारा नहीं था. माओवादी पार्टी के भीतर भी इस सहबंध के लिए दबाव तेज़ हो रहा था. इस मोर्चे के चलते, भारत के शासक माओवादियों से नाराज़ भी रहे और चुनावों में उन्होंने नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथी गठबंधन को सक्रिय समर्थन दिया.

लेकिन इस तल्खी का यह अर्थ कतई नहीं है कि माओवादी नेताओं के साथ भारत के शासकों के संबंधों में कोई बड़ा मोड़ आया हो. संघ नेता राम माधव चुनाव परिणाम के तुरंत बाद ही प्रचंड को बधाई देने काठमांडू पहुंचे जहां माओवादियों ने उनका जोरदार स्वागत किया. स्तालिनवादी नेता और मेंशेविक मोर्चे के अध्यक्ष के.पी.ओली के निकट सहयोगियों ने राम माधव से शिकायत करते हुए अपनी नाराज़गी का सबब यह बताया कि ओली के बार-बार अनुरोध करने पर भी नरेंद्र मोदी ने उन्हें एक बार भी सीधे मिलने की अनुमति नहीं दी बल्कि कनिष्ठ नेताओं के जरिये ही बात की. राम माधव ने कहा कि ओली से उनके गहरे व्यक्तिगत सम्बन्ध हैं और वे उनका प्रयोग भारत-नेपाल संबंधों को गहन और प्रगाढ़ बनाने के लिए करेंगे.

प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रचंड सरकार के निमंत्रण पर नेपाल का दौरा किया था. मोदी की यात्रा का उद्देश्य पड़ोसी देशों से सम्बन्ध प्रगाढ़ करना था. २०१५ में नेपाल भूकंप के समय भी भारत के शासकों ने इसी रणनीतिक उद्देश्य को सामने रखते हुए, प्राकृतिक आपदा से उबरने में नेपाल सरकार को मदद दी थी.

मगर २०१५ में नेपाल में संविधान लागू करते समय, भारत सरकार ने मधेसी आन्दोलन की मांगों का सक्रिय समर्थन किया था, जिससे दोनों के बीच संबंधों में दरार आई थी. भारत ने मधेसी आन्दोलन द्वारा की जा रही घेराबंदी को प्रोत्साहन देने के लिए नेपाल में ट्रकों की आवाजाही रोक दी थी. इस समर्थन से खिन्न, २०१५ में प्रधानमंत्री बने ओली ने भारत पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से कच्चे तेल के आयात के लिए चीन के साथ तेल सप्लाई समझौता किया था जो नेपाल की एक तिहाई आवश्यकताओं को पूरा करता था. तबसे दोनों पक्षों के बीच तल्खी जारी रही है. चीन के साथ ओली और उसकी नेकपा (संयु.माले) की नजदीकियों के चलते ही, भारत के दखल से, २०१६ में ओली सरकार का पतन हुआ था और शेर बहादुर ड्यूबा की नेपाली कांग्रेस ने सत्ता संभाली थी. यह नेपाल की सत्ता के गलियारों में भारत के शासकों की मजबूत पकड़ का प्रमाण था.

भौगोलिक स्थितियां इन संबंधों में अहम् भूमिका अदा कर रही हैं. जहां भारत और नेपाल के बीच खुली सीमा मौजूद है वहीं नेपाल और चीन के बीच दुरूह पहाड़ी सीमा है. २०१५ का चीन-नेपाल पेट्रोलियम समझौता भी इसी कठिनाई के चलते लागू नहीं हो पाया है. भारत-नेपाल के बीच आर्थिक-सांस्कृतिक संबंधों की भी अपनी भूमिका है. हजारों नेपाली मेहनतकश भारत में नौकरी करते हैं और भारत-नेपाल सांस्कृतिक रूप से, चीन की अपेक्षा, एक दूसरे के कहीं अधिक नज़दीक हैं. नए नेतृत्व में, नेपाल, चीन की ओर झुकाव तो अवश्य लेगा लेकिन उसका भारत के विरुद्ध जाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है.

माओवादी शुरू से ही एक तरफ राजशाही और दूसरी तरफ भारत के पूंजीवादी शासकों के साथ चिपके रहे हैं, जबकि स्तालिनवादी नेकपा (संयु.माले) चीन के माओवादी शासन के साथ जुड़ी है. नेपाली माओवादी, दक्षिणपंथी मोदी सरकार के सत्ता में आ जाने के बावजूद भी भारत के साथ बंधे रहे हैं. प्रचंड ने अनेक अवसरों पर नरेंद्र मोदी की प्रशंसा के पुल बांधे हैं. ओली और उसकी पार्टी नेकपा (संयु माले) द्वारा चीन की ओर स्पष्ट झुकाव लेने के साथ ही भारत की मोदी सरकार और माओवादी नेकपा के बीच और गहरे रिश्ते विकसित हुए हैं.

मालदीव के प्रधानमंत्री अब्दुल्ला यामीन द्वारा चीन से गठबंधन और श्रीलंका द्वारा हम्बनतोता बंदरगाह चीन के हवाले कर देने के बाद नेपाल में चीन पक्षीय सरकार का गठन चीन के सामरिक उद्देश्यों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. यह भारत को चार ओर से घेरने के चीन के रणनीतिक उद्देश्यों में महत्वपूर्ण कारक है. जबकि मालदीव और श्रीलंका पहले ही चीन के सागरीय सिल्क रूट के हिस्से हैं, नेपाल को अपने ‘एक बेल्ट, एक मार्ग’ उपक्रम में जोड़ने के लिए चीन लालायित है.

नए चुनावों और नई सरकार के गठन के साथ, नेपाल, स्थिरता नहीं और अस्थिरता की ओर बढेगा. आन्तरिक संकट और महाशक्तियों के दबाव में न सिर्फ मेंशेविक मोर्चा जल्द ही टूट-बिखर जाएगा, बल्कि सरकार के भीतर और बाहर, षड्यंत्रों और उठापटक का अनवरत सिलसिला शुरू होगा. लाल चादर ओढ़े, झूठे वामी तेज़ी से एक्सपोज़ होंगे और नेपाल की मेहनतकश जनता के बीच बेचैनी और अधिक बढ़ेगी. इन छद्म-वमियों के पास मेहनतकश जनता के लिए कुछ भी नहीं है, न ही पूंजीवाद, जिसकी नाव पर ये जोकर सवार हैं, उसे कुछ भी दे सकता है. जनता की अतृप्त आकांक्षाएं, नेपाल में फिर से नए उभारों, विद्रोहों की जमीन तैयार करेंगी. हमें, इन्हें क्रान्ति के कार्यक्रम से लैस करने की तैयारी करनी होगी.

नेपाली राष्ट्रवाद और बुर्जुआजी का वाम पक्ष बने, स्तालिनवादी और माओवादी, नेपाली मेंशेविक हैं, जो सर्वहारा की राजनीतिक स्वतंत्रता, केन्द्रीयता और सर्वहारा अधिनायकत्व के कट्टर विरोधी हैं और एशियाई महाशक्तियों के हाथों के खिलौने हैं. क्रान्ति के चरणगत मेन्शेविक सिद्धांत के ये अनुयायी, एक सुर में सर्वहारा से कहते हैं कि सर्वहारा कमज़ोर है, वह नेपाल में सत्ता नहीं ले सकता. वे कहते हैं कि सर्वहारा को बुर्जुआजी के विरुद्ध सत्ता के लिए संघर्ष नहीं करना है बल्कि बुर्जुआ गणतंत्र को सुदृढ़ करना है. उनकी एकमात्र भूमिका, नेपाली सर्वहारा और मेहनतकशों को नेपाली बुर्जुआजी और बुर्जुआ गणतंत्र की दुम से बांधना और क्रान्ति से विरत करना है. हाथ में लाल झंडा उठाए ये मेंशेविक खुद को कम्युनिस्ट बताते हुए, नेपाल में एक सच्ची सर्वहारा पार्टी के उदय और विकास को बाधित और ख़ारिज करते हैं.

स्टालिनवादियों और माओवादियों ने मिलकर नेपाल में क्रान्ति को पूरी तरह ठिकाने लगाने में बुर्जुआजी को सीधी मदद दी है. ये मेंशेविक, नेपाल की क्रान्ति के नहीं बल्कि प्रतिक्रांति के प्रतिनिधि हैं.

नेपाल में सरकार का गठन कर लेने के बाद ये दोनों मेंशेविक पार्टियां मिलकर पूंजीवाद का रथ हांकेंगी. दुनिया या एशिया के पूंजीवादी नेताओं, पार्टियों को इनके सत्ता में आने से कोई क्षोभ या परेशानी नहीं है. बल्कि तमाम बुर्जुआ नेता, यहां तक कि घोर दक्षिणपंथी संघी भी इन्हें बधाई सन्देश दे रहे हैं.

नेपाली वाम के इन दोगले, भ्रष्ट नेताओं के पास कोरी वाम लफ्फाजी के सिवा कभी भी कोई क्रान्तिकारी कार्यक्रम न था, न है. इन्होने २००६ में विद्रोह की उठती लपटों पर पानी डालने और बुझाने में नेपाली बुर्जुआजी को खुलकर सहयोग दिया. इनका पूरा इतिहास, मेहनतकश जनता के प्रति अगणित घातों और ग़द्दारियों का इतिहास है. युवा कार्यकर्ताओं को ‘नवजनवाद’, ‘जनता के जनवाद’, ‘लोक-जनवाद’ जैसे बेहूदा नारों से बहलाते, ये झूठे नेता, नेपाली पूंजीवाद की सेवा में लगे रहे हैं. इनके कार्यक्रम में, नेपाल में पूंजीवाद का विनाश शामिल ही नहीं है. जिस जनवाद की ये बात करते हैं, वह बुर्जुआ जनवाद के सिवा कुछ नहीं है.

नेपाल, दो भिन्न ऐतिहासिक युगों के सम्मिलन और मिश्रण का क्लासिक दृश्य प्रस्तुत करता है. राजशाही के तहत विकसित मध्ययुगीन सामाजिक सम्बन्ध और आधुनिक पूंजीवाद की उपलब्धियां एक दूसरे में गुंथ गए हैं. इसने आर्थिक विषमता और अलगाव को चरम पर पहुंचाते हुए एक विस्फोटक स्थिति को जन्म दिया है. एक तरफ दो परिवारों के पास अकूत संपत्ति और प्रचुरता और दूसरी ओर अकथनीय निर्धनता, अभाव और विपन्नता! दक्षिण एशिया में क्रान्ति की जो विराट सम्भावना मौजूद हैं, नेपाल उनकी स्पष्ट झांकी है. कमोबेश यही स्थितियां, समूचे दक्षिण एशिया में मौजूद हैं, जिनके चलते यह पूरा क्षेत्र न सिर्फ भौगोलिक-राजनीतिक आधार पर एकजुट है बल्कि क्रान्ति के लिए परिपक्व भी है.

नेपाल में क्रान्ति, दक्षिण एशिया में क्रान्ति का अटूट हिस्सा है. नेपाल में क्रान्ति का फौरी कार्यक्रम- मेंशेविक सरकार का विरोध, मजदूर अधिनायकत्व वाली मजदूर-किसान सरकार की स्थापना, शाह, राणा परिवारों की सारी संपत्तियों की बिना मुआवजा जब्ती सहित तमाम कृषि-भूमि और उद्योग-धंधों का राष्ट्रीयकरण, सार्वजानिक शिक्षा और रोज़गार- नेपाल की सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता और न ही अकेले नेपाल में क्रान्ति की सफलता की कल्पना की जा सकती है. राष्ट्रवाद के तमाम रूपों को ख़ारिज करते हुए हम घोषित करते हैं कि क्रान्ति का अंतर्य निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय है. इसलिए विश्व समाजवादी क्रान्ति के हिस्से के तौर पर, दक्षिण एशियाई गणतंत्रों के संयुक्त समाजवादी संघ की स्थापना ही नेपाल से श्रीलंका तक मुक्ति के द्वार खोलेगी. क्रान्ति का पहला विस्फोट नेपाल में हो, पाकिस्तान, भारत या श्रीलंका में, मगर यह क्रान्ति तेज़ी से दक्षिण एशियाई क्रान्ति में परिणत होगी और उसके बाहर जाएगी.

हमारा फौरी दायित्व है- नेपाल सहित पूरे दक्षिण एशिया में इस क्रान्तिकारी कार्यक्रम के लिए संघर्ष! इसका अर्थ है- भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, और नेपाल में युवाओं और सर्वहारा के अग्रणी तत्वों को क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की पार्टी- वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी- के गिर्द लामबंद करना. यह लामबंदी, मेंशेविकों और मार्क्सवाद से विजातीय राजनीतिक प्रवृत्तियों के विरुद्ध अडिग संघर्ष चलाए बिना नहीं हो सकती.

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