Saturday 11 July 2015

चिली में क्रांति का 9/11 और उसके सबक

- राजेश त्यागी/ ११ जुलाई २०१५

११ सितम्बर १९७३ को, चिली में परिपक्व होती हुई क्रांति, हिंसा और आतंक के जरिये उलट दी गई. यह प्रतिक्रांतिकारी सैनिक तख्तापलट सीधे निक्सन प्रशासन और सीआईए द्वारा निदेशित था. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर इस पूरे ऑपरेशन का मुख्य संचालक था. यह तख्तापलट, एक क्रांति-विरोधी श्रृंखला की कड़ी था, जिसके तहत अमेरिका द्वारा अनुप्रेरित सैनिक षड्यंत्रों के जरिये, लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों - ब्राज़ील (१९६४), बोलीविया (१९७१), उरुग्वे (१९७३), अर्जेंटीना (१९७६) - पर सैनिक तानाशाही लाद दी गई थीं. 

इस प्रतिक्रांति ने, चिली में, राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे के नेतृत्व वाली निर्वाचित संयुक्त मोर्चा सरकार को उखाड़ फेंककर, जनरल ऑगस्तो पिनोशे की अगुवाई में फासिस्ट सत्ता स्थापित की, जो अगले १७ वर्ष कायम रही. इन सत्रह वर्षों में चिली में बूर्ज्वा आतंक और हिंसा का नंगा राज्य कायम रहा जिसके दौरान हजारों क्रान्तिकारी युवा और जुझारू मजदूर मौत के घाट उतारे गए, गायब कर दिए गए, या जेलों में उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गईं.

चिली में क्रांति की इस पराजय ने, अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आन्दोलन को एक और बड़ा धक्का दिया. इस पराजय के बीज, चिली के भीतर और बाहर, लम्बे समय से बोए जा रहे थे. निस्संदेह अमेरिकी प्रशासन इस क्रांति-विरोधी साजिश में काफी समय से जुटा था. मगर प्रतिक्रांति को सफल बनाने का श्रेय मुख्य रूप से सामाजिक-जनवादी और स्तालिनवादी पार्टियों और नेताओं को जाता है, जिनके सर्वहारा से भीतरघात और क्रांति-विरोधी कुकर्मों के बिना यह साजिश कभी सफल न हुई होती.

सितम्बर १९७३ के सैनिक तख्तापलट से ठीक पहले तक स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी चिली में १४० वर्ष के संसदीय लोकतंत्र का हवाला देते, यह घोषित करते नहीं थकती थी कि ‘चिली, इंडोनेशिया नहीं है, यहां लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं, उन्हें हिलाया नहीं जा सकता’. एक ही झटके में प्रतिक्रांति ने इन भ्रमों का निर्ममता से अंत कर दिया.

क्रान्ति के उठते हुए आवेग पर चढ़कर, अलेंदे की संयुक्त मोर्चा सरकार १९७० में अस्तित्व में आई थी. मगर अलेंदे, उसकी सामाजिक जनवादी पार्टी और उसके नेतृत्व वाली मोर्चा सरकार, क्रांति को आगे बढ़ाने के बजाय, उसकी ज्वाला को ठंडा करने में जुटे रहे और वास्तव में क्रांति-विरोधी भूमिका निभाते रहे. उधर, संयुक्त मोर्चे में भागीदार, चिली की स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी, और उसके हिमायती दुनिया भर के स्तालिनवादी नेता, अलेंदे की सरकार को ‘क्रान्तिकारी’ घोषित करने में लगे थे.  

प्रतिक्रांतिकारी तख्तापलट से पहले तीन हफ्ते के चिली दौरे पर गए फिदेल कास्त्रो ने अलेंदे को युग का महान क्रान्तिकारी घोषित करते हुए कहा कि चिली में क्रांति होगी तो अलेंदे के नेतृत्व में होगी या फिर नहीं होगी. इस तरह सर्वहारा की निर्णायक भूमिका से इनकार करते हुए, उसकी शक्तियों को किनारे करते हुए, क्रांति की कब्र खोदी गई.

उधर जहां अमेरिका इंडोनेशिया में क्रांति को उलटने के साथ वियतनाम में खुली बर्बरता कर रहा था और चिली में क्रांति के दमन की तैयारी कर रहा था, माओ-त्से-तुंग और उसके नियंत्रण वाली चीनी सरकार १९७२ से ही निक्सन प्रशासन के साथ मित्रता के नए सोपान चढ़ने का दावा कर रही थी.

स्तालिनवादी नेताओं और पार्टियों के इन क्रांति-विरोधी अपराधों ने उत्साह, आशा और उमंग से भरी क्रान्तिकारी परिस्थिति को पराजय और हताशा की ओर मोड़ दिया. 

चिली में क्रांति की यह पराजय, समूचे लैटिन अमेरिका और दुनिया भर में सर्वहारा आन्दोलन के अवसान में महत्वपूर्ण कड़ी थी. चिली में क्रांति के दमन और प्रतिक्रांति की विजय ने जो रणनीतिक प्रश्न सामने रखे थे, वे आज भी कायम हैं और उनके उत्तर की तलाश, क्रान्तिकारी कार्यक्रम के लिए हमारे संघर्ष का अनिवार्य हिस्सा है.

उठती हुई क्रांति, अलेंदे की संयुक्त मोर्चा सरकार को सत्ता में तो जरूर लाई थी, मगर अलेंदे, उसकी पार्टी और मोर्चा सरकार की भूमिका क्रांति पर रोक लगाने, उसे पीछे घसीटने और सर्वहारा की व्यापक लामबंदी और आक्रमण को रोकते हुए, वर्ग-संतुलन को बनाये रखने में निहित थी. सर्वहारा क्रांति के आवेग को रोकने के लिए ही अलेंदे ने सेना की कमान, अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित, जनरल पिनोशे जैसे क्रांति-विरोधी सैनिक अफसरों के हाथ में सौंप दी थी और उन्हें राष्ट्रपति की सर्वोच्च शासकीय समिति में शामिल कर लिया था.

तख्तापलट से बहुत पहले ही, अलेंदे के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय एकता सरकार ने क्रांति-विरोधी मुहिम छेड़ी हुई थी. मजदूरों ने जिन कारखानों को क्रान्तिकारी संघर्ष के दौरान जब्त कर लिया था, उन्हें जबरन छीनकर पूंजीपतियों को वापस दिया जा रहा था और इस दौरान सबसे जुझारू मजदूरों को निशाना बनाया जा रहा था. नए ‘शस्त्र अधिनियम’ के तहत, मजदूरों को निरस्त्र किया जा रहा था और इस उद्देश्य से अलेंदे सरकार द्वारा मजदूर बस्तियों और कारखानों में बड़े पैमाने पर छापामारी की जा रही थी. दूसरी ओर सेना द्वारा प्रतिक्रियावादी, आतंकवादी और फासिस्ट, दक्षिणपंथी गुटों को सशस्त्र किया जा रहा था.

इस पूरी क्रांति-विरोधी मुहिम के दौरान, चिली की स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी, अलेंदे के नेतृत्व वाली मोर्चा सरकार में भागीदार थी और इन प्रतिक्रांतिकारी कार्रवाइयों का समर्थन कर रही थी. फासिस्ट सेना को ‘वर्दीधारी जनता’ बताते हुए, स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सर्वहारा को सैनिक अनुशासन के समक्ष समर्पण करने और सर्वहारा संघर्षों को पूंजी की सत्ता के मातहत करने के उपदेश दे रही थी. इसके बावजूद कि अलेंदे की मोर्चा सरकार में धुर दक्षिणपंथी क्रिश्चियन-डेमोक्रेटिक गुट शामिल थे, स्तालिनवादी इस मोर्चा सरकार में भागीदार थे और उसे क्रान्तिकारी बताते हुए, सर्वहारा और युवाओं को भ्रमित कर रहे थे. स्तालिनवादियों के इस अक्षम्य अपराध की कीमत, दसियों हज़ार क्रान्तिकारी युवा और सर्वहारा अपने खून से चुकायेंगे.

निस्संदेह चिली के युवाओं और सर्वहारा ने क्रांति के विकास और प्रतिरक्षा में शानदार भूमिका निभाई. मगर कायर और गद्दार सामाजिक-जनवादी और स्तालिनवादी नेताओं ने क्रांति से घात करते हुए, उसे पूंजी की सत्ता के मातहत करके, जल्लाद पिनोशे के हाथ बेच डाला.

चिली में क्रांति का पराभव, दुनिया भर में स्तालिनवादियों द्वारा सर्वहारा के प्रति किए गए अगणित घातों, अपराधों की अनंत श्रृंखला में सिर्फ एक कड़ी है, जिन्हें स्तालिनवादी नेताओं और पार्टियों ने पिछली पूरी सदी में अंजाम दिया है और जिनके सहारे विश्व पूंजीवाद, क्रांति की विश्वव्यापी लहर से बच निकला है. विशेष रूप से साठ के दशक के अंत और सत्तर के आरम्भ में, जबकि विश्व-पूंजीवाद का मौद्रिक ढांचा बिखर गया था,  १९६८ में फ्रांस में क्रान्तिकारी आन्दोलन, १९६९ में जर्मनी और इटली में औद्योगिक हड़ताल आन्दोलन, ब्रिटिश खनिकों की हड़ताल जिसने टोरी सरकार को निकाल बाहर किया था, स्पेन, पुतगाल और ग्रीस में फासिस्ट तानाशाहों का पतन, युद्ध-विरोधी आन्दोलन, और नस्लवाद विरोधी आन्दोलन, विश्व पूंजीवाद को कड़ी चुनौती दे रहे थे.

१९७०-७१ में चिली में सर्वहारा आन्दोलन उभार पर था और इसलिए सेना सत्ता नहीं हथिया सकी. उसे तीन वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी, जब तक स्तालिनवादियों और सामाजिक जनवादियों ने मिलकर सर्वहारा आन्दोलन को दिग्भ्रमित कर, उसकी जड़ों को खोखला करके, प्रतिक्रांतिकारी तख्तापलट के लिए रास्ता नहीं साफ़ कर दिया.

नवम्बर १९७० में अलेंदे के सत्ता में आने के साथ ही दुनिया भर के स्तालिनवादी, अलेंदे के नेतृत्व वाली, चिली की निकम्मी और अशक्त बूर्ज्वाजी की दुम थामे रहे और उसे महिमामंडित करते, चिली और दुनिया के सर्वहारा को भ्रमित करते रहे. स्तालिनवादी नेताओं ने विश्व पूंजीवाद के उस संकट को, जिसके चलते अलेंदे सत्ता में आया था, पूरी तरह अनदेखा कर दिया, पूंजीवादी सत्ता के क्रांति-विरोधी चरित्र को नकार दिया और वर्ग-सामंजस्य की पैरोकार अलेंदे की पाखंडी और अवसरवादी बूर्ज्वा सरकार में क्रांति के रंग ढूँढने लगे.

अलेंदे की लोकरंजक बूर्ज्वा सरकार एक ओर स्तालिनवादियों और दूसरी ओर धुर दक्षिणपंथी तत्वों के सहमेल पर टिकी थी. बूर्ज्वा सरकार में स्तालिनवादियों की यह भागीदारी, दरअसल स्टालिन-माओ द्वारा प्रतिपादित ‘दो चरणों’ वाली चरणबद्ध क्रांति और बूर्ज्वाजी के साथ सांझे जनमोर्चे कायम करने की बोगस और प्रतिक्रांतिकारी नीति पर आधारित थी. इसी नीति के तहत, चिली के ‘केरेंसकी’- अलेंदे- की बूर्ज्वा सरकार का विरोध करने के बजाय, स्तालिनवादी, उससे चिपके हुए थे. रूस की फरवरी क्रांति में भी स्टालिन केरेंसकी की बूर्ज्वा सरकार का समर्थन कर रहा था जिसकी लेनिन ने कड़ी निंदा की थी और अप्रैल थीसिस के जरिये पार्टी को केरेंसकी की सरकार को उलटने के लिए निदेशित किया था.

जब चिली की स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी, मास्को के निर्देशन में क्रान्ति से घात कर रही थी, तो ब्रिटेन सहित यूरोप की तमाम स्तालिनवादी पार्टियां उसकी नीति का समर्थन कर रही थीं. स्टालिन द्वारा निदेशित, ‘ब्रिटिश रोड टू सोशलिज्म’ की तर्ज़ पर ‘शांतिपूर्ण संसदीय रास्ते’ को चिली में क्रांति का एकमात्र रास्ता बताते हुए ये तमाम पार्टियां, सर्वहारा की स्वतंत्र राजनीतिक लामबंदी का विरोध कर रही थीं और उसे बूर्ज्वा सत्ता के पीछे बाँध रही थीं. स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी, अलेंदे सरकार के हर सुधारवादी पश्चगमन का समर्थन कर रही थी. क्रांति के सर्वनाश और प्रतिक्रांति की विजय के बाद, जिसमें सामाजिक-जनवादियों और स्तालिनवादियों ने अहम् भूमिका निभाई थी, इनका कहना था कि “पराजय अनिवार्य थी”.

१९७०-७१ में क्रांतिकारी उभार के चरम पर स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने क्रांति के जनवादी चरित्र का हवाला देते हुए, पूंजीवादी संपत्ति की जब्ती से न सिर्फ इनकार किया, बल्कि उसका खुला विरोध किया. जो संपत्ति मजदूर सभाओं ने जब्त की, १९७३ में अलेंदे की सरकार द्वारा उसे जबरन वापस लेने और पूंजीपतियों को सौंपने की नीति को भी स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने पूरा समर्थन दिया. इस तरह सर्वहारा और युवाओं को पूरी तरह निशस्त्र और निष्प्राण करके क्रांति की पीठ में छुरा घोंप दिया गया.

जहां-जहां भी सर्वहारा आन्दोलन पर स्तालिनवादी हावी रहे, वहां-वहां उन्होंने इसी तरह सर्वहारा को बूर्ज्वा सत्ता के पीछे बांधकर, क्रांति के ‘शांतिपूर्ण रास्ते’ के नाम पर भ्रम पैदा करके, सर्वहारा आन्दोलन को बेदम कर दिया और उसे पूंजीवादी सत्ता के पाशविक हमलों के सामने निहत्था छोड़ दिया. “शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व” और “विकसित लोकतंत्र” के नाम पर ये झूठे नेता तब तक सर्वहारा को धोखा देते रहे जब तक उसके वर्ग-शत्रुओं, पूंजीपतियों, ने अपने को आक्रमण के लिए पूरी तरह सज्जित करके क्रांति को कुचल नहीं दिया.

क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के इस बुनियादी सबक को भूलकर कि राजसत्ता एक वर्ग के हाथ में दूसरे के दमन का यंत्र भर है, स्तालिनवादी राजसत्ता के वर्गोपरि होने का भ्रम पैदा करते रहे और बूर्ज्वा लोकतंत्र में क्रांति के बीज तलाशते रहे.

शेष दुनिया की ही तरह, चिली में भी सत्ता का वास्तविक आधार, संसद नहीं, सशस्त्र सेनाएं थीं. प्रतिक्रिया के इस आधार को नष्ट किए बिना, कोई वास्तविक जनवादी सत्ता नहीं टिक सकती थी. मगर सशस्त्र सेनाओं को भंग करने और सर्वहारा को सशस्त्र करने के बजाय, स्तालिनवादी एक ओर तो सशस्त्र सेनाओं के चरित्र और भूमिका को लेकर भ्रम पैदा करते रहे और दूसरी ओर सर्वहारा के सशस्त्रीकरण के तमाम प्रयासों का विरोध करते रहे और उसे निशस्त्र करने के अलेंदे सरकार के अभियानों को समर्थन देते रहे. मजदूर मिलिशिया कायम करने के बजाय, सेना की शक्ति पर टिकी संसद और सरकार को, स्तालिनवादी, जनवाद का स्तम्भ बताते रहे.

तख्तापलट से ठीक पहले, पेरिस में चिली के राजदूत, स्तालिनवादी नेता और कवि पाब्लो नेरुदा ने, जिसने १९४० में मेक्सिको में ट्रोट्स्की के घर पर पहले कातिलाना हमले में हिस्सा लिया था, कहा, “हमें अपनी सेना से प्यार है. यह वर्दी में जनता है”. 

चिली के स्तालिनवादी नेता बंचेरो ने ‘वर्ल्ड मार्क्सिस्ट रिव्यु’ द्वारा आयोजित सेमिनार में बोलते हुए कहा कि, “चिली में क्रान्ति की विशिष्टता इस चीज़ में निहित है कि यह विगत की बूर्ज्वा संस्थाओं के ढांचे के भीतर शुरू हुई और आज भी उनके भीतर जारी है. चिली में जहां साम्राज्यवाद-विरोधी, एकाधिकार विरोधी, और सामंतवाद विरोधी जनवादी जन-क्रांति जारी है, हमने पुरानी राजसत्ता को कायम रखा है. सरकारी दफ्तरों में, सेना में पुराने अधिकारी बहाल रखे गए हैं. प्रशासन, लोकप्रिय सरकार के निर्देशन में कार्य कर रहा है”. सेना में अनंत भ्रमों की सृष्टि करते, बंचेरो ने कहा, “सेना एक पेशेवर संस्था की तरह, राजनीतिक विवादों में हिस्सा नहीं लेती और कानूनसम्मत नागरिक सत्ता के निर्देशों का पालन करती है. चिली को एक स्वतंत्र, विकसित और जनतांत्रिक देश बनाने के राष्ट्र्भक्तिपूर्ण उद्देश्य से सेना और मजदूर वर्ग के बीच सहयोग और पारस्परिक सम्मान के रिश्ते बने हैं”. ट्रोट्स्की-वादियों की आलोचना करते, जो पूंजीपतियों के सम्पत्तिहरण और मजदूरों के शस्त्रीकरण की मांग कर रहे थे, बंचेरो ने कहा, “अतिवामपंथी तत्व, ‘तुरंत’ समाजवाद की मांग करते हैं. हमारा कहना है कि मजदूर वर्ग धीरे धीरे शक्ति हासिल करेगा. जैसे जैसे हम राज्य पर नियंत्रण हासिल करेंगे, हम उसे क्रांति के भावी विकास में इस्तेमाल करते जायेंगे.” इसी सेमिनार में, बंचेरो से पहले बोलते हुए, ब्रिटिश स्तालिनवादी इदरिस कॉक्स ने, ‘शांतिपूर्ण संसदीय रास्ते’ की वकालत करते हुए कहा, “ब्रिटेन में अतिवामपंथियों द्वारा यह प्रश्न अक्सर उठाया जाता है कि क्या हमारे लक्ष्य सशस्त्र सेना और गृह-युद्ध के बिना हासिल किए जा सकते हैं? इसकी कोई गारंटी तो नहीं दी जा सकती मगर हमारा मत है कि दुनिया में शक्ति-संतुलन में बदलाव से और ब्रिटिश शासक वर्ग की निर्बल स्थिति से, संभव प्रतीत नहीं होता कि यह जनतांत्रिक चुनाव के परिणाम को उलटने के लिए सशस्त्र बलों का प्रयोग करें”.

१९२५-२७ की चीनी क्रांति में स्टालिन ने बूर्ज्वा कुओमिन्तांग की सेना में ऐसे ही भ्रमों की सृष्टि की थी, जिसके विनाशकारी परिणाम चीनी क्रांति की पराजय के रूप में सामने आए थे.

क्रांति से एक वर्ष पूर्व, मजदूर मिलिशिया संगठित करने के प्रयासों के विरुद्ध चेतावनी जारी करते हुए अलेंदे ने कहा, “संविधान में वर्णित सशस्त्र बालों के अतिरिक्त यहां कोई और सशस्त्र बल नहीं होंगे. यानि सेना, नौसेना और वायुसेना के अतिरिक्त. यदि कोई और सामने आये तो में उनका खात्मा कर दूंगा.” स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने अलेंदे की इस क्रांति-विरोधी नीति का बिना शर्त समर्थन किया.

१९७२ में उपचुनाव के साथ, जिसमें अलेंदे की पार्टी पराजित हुई थी, राजनीतिक संकट सामने आया. इसके चलते अलेंदे ने दक्षिणपंथियों के दबाव में उन मंत्रियों की कैबिनेट से छंटनी शुरू की जो वामपंथी माने जाते थे और आर्थिक बाजारोन्मुख उदारवादी सुधारों के विरोधी थे. स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने पूरी तरह दक्षिण की ओर हटते हुए, इस नीति का भी समर्थन किया और वाम मंत्रियों पर “कारोबारी विश्वास को नष्ट करने” का आरोप लगाया. स्तालिनवादियों ने क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स के उग्र-दक्षिणपंथी गुटों से संवाद करने का प्रस्ताव किया और राष्ट्रीयकरण की जगह पूंजीवादी प्रतिष्ठानों में मजदूरों की भागीदारी के कुटिल कॉर्पोरेट प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. राष्ट्रीयकरण को नकारते, स्तालिनवादी ट्रेड-यूनियन नेता फिगुएरो ने कहा, “भागीदारी का अर्थ, पूंजीवादी प्रतिष्ठानों के स्वामित्व में भागीदारी नहीं, बल्कि प्रबंध और योजना में कारगर भागीदारी है”.

जो वाम-दल अलेंदे के वर्ग-सामंजस्य और क्रांति के शांतिपूर्ण विकास के झूठे सिद्धांतों को नकार रहे थे, स्तालिनवादी उनका विरोध कर रहे थे. अगस्त १९७२ में चिली की पुलिस में शामिल स्तालिनवादियों के एक दस्ते ने सेंटिआगो के बाहर ऐसे ही एक वाम-दल एम्.आई.आर (मूवमेंट ऑफ़ रेवोलुशनरी लेफ्ट) के सदस्यों पर हमला करके पांच किसानों की हत्या कर दी. अगस्त १९७२ में सेंटिआगो में हुए एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच मुठभेड़ को बहाना बनाकर स्तालिनवादियों ने एम.आई.आर. सहित सभी वाम-दलों पर पाबंदी लगाने की मांग की. दरअसल, स्तालिनवादी हर उस आन्दोलन को नष्ट करने पर आमादा थे जो अलेंदे की अवसरवादी नीति का विरोधी था.

१९७२ के अंत में जबकि स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी, मजदूरों द्वारा कारखाना जब्तियों और किसानों द्वारा ज़मीन जब्तियों के खिलाफ अलेंदे की मोर्चा सरकार के अभियान का समर्थन कर रही थी, प्रतिक्रांतिकारी शक्तियां इस अभियान को अपर्याप्त मानते हुए, क्रांति के बर्बर दमन की तैयारी कर रही थीं. इन शक्तियों का पहला हमला था दक्षिणी चिली में ट्रांसपोर्ट मालिकों द्वारा राष्ट्रीयकरण के खिलाफ हड़ताल. अलेंदे सरकार ने एक बार फिर घुटने टेक दिए. राष्ट्रीयकरण से इनकार करते हुए, मजदूरों द्वारा कारखाना जब्ती में भागीदार होने के आरोप में गृह-मंत्री देल कांटो को बर्खास्त कर दिया गया और घोर क्रांति-विरोधी जनरल मोरीओ प्रेट्स सहित तीन प्रतिक्रियावादी फौजी जनरलों को कैबिनेट में शामिल कर लिया गया.

चिली के भीतर और बाहर, स्तालिनवादी नेता, अलेंदे की इस पूरी क्रांति-विरोधी नीति का मजबूती से समर्थन करते रहे. वाम मंत्रियों की बर्खास्तगी और तीन दक्षिणपंथी जनरलों को कैबिनेट में शामिल किए जाने पर टिप्पणी करते, ब्रिटिश स्तालिनवादी पत्रिका ‘कमेन्ट’ ने नवम्बर १९७२ के अंक में लिखा, “क्या यह सरकार की दुर्बलता का प्रतीक है? या समर्पण है? या गद्दारी है? यह विचित्र जरूर लगेगा मगर वास्तव में दक्षिणपंथी इस वर्ग-युद्ध में परास्त हुए हैं. इस अंध समर्थन के लिए स्तालिनवादी नेता फिगुएरो को अलेंदे कैबिनेट में श्रम मंत्री बना दिया गया, जिसका काम था श्रमिकों को जकड़ कर रखना और बुर्जुआ सरकार के विरुद्ध किसी भी स्वतंत्र वर्ग-आन्दोलन से विरत करना.

सामाजिक-जनवादियों और स्तालिनवादियों की इन तमाम गद्दारियों और उठा-पटक के बीच चिली और विश्व-पूंजीवाद का आर्थिक संकट जो दो वर्ष पूर्व अलेंदे सरकार को सत्ता में लाया था और गहराता जा रहा था. राष्ट्रीय क़र्ज़ बढ़ते हुए तीन सौ करोड़ डॉलर तक जा पहुंचा था और सेंट्रल बैंक के रिज़र्व में मात्र छह करोड़ डॉलर अवशेष थे. निर्यात में भारी गिरावट के चलते चिली की मुद्रा एस्कुडो का लगातार अवमूल्यन हो रहा था, और अमेरिका के आर्थिक संकट में फंसे होने से अमेरिकी मदद लगभग बंद हो गई थी. अलेंदे और उसके स्तालिनवादी सहयोगी विदेशी कर्जों के सहारे टिके थे और इन कर्जदाताओं को  दी जा रही रियायतों के विरुद्ध चिली के भीतर मेहनतकश जनता की ओर से भारी विरोध हो रहा था.

मोर्चा सरकार की खुली दक्षिणपंथी नीतियों के विरुद्ध मजदूरों और छात्रों के विरोध प्रदर्शनों की स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी निंदा कर रही थी, जबकि अलेंदे इन प्रदर्शनों पर हमला करने वाले पुलिस के दक्षिणपंथी आतंकी दस्तों की प्रशंसा कर रहा था. १९७२ के अंत में जबकि प्रतिक्रांति की तैयारी करते दक्षिणपंथी दल सेना की मदद से शहरों में सशस्त्र हो रहे थे, देहातों में ज़मींदार निजी सेनाएं संगठित कर किसानों का दमन कर रहे थे, अलेंदे और उसके स्तालिनवादी सहयोगी चिली के जनतंत्र और मोर्चा सरकार को शांति और स्वतंत्रता की गारंटी बताकर, सर्वहारा को भ्रमित कर रहे थे.

अक्टूबर १९७२ में दक्षिणपंथी विपक्ष के दबाव के सामने घुटने टेकते हुए अलेंदे की मोर्चा सरकार ने १५५ रेडियो स्टेशनों से नियंत्रण हटा लिया. इसने बड़े पैमाने पर प्रतिक्रियावादी प्रचार के लिए रास्ता खोल दिया.

१९७३ आते-आते मजदूरों-मेहनतकशों के सब्र का बांध टूटने लगा और सामाजिक-जनवादियों तथा स्तालिनवादियों की प्रतिक्रांतिकारी नीतियों के विरुद्ध विरोध तीखा होने लगा. पहली बार, बेहतर मजदूरी के लिए, ताम्बा खनिकों की हड़ताल शुरू हुई. मास्को से लौटे अलेंदे ने हड़ताल की निंदा करते हुए मजदूरों को ‘शोषक बैंकर’ बताया जिन्हें देश की नहीं सिर्फ अपनी जेबें भरने की चिंता थी. स्तालिनवादी नेताओं ने हड़तालियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग करते हुए, किसी भी बातचीत या रियायत का विरोध किया और उसके दमन की वकालत की.

उधर क्रान्ति के निर्मम दमन की मांग करते फौजी जनरलों ने मार्च १९७३ में अलेंदे कैबिनेट से इस्तीफे दे दिए. इन जनरलों को कैबिनेट में वापस लाने के लिए अलेंदे ने समझौते का प्रतिक्रियावादी प्रस्ताव रखा जिसका स्तालिनवादियों ने समर्थन किया. फौजी अफसरों की कैबिनेट में वापसी का सीधा अर्थ था सर्वहारा आन्दोलन और क्रांति का पाशविक दमन. अंततः हड़ताल का निर्मम दमन करने के लिए मोर्चा सरकार ने पूरा इलाका सेना के हवाले कर दिया.

खनिक हड़ताल को बहाना बनाकर दूसरी सैनिक रेजिमेंट ने जून १९७३ में सत्ता हथियाने के लिए तख्तापलट की कोशिश की, मगर नाकाम रही. यह प्रतिक्रांतिकारियों की ओर से पहली खुली सशस्त्र कार्रवाई थी.

मगर इस नाकाम सैनिक कार्रवाई ने मजदूर वर्ग को सचेत कर दिया. मजदूरों ने जवाबी कार्रवाई करते हुए, तुरंत कारखानों पर कब्ज़े और मजदूर सभाओं के संगठन की मुहिम छेड़ दी. स्तालिनवादी नेता, उनकी कम्युनिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियनें, मजदूर वर्ग की इस स्वतंत्र लामबंदी का खुला विरोध करते, अलेंदे और उसकी मोर्चा सरकार तथा सेना में विश्वास व्यक्त करते रहे. स्तालिनवादियों ने आसन्न गृहयुद्ध की तैयारी में हिस्सा लेने से स्पष्ट इनकार कर दिया और ऐसे तमाम प्रयासों को ट्रोट्स्की-वादी कहकर कोसना शुरू किया. दक्षिणपंथी आतंक के विरुद्ध संघर्ष को वे अलेंदे के प्रतिक्रियावादी फौजी अफसरों के भरोसे छोड़कर अलग हो गए. सर्वहारा की लामबंदी का विरोध करते इन स्तालिनवादी नेताओं ने प्रतिक्रांति की तैयारी कर रहे चरम-दक्षिणपंथी गुटों से संघर्ष के बजाय, ‘राष्ट्रीय एकता’ और ‘शांति और स्थिरता’ के नाम पर उनसे अपील करना शुरू कर दिया. दक्षिणपंथियों ने इन अपीलों को तिरस्कार के साथ दुत्कार दिया और चिली में इंडोनेशिया को दोहराने की खुली वकालत शुरू कर दी. खुद सशस्त्र हो रहे दक्षिणपंथियों ने अक्टूबर १९७२ के शस्त्र अधिनियम के तहत कारखानों में विकसित हो रही मजदूर सेनाओं को निशस्त्र करने की मांग की. सशस्त्र सेनाओं में राजनीतिक प्रचार और सैनिकों को अफसरों के विरुद्ध संगठित करने से स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के इनकार के चलते, फौजी अफसरों ने फ़ौज में जमकर क्रांति-विरोधी प्रचार किया.

चिली में सैनिक प्रतिक्रांति के लिए जमीन बहुत पहले से तैयार की जा चुकी थी. ११ सितम्बर इसका चरम बिंदु था, जिसमें सैनिक प्रतिक्रांति विजयी हुई. च्यांग काई शेक, हिटलर और फ्रांको की ही तरह, जनरल पिनोशे को भी किसी विशेष प्रयास और प्रतिरोध के बगैर ही विजय मिली. सेना द्वारा राष्ट्रपति अलेंदे की हत्या कर दी गई और उसकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया. सामाजिक-जनवादी और स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी सहित सभी राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. अलेंदे अपने ही खोदे हुए प्रतिक्रांति के गड्ढे में जा गिरा और उसके पीछे स्तालिनवादी भी. मगर इससे पहले इन्होने क्रांति को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया.

जिस फौज को स्तालिनवादी नेता ‘वर्दी में जनता’ और 'जनवाद के प्रहरी' बता रहे थे, उसने क्रांति को अपने जूतों के नीचे कुचल डाला. सेना में जिस अनुशासन, कर्तव्यपरायणता, आज्ञाकारिता, और अराजनीतिक चरित्र का महिमामंडन करते ये नेता अघाते नहीं थे, वही सबसे घातक सिद्ध हुए. लाखों सैनिक, मुट्ठी भर प्रतिक्रियावादी अफसरों के आदेशों का अन्धानुकरण करते, क्रांति का दलन करते रहे. दसियों हज़ार क्रान्तिकारी युवा और जुझारू मजदूर, फौज के पाशविक दमन का शिकार हुए. क्रांति के “शांतिपूर्ण रास्ते” की स्तालिनवादी मरीचिका का अंत, क्रांति के सर्वनाश और प्रतिक्रांति की विजय में हुआ.

समूची दुनिया की ही तरह, चिली में क्रांति का संकट वास्तव में उसके क्रान्तिकारी नेतृत्व और कार्यक्रम का संकट था. मजदूर आन्दोलन पर हावी, स्तालिनवादी नेता और उनके नियंत्रण वाली कम्युनिस्ट पार्टी, क्रांति को कार्यक्रम और नेतृत्व देने में असमर्थ थी. स्तालिनवादी, बूर्ज्वाजी से लड़ने के बजाय, उससे चिपके हुए थे और सत्ता पर दावा पेश करने या स्वतंत्र पहलकदमी से सर्वहारा को विरत कर रहे थे. बूर्ज्वा राज्य और उसकी फौजों के विरुद्ध संघर्ष के लिए सर्वहारा और युवाओं को ललकारने के बजाय, स्तालिनवादी नेता उनमें क्रान्तिकारी अवयव ढूंढते, क्रांति को दिग्भ्रमित कर रहे थे.

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और माओवादियों की भूमिका तो और भी जहरीली थी. वे सीधे ही अमेरिका समर्थित पिनोशे शिविर के साथ चिपके थे और क्रांति का खुला विरोध कर रहे थे. क्रांति के दमन के बावजूद माओ के नेतृत्व वाले चीन ने पिनोशे शासन से सम्बन्ध तोड़ने से इनकार करते हुए उसे क्रान्तिकारी बताया जो सोवियत साम्राज्यवाद से जूझ रहा था. इस पूरे दौर में माओवादी, सोवियत साम्राज्यवाद के विरोध की आड़ में समूची दुनिया में अमेरिकी नीति और कार्रवाइयों को समर्थन दे रहे थे. ईरान के शाह से लेकर पाकिस्तान में जनरल याह्या खां तक सबको जनवाद के योद्धा और क्रान्तिकारी घोषित करते, माओवादी, वियतनाम में अमेरिकी दखल और कत्लेआम को निर्लज्जता के साथ परोक्ष समर्थन दे रहे थे और अगले ही वर्ष अंगोला में वे सीधे सीआईए समर्थित गुटों के साथ एकजुट थे. अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ अपनी इस मिलीभगत पर परदापोशी के लिए ही माओ ने 'तीन दुनियाओं' के बोगस और प्रतिक्रांतिकारी फ़ार्मूले को सामने रखा, जो चीनी राष्ट्रवाद के संकीर्ण हितों से प्रेरित था और अमेरिकी नेतृत्व में एकजुट साम्राज्यवाद को प्रत्यक्ष और असीमित रियायत देता था.


वास्तव में चिली की क्रांति के दौरान स्तालिनवादी और माओवादी दोनों ही अलग-अलग प्रतिक्रांतिकारी गुटों के साथ बंधे थे और क्रांति के विरुद्ध एकजुट थे.

आज भी स्तालिनवादी पार्टियां इस संयुक्त मोर्चा सरकार को क्रान्ति का मंच बताती हैं और अलेंदे को इसका नायक. स्तालिनवादियों के इस निपट झूठे प्रचार के विपरीत, चिली की क्रांति के नायक अलेंदे और उसके समर्थक नहीं, बल्कि वे युवा और सर्वहारा हैं, जिन्होंने क्रांति को अग्रसर करने के लिए सर्वस्व न्योछावर किया.

चिली में क्रांति के दमन से महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जाने चाहियें और भावी क्रांति की तैयारी में उनसे मार्गदर्शन लिया जाना चाहिए. इन निष्कर्षों में सबसे महत्वपूर्ण है- क्रान्तिकारी कार्यक्रम और उसके गिर्द क्रान्तिकारी मार्क्सवादी पार्टी के निर्माण के लिए गहन संघर्ष.

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