Wednesday 24 June 2015

इंडोनेशिया में क्रांति का दमन और स्तालिनवादी PKI


रूस और चीन के बाद, यह इंडोनेशिया का क्रान्तिकारी सर्वहारा था, जो अक्टूबर १९६५ में स्तालिनवादियों की गद्दारी का शिकार हो, बूर्ज्वाजी के हाथ पराजित हुआ.

सर्वहारा को, इस पराजय की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. दस लाख कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता और अग्रणी मजदूर, सुकार्नो-सुहार्तो के नेतृत्व वाले क्रांतिविरोधी गठजोड़ के हाथों मौत के घाट उतार दिए गए और दसियों हज़ार को जेलों में अमानवीय यातनाएं दी गईं. अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए द्वारा निदेशित इस कत्लेआम ने, इंडोनेशिया की सत्ता, बर्बर सैनिक तानाशाही को सौंप दी, और विश्व-सर्वहारा की एक बार फिर कमर तोड़ दी.

क्रांति-विरोधियों ने इस कत्लेआम की लम्बे समय तैयारी की थी और इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी (PKI) के स्तालिनवादी नेतृत्व ने इसमें विषैली, क्रांति-विरोधी भूमिका अदा की थी.

इंडोनेशिया में प्रतिक्रांति के हाथों क्रांति की इस पराजय के समय, इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी (PKI), अपने आकार में, रूस और चीन के बाद दुनिया भर में तीसरे स्थान पर थी. इसके ३५ लाख सदस्य थे और इससे जुड़े युवा संगठन के ३० लाख सदस्य अलग. इसके ट्रेड यूनियन संगठन SOBSI में ३५ लाख और किसान संगठन BTI में ९० लाख सदस्य थे. इसके अलावा महिला, लेखक, बुद्धिजीवी और कला संगठनों में भी २ करोड़ से अधिक सदस्य थे.

क्रांति की पराजय से पूर्व, पिछले तीन दशकों में, उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान, दसियों लाख क्रान्तिकारी युवा और वर्ग-चेतन सर्वहारा PKI के साथ यह सोचकर जुड़े थे कि PKI अक्टूबर क्रांति की शानदार विरासत का अनुगमन करती है.

मगर इस विशाल सदस्य संख्या और जनाधार के बावजूद PKI के पास क्रान्तिकारी कार्यक्रम नहीं था. PKI का प्रतिक्रांतिकारी नेतृत्व, मेन्शेविक-स्तालिनवादी कार्यक्रम से निदेशित था, जो राष्ट्रपति सुकार्नो के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी को क्रान्ति का मित्र बताता था, सत्ता पर सर्वहारा के दावे को, राष्ट्रीय आन्दोलन पर उसके एकल वर्ग-नेतृत्व और सर्वहारा अधिनायकत्व के प्रस्ताव को, क्रांति के जनवादी चरण के नाम पर ख़ारिज करता था और सर्वहारा को राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी की पूंछ से बांधता था. इस बोगस स्तालिनवादी कार्यक्रम और उस पर आधारित नेतृत्व ने इंडोनेशिया में सर्वहारा और क्रांति के विनाश का मार्ग प्रशस्त किया.

अमेरिका द्वारा निदेशित, १९६५ के सैनिक षड्यंत्र का उद्देश्य, इंडोनेशिया की विशाल खनिज सम्पदा, जो दुनिया में पांचवे स्थान पर आंकी जाती है, पर अमेरिकी नियंत्रण को मजबूत करना और क्रान्तिकारी शक्तियों का सफाया कर देना था. इसी उद्देश्य से, अमेरिका ने, लगभग एक दशक पूर्व, वियतनाम में फ्रेंच सैनिक कार्रवाई को ४० करोड़ डॉलर की वित्तीय-सैनिक सहायता मुहैया कराई थी. इंडोनेशिया पर नियंत्रण, सैनिक-रणनीतिक दृष्टि से भी अमेरिका के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था चूंकि इंडोनेशिया पर नियंत्रण रखकर वियतनाम, मलाया, और बर्मा पर नियंत्रण रखा जा सकता था.

पेट्रोलियम का, दुनिया में पांचवा सबसे बड़ा उत्पादक होने के अलावा, इंडोनेशिया में बॉक्साइट, टिन, टंग्स्टन, कोयला, सोना, चांदी, हीरों, मैंगनीज, निकल, ताम्बा, रबर, फॉस्फेट, कॉफ़ी, खजूर के तेल, तम्बाकू, नारियल, मसालों, लकड़ी, चीनी और कहवा के प्रचुर भण्डार थे. इंडोनेशिया की इस समृद्धि पर लूट का  अधिकार, दूसरे विश्व-युद्ध में अमेरिका और जापान के बीच प्रशांत क्षेत्र में टकराव का प्रमुख मुद्दा था.

१९३९ तक इंडोनेशिया से अमेरिका को निर्यातित लगभग पंद्रह कच्चे मालों, खनिजों और कृषि उत्पादों, का आधा, अकेले डच ईस्ट इंडिया कंपनी ही निर्यात करती थी. डच पूंजीपतियों ने ३५० वर्ष इंडोनेशिया की जमकर लूट की थी, जिसके चलते प्राकृतिक प्रचुरता के बावजूद, इंडोनेशिया की मेहनतकश जनता अभावों, निर्धनता, और अशिक्षा में जी रही थी. दूसरे विश्व-युद्ध के बाद भी इंडोनेशिया में ९३ प्रतिशत आबादी निरक्षर थी और स्नातकों की संख्या २४०० से भी नीचे थी. कुपोषण और बीमारियों का दौरदौरा रहते भी साठ हज़ार लोगों पर औसतन सिर्फ एक डॉक्टर था.

उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में ही ब्रिटिश बूर्ज्वाजी ने डच उपनिवेशवादियों को चुनौती देते हुए इंडोनेशिया के एक हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया और १९२४ में लन्दन संधि के जरिये इंडोनेशिया का बंटवारा कर लिया. १८९८ में फिलिपीन्स पर नियंत्रण के बाद, अमेरिकी बूर्ज्वाजी ने, बीसवीं सदी के आरम्भ में इंडोनेशिया की लूट पर दावा पेश किया. प्रथम विश्व-युद्ध से ठीक पहले अमेरिकी और डच तेल कंपनियों में गलाकाट होड़ शुरू हुई और विश्व-युद्ध के दौरान अमेरिका ने न सिर्फ तेल कुओं बल्कि रबर के विशाल बागानों की स्थापना की. उधर जापानी साम्राज्यवाद के उभार और चीन, कोरिया, मंचूरिया तक इसके प्रसार ने इंडोनेशिया पर अमेरिकी और यूरोपीय एकाधिकार को चुनौती देनी शुरू की, जिसका चरम दूसरे विश्व-युद्ध के रूप में सामने आया. हिन्द महासागर की ओर खुलते, दक्षिण एशियाई समुद्री मार्ग और प्राकृतिक संसाधनों के तौर पर, इंडोनेशिया की स्थिति रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण थी.

१९४२ में दूसरे विश्व-युद्ध के दौरान जारी जन-आन्दोलन के उफान के आगे लाचार डच साम्राज्यवादियों ने, क्रांति के भय से सत्ता जापानियों को सौंप दी.

इधर मार्क्सवाद की ओर मुड़े सर्वहारा के अग्रणी तत्वों ने, १९१४ में स्नीवलेट के नेतृत्व में इंडोनेशियाई सामाजिक जनवादी संघ की स्थापना की, जो १९२१ में इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी (PKI) बनी. PKI ने डच उपनिवेशवादियों के विरुद्ध संघर्ष में अहम् भूमिका अदा की और १९२६-२७ में क्रांति का नेतृत्व करते हुए गैर-कानूनी घोषित की गई.

PKI के क्रान्तिकारी चरमोत्कर्ष के इसी समय, सोवियत संघ और कोमिन्टर्न पर स्तालिनवादियों का दमघोंटू, प्रतिक्रांतिकारी नेतृत्व हावी हो चुका था, जिसने PKI के क्रान्तिकारी विकास को पूरी तरह जाम कर  दिया. ३० के दशक की शुरुआत तक, सोवियत संघ में सत्ता और कोमिन्टर्न पर काबिज हुई ब्यूरोक्रेसी ने क्रान्तिकारी अंतर्राष्ट्रीयतावादी कम्युनिस्ट पार्टियों को प्रतिक्रांतिकारी मंचों में बदल दिया था जिनका काम सर्वहारा को क्रांति की ओर बढ़ने से रोकना और उसकी स्वतंत्र राजनीतिक कार्रवाइयों का दमन करना था.

दूसरे विश्व-युद्ध के बाद दुनिया भर में क्रान्तिकारी उभार अपने चरम पर था और साम्राज्यवाद अपने गहनतम संकट में. एक ओर पूंजीवादी यूरोप में- इटली, फ्रांस, ब्रिटेन, ग्रीस में- सर्वहारा व्यापक पैमाने पर वर्ग-संघर्ष में उठ खड़ा हुआ था और दूसरी ओर भारत, श्रीलंका, इंडोनेशिया, चीन, वियतनाम और दुनिया भर में राष्ट्रीय-क्रान्तिकारी मुक्ति संघर्ष अपने चरम पर थे.

मगर स्तालिन के नियंत्रण वाली सोवियत ब्यूरोक्रेसी,  कोमिन्टर्न और उससे जुड़ी दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व की गद्दारी ने जन-आन्दोलन के इस उफान को ठंडा कर दिया और साम्राज्यवाद को पुनर्संतुलित होने में मदद की. 

क्रान्तिकारी जन-आन्दोलन से घबरायी राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी, साम्राज्यवादियों से संघर्ष की जगह समझौते कर रही थी. सर्वत्र स्तालिनवादी पार्टियां इन घृणित, प्रतिक्रांतिकारी समझौतों को ‘आज़ादी’ कहकर, उन पर मुहर लगा रही थीं और सर्वहारा को राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी की पूंछ से बांध रही थीं. भारत और इंडोनेशिया, दोनों में क्रान्तिकारी आन्दोलन, बूर्ज्वाजी और स्तालिनवादियों के बीच इसी सांठ-गांठ का शिकार थे. भारत में स्तालिनवादी सीपीआई, सर्वहारा को गांधी और कांग्रेस के पीछे बांधे हुए भारतीय उपमहाद्वीप के सांप्रदायिक विभाजन और ४७ के क्रांति-विरोधी सत्ता परिवर्तन का समर्थन कर रही थी और इंडोनेशिया में स्तालिनवादी PKI, डच साम्राज्यवादियों और १९२७ में स्थापित, सुकार्नो के नेतृत्व वाली इंडोनेशियाई राष्ट्रवादी पार्टी (PNI) के बीच घृणित प्रतिक्रांतिकारी और जन-विरोधी समझौतों का समर्थन कर रही थी. दूसरे विश्व-युद्ध के अंत पर, साम्राज्यवादियों और राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के बीच हुए ये सत्ता समझौते, किसी आज़ादी का नहीं, वरन नई साम्राज्यवादी गुलामी का आगाज़ थे, जिन्हें राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी और स्तालिनवादी मिलकर ‘आज़ादी’ बता रहे थे.

दूसरे विश्व-युद्ध के दौरान सुकार्नो के नेतृत्व वाली PNI, जापानी साम्राज्यवादियों से इस आशा से चिपकी थी कि युद्ध के बाद किसी तरह की सीमित सत्ता हाथ लग सकेगी. दूसरे विश्व-युद्ध में जापान की हार के साथ, १७ अगस्त १९४५ को जापानी साम्राज्यवादियों की मदद से सुकार्नो ने सत्ता संभाल ली और इंडोनेशिया को स्वतंत्र गणराज्य घोषित कर दिया. मगर डच साम्राज्यवादियों ने, जिनके पास उस वक़्त इंडोनेशिया में सेना नहीं थी, इसे अस्वीकार करते हुए, आत्मसमर्पण कर रही जापानी सेनाओं को आदेश दिया कि वे ब्रिटिश सेनाओं के पहुंचने तक इंडोनेशिया को अपने नियंत्रण में रखें. सुकार्नो और उसकी PNI डच साम्राज्यवादियों से संघर्ष नहीं, समझौता चाहते थे, लेकिन नई सरकार को उखाड़ फेंकने को प्रतिबद्ध डच साम्राज्यवादियों ने हिंसक प्रतिक्रिया दी और ब्रिटिश पूंजीपतियों से मिलकर जापानी सेना का ही इस्तेमाल करते हुए जन-आन्दोलन के विरुद्ध हिंसक आक्रमण खोल दिया. क्रांति के विरुद्ध तमाम साम्राज्यवादी शक्तियां एकजुट हो गई थीं. साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाने के बजाय स्तालिनवादी PKI के समर्थन से सुकार्नो की PNI ने डच साम्राज्यवादियों से समझौते की नीति अपनाई और मार्च १९४७ में लिंगाजाति की शर्मनाक संधि कर ली. इस संधि ने डच साम्राज्यवादियों को सैनिक तैयारी और नए हमले खोलने के लिए पर्याप्त समय दे दिया, जिसे उन्होंने जुलाई-अगस्त १९४७ में बहुत बड़े पैमाने पर अंजाम दिया. इंडोनेशिया के मजदूर-किसानों ने इस साम्राज्यवादी हमले का जोरदार मुकाबला करते क्रांति को आगे बढ़ाया. 

क्रान्तिकारी ज्वार के प्रबल उद्वेग से घबराये सुकार्नो और उसकी बूर्ज्वा PNI ने जनवरी १९४८ में डच साम्राज्यवादियों के साथ अलग से रेनविले संधि कर ली. इस संधि के अनुसार जावा में आधी चीनी मिलें, इंडोनेशिया की तीन चौथाई रबर, दो तिहाई कॉफ़ी, लगभग सारी चाय, और सुमात्रा का पूरा तेल डच साम्राज्यवादियों को सौंप दिया.

इसके साथ ही सुकार्नो और उसकी PNI ने, जिसका स्तालिनवादी PKI समर्थन करती आई थी, PKI के सशस्त्र दस्तों को ख़त्म करने में डच साम्राज्यवादियों को सहयोग दिया.

इस संधि के विरुद्ध इंडोनेशिया में विद्रोह भड़क उठा. तत्कालीन सरकार का, जिसमें PKI के पास प्रमुख मंत्रालय थे, पतन हो गया और दक्षिणपंथी राष्ट्रपति हत्ता के नेतृत्व में नई सरकार सत्ता में आ गई.

१९४८ में संसदीय सरकार की मांग करने वाली हड़ताल का, ‘राष्ट्रीय एकता’ के नाम पर दमन करने में, सुकार्नो सरकार ने पूरी नृशंसता का परिचय दिया. जुलाई १९४८ में सुकार्नो ने क्रान्तिकारी आन्दोलन का दमन करने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ गुप्त संधि की. इसके लिए अमेरिकियों ने एक करोड़ डॉलर की मदद दी. दो महीने बाद, जावा में मदुइन काण्ड हुआ जिसमें डच विरोधी क्रांति के सैंकड़ों अगुआ नेता और समर्थक या तो गायब कर दिए गए या उनकी हत्या कर दी गई. इससे मदुइन में विद्रोह भड़क उठा. सुकार्नो ने मार्शल लॉ लगा दिया और विद्रोह का हिंसक दमन किया. विद्रोह के एक दर्जन नेताओं को फांसी दे दी गई और ३६ हज़ार से अधिक को जेलों में भर दिया गया. दिसंबर १९४८ में डच साम्राज्यवादियों ने सुकार्नो को भी गिरफ्तार कर लिया, और नए समझौते के लिए दबाव डाला. १९४९ की हेग गोलमेज कांफ्रेंस में सुकार्नो ने डच साम्राज्यवादियों के साथ और भी शर्मनाक संधि पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसके अनुसार डच उपनिवेश के क़र्ज़ चुकाने, सभी औपनिवेशिक कानूनों को जारी रखने, डच सैनिकों को सेना में बनाये रखने और डच निवेशों को सुरक्षा देने की गारंटी दी गई. कुल मिलाकर, झूठे संसदीय जनतंत्र के परदे के पीछे, पुरानी औपनिवेशिक दासता को बनाए रखा गया.

स्तालिनवादी PKI ने इस दासता को स्वीकार करते हुए, इसे आज़ादी बताया और संघर्ष को “शांतिपूर्ण और जनवादी” तरीकों से चलाने की वकालत की. स्तालिनवादी PKI की यह नीति दरअसल दूसरे विश्व-युद्ध के समय स्टालिन द्वारा निदेशित उस कार्यक्रम का हिस्सा थी, जिसके अनुसार स्तालिनवादी PKI जापानी साम्राज्यवाद के विरोध के नाम पर, डच साम्राज्यवाद के साथ चिपकी हुई थी और उपनिवेश-विरोधी संघर्ष से गद्दारी करते “डच साम्राज्यवादी कॉमनवेल्थ के भीतर आज़ाद इंडोनेशिया” की मांग कर रही थी. दूसरे विश्व-युद्ध के बाद भी स्तालिनवादी PKI इसी बोगस और क्रांति-विरोधी कार्यक्रम पर कायम रही.

मगर इंडोनेशिया की मेहनतकश जनता के लिए इस राष्ट्रीय स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं था. तमाम इंडोनेशियाई सम्पदा, मुट्ठी भर डच बैंकों और कॉर्पोरेट के हाथ केन्द्रित थी.

आज़ादी के इस बूर्ज्वा झूठ के खिलाफ, जनता का रोष बढ़ता जा रहा था, जो १९५७ के अंत में लावा बनकर फूट निकला. रियायतें लेने के सीमित उद्देश्य से डच साम्राज्यवादियों पर दबाव बनाने के लिए सुकार्नो के नेतृत्व वाली PNI ने डच संपत्ति के राष्ट्रीयकरण की मांग को लेकर हड़ताल का आह्वान किया, जो तुरंत ही PNI के नियंत्रण से बाहर हो सशस्त्र विद्रोह में बदल गई. जावा में शुरू हुए मजदूर-किसान विद्रोह ने बूर्ज्वा शासन की जड़ें हिला दीं. कारखानों, बागानों, जमीनों और बैंकों पर कब्ज़ा कर लिया गया और सरकारी सशस्त्र बालों को खदेड़ दिया गया. राष्ट्रपति सुकार्नो, प्रधानमंत्री जुआंडा, सेना के जनरलों और नेताओं की तमाम धमकियों के बावजूद मेहनतकश जनता ने विद्रोह को शानदार तरीके से आगे बढ़ाया. इन्डोनेशियाई मजदूरों के संघ के नाम पर जारी घोषणा में कहा गया कि डच बैंकों की सारी संपत्ति इण्डोनेशियाई गणराज्य के पक्ष में जब्त की जाती है. फैक्ट्रियों, बैंकों और सरकारी भवनों पर लाल झंडे फहराते हुए क्रान्तिकारी उदघोषणायें जारी की गईं. 

क्रान्तिकारी संघर्ष जावा से बाहर, बाली, सुमात्रा और पूरे इंडोनेशिया में फ़ैल गया और डच बैंकों और कंपनियों के अतिरिक्त अमेरिकी और ब्रिटिश कम्पनियां भी इसके निशाने पर आ गईं. 

क्रान्तिकारी उभार से घबराये सुकार्नो ने तुरंत अमेरिका की मदद से क्रांति का दमन करने और जब्त संपत्ति को वापस लेने के लिए, क्रांति के विरुद्ध हिंसक सैन्य अभियान शुरू किया. इंडोनेशिया के मजदूर-किसान इस दमन का मुकाबला करने के लिए उठ खड़े हुए और विद्रोह तेज़ी से फैलने लगा. 

मगर ठीक इसी समय PKI के स्तालिनवादी नेतृत्व ने गद्दारी की. PKI ने निर्देश दिया कि इंडोनेशिया में क्रांति समाजवादी नहीं, जनवादी है जिसमें सर्वहारा सत्ता नहीं ले सकता, इसलिए उसे तुरंत अमेरिका समर्थित, सुकार्नो के नेतृत्व वाली सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण करना होगा और संघर्ष में छीनी गई तमाम संपत्ति को उनके हवाले करना होगा. यह ऐतिहासिक गद्दारी थी, जिसका अंत सर्वहारा की पराजय में होना तय था और जिसका मूल्य सर्वहारा और मेहनतकश जनता अपने खून से चुकता करेगी.

विजयी हो रही क्रांति की पीठ में सीधे छुरी घोंपते, स्तालिनवादी PKI के पोलित ब्यूरो ने निर्देश जारी किया: “डच उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष के उपायों पर मतभेदों को तुरंत बातचीत के जरिये हल किया जाय ताकि इसके जरिये जनता के बीच और जनता तथा सरकार और सेना के बीच एकता को मज़बूत किया जा सके”. इसका स्पष्ट अर्थ था कि सशस्त्र संघर्ष को तुरंत रोक दिया जाय, जब्त संपत्ति वापस कर दी जाय और सत्तासीन PNI के साथ बातचीत की जाय. स्तालिनवादी PKI की दूसरी आज्ञाप्ति में कहा गया कि “न सिर्फ जब्त किए गए उपक्रमों को सुचारू रूप से चलाने के लिए, बल्कि उत्पादन बढाने के लिए उन्हें और भी कारगर और अनुशासित ढंग से चलाने के लिए, सरकार को इन उपक्रमों के लिए एक कारगर और देशभक्त दिशा तय करनी चाहिए और मजदूरों को इस दिशा को अपनी पूरी शक्ति से समर्थन देना चाहिए”. जबकि अमेरिका क्रांति के विरुद्ध सुकार्नो की सेनाओं को सीधी मदद दे रहा था, स्तालिनवादी PKI, अमेरिकी, ब्रिटिश और फ्रेंच पूंजीपतियों के हित में मजदूरों से अपील कर रही थी कि, “मजदूरों, किसानों, और नौजवान संगठनों की सभी कार्रवाईयां डच उपक्रमों की जब्ती तक सीमित रहनी चाहियें. दूसरे पूंजीवादी देश डच और इंडोनेशियाई संघर्ष में शत्रुतापूर्ण रुख नहीं रखते, इसलिए दूसरे देशों के पूंजीपतियों के उपक्रमों के खिलाफ कोई कारवाई नहीं की जाए”. पूंजीपतियों के लिए, स्तलिनवादियों द्वारा की जा रही इस सेवा के लिए आभार व्यक्त करते न्यूयॉर्क टाइम्स ने १६ दिसंबर को लिखा, “राष्ट्रीय सलाहकार समिति के माननीय कम्युनिस्ट सदस्य दरअसल इस तरह की जब्ती को अनुशासनहीन अराजकता मानते हैं और उसका समर्थन नहीं करते. वे सिर्फ सरकारी जब्ती के ही पक्ष में हैं”.

इंडोनेशिया में क्रांति की ज्वाला भड़क उठने के बाद सुकार्नो भारत भागने की तैयारी कर रहा था, मगर PKI के स्तालिनवादी नेतृत्व की गद्दारी ने उसके शासन को बचा लिया. साथ ही इस गद्दारी ने, क्रांति को आगे बढ़ने से रोककर, उस पाशविक दमन के लिए रास्ता साफ़ कर दिया, जिसे साम्राज्यवादी और इंडोनेशियाई बूर्ज्वाजी मिलकर ८ वर्ष बाद अंजाम देंगे.

इस पूरे दौर में स्तालिनवादी PKI की नीति इस झूठी मेन्शेविक-स्तालिनवादी परिकल्पना पर आधारित थी कि इंडोनेशिया जनवादी क्रांति से गुज़र रहा है जिसमें सर्वहारा सत्ता नहीं ले सकता और उसे राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के साथ ‘संयुक्त मोर्चा’ बनाकर रखना होगा. इस नीति के अनुसार, रूस और चीन की स्तालिनवादी ब्यूरोक्रेटिक सत्ता सुकार्नो और उसकी PNI को क्रान्तिकारी घोषित करते हुए उसे समर्थन और सहायता दे रही थी. १९६५ के कम्युनिस्ट विरोधी कत्लेआम में जिन शस्त्रास्त्रों का इस्तेमाल हुआ, वे सुकार्नो सरकार को क्रेमलिन द्वारा ही दिए गए थे.

सीआईए ने १९५६ में ही क्रान्तिकारी आन्दोलन को कुचलने के लिए बाकायदा तैयारी शुरू कर दी थी, जिसे उसने अंततः १९६५ में अंजाम दिया. इस अभियान में सीआईए का मुख्य अस्त्र इंडोनेशियाई सेना के अफसर थे. अगस्त १९५६ में जावा की पश्चिमी कमान के कमांडर ने विदेश मंत्री रोजलान अब्दुलगनी की गिरफ़्तारी के आदेश जारी किए और नवम्बर में उपमुख्य सेनाध्यक्ष कर्नल जुलकिफली लुबिस ने जकार्ता पर कब्ज़ा करके, सुकार्नो सरकार का तख्ता पलटने की नाकाम कोशिश की. अगले ही महीने केन्द्रीय और उत्तरी सुमात्रा में सफल स्थानीय सैनिक तख्तापलट हुए.

अपनी सत्ता बचाने और सैनिक अफसरों को खुश करने के लिए सुकार्नो ने अक्टूबर १९५६ में राजनीतिक पार्टियों को ख़त्म करने और राजनीतिक पार्टियों, सेना तथा इस्लामिक संगठनों को मिलाकर एक राष्ट्रीय परिषद् का गठन करने की आज्ञप्ति जारी की. इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी (PKI) ने इस आज्ञप्ति का विरोध करने की जगह, इससे न सिर्फ सहमति जताई, बल्कि इसके तहत बनाने वाली सरकार में भी शामिल हो गई और अपने दो मंत्री भी मनोनीत कर दिए. मगर दक्षिणी सुमात्रा, पूर्वी इंडोनेशिया, अतजेह, और कालिमंतन के सैनिक कमांडरों ने इसे ख़ारिज कर विद्रोह कर दिए और विभिन्न क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया. इसका लाभ उठाकर सुकार्नो ने आपातकाल घोषित कर दिया.

इस राजनीतिक संकट ने एक बार फिर इंडोनेशियाई सर्वहारा और मेहनतकश जनता को उद्वेलित कर दिया और सरकार विरोधी प्रदर्शन शुरू हुए. सीआईए ने, जो १९४० से ही इंडोनेशिया में सत्ता पर नियंत्रण के लिए प्रयासरत थी, ये प्रयास और तेज़ कर दिए. सुमिरो के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी (PSI) और इस्लामिक मस्जुमी पार्टी, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री हत्ता के साथ जुड़ी थी, सीआईए के इन प्रयासों में सीधे शामिल थी. इन पार्टियों के प्रभाव वाले सुमात्रा और सुलावेसी क्षेत्रों में १९५७-५८ में, सीआईए द्वारा उत्प्रेरित कई अलगाववादी सैनिक विद्रोह संगठित किए गए. इन विद्रोहों को अमेरिकी सरकार ने सीधे वित्तीय और सैनिक सहायता मुहैय्या कराई. मगर मेहनतकश जनता के व्यापक विरोध के चलते, ये दक्षिणपंथी सैनिक विद्रोह असफल हुए और सुकार्नो सरकार सत्ता में बनी रही. इसके बावजूद इंडोनेशिया में सेना का दबदबा बढ़ गया और अमेरिका ने सेना को क्रांति के विरुद्ध मुख्य अस्त्र बना लिया. साढ़े छह करोड़ के बजट की मदद से जनरल सुहार्तो के नेतृत्व में एक पूरी साजिश को अंजाम दिया गया, जो १९६२ में पश्चिमी पापुआ के सैनिक अभियान से शुरू होकर १९६५ के कत्लेआम तक जाती है. पश्चिमी पापुआ में, १९६२ में इंडोनेशियाई सेना की इस दमनकारी सैनिक कार्रवाई को स्तालिनवादी PKI का खुला समर्थन प्राप्त था.

दरअसल इस समूचे दौर में, सुकार्नो सरकार, प्रतिक्रांतिकारी साजिशकर्ताओं से चिपकी, सेना को मज़बूत कर रही थी, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी (PKI) का स्तालिनवादी नेतृत्व सुकार्नो सरकार को अंध-समर्थन दे रहा था. १९५९ में सुकार्नो ने संसद को भंग करते हुए, राष्ट्रपति शासन लगा दिया और नए संविधान के तहत राष्ट्रीय मोर्चे (NASAKOM) का गठन किया, जिसमें इंडोनेशियाई राष्ट्रवाद, इस्लाम और कम्युनिज्म को एकजुट करने की बात की गई. इसे सुकार्नो ने ‘निदेशित लोकतंत्र’ का नाम दिया.

स्तालिनवादी PKI ने इस प्रतिक्रांतिकारी मोर्चे का विरोध करने और सर्वहारा, सैनिकों और युवाओं की स्वतंत्र लामबंदी करने की जगह, इस राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन दे दिया. राष्ट्रीय मोर्चे को PKI नेतृत्व का यह समर्थन वास्तव में स्टालिन द्वारा निष्पादित सर्वहारा और राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के बीच ‘व्यापक लोकप्रिय मोर्चे’ बनाने की बोगस मेन्शेविक अवधारणा पर आधारित था, जिसके चलते १९२५-२६ में चीन में और १९३७ में स्पेन में पहले ही क्रांतियों  का सर्वनाश हो चुका था. अब इंडोनेशिया की बारी थी.

सुकार्नो और उसके नेतृत्व वाली इंडोनेशिया की राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के साथ PKI के सहबंध ने, सर्वहारा, युवाओं, मेहनतकशों और सैनिकों के बीच विनाशकारी मेन्शेविक भ्रमों को जन्म दिया.

जबकि इंडोनेशियाई सैनिक कमान सीधे सीआईए से जुड़ी, दक्षिणपंथी सैनिक विद्रोहों की साजिशें रच रही थी, १९५९ में मई दिवस पर एक वक्तव्य में PKI के नेतृत्व वाले ट्रेड यूनियन मोर्चे SOBSI ने कहा कि, “SOBSI अपने इस दृष्टिकोण के साथ खड़ी है कि गणतंत्र के सशस्त्र बल लोकप्रिय क्रांति के सच्चे वारिस हैं और इसलिए बड़े अफसरों से लेकर छोटे अफसरों और सैनिकों तक उन्हें ऐसी साजिशों में शामिल नहीं किया जा सकता जो गणतंत्र के साथ छल करती हों. इसके अलावा राष्ट्रपति सुकार्नो, जनता के साथ हैं, सेना पर उनका नियंत्रण है और वे सैनिक तानाशाह बनने से इनकार करते हैं”.

सुकार्नो द्वारा प्रतिपादित और स्तालिनवादी PKI द्वारा समर्थित, ‘निदेशित लोकतंत्र’ के राजनीतिक उपक्रम के दौरान इंडोनेशिया गहन आर्थिक-राजनीतिक संकट से गुज़र रहा था. मेहनतकश जनता के आन्दोलन उभार पर थे और वे सुकार्नो के नेतृत्व वाली बूर्ज्वा सरकार के लिए राजनीतिक चुनौती बने हुए थे. सुकार्नो के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय मोर्चे में शामिल स्तालिनवादी PKI, इस पूरे दौर में मजदूर-किसान जन-आंदोलनों पर सरकारी दमन को पूरा सहयोग और समर्थन दे रही थी और हर तरह के जन प्रतिरोध का विरोध कर रही थी. 

क्रान्तिकारी आन्दोलन का विरोध करते, PKI के स्तालिनवादी नेता, पुलिस और जनता के बीच सहयोग की गुहार लगा रहे थे. जिस समय पुलिस मेहनतकश जनता के आंदोलनों पर वहशी दमन कर रही थी और जनता सीधे पुलिस हिंसा का जवाब दे रही थी, PKI के शीर्ष नेता डी.एन.एदित ने नारा दिया “नागरिक शांति के लिए पुलिस को सहयोग दें”. अप्रैल १९६४ में, ‘फार ईस्टर्न इकनोमिक रिव्यु’ के एस.एम. अली को साक्षात्कार में एदित ने जनता के सशस्त्र प्रतिरोध का खुला विरोध करते, समाजवाद की ओर चरणबद्ध और शांतिपूर्ण प्रस्थान की वकालत की. एदित ने कहा, “क्रांति की पहली मंजिल, जो अभी जारी है, को पूरा करते हुए, हम अपने समाज की दूसरी प्रगतिशील शक्तियों के साथ मित्रतापूर्ण संवाद शुरू कर सकते हैं और इस तरह बिना सशस्त्र संघर्ष के ही देश को समाजवाद की ओर ले जा सकते हैं”. एदित का यह वक्तव्य, स्टालिन द्वारा प्रतिपादित ‘समाजवाद में शांतिपूर्ण संक्रमण’ की नीति पर आधारित था, जिसे १९५१ में ‘ब्रिटिश रोड टू सोशलिज्म’ में व्यक्त किया गया था.

राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष से इनकार करते हुए, स्तालिनवादी PKI नेता एदित ने आगे कहा, “जब तक पूंजीपतियों के समर्थन में विदेशी शक्तियां सशस्त्र दखल नहीं देतीं, हम सशस्त्र संघर्ष नहीं करेंगे. यदि हम ‘राष्ट्रीय जनवादी क्रांति’ का चरण पूरा कर लेते हैं तो विदेशी शक्तियों द्वारा दखल की सम्भावना ही नहीं रह जाएगी”.

राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के विरुद्ध सत्ता के लिए दावा पेश करने या संघर्ष करने से इनकार करते हुए, एदित ने बूर्ज्वाजी पर दबाव बनाने को ही सर्वहारा का राजनीतिक दायित्व बताया. उसने कहा, “क्रांति के वर्तमान चरण का तीखा प्रभाव, इंडोनेशिया के राष्ट्रीय पूंजीपतियों पर एक किस्म का दबाव बनाएगा”.  

१९६४-६५ में जब सर्वहारा और मेहनतकश जनता के जन-आन्दोलन अपने चरम पर थे, और सरकारी सशस्त्र बलों तथा जनता के बीच सीधी मुठभेड़ें गांवों-शहरों में एक नित्यक्रम बन चली थीं, तो स्तालिनवादी PKI, सुकार्नो सरकार से सहयोग करते हुए, जन-विद्रोह की इन भड़कती ज्वालाओं को ठंडा करने में जुटी थी. सेना के भीतर अफसरों और सैनिकों के बीच दरार पैदा करने के लिए राजनीतिक प्रचार और आन्दोलन की जगह, PKI के नेता, मेहनतकश जनता को सेना के, और सैनिकों को अफसरों के पीछे बांधने के लिए काम कर रहे थे. 

अगस्त १९६४ में एदित ने कार्यकर्ताओं के बीच सेना के प्रति ‘संकीर्ण दृष्टिकोण’ की आलोचना करते हुए, आह्वान किया कि सेना को महिमामंडित किया जाय और उसे कला और साहित्य का विषय बनाया जाय. इसके ठीक बाद PKI केंद्रीय समिति की सभा में एदित ने उन PKI कार्यकर्ताओं को उग्रवादी कहकर कड़ी आलोचना की जो उग्र होते जा रहे किसान संघर्ष को फ़ैलाने में लगे थे. इसके तुरंत बाद PKI ने ज़मींदारों के विरुद्ध सशंस्त्र अभियान को रोकने और सेना के साथ सहयोग बढाने का आह्वान किया. राष्ट्रीय मोर्चे NASAKOM के तहत नई कैबिनेट बनाये जाने का हवाला देते हुए, स्तालिनवादी नेताओं ने भूमि संघर्ष को तुरंत रोक देने और छीनी गई ज़मीनों को ज़मींदारों को लौटाने का आदेश जारी किया.

वर्ष १९६५ लगातार उठते जन-आन्दोलनों के बीच खुला. PKI के निर्देशों की अवहेलना करते हुए, अमेरिकी रबर और तेल उपक्रमों के मजदूरों ने इन उपक्रमों पर कब्ज़ा कर लिया. भूमि संघर्ष के दौरान, सेना के दमन का सामना करते किसानों के हाथों एक सैनिक अफसर की मौत के सिलसिले में २३ किसानों को आजीवन कारावास की सजा सुनाये जाने पर विद्रोह और भड़क उठा.

क्रान्तिकारी आवेग का विरोध करते, PKI के स्तालिनवादी नेता, नई बूर्ज्वा कैबिनेट में, जिस पर सेना के बड़े अफसरों का नियंत्रण था, शामिल हो रहे थे. जबकि सुकार्नो के नेतृत्व वाली नई कैबिनेट, व्यापक जन-आन्दोलन का दमन करने पर आमादा थी, इसके जल्लादों के पीछे छिपे स्तालिनवादी नेता, जनता के संघर्षों पर सरकारी दमन को पूरा सहयोग देते हुए यह भ्रम पैदा कर रहे थे कि सुकार्नो के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी और उसके नियंत्रण वाली सेना, ‘राष्ट्रीय जनवादी क्रांति’ का हिस्सा है.

बूर्ज्वाजी को आश्वस्त करते एदित ने कहा, “दूसरे देशों की तरह, इंडोनेशिया में प्रश्न राज्य को उलट देने का नहीं है, बल्कि यह है कि कैसे उसके जनपक्षीय पहलू को सुदृढ़ बनाया जाय और कैसे जन-विरोधी पहलू को ख़त्म किया जाय”. इस बेहूदा लफ्फाजी ने, जो बूर्ज्वा राज्य को सुरक्षित करती थी, क्रांति को गुमराह करने में अहम् भूमिका अदा की.

स्तालिनवादी PKI की सहमति से सुकार्नो ने सभी औद्योगिक हडतालों पर पाबंदी लगा दी.

१९६५ में इस बात के स्पष्ट संकेत मिलने के बावजूद कि सेना की उच्च कमान सीआईए के सहयोग से क्रांति के वहशी दमन की तैयारी में जुटी है, स्तालिनवादी नेता सर्वहारा और मेहनतकशों को सशस्त्र करने और स्वतंत्र रूप से लामबंद करने के प्रस्तावों को ‘ट्रोट्स्कीवादी’ कहकर ख़ारिज करते रहे. सुकार्नो और उसके सैनिक जनरलों के सामने एड़ियां रगड़ते स्तालिनवादी नेता, बूर्ज्वा राष्ट्रीय मोर्चे NASAKOM के नेतृत्व में मजदूर-किसानों की लामबंदी की बात करते रहे.

मई १९६५ में, जबकि सीआईए और इंडोनेशिया के सैनिक अफसर क्रांति को कुचलने की अपनी तैयारियों को अंतिम रूप दे रहे थे, PKI के पोलित ब्यूरो ने हास्यास्पद आज्ञप्ति जारी करते हुए कहा, “राज्य के जनपक्षीय पहलू की शक्ति धीरे-धीरे बढ़ रही है, जबकि जनविरोधी पहलू निरंतर एक ओर धकेला जा रहा है. PKI इस बात के लिए संघर्ष कर रही है कि जनपक्षीय पहलू और शक्तिशाली हो, अंततः प्रभावी हो जाय, और जनविरोधी पहलू राज्य से बाहर हो जाय”. यह आज्ञप्ति राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी और उसके नियंत्रण वाले राज्य में झूठे भ्रमों की सृष्टि करती थी जिसके भयावह परिणाम चार महीने बाद ही इंडोनेशियाई सर्वहारा और मेहनतकश जनता को भुगतने होंगे.

३० सितम्बर १९६५ को सीआईए द्वारा निदेशित फर्जी विद्रोह शुरू हुआ, जिसमें उकसावापूर्ण कार्रवाई करते हुए, कुछ सैनिक अफसरों को गोली मार दी गई. इसे बहाना बनाकर, तुरंत ही जनरल सुहार्तो ने सत्ता संभाल ली और उसी हफ्ते क्रांति का पाशविक दमन करते उसे खून की नदी में डुबो दिया. दुनिया में अब तक के सबसे बड़े इस राजनीतिक नरसंहार में दस लाख कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और उनके समर्थकों को मौत के घाट उतार दिया गया और ढाई लाख से अधिक को बंदी बनाकर श्रम शिविरों में यातना भुगतने के लिए डाल दिया गया.

सुहार्तो और दूसरे सैनिक अफसरों, जिनके साथ PKI नेता कैबिनेट सांझा कर रहे थे, के साथ मिलकर सीआईए ने पिछले दो वर्षों में दस लाख कार्यकर्ताओं और सहयोगियों की ये सूची तैयार की थीं, जिन्हें अंततः छह महीने के भीतर निष्पादित किया गया. वे दक्षिणपंथी इस्लामिक संगठन, जो NASAKOM कैबिनेट में शामिल थे, सेना के साथ इस नरसंहार में सीधे हिस्सा ले रहे थे. बाली में जहां PKI प्रभावी थी, सुकार्नो के नेतृत्व वाली PNI पार्टी के हत्यारे दस्तों ने सबसे ज्यादा नरसंहार किया. यह वही PNI, इस्लामिक संगठन और सेना के दस्ते थे जिन्हें अभी कल तक स्तालिनवादी नेता, ‘क्रांति के मित्र’ बता रहे थे.

इस दमन के बीच, PKI नेता और रूस, चीन, ऑस्ट्रेलिया में बैठे उनके सरपरस्त स्तालिनवादी, PKI कार्यकर्ताओं को दमन का प्रतिरोध न करने की नसीहतें देते रहे. सर्वहारा को लामबंद करने के बजाय, ये नेता, जिनमें माओ-त्से-तुंग भी शामिल था, इंडोनेशियाई सर्वहारा और युवाओं को सुकार्नो के नेतृत्व वाले NASAKOM राष्ट्रीय मोर्चे के सामने समर्पण करने की सलाह देते रहे.

नरसंहार की शुरुआत के एक हफ्ते बाद, सुकार्नो ने ‘राष्ट्रीय एकता’ का आह्वान किया और PKI ने सर्वहारा, युवाओं, किसानों का आह्वान किया कि वे सेना का प्रतिरोध न करके ‘क्रांति के नेता’ सुकार्नो की अपील का समर्थन करें. कार्यकर्ताओं और समर्थकों के नाम, PKI द्वारा जारी अपील में कहा गया कि, “इंडोनेशियाई क्रांति के नेता और उसके सैन्य बलों के सुप्रीम कमांडर, जनरल सुकार्नो द्वारा जारी की गई अपील को पढ़ने के बाद, इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी का पोलित ब्यूरो इस अपील को पूरे समर्थन की घोषणा करता है और सभी पार्टी कमिटियों, पार्टी सदस्यों और सहयोगियों तथा PKI के नेतृत्व वाले क्रान्तिकारी जन-संगठनों से इस अपील को पूरी तरह लागू करने की अपील करता है. जबकि PKI सुकार्नो की अपील पर अमल की गुहार लगा रही थी, सुकार्नो विद्रोह में हिस्सा लेने वाले PKI कार्यकर्ताओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग कर रहा था और सेना द्वारा किए जा रहे अमानवीय दमन का खुला समर्थन कर रहा था. १५ अक्टूबर को सुकार्नो ने जल्लाद सुहार्तो को इंडोनेशियाई सेना का सर्वोच्च कमांडर नियुक्त कर दिया. मार्च ११, १९६६ को स्तालिनवादियों द्वारा ‘क्रांति के नायक और नेता’ के तौर पर प्रचारित, सुकार्नो ने जनरल सुहार्तो को व्यवस्था कायम करने के लिए ‘तमाम संभव कदम उठाने’ का निर्देश दिया. दोनों ने मिलकर क्रांति का गला घोंट दिया.

इसके बावजूद, PKI नेतृत्व ने अपना राग जारी रखा. PKI नेता लगातार सर्वहारा, युवाओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को सुकार्नो-सुहार्तो नेतृत्व के मातहत करने, उनके सामने समर्पण करने के लिए बाध्य करते रहे. २४ नवम्बर १९६५ को PKI के महासचिव एदित की सेना ने हत्या कर दी. इसके बावजूद दूसरे सचिव न्जोटो ने बयान दिया, “PKI राज्य के सिर्फ एक नेता, एक सर्वोच्च कमांडर, क्रांति के एक महान नेता राष्ट्रपति सुकार्नो का अभिवादन करती है. जनता के साथ ऐक्यबद्ध राष्ट्रपति सुकार्नो ही इंडोनेशिया के भाग्य और भविष्य दोनों का निर्णय करेगा. पार्टी के सभी सदस्यों को राष्ट्रपति सुकार्नो के निर्देशों का पालन करना चाहिए और इन्हें बिना संकोच लागू करने की शपथ लेनी चाहिए. हमारी पार्टी गृह-युद्ध को रोकने की हर संभव कोशिश कर रही है”.

जबकि सुकार्नो-सुहार्तो के नेतृत्व में सीआईए समर्थित जल्लाद, कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और समर्थकों की लाखों की तादाद में हत्याएं कर रहे थे और अमानवीय जुल्म कर रहे थे, PKI के स्तालिनवादी नेता सिर्फ एक ही रट लगाये थे कि प्रतिरोध नहीं, समर्पण किया जाय.

जिस समय स्तालिनवादी PKI इंडोनेशिया में बूर्ज्वाजी की पूंछ थामे, क्रांति का सर्वनाश कर रही थी और उसके राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नेता सर्वहारा को संघर्ष और प्रतिरोध से विरत रहने की सीख दे रहे थे, उसी समय पाब्लो-मंडेल के नेतृत्व वाली यूनाइटेड सेक्रेटेरिएट के झूठे वामी नेता, स्तालिनवादियों के बचाव में उनके अक्षम्य अपराधों पर लफ्फाजी का पर्दा डालने का काम कर रहे थे.

PKI की राजनीति, वास्तव में क्रांति के स्तालिनवादी-मेन्शेविक ‘दो चरणों’ वाले सिद्धांत पर टिकी थी, जो राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी को जनवादी क्रांति का सहयोगी बताते हुए, सर्वहारा को उसके विरुद्ध सत्ता-संघर्ष से विरत करता है.

PKI नेताओं की इस गद्दारी को खुला समर्थन देते रूस और चीन के नेता, सुकार्नो सरकार और NASAKOM को क्रांति के मंच बता रहे थे और कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं से उनके समक्ष समर्पण की मांग कर रहे थे.

१२ अक्टूबर १९६५ को सोवियत नेताओं ने सुकार्नो के स्वास्थ्य की कामना करते हुए, राष्ट्रीय एकता की उसकी अपील पर उसे बधाई दी. फरवरी १९६६ में हवाना कांफ्रेंस में सोवियत स्तालिनवादियों ने सुकार्नो सरकार द्वारा किए जा रहे दमन के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव को रोकने की हर संभव कोशिश कीं. ११ फरवरी को इंडोनेशिया की संसद ने एक प्रस्ताव पास करके सोवियत दल को इसके लिए बधाई दी. माओ के नेतृत्व वाले चीन ने सुकार्नो-सुहार्तो के साथ अपने राजनयिक सम्बन्ध कायम रखे और इंडोनेशियाई कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं तथा सर्वहारा के इस भीषण नरसंहार को अनदेखा कर दिया. जबकि PKI की पूरी राजनीति स्टालिन और माओ द्वारा तय आम दिशा द्वारा ही निदेशित थी.

जुलाई १९५० में चीन से डेढ़ वर्ष ट्रेनिंग लेकर लौटे एदित ने कहा था कि, “मजदूर वर्ग, किसान, निम्न बूर्ज्वाजी और राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी को एक राष्ट्रीय मोर्चे में ऐक्यबद्ध होना चाहिए”. PKI की मेन्शेविक राजनीति का खुलासा करने वाली इस नीति में ही भावी विनाश के बीज निहित थे.

वास्तव में एदित माओ द्वारा प्रचारित ‘नव-जनवाद’ के उस सूत्र को दोहरा रहा था जो बूर्ज्वाजी के साथ संघर्ष की जगह उसके साथ सहयोग को देता था. एदित ने कहा, “इस मोर्चे का उद्देश्य समाजवादी नहीं बल्कि जनवादी सुधार हैं”. एदित ने मांग की कि मजदूरों और किसानों को न सिर्फ राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी बल्कि “दूसरी सभी देशभक्त और उपनिवेश-विरोधी शक्तियों, जिनमें ‘वाम प्रगतिशील ज़मींदार हिस्से’ भी शामिल हैं” को समर्थन देना चाहिए. एदित ने कहा, “राष्ट्रीय संघर्ष में जिस बुनियादी सिद्धांत की हमें अनुपालना करनी चाहिए वह यह है कि वर्ग-संघर्ष को राष्ट्रीय संघर्ष के मातहत रखना चाहिए”.

एदित द्वारा मुखरित, मेंशेविकों द्वारा प्रतिपादित और स्टालिन, माओ द्वारा निष्पादित यही वह नीति है जिसके चलते इंडोनेशिया में PKI राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी से चिपकी रही, तथा हड़तालों और मज़दूर वर्ग के तमाम दूसरे स्वतंत्र आन्दोलनों का विरोध करती रही और जिसने क्रांति के भावी सर्वनाश के लिए ज़मीन तैयार की.

“चार वर्गों के मोर्चे” और “दो चरणों वाली क्रांति” के नाम पर दशकों से इंडोनेशियाई सर्वहारा और मेहनतकश जनता को राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के पीछे बांधा गया था. इसका परिणाम घोर विफलता और सर्वनाश के रूप में सामने आया.

पिछड़े देशों में क्रांति का मेन्शेविक-स्तालिनवादी-माओवादी सिद्धांत सर्वहारा को राष्ट्रीय बूर्ज्वाजी के विरुद्ध तमाम कार्रवाइयों से, संघर्ष से विरत करते हुए, उसके पीछे बांधता है. उनका कहना है कि जनवाद की स्थापना के लिए वर्ग-संघर्ष का स्थगन अनिवार्य है.

इस बोगस मेन्शेविक सिद्धांत ने ही १९२५-२६ में चीनी क्रांति में सर्वहारा की पराजय को निश्चित किया था. लेनिन की अप्रैल थीसिस और अक्टूबर क्रांति, इसी के विरुद्ध विजयी उदघोष हैं.

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