Saturday 11 April 2015

अवतार सिंह पाश: उनका युग, कविता और राजनीति

- राजेश त्यागी,  रजिंदर / १२ अप्रैल २०१५

युद्ध से बचने की लालसा ने
हमें लताड़ दिया है घोड़ों की नाल के नीचे,
हम जिस शांति के लिए रेंगते रहे
वो शांति बाघों के जबड़ों में
स्वाद बनके टपकती रही
(‘युद्ध और शांति’ से)

२३ मार्च १९८८ को वह आवाज खामोश हो गई जिसने दो दशक पंजाबी कविता को एक नया क्रान्तिकारी आयाम, एक नई जुझारू विधा दी, उसे विद्रोह के नए स्वरों से दोबारा लैस किया. पाश को खालिस्तानी फासिस्टों ने गोली मार दी. भगत सिंह के शहीदी दिवस पर ही पाश भी शहीद हुए.

पाश की कविता से हम सब परिचित हैं. मगर पाश की राजनीति क्या थी, जिसे उनकी कविताओं ने अभिव्यक्ति दी? इस राजनीति और उसके विकासक्रम को समझे बिना हम पाश और उसकी कविता को पढ़ तो सकते हैं, समझ नहीं सकते. क्या महज़ यह कह देने भर से कि पाश वामपंथी या क्रान्तिकारी कवि थे, पाश और उसकी कविता को, उसके उस विकास को समझा जा सकता है, जिसने पाश को न सिर्फ पूंजीवादी सत्ता और फासिस्ट खालिस्तानियों, बल्कि झूठे वामियों के भी मुख्य निशाने पर रख छोड़ा था?

पाश के साथ भी वही हुआ जो भगत सिंह के साथ हुआ. जिन लोगों ने उनका विरोध किया, गाली दीं, धमकी दीं, उन्हें किनारे करने की भरपूर कोशिशें कीं, और जिनका पाश ने आजीवन विरोध किया, वही लोग पाश की शहादत के बाद उसके पोस्टर लेकर सबसे अगली कतारों में खड़े हो गए, इस शहादत को भुनाने के लिए. भगत सिंह की ही तरह, पाश के राजनीतिक शत्रु भी उनकी राजनीति को धूमिल करने में जुटे हैं. कहने की जरूरत नहीं कि भगत सिंह और पाश दोनों की राजनीति एक ही है.

पाश के लेख और चिट्ठियां, जिनका सिर्फ एक हिस्सा ही बच सका है, न सिर्फ अपने वक़्त के उस महानतम योद्धा की राजनीति पर रौशनी डालती हैं, बल्कि उसके विरोधियों, पीत-वामियों के कारनामों, लफ्फाजी और झूठी क्रांतिकारिता की गवाही देती हैं.

विगत सदी के साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में भारतीय पूंजीवाद के गहन आर्थिक-राजनीतिक संकट के बीचों-बीच, मेहनतकश जनता विद्रोह की ओर मुड़ रही थी, जिसकी पहली चिंगारी पश्चिम बंगाल के संथाल परगना में नक्सलबाड़ी क्षेत्र के साठ गांवों में किसान विद्रोह के रूप में सामने आई. इस किसान संघर्ष को नेतृत्व देने के लिए माओवादियोंकी एक नई पीढ़ी सामने आई, जिसने दशकों से घुटनों के बल घिसट रहे स्तालिनवादी संसदवाद को चुनौती दी और खुले संघर्ष का रास्ता अपनाया. दशकों से संसदवाद के दमघोंटू माहौल में दम तोड़ रही स्तालिनवादी पार्टियों और नेताओं पर वज्रपात हुआ और सबसे ईमानदार और जुझारू युवा नक्सलबाड़ी संग्रामके चारों ओर इकठ्ठा होने लगे. मुख्य रूप से, स्टालिनवाद के पुराने दुर्ग- पश्चिम बंगाल और केरल में केन्द्रित इस किसानी विद्रोह की अनुगूंज पंजाब में भी पहुंची, जहां इसे युवाओं के बीच समर्थन मिला.

झूठ-मूठ ही, मार्क्स का नाम लेने वाले इन संसदीय बाजीगरों पर लानत भेजते, पाश ने लिखा:

ये शर्मनाक हादसा हमारे ही साथ होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों को
बन जाना था सिंहासन के पाए,
मार्क्स का शेर जैसा सिर
दिल्ली की भूलभुलैयों में मिमियाता हुआ
हमें ही देखना था,
मेरे दोस्तों, ये कुफ्र हमारे ही समय में होना था

माओवादियों ने, स्तालिनवादी संसदवाद को चुनौती तो जरूर दी मगर वे स्टालिनवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं से खुद को अलग करने में नाकाम रहे और उससे चिपके रहे. समाजवादी क्रांति से पहले और उससे अलग एक जनवादी क्रांतिकरने, औद्योगिक सर्वहारा की ओर पीठ फेरने और भारतीय बूर्ज्वाजी में क्रान्तिकारी हिस्से तलाशने की उनकी जिद ने, जल्द ही देश भर में उठ रही किसान विद्रोहों की लहर को ठंडा कर दिया.

पाश का राजनीतिक जन्म और विकास इसी लहर में हुआ. संघर्ष के तितर-बितर होने के साथ जहां कुछ लकीर के फ़कीर चीनी रास्तेका नारा देते पुरानी लीक पीटते रहे, कुछ भाग खड़े हुए. कुछ बूर्ज्वा संसदवाद में कीच-क्रीडा के लिए उतावले हो उठे, तो कुछ ने इस संघर्ष को राजनीतिक व्यापार का मंच बना लिया और तरह-तरह के न्यासों-प्रकाशनों के नाम पर मंडी लगा दी.

इन सबसे अलग, पाश ने, जो इस दौरान बार-बार सत्ता के दमन का निशाना बनता रहा, गंभीर राजनीतिक मनन और विश्लेषण किया. उसके मित्रों का कहना है कि वह घंटों किताबों में डूबा रहता, जिनमें से कुछ वह विदेश से मंगाता था. पाश उन विरले कम्युनिस्ट नेताओं में एक थे, जिन्होंने ‘नक्सलबाड़ी’ के किसान संघर्ष से सही निष्कर्ष निकाले.

पाश, जो नक्सलबाड़ी के दिनों से ही, स्तालिनवादी संसदवाद का कटु आलोचक था, अब माओवादी चीनी रास्तेके दिवालियापन को स्पष्ट रूप से देख रहा था. सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध में ही पाश, अक्टूबर क्रांति के सह-नेता लिओन ट्रौट्सकी और उसके सतत क्रांतिके सिद्धांत की ओर घूमा. इस निर्णायक मोड़ ने, न सिर्फ पाश की कविता को गहराई और परिपक्वता दी, बल्कि उसकी राजनीति को क्रान्तिकारी धुरी भी दी.

पाश के जीवन और साहित्यकर्म के विषय में बात करते हुए स्तालिनवादी और माओवादी नेता, उसके जीवन के इस सबसे महत्पूर्ण अध्याय पर पर्दा डाल देते हैं. इस परदापोशी के जरिये वे युवाओं और क्रान्तिकारी सर्वहारा को न सिर्फ पाश को समझने से रोक देते हैं, बल्कि उस क्रान्तिकारी राह को भी धूमिल कर देते हैं, जो पाश ने पकड़ी और जिस पर वह अपनी शहादत तक डटा रहा.

पाश के जीवनकाल में जो तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए, उसमें दो उडदे बाजां मगर’ (उड़ते बाजों के पीछे) १९७३, और साड्डे समियां विच’ (हमारे वक़्त में) १९७८, पर उस क्रान्तिकारी विरासत की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है, जिसे ट्रोट्स्की से हासिल करने का दावा पाश ने बार-बार किया है. १९७० में प्रकाशित लौह कथातक अभी पाश राजनीतिक और कलात्मक पक्ष से पूरी तरह परिपक्व नहीं था. उसकी मृत्यु के बाद १९८९ में प्रकाशित खिलरे होए पन्ने’ (बिखरे हुए पन्ने) उसके लेखों और चिट्ठियों का संग्रह है. उसकी कविताओं का एक और संग्रह १९९७ में लाहौर में प्रकाशित हुआ. 

लीक से बंधी और दकियानूस औपचारिक शिक्षा में पाश की रूचि विकसित नहीं हो सकी और वे मुश्किल से मेट्रिक पास कर प्राथमिक अध्यापक का डिप्लोमा ले पाए. मगर अक्टूबर क्रांति और उसके नेताओं, विशेष रूप से लेनिन और त्रात्सकी ने पाश के व्यक्तित्व पर ऐसी छाप छोड़ी कि पाश की कविता में सर्वहारा और मेहनतकश जनता की आत्मा बोलने लगी. उनकी कविता कितनी ही देशी-विदेशी भाषाओँ में प्रकाशित होती रही और उन्हें कितने ही पुरस्कारों में, पंजाब साहित्य अकादमी का सर्वोच्च पुरस्कार भी मिला.

स्टालिनवाद के विरुद्ध संघर्ष में, पाश द्वारा लिओन ट्रौट्सकी की ओर मुड़ने और उसका खुला समर्थन करने के साथ ही, स्तालिनवादी नेताओं ने पाश के राजनीतिक पतनकी घोषणा कर दी. पाश के जीवनकाल में इन झूठे वामियों ने उसे लगातार प्रताड़ित किया और उसकी मृत्यु के बाद युवा कार्यकर्ताओं को अंधेरे में रखकर, ये दुरंगे नेता, एक ओर तो पाश की शहादत पर अपनी उसी बोगस राजनीति की रोटियां सेंकते रहे जिसका पाश अंतिम समय तक विरोधी रहा, और दूसरी ओर दबी ज़बान से पाश के राजनीतिक-सांस्कृतिक पतनकी घोषणायें करते रहे.

न सिर्फ पाश की चिट्ठियों और लेखों को, बल्कि कविताओं को भी सावधानी से चुन-चुनकर प्रकाशित होने दिया गया. उन कविताओं को, जिनमें पाश ने इन झूठे स्तालिनवादी नेताओं को नंगा करके रख दिया था, साजिशाना तरीके से नदारद कर दिया गया. अपनी कविता कामरेड से बातचीतमें पाश ने इन रंगे सियारों का जैसे नकाब ही नोच डाला. पाश ने लिखा:

स्टेट शब्द में से तुझे कौन सी पसंद है कामरेड?
अफलातून का गणराज्य,
अरस्तू का राजधर्म,
या फिर ट्रोट्स्की की खोपड़ी में धंसी कोमिन्टर्न की कुल्हाड़ी, कामरेड?
तुझे तीनों में कोई समानता दिखी?
इंसान का गरम लहू ठंडे फर्श पर फैलते हुए..?
तो नस्ल में सुधार का बहाना तुझे कैसा लगता है कामरेड?

१९ जुलाई १९७४ को अपने मित्र शमशेर संधू को एक पत्र में पाश ने लिखा, आजकल मैं ट्रोट्स्की को पढ़ रहा हूँ. उसकी आत्मकथा इंग्लैंड से मंगवाई है और १९०५ के असफल विद्रोह के विषय में उसकी किताब मुझे भगवान से मिल गई थी. मैंने इस दो किताबों से बहुत सीखा है. जल्दी ही मैं उसकी बाकी किताबें भी हासिल कर लूंगा. यार, बड़ी असाधारण और जुझारू आत्मा है उसकी. इसके बाद में एक बार फिर लेनिन को पढूंगा. मैंने उसे अव्यवस्थित रूप से आधा ही पढ़ा है. जिन पर हमारी इतनी आशाएं टिकी हों, उनकी जानकारी हमें पूरी तरह और हर तरह से होना जरूरी है.

छद्म वामियों का मज़ाक उड़ाते और साथ ही युवाओं को संघर्ष के लिए ललकारते, पाश ने लिखा:

यहां तो पता नहीं कब आ धमकें
लाल पगड़ियों वाले आलोचक
और शुरू कर दें
कविता की दाद देना
(‘उडदे बाजां मगर’ से)

दमघोंटू जीवन स्थितियों, जिन्हें पूंजीवाद ने मेहनतकश जनता के लिए रचा था, से मुक्ति के लिए, व्यक्तिगत प्रयासों की व्यर्थता को रेखांकित करते और क्रान्ति को एकमात्र रास्ते के तौर पर सामने रखते हुए, पाश लिखते हैं:

सारी उम्र भी नहीं चुका पाएगा
बहन की शादी पर लिया गया कर्जा,
खेतों में छिडके खून का हर कतरा भी इकठ्ठा करके
इतना रंग नहीं जुट पाएगा
कि चित्र बना सके एक शांत, मुस्कुराते आदमी का,
जिंदगी की तमाम रातें भी लगाकर
तारों की गिनती नहीं कर पाएगा,
क्योंकि यह सब हो नहीं सकता.
(‘उडदे बाजां मगर’ से)

१० मई १९७० को पाश पहली बार गिरफ्तार हुए. उन्हें क़त्ल के मुक़दमे में फंसाया गया. जेल में रहते लिखते रहे और लगभग एक वर्ष बाद बाहर आते ही फिर संघर्ष में जुट गए. इसी वक़्त वे त्रात्सकी की ओर झुक रहे थे.

१९७१ में ही मार्क्सवादी राजनीति के बारे में अपनी परिपक्वता को बिम्बित करते, इंग्लैंड में रह रहे अपने मित्र मुश्ताक को २९ जुलाई १९७१ को लिखे अपने पत्र में पाश ने लिखा, संगठन विषयक, त्रात्सकी की समझ बारे तुम्हारे विचार प्रमाणिक नहीं हैं. उसे पार्टी से भागने वाल योद्धा कहकर कभी समझा नहीं जा सकता. यह तथ्य, उस द्वारा, दूसरे विश्व-युद्ध में सर्वहारा की भूमिका, साम्राज्यवाद और नाज़ीवाद के विषय में उसकी समझ, सतत क्रांति के सिद्धांत आदि पर उसके विश्लेषणों के साथ जोड़कर देखना चाहिए. स्टालिन का उसके बारे में दृष्टिकोण और उसकी खामियों को तुमने ठीक समझा है.

१९७२ में पाश छात्र आन्दोलन के दौरान फिर गिरफ्तार हुए. आन्दोलन की मुख्य संचालक शक्ति बताकर उन्हें राज्य भर में दंगा और अव्यवस्था फ़ैलाने के लिए जेल में रखा गया. १९७४ में उन्हें रेलवे मजदूरों की हड़ताल के दौरान जेल में डाला गया और फिर इमरजेंसी के दौरान वे जेल में रहे.

१९७३ में पाश ने नक्सलबाड़ी के दौर के साथियों से मिलकर पंजाबी साहित्यिक पत्रिका 'रोहले बाण' (विद्रोही बाण) निकाली मगर साहित्य और कला के प्रश्न पर इन साथियों की पिछड़ी समझ के चलते पाश इससे अलग हो गए. दरअसल पाश यहां माओवादियों की 'सर्वहारा संस्कृति' के विचार से खिन्न थे और त्रात्सकी के कला-साहित्य सम्बन्धी विचारों का समर्थन कर रहे थे.  १९७४ में पाश ने समवैचारिक युवा साथियों को लेकर, 'सिआड़' (हल का फलक) पंजाबी साहित्यिक पत्रिका निकाली, जो साधनों के अभाव के चलते जल्द ही बंद हो गई. यही अगली पत्रिका 'होका' (आह्वान) के साथ हुआ.

स्तालिनवादी नेताओं को जैसे ही पता चला कि पाश त्रात्सकी की ओर मुड़ रहा है और उसे संजीदगी से पढ़ने में व्यस्त है, उन्होंने पाश को इससे विरत करने के लिए, साजिश के तहत, उसे भूमिगत होने के निर्देश दिए. मगर पाश ने, जो अब ट्रोट्स्की से क्रांति की यांत्रिकी को संजीदगी से सीख समझ रहा था, भूमिगत होने से स्पष्ट इनकार कर दिया. खिसियाये, इन नेताओं ने पाश को सीधे धमकाना शुरू किया. साडे समियां विच (हमारे वक़्त में) के पूर्व संस्करण की अनछपी भूमिका में पाश लिखते हैं, जेल से रिहा होने के कुछ ही दिन बाद मेरे पास दो भूमिगत कामरेड आये और मुझे फ़ौरन भूमिगत होने का आदेश दिया. मेरे न करने पर धमकी दी कि मेरे विरुद्ध पार्टी की ओर से प्रचार किया जायगा कि मैं क्रान्तिकारी नहीं और फिर मेरी कविता की वाह-वाह बंद हो जायगी. इस घटना के बाद मैंने सोचा कि यदि मेरी कविता इस पार्टी के रहम की मोहताज़ है तो क्या ख़ाक लिखता हूँ मैं.

पाश ने आगे लिखा, पर अपनी विचारधारा और भारतीय कम्युनिस्ट प्रैक्टिस की गुत्थी से में तभी निकल सका जब लिओन ट्रोट्स्की को पढना शुरू किया. जैसे-जैसे ट्रोट्स्की के विचार पढ़े,  अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट संघर्षों और समाजवाद उन्मुख साहित्य की समस्याओं के आधार और कारण स्पष्ट होते गए. मेरे अन्दर अपने प्रति खिन्नता घटती गई, सहानूभूति बढती गई. यदि मैं उस समय कामरेडों के कहने से भूमिगत हो जाता तो शायद लफ्फाजी कर-कर कविता लिखना ही मेरा भाग्य बन जाता और यदि ट्रोट्स्की को न पढता तो शायद अब तक कम्युनिस्ट विरोधी कवि हो चुका होता. अब मैं जो भी हूँ, मुझे अपने अतीत पर बहुत अफ़सोस नहीं है. इस पच्चीस वर्ष की उम्र में ज्यादा से ज्यादा इतना ही प्रभाव कमा सकना था.

२५ अगस्त १९७४ को अपनी डायरी में पाश ने लिखा, "अभी-अभी मैंने त्रात्सकी की पुस्तक 'स्टालिनिस्ट स्कूल ऑफ़ फाल्सिफिकेशन' ख़त्म की है.

अपने लेख त्रात्सकी के विषय मेंमें पाश ने लिखा त्रात्सकी के सम्बन्ध में मेरे कथन पर प्रतिकर्म  में चार लोगों ने अपने विचार रखे हैं, जिसमें से तीन ने विचारधारा पर बहस की कोशिश की है जबकि चौथे ने त्रात्सकी के बहाने मुझे व्यक्तिगत रूप से अपमानित करने, गालियां देने पर दाव लगाया है. यह सुखदीप कौन है और इसे नीचे छद्म नाम लिखने की जरूरत क्यों पड़ी? नीचे छद्म नाम तभी लिखा जाता है जब लिखने वाला भूमिगत हो और बहस सामान्य हो. किन्तु जब किसी व्यक्ति को कैरियरवादी, भगोड़ा कहने और बिजली के झटके लगाने की बात कही जाय तो मुखौटा लगाकर लिखना गलत भी है और बौद्धिक अपराध भी. मैं भी त्रात्सकी-वाद पर अपने विचारों को किसी छद्म नाम से छपवा कर खुद को बहस से अलग रख सकता था, किन्तु मुझे अपने विचारों की सच्चाई पर विश्वास है और उन्हें खुलेआम प्रकाशित करने में मुझे कोई झिझक नहीं है. इसलिए मैंने ऐसा नहीं किया.

पाश आगे लिखते हैं, इस व्यक्ति ने और श्री प्रेम सिंह ने यह कोशिश की है कि त्रात्सकी के समर्थन में मेरे द्वारा उद्धृत लेनिन के उद्धरणों के मुकाबले में, लेनिन द्वारा उस के विरुद्ध उद्धरणों को उद्धृत करके सच को ख़त्म कर दिया जाय. दरअसल यह कोई तार्किक बहस का ढंग नहीं है. इस तरह मैं लेनिन के लेखों से सैंकड़ों उद्धरण त्रात्सकी के पक्ष में दे सकता हूं और ये विरोध में पेश कर सकते हैं. ऐसे कोई निष्कर्ष निकलना असंभव है. लेनिन और त्रात्सकी रूस के क्रान्तिकारी आन्दोलन में एक दूसरे के करीबी भी रहे और विरोधी भी. त्रात्सकी के विषय में मेरे उद्धरण इस भावना में प्रस्तुत ही नहीं किए गए हैं. हमारे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की अनपढ़ता का आलम यह है कि माओ-त्से-तुंग को पढ़े-समझे बिना ही उसकी पूजा की जा सकती है, पार्टी वफ़ादारी और पार्टी हितों के नाम पर शासकों के साथ समझौते किए जा सकते हैं, नमक की डली को मिशरी बनाकर प्रस्तुत किया जा सकता है, और उसके पक्ष में दलीलें दी जा सकती हैं. स्टालिन के दमन, अपराधों को हालात की मजबूरी और हालात की मांग कहकर न्यायोचित ठहराया जा सकता है. किसी भी व्यक्ति या विचार के पक्ष में या विरुद्ध जब चाहें ढोल बजाये जा सकते हैं, और लड़ाकू कतारों को बारी-बारी से नचाया जा सकता है. हमारी समझ को नहीं बल्कि हमारे जज्बातों को संबोधित किया जाता रहा है. स्टालिन के प्रति अंध-श्रद्धा और उस पर जरा सी भी उंगली उठाते ही जो तड़प उठती है, वह इसी आवेग की उपज है. यहां दोनों चीज़ें काम करती हैं. हमारी अनपढ़ता और चेतना के जज्बाती आधार पर हमें स्टालिन के साथ बांध दिया गया है. जज्बे ही दलीलों को हाकते, इतिहास को न्यायोचित ठहराते आ रहे हैं. हम भारतीय कम्युनिस्ट अभी अज्ञानता के अंधकार के युग से गुज़र रहे हैं. सिर्फ ज्ञान ही हमें मुक्त करा सकता है.

जमीनी कामके नाम पर गहन अध्ययन और विश्लेषण के प्रति नकारात्मक रवैया रखने वाले स्टालिन-माओ के चेलों की आलोचना करते हुए, पाश कहते हैं- ऐसा रुझान स्थापित कर दिया गया है कि किताबी ज्ञान को नफरत की निगाह से देखा जाता है और व्यवहार को ही सब रोगों की दवा समझा जाता है.

लेख के अंत में पाश लिखते हैं कि क्या इससे यह सिद्ध हो जाता है कि लेनिन सदा त्रात्सकी के पक्ष में रहा है और क्या यह चीज़ त्रात्सकी को सुदृढ़ करती है? नहीं, मेरी मंशा थी कि अब तक हम त्रात्सकी को प्रेत की तरह देखते रहे हैं जबकि लेनिन उसे इस तरह नहीं देखता था. मेरे इन उद्धरणों की महत्ता इसलिए और बढ़ जाती है कि इन बहुमुखी विवादों में लेनिन के अंत के वे उद्धरण भी सम्मिलित हैं जिसमें लेनिन ने स्टालिन के विरुद्ध और त्रात्सकी के पक्ष में कहा है.

पाश लगातार सरकारी दमन का शिकार होते रहे, झूठे मुकदमों में फंसाए जाते रहे, बार-बार जेल गए, मगर झूठे वामी नेताओं ने पाश को भगोड़ा और गद्दार कहकर किनारे लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लन्दन स्थित, पाश के मित्र भारत भूषण जी ने बताया कि पाश की मृत्यु के बाद उनके परिवार के पास पाश के लेखों, चिट्ठियों का जो संग्रह था, उसके बहुत से हिस्से लोग यह कहकर ले गए कि वे उसे प्रकाशित करेंगे, जो उन्होंने कभी नहीं की, या की भी तो सिर्फ चुनिन्दा.

पंजाब में खालिस्तानी उग्रवाद के दौर में पाशदरअसल तिहरा संघर्ष कर रहे थे. एक तरफ पूंजीवादी सत्ता, दूसरी तरफ खालिस्तानी और तीसरी तरफ स्टालिनवादी कम्युनिस्टो से वे जूझ रहे थे, जिसमें कविता ही उनका हथियार थी.

यह वही दौर था जब खालिस्तानियों के आगे एड़ियां रगड़ते, माओवादी, पंजाब की दीवारों पर कामरेड भिंडरांवाले जिंदाबादके नारे लिख रहे थे और स्तालिनवादी नेता खालिस्तानियों से लड़ने का स्वांग करते, लाइसेंसी बंदूकों के सहारे अपना सर बचाने में जुटे थे. ठीक इस वक़्त पाश त्रिकोणीय संघर्ष में जुटा था और युवा कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को खुद को क्रान्तिकारी सिद्धांत से सन्नद्ध करने के लिए ललकार रहा था.

खालिस्तानी आतंकवादियों के विरुद्ध निडर, निर्भीक संघर्ष में जुटे, पाश उसी उत्साह से दिल्ली की पूंजीवादी सत्ता से भी जूझ रहे थे. खालिस्तानी फासिस्टों की नाक के ठीक नीचे, उनकी कड़ी निंदा करते, पाश ने निर्भीकता से लिखा, “आज के पंजाब में, विपथ, प्रतिक्रियावादी खालिस्तानी गिरोह, विरासत के मामले में हिटलर और उसकी पार्टी के साथ समानता रखते हैं, लेकिन लोगों में भगवान के दर्शन करने वाले महान सिख गुरुओं के साथ इनका कोई सरोकार नहीं है.” उसने आगे कहा, “पंजाब के पूरे इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि खुद को राज्य के विरुद्ध बागी कहने वाली लहर ने एक बार भी निहत्थे लोगों का खून बहाया हो. या असहमत लोगों पर हमला किया हो जो राज्य मशीनरी का अंग न हों.”

खालिस्तानी आतंकवाद को इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की साजिश बताते हुए, पाश ने कहा, “अपराधी है भारत की मौजूदा प्रधानमंत्री का विकृत वैचारिक प्रबंध, जिसने ‘गरीबी हटाओ’ ‘समाजवाद लाओ’ ‘गरीब देशों की मदद करो’ जैसे नारों के खुलते भेद और निष्क्रिय होते प्रभाव के बीच चुनाव जीतने के लिए नया ढंग यह अपना लिया है.”

इंदिरा गांधी, अंततः अपने ही खोदे गड्ढे में जा गिरी. खालिस्तानी उग्रवादियों द्वारा इंदिरा गाँधी की हत्या पर पाश ने लिखा: 

मैंने उम्र भर उसके खिलाफ सोचा
और लिखा है
अगर उसके शोक में
सारा ही देश शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम काट दो
(‘बेदखली के लिए विनय पत्र’ से)

इस त्रिकोण के विरुद्ध, क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए युवा पीढ़ियों को ललकारते, पाश ने लिखा:

हाथ जो हों तो
जोड़ने के लिए नहीं होते
न दुश्मन के सामने उठाने के लिए ही होते हैं
ये गर्दन मरोड़ने के लिए भी होते हैं,
हाथ जो हों तो
हीर के हाथों से चूरमा लेने के लिए ही नहीं होते हैं
जेलों की सलाख्ने तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ मेहनत करने के लिए ही नहीं होते
लूटते हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं

लेनिन, ट्रोट्स्की, रोज़ा जैसे उन तमाम क्रांतिकारियों की ही तरह, जिनके पदचिह्न पाश का मार्गदर्शन कर रहे थे, पाश भी जिंदगी को चुनौती दे रहा था. पाश ने लिखा:

जीने का एक और भी ढंग होता है
भरे ट्रैफिक में चित्त लेट जाना
और स्लिप कर देना वक़्त का बोझिल पहिया...

बहुत पहले ही पाश ने मौत के अपने ढंग का चुनाव कर लिया था. मौत की आँखों में आँखें डालते, पाश ने चुनौतीपूर्ण स्वर में कहा:

मरने का एक और भी ढंग होता है
मौत के चेहरे से उठा देना नकाब
और ज़िन्दगी की चार सौ बीसी को
सरेआम बेपर्दा कर देना

पाश इसी तरह जिए और मरे. अपनी शर्तों पर. जिंदगी और मौत दोनों को जैसे वश में कर लिया हो!

पाश की मृत्यु के बाद भी उसके कई साथियों ने पाश की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाया. साहित्यकार अमरजीत चन्दन और सती कुमार जैसे लोग इस काम में जुटे रहे. पाश और उसके गुरु ट्रोट्स्की के लिए, क्रांति-विरोधी स्तालिनवादी नेताओं के दिल-दिमाग में जो नफरत का ज़हर भरा था, उसका एक उदाहरण तब मिला जब एक सम्मलेन में ब्रिटेन में स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पतित कारिंदे हरपाल बरार ने पाश के साथी अमरजीत चन्दन को पाश का समर्थक होने के लिए थप्पड़ मार दिया. यह हरपाल बरार, पंजाब के मुख्यमंत्री और दक्षिणपंथी अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल, के भाई गुरदास सिंह का सगा साला है और ब्रिटेन में कपडे का बड़ा व्यापारी और अरबों की संपत्ति का स्वामी भी. यह ट्रोट्स्की का कट्टर विरोधी है और साम्राज्यवादी तंत्र से जुड़े ग्रोवर फर्र जैसे उन खलनायकों में से एक है, जो अक्टूबर क्रांति के महान नेता लिओन त्रात्सकी के विरुद्ध कुत्सा प्रचार में जुटे रहते हैं. ये अमेरिकी-ब्रिटिश सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ मजबूती से बंधे हैं. दुनिया भर के स्तालिनवादी, इन्ही के लेखों से, त्रात्सकी के विरुद्ध उद्धरण ले-लेकर, चिपकाते रहते हैं. उल्लेखनीय है कि हरपाल बरार के भांजे मनप्रीत बादल ने, जो प्रकाश सिंह बादल के मंत्रिमंडल में वाणिज्य मंत्री रहा, पंजाब पीपल्स पार्टी बनाई थी. भारत में काम कर रही सीपीआई, सीपीएम जैसी स्तालिनवादी पार्टियों को पीपल्स पार्टी के पीछे बांधने में हरपाल बरार ने बड़ी भूमिका निभाई. स्तालिनवादी वाम की ये पार्टियां, मनप्रीत बादल की इस पार्टी के साथ मोर्चा बनाए रही हैं, जबकि पंजाब पीपल्स पार्टी का दूसरा हाथ सीधे पूंजीवाद की दूसरी बड़ी पार्टी, कांग्रेस के हाथ में रहा है.

इन झूठे वामियों ने, जो अपनी एड़ियां उठाकर भी पाश की एड़ियों तक नहीं पहुँच सकते थे, पाश को जीवन भर प्रताड़ित किया और लांछित किया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी शहादत पर रोटियां सेंकने पहुँच गए.

फासिज्म के विरुद्ध पाश के अनम्य संघर्ष, विशेष रूप से अमेरिका से प्रकाशित पत्रिका 'एंटी-४७' में उनके फासिस्ट विरोधी प्रचार से घबराए, खालिस्तानी फासिस्टों ने दोआबा में उन्हें अपने शिकारों की सूची में सबसे ऊपर रख लिया और २३ मार्च १९८८ को उन्हें जालंधर (पंजाब) में उनके गांव तलवंडी सालेम में गोलियों से भून डाला.

यह निश्चित है कि यदि खालिस्तानियों ने पाश को नहीं मारा होता तो वे स्तालिनवादियों या पूंजीवादी सता का शिकार हुए होते. पाश इन सभी का सांझा शत्रु था, है और रहेगा. 

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