Monday 2 February 2015

आम आदमी पार्टी को समर्थन: भाकपा माले का भीतरघात

स्तालिनवादी भाकपा माले (लिबरेशन) द्वारा दिल्ली विधानसभा चुनावों में, आम आदमी पार्टी को समर्थन की घोषणा की गई है. यह घोषणा ऐसे वक़्त पर हुई है जबकि आम आदमी पार्टी पर कॉर्पोरेट से करोड़ों रुपये चंदा लेने के मामले खुलकर सामने आ रहे हैं और इस पार्टी ने बड़े कॉर्पोरेट के खिलाफ बोलना तक बंद कर दिया है. निम्न-बूर्ज्वा सुधारवादी आम आदमी पार्टी को इस समर्थन पर भाकपा माले के नेता फर्जी बहाने बनाकर अपने कार्यकर्ताओं को बहकाने का प्रयास कर रहे हैं. इस विषय को स्पष्ट करती यह प्रश्नोत्तरी देखें:
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प्रश्न: भाकपा माले (लिबरेशन) ने दिल्ली विधान-सभा चुनावों में ‘आम आदमी पार्टी’ को समर्थन दिया है. इस पर आपका क्या मत है? 

वर्कर-सोशलिस्ट: यह उन युवाओं और सर्वहारा, मेहनतकश हिस्सों से खुली गद्दारी है जो भाकपा माले का समर्थन करते हैं. स्तालिनवादी वाम मोर्चे की दूसरी पार्टियों की तरह ही, भाकपा माले (लिबरेशन) के स्तालिनवादी नेता भी बूर्ज्वा पार्टियों, मोर्चों की पूंछ पकड़ने के लिए उत्सुक हैं और सर्वहारा की राजनीतिक स्वतंत्रता, क्रांति और समाजवाद की ओर पीठ किये खड़े हैं. ये पार्टियां स्टालिनवाद के जिस कार्यक्रम पर आधारित हैं वास्तव में वह निम्न-बूर्ज्वा सुधारवाद का कार्यक्रम है, क्रांति का नहीं. हम इस घात की कड़ी निंदा करते हुए, युवाओं और सर्वहारा के अग्रणी तत्वों का आह्वान करते हैं कि वे इन क्रांति-विरोधियों से नाता तोड़ें और सर्वहारा की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए, अक्टूबर क्रांति की राह पर आगे बढ़ें.

प्रश्न:  भाकपा माले का कहना है कि अभी क्रान्तिकारी शक्तियां कमजोर हैं इसलिए यह जरूरी है कि ऐसे गठबंधन बनाये जाएं.

वर्कर-सोशलिस्ट: स्तालिनवादियों का राजनीतिक कार्यक्रम क्रान्तिकारी शक्तियों की 'कमजोरी' से शुरू होता है और उसी पर आकर ख़त्म हो जाता है. स्तालिनवादियों का यह बहुत पुराना झूठ-राग है, जिसे वे पिछली लगभग एक सदी से गाए जा रहे हैं. करोड़ों की तादाद में मौजूद सर्वहारा और मेहनतकश जनता पर आधारित क्रान्तिकारी शक्तियां, मुट्ठी भर बूर्ज्वाजी के आगे कमज़ोर कैसे हो सकती हैं? क्रान्तिकारी शक्तियां कमज़ोर नहीं हैं, बल्कि उन्हें बारम्बार बूर्ज्वा पार्टियों, नेताओं और मोर्चों के पीछे बांधकर, स्तालिनवादी नेता, अशक्त और अकर्मण्य कर देते हैं. वास्तव में, सर्वहारा की क्रान्तिकारी शक्ति में इन नेताओं का कोई विश्वास नहीं है और सर्वशक्तिमान सर्वहारा तथा क्रांति के बीच, ये स्तालिनवादी नेता, दीवार बनकर खड़े हैं.

प्रश्न: आपके विचार से इस 'समर्थन' के राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं?

वर्कर सोशलिस्ट: इस समर्थन का सिर्फ एक ही निहितार्थ है कि स्तालिनवादी नेताओं ने लाल-झंडे का पांवड़ा बनाकर बूर्ज्वा और निम्न-बूर्ज्वा नेताओं के पैरों तले बिछाने की अपनी नीति को जारी रखा है. स्तालिनवादी नेताओं का काम है बूर्ज्वा और निम्न-बूर्ज्वा पार्टियों के लिए 'कुली सेवा' करना. वे दशकों से यही कर रहे हैं. 'कुली सेवा' करते हुए, ये झूठे नेता अपने कार्यकर्ताओं से कहते हैं कि जनता अभी क्रांति के लिए तैयार नहीं है इसलिए समझौते अनिवार्य हैं. असल में अपने बोगस कार्यक्रम और राजनीतिक निकम्मेपन को छिपाने के लिए ये नेता मेहनतकश जनता को लांछित करते हैं.

प्रश्न:  माले का कहना है कि वह फासिस्ट भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए आम आदमी पार्टी को समर्थन दे रही है.

वर्कर-सोशलिस्ट: इस मुद्दे के तीन पहलू हैं. पहला यह कि दिल्ली में माले का कुल समर्थन इतना नगण्य है कि उसके समर्थन करने या न करने से आम आदमी पार्टी या भाजपा के वोट प्रतिशत पर नाममात्र का भी फर्क पड़ने वाला नहीं है. इसलिए उनका यह बहाना बिलकुल व्यर्थ है. दूसरे, और जो अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह कि फासिस्टों के अलावा, उदारवादी और सुधारवादी भी बूर्ज्वाजी के हिस्से हैं और ये सर्वहारा की अपेक्षा एक-दूसरे के कहीं पास खड़े हैं. ये सभी सर्वहारा, समाजवाद और क्रांति के सांझे शत्रु हैं और हर कीमत पर सर्वहारा को सत्ता से बाहर रखना चाहते हैं. तीसरा यह कि उदारवादियों-सुधारवादियों के भरोसे यदि फासिस्टों को सत्ता से बाहर रखना संभव होता तो फासिस्ट सत्ता में ही नहीं आ पाते.

प्रश्न: लेकिन यह तो सही है कि भाजपा को सिर्फ आम आदमी पार्टी ही चुनौती दे रही है?

वर्कर-सोशलिस्ट: यह इन स्तालिनवादी सूरमाओं के लिए शर्म की बात है. अपने बोगस कार्यक्रम के चलते ये नेता और इनकी पार्टियां राजनीति के हाशिये पर जा लगे हैं और बूर्ज्वा जनवाद की पूर्ण क्षय के इस शानदार दौर में भी ये बौने कोई कारगर भूमिका अदा कर पाने की स्थिति में नहीं हैं. सिर्फ खीसें निपोरते हुए कहते हैं कि 'फासिस्टों को चुनौती आम आदमी पार्टी ही दे सकती है'.

प्रश्न: मगर फासिस्टों को रोकने के लिए उदारवादियों या सुधारवादियों को समर्थन देना कैसे गलत कहा जा सकता है?

वर्कर-सोशलिस्ट: यहां पहले हमें यह स्पष्ट समझना होगा कि हमारा फौरी ध्येय पूंजीपतियों-ज़मींदारों की सत्ता का विनाश और सर्वहारा-मेहनतकशों की सत्ता की स्थापना है. फासिज्म के विरुद्ध हमारा संघर्ष, पूंजी की सत्ता के विरुद्ध संघर्ष का हिस्सा है और उसके मातहत है. फिर पूंजीवादी नेताओं, पार्टियों के उदारवादी-सुधारवादी हिस्सों के साथ सहबंध कैसे हो सकते हैं? ऐसा कोई भी प्रस्ताव या प्रयास, सर्वहारा, क्रांति और समाजवाद के उद्देश्यों से खुली गद्दारी ही होगा. फासिज्म से लड़ने के नाम पर बूर्ज्वाजी के दूसरे हिस्सों का समर्थन कभी नहीं किया जा सकता. ऐसा कोई भी समर्थन या मोर्चा, फासिज्म को कमज़ोर करने की जगह, उसे और भी शक्तिशाली बनाएगा और उसे विपक्ष की एकमात्र पार्टी बनाते हुए, उसके सत्ता में आने के लिए राह खोल देगा.

प्रश्न: तो क्या आप फासिज्म के विरुद्ध लड़ाई की राजनीतिक वैधता को नहीं मानते?

वर्कर-सोशलिस्ट: बिलकुल मानते हैं. मगर हम उसे पूंजीवाद के विरुद्ध लड़ाई से अलग करके नहीं देख सकते. हमारे लिए फासिज्म पर विजय का अर्थ है- पूंजी की सत्ता का विनाश. मगर स्तालिनवादी-माओवादी इस लड़ाई को बूर्ज्वा-जनवाद के दृष्टिकोण से देखते हैं, फासिज्म के विरुद्ध बूर्ज्वा-जनवाद की प्रतिरक्षा की बात करते हैं और इसके लिए बूर्ज्वा नेताओं, पार्टियों, मोर्चों के साथ सहबंध बनाते हुए सर्वहारा और युवाओं को बूर्ज्वाजी के पीछे बांध देते हैं. दरअसल इन अवसरवादी नेताओं ने, राजनीति को उसकी 'वर्ग धुरी' से हटाकर, 'दक्षिण-वाम' की निरर्थक लफ्फाजी के फर्जीवाड़े में फंसा दिया है और अब वे सुविधानुसार बूर्ज्वाजी की किसी भी पार्टी या हिस्से को वाम-जनवादी घोषित करके, उससे चिपक जाते हैं.

प्रश्न: क्या आप आम आदमी पार्टी को भाजपा और कांग्रेस से बेहतर विकल्प नहीं मानते?

वर्कर-सोशलिस्ट: ऐसा प्रचार भ्रमजाल है. हम इस बात को सिरे से खारिज करते हैं कि आम आदमी पार्टी, कांग्रेस या भाजपा का कोई विकल्प है. उल्टा यह इनकी परिपूरक है. राजनीतिक संकट के भंवर में डोलती पूंजीवाद की नैया को स्थिर करने का दायित्व आम आदमी पार्टी ने अपने कन्धों पर लिया है. इस पार्टी के नेताओं ने बार-बार समाजवाद की असफलता का ढोल पीटते, पूंजीवाद को साफ़-सुन्दर बनाने की बात की है. समाजवाद को स्पष्ट रूप से नकारटे हुए, यह पार्टी, संत-पूंजीवाद की झूठी मरीचिका से, मेहनतकश जनता को बेवक़ूफ़ बना रही है. मार्क्सवादियों का कार्यभार, इस पार्टी को समर्थन देकर, इस भ्रमजाल को मज़बूत करना नहीं, बल्कि इसे फाड़ फेंकना है. 

प्रश्न: लेकिन आप आम आदमी पार्टी को पूंजीपति वर्ग की पार्टी कैसे कह सकते हैं, यह पार्टी तो खुद को आम आदमी की पार्टी कहती है?

वर्कर-सोशलिस्ट: कोई भी पार्टी अपने आप को पूंजीपति वर्ग की पार्टी नहीं कहती है. धुर दक्षिणपंथी भाजपा भी खुद को भारतीय जनता की पार्टी कहती है. साइनबोर्ड को हटाकर देखेंगे तो पाएंगे कि आम आदमी पार्टी न सिर्फ निम्न बूर्ज्वाजी के भारी समर्थन पर टिकी है बल्कि सीधे कॉर्पोरेट चन्दों से इसका कोष चलता है. इसका पूरा कार्यक्रम, निम्न-बूर्ज्वा कार्यक्रम है जो पूंजीवाद में मामूली सुधारों के आगे नहीं जाता.

प्रश्न: क्या आप यह दावा कर रहे हैं कि क्रान्तिकारी शक्तियां अपने बूते फासिज्म को रोक सकती हैं?

वर्कर-सोशलिस्ट: बिलकुल. हम यह पुरजोर दावा कर रहे हैं कि क्रान्तिकारी शक्तियां न सिर्फ फासिज्म को रोक देने, उसका जहरीला फन कुचल देने, बल्कि पूंजीपतियों की सत्ता का तख्ता उलट देने में पूरी तरह समर्थ हैं. यदि कोई बाधा है तो वह है उन पर कुंडली मारे बैठी अवसरवादी ब्यूरोक्रेसी.

प्रश्न: लेकिन क्या यह सच नहीं है कि जनता बड़ी तादाद में पूंजीवादी पार्टियों के लिए वोट करती है?

वर्कर-सोशलिस्ट: नहीं. यह अधूरा सच है. पूरा सच यह है कि मेहनतकश जनता ने बार-बार लाल झंडा उठाये वाम पार्टियों को बदलाव के लिए समर्थन दिया है, मगर इन पार्टियों के स्तालिनवादी नेतृत्व ने, पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष से इनकार करते हुए, हर बार मेहनतकश जनता से धोखा किया है और उसे वापस पूंजीवादी पार्टियों, मोर्चों के पीछे बांध दिया है. मेहनतकश जनता ने पूंजीवाद की गिरफ्त को तोड़ने की अगणित कोशिशें की हैं मगर स्तालिनवादी नेताओं ने सब पर पानी फेर दिया है. स्तालिनवादी वाम मोर्चे ने बंगाल, केरल, त्रिपुरा में सरकारें बनाकर वही पूंजी-परस्त नीतियां लागू कीं और जारी रखी हैं जिन्हें कांग्रेस और भाजपा की सरकारें लागू करती रही हैं.

प्रश्न: तो क्या माओवादी पार्टी सही है जो इन पार्टियों को संसदवादी बताकर आलोचना करती है?

वर्कर-सोशलिस्ट: स्तालिनवादियों की आलोचना करते हुए, माओवादी पार्टी अपना इतिहास कैसे भूल जाती है? माओवादी पार्टी ने भी बार-बार बूर्ज्वा पार्टियों के साथ मोर्चे बनाये हैं और उन्हें समर्थन दिया है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस की मौजूदा सरकार को सत्ता में लाने में माओवादी पार्टी की महत्पूर्ण भूमिका थी. दरअसल, माओवाद, स्टालिनवाद के चीनी संस्करण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. दोनों, पूंजीवाद की जमीन में धंसे हैं और क्रांति-विरोधी हैं.

प्रश्न: स्तालिनवादियों और माओवादियों की भूमिका को आप कैसे आंकते हैं?

वर्कर-सोशलिस्ट: इनकी भूमिका इनके इतिहास से स्पष्ट होती है. जहां माओवादी सर्वहारा की तरफ पूरी तरह पीठ फेरते हैं, वहीँ स्तालिनवादी उसे पूंजीवादी पार्टियों, मोर्चों के पीछे बांधकर, जकड़े रहकर, उसे पूंजीवाद पर हमला करने से रोकते हैं. स्टालिन और माओ की समर्थक पार्टियां सैंकड़ों सूत्रों के जरिये बूर्ज्वाजी और निम्न-बूर्ज्वाजी की पार्टियों के साथ गुंथी हुई हैं और इन सबका कार्यक्रम 'जनवाद' की प्रतिरक्षा के नाम पर बूर्ज्वाजी के हिस्सों के साथ, उनकी पार्टियों, नेताओं के साथ सामंजस्य की खुली वकालत करता है. बूर्ज्वाजी के साथ यह सामंजस्य, सर्वहारा क्रांति के विचलन और विनाश के लिए उत्तरदायी है.

प्रश्न: मगर भाकपा माले ने तो सीपीआई-सीपीएम की आलोचना की है.

वर्कर सोशलिस्ट: स्टालिन-माओ की अनुयायी ये पार्टियां एक दूसरे की आलोचना तो करती है, मगर इनका कार्यक्रम सांझा है. इनके मतभेद सतही हैं और इनकी एकता प्रमुख. लफ्फाजी को छोड़कर, भाकपा माले किसी भी अर्थ में सीपीआई-सीपीएम से अलग नहीं है. आई.पी.ऍफ़ से शुरू करके, अपने पूरे इतिहास में यह पार्टी भी वाम मोर्चे की इन्ही पार्टियों की तरह ही, बूर्ज्वा पार्टियों के साथ समायोजन के लिए लालायित रही है. विगत लोकसभा चुनावों में इसके नेता राष्ट्रीय जनता दल जैसी क्षेत्रीय-जातिवादी निम्न-बूर्ज्वा पार्टी को 'जनवादी' बता रहे थे, तो अब बेशर्मी से आम आदमी पार्टी से जा चिपके हैं.

प्रश्न: तो क्या उदारवादी-सुधारवादी पार्टियों के साथ मिलकर व्यापक जनमोर्चे नहीं बनाये जा सकते?

वर्कर-सोशलिस्ट: जी नहीं! सर्वहारा और बूर्ज्वा पार्टियों के बीच एक क्षण के लिए भी कोई संघात नहीं हो सकता. किसी भी आधार पर, और किसी भी स्थिति में नहीं.

प्रश्न: फिर संयुक्त मोर्चे की रणनीति का क्या अर्थ है?

वर्कर-सोशलिस्ट: संयुक्त मोर्चे सिर्फ और सिर्फ सर्वहारा और मेहनतकश जनता के बीच ही संभव हैं जिनका निशाना पूंजीपति-ज़मींदार वर्गों की सत्ता है. इसका अर्थ है कि सिर्फ सर्वहारा पार्टियों के बीच ही सांझे मोर्चे हो सकते हैं, न कि सर्वहारा और बूर्ज्वा पार्टियों के बीच. 

प्रश्न: क्या इसका अर्थ यह है कि पूंजीपति वर्ग के बीच फासिज्म विरोधी हिस्से मौजूद नहीं है?

वर्कर-सोशलिस्ट: नहीं, इसका अर्थ यह हुआ कि उदारवादी-सुधारवादी समेत पूंजीपति वर्ग के तमाम हिस्से, निरपवाद रूप से सर्वहारा अधिनायकत्व की अपेक्षा फासिस्ट तानाशाही को पसंद करेंगे और उसके साथ जायेंगे. सर्वहारा और मेहनतकशों के साथ वे सिर्फ तभी मोर्चे बनायेंगे जब सर्वहारा, पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष को तिलांजलि देकर उनके नेतृत्व को स्वीकार करेगा.

प्रश्न: आप विगत में फासिस्टों के खिलाफ ‘जनमोर्चों’ को कैसे देखते हैं?

वर्कर-सोशलिस्ट: जहां-जहां भी ये मोर्चे बूर्ज्वा पार्टियों के साथ संश्रय पर आधारित रहे, उन्होंने सर्वहारा और क्रान्तिकारी आन्दोलन को किनारे लगा दिया. बूर्ज्वाजी के साथ इन सांझे मोर्चों से सिर्फ बूर्ज्वाजी को ही फायदा हुआ है. ऐसे मोर्चों की विफलता से फासिस्ट और सफलता से उदारवादी या सुधारवादी सत्ता में आ गए . ऐसे जनमोर्चों ने विश्व-सर्वहारा और क्रान्तिकारी समाजवादी आन्दोलन को पूरी तरह ठिकाने लगा दिया. इन मोर्चों के भीतर, सर्वहारा और मेहनतकश जनता राजनीतिक गुलामों की स्थिति में रही और बूर्ज्वा नेता इनके अगुवा रहे. इन मोर्चों के हाथ में सत्ता, हर बार, निरपवाद रूप से, बूर्ज्वाजी की ही सत्ता थी.   

नोट: २ फरवरी २०१५ को जब यह लेख लिखा गया था, तब तक स्तालिनवादी-माओवादी पार्टियों में सिर्फ भाकपा (माले) ने ही आम आदमी पार्टी को समर्थन की घोषणा की थी. बाद में सीपीआई-सीपीएम सहित सभी सात मुख्य स्तालिनवादी वाम पार्टियों ने यह घोषणा की.

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