Saturday 24 January 2015

कठमुल्ला ट्रोट्स्की और क्रान्तिकारी प्रतिबद्ध!

-वर्कर सोशलिस्ट/ २५.१.२०१५

स्तालिनवाद और माओवाद की पैरोकार पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ और हिंदी ‘दिशासंधान’ में छपे एक लेख में दावा किया गया है कि लीओन ट्रोट्स्की द्वंद्ववाद की यांत्रिकी को नहीं समझता था और कि वह क्रान्तिकारी नहीं, बल्कि कठमुल्ला था. ट्रोट्स्की की इस मानसिक दुर्बलता का बखान करते हुए, ‘प्रतिबद्ध’ और 'दिशासंधान’ का कहना है कि:

“त्रात्स्की कभी अन्तरविरोधों के सन्धि-बिन्दु (conjuncture) को नही समझ पाते थे। उनके लिए बुनियादी अन्तरविरोध हर सूरत में प्रधान अन्तरविरोध होता था। इसका कारण यह था कि वह हमेशा एक सिद्धान्तवादी अवस्थिति से प्रस्थान करते थे। जैसा कि लेनिन ने कहा था, त्रात्स्की हमेशा सिद्धान्तों से चिपके रहते थे। वह कभी नहीं समझ पाते थे कि किसी भी स्थिति में कई अन्तरविरोध होते हैं, उनमें से कुछ मुख्य होते हैं, जबकि एक अन्तरविरोध प्रधान होता है और प्रधान अन्तरविरोध का एक प्रधान पहलू होता है। उनके लिए प्रधान अन्तरविरोध हमेशा एक कठमुल्लावादी, किताबी तरीके से निर्धारित हो जाता है। वह यह भी नही समझ पाते थे कि प्रधान और गौण पहलू कई बार बदल जाया करते हैं। इसलिए वह हमेशा सामान्य/सार्वभौमिकको समझते थे लेकिन हमेशा विशिष्टको देखने से चूक जाते थे। इसलिए त्रात्सकी के प्रेक्षण वहाँ-वहाँ सही प्रतीत होते हैं जहाँ सामान्य और विशिष्टएक दूसरे को अतिच्छादित करते हैं। चूँकि त्रात्सकी अपने समाधानों/विकल्पों का निर्माण वास्तविक अन्तरविरोधों पर नही करते बल्कि एक कठमुल्लावादी सिद्धान्तवादी ढंग से करते हैं, इसलिए वे इन समाधानों को लागू करने के लिए राजनीति और जनदिशा पर भरोसा नही करते, बल्कि ऊपर से किसी प्रशासनिक समाधान का रास्ता तलाशते हैं। इसका कारण है कि त्रात्स्की क्रान्ति का सिद्धान्त वास्तविक अन्तरविरोधों के आधार पर नही निर्मित करते; इसके विपरीत वह वास्तविक जगत में सिद्धान्त की एक दर्पण छवि का निर्माण करने के मंसूबे बनाते हैं, हालाँकि सिद्धान्त भी उन्होंने विकृत रुप में समझे होते हैं या फिर समझे ही नहीं होते.”

समझ गए? तो श्रीमान, जो आप समझ गए, हम समझ गए, 'प्रतिबद्ध' का सर्वज्ञ लेखक तो खैर समझ ही गया, उसे अक्टूबर क्रांति का वह अद्वितीय प्रतिभाशाली नेता, लीओन ट्रोट्स्की समझने में असमर्थ था, जिस द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों ने पिछली एक सदी से दुनिया के तमाम देशों में युवा पीढ़ियों को उद्वेलित किये रखा है. ट्रोट्स्की की इस बौद्धिक असंगतता का ‘अन्वेषक’ और कोई नहीं, स्तालिनवादी ‘प्रतिबद्ध’ है, जिसका दर्शन और राजनीति में स्थान नगण्य है, जो साहित्य और राजनीति में जितना सतही और क्षुद्र है, झूठ का उतना ही बड़ा व्यापारी है.

'प्रतिबद्ध' का दावा है कि ट्रोट्स्की की पकड़ द्वंद्ववाद पर मज़बूत नहीं थी और वह द्वंद्ववाद के मर्म को ही समझने में असमर्थ था. इस दावे के लिए ‘प्रतिबद्ध’ ने न तो ट्रोट्स्की के किसी लेख या भाषण का कोई हवाला दिया है, न ही कोई दूसरा ऐसा उद्धरण दिया है जो किसी भी तरह उसके इस कुतर्क की पुष्टि करता हो. केवल और केवल मनोगत आक्षेप लगाये गए हैं.  आप इनसे ट्रोट्स्की का नाम हटा दें तो यह बेहूदा, निरपेक्ष, निराकार लफ्फाजी किसी पर भी घटाई जा सकती है. जब उसके पास कहने के लिए ठोस विचार नहीं होते, तो आदमी लफ्फाज़ हो जाता है, और तब वह सिर्फ लफ्फाज़ ही हो सकता है.  उपरोक्त पंक्तियों में ‘प्रतिबद्ध’ ने द्वंद्ववाद पर खुद अपनी समझ का परिचय दे दिया है.

ट्रोट्स्की, द्वंद्ववाद का दिग्गज था और उसकी पकड़ और समझ, दर्शनशास्त्र के धुरंधरों को भी चकित कर देती है. यह स्पष्ट ही है कि ‘प्रतिबद्ध’ के बडबोले लेखकों ने कभी द्वंद्ववाद पर ट्रोट्स्की को पढने की जेहमत नहीं उठाई. उन सभी के लाभ के लिए, हम ट्रोट्स्की के बहुत से लेखों/ भाषणों में से, यहां दो लिंक डाल रहे हैं, जो इन बुद्धिमानों को, यदि इनकी आँखें न चुन्धियायें तो, जरूर पढने चाहियें:
https://www.marxists.org/archive/trotsky/1939/12/abc.htm
http://www.marxists.org/archive/trotsky/1925/09/science.htm

ट्रोट्स्की ने, द्वंद्ववाद को न सिर्फ दुनिया को समझने और व्याख्यायित करने की प्रक्रिया पर लागू करने में गहन समझ का परिचय दिया बल्कि उसने इसे नई ऊंचाइयों तक उठाया. ट्रोट्स्की द्वारा प्रतिपादित “समेकित और असमान विकास” का युगांतरकारी सिद्धांत, द्वंद्ववाद पर उसकी पकड़ का ज्वलंत उदाहरण है, जिसे दुनिया के बड़े विश्वविद्यालय एक अलग शोध विषय के रूप में मान्यता दे रहे हैं.

मार्क्सवाद पर ‘प्रत्यक्षवाद’ और दूसरे रुझानों द्वारा हमलों के विरुद्ध उसकी प्रतिरक्षा में तर्क देते हुए ट्रोट्स्की ने कहा कि “द्वंद्ववाद कोई रहस्यवाद का गोरखधंधा नहीं है, बल्कि वह विज्ञान है जो हमारी दैनिकी तक सीमित न रहकर जीवन की जटिल प्रक्रियाओं को समझने की ओर बढ़ता है”. द्वंद्ववाद के मुख्य अंतर्य, उसकी गतिशीलता, की ओर इंगित करते हुए ट्रोट्स्की ने दिखाया कि यह गतिशीलता इतनी पूर्ण है कि कोई भी द्रव्य ठीक उसी क्षण भी अपने ही रूप और संहति के समान नहीं है, कि किसी भी वस्तु या प्रक्रिया की सटीक अनुकृति नहीं हो सकती.

द्वंद्ववाद के सार को रेखांकित करते ट्रोट्स्की कहते हैं कि द्वंद्ववादी चिंतन का  सम्बन्ध स्थिर विचार से, औपचारिक तर्क से, वैसा ही है जैसा स्थैतिक चित्र का चलचित्र से. इस गति को समझे बिना हम पदार्थ और प्रक्रियाओं और उनके व्यवहार को नहीं जान सकते. द्वंद्ववाद पर ट्रोट्स्की के भाषणों और लेखों का मुख्य फोकस ही विरोधी तत्वों के पारस्परिक संघर्ष में दुनिया के विकास की व्याख्या है. ट्रोट्स्की जड़सूत्रवाद के धुर विरोधी हैं. वे बार-बार अपने पाठकों को इसके विरुद्ध चेताते हैं.

इस सब को बिना पढ़े, बिना समझे, ‘प्रतिबद्ध’, माओ-त्से-तुंग के लेख से कट-पेस्ट शुरू करते हुए, द्वंद्ववाद का ककहरा बांचने लगता है और ट्रोट्स्की को समझने में नाकाम होकर, ट्रोट्स्की पर आरोप मढ़ता है कि वह द्वंद्ववाद में कच्चा है. उदाहरण के लिए, 'प्रतिबद्ध' दावा करता है कि ट्रोट्स्की "हमेशा सामान्य/सार्वभौमिक’ को समझते थे लेकिन हमेशा विशिष्ट’ को देखने से चूक जाते थे।"  विशिष्ट और सामान्य की खिचड़ी परोसते हुए, 'प्रतिबद्ध' स्पष्ट कर देता है कि वह विशिष्ट और सामान्य की प्रकृति और उनके अंतर्संबंध पर बिलकुल अँधेरे में है. विशिष्ट और सामान्य निरपेक्ष नहीं बल्कि सापेक्ष हैं. जो एक के सम्बन्ध में विशिष्ट है, वही दूसरे के सम्बन्ध में सामान्य हो सकता है. जो एक समय सामान्य है, वही दूसरे समय विशिष्ट हो सकता है. वह इससे भी कतई अनभिज्ञ है कि ट्रोट्स्की के प्रमुख सिद्धांत, 'सतत क्रांति' की रचना और विकास रूसी क्रांति की विशिष्ट परिस्थितियों में ही हुआ और वर्षों बाद ही उसका सामान्यीकरण हुआ. रूसी क्रांति में वह एकमात्र नेता ट्रोट्स्की ही था जिसने १९०६ में निष्कर्ष निकाला था कि रूसी क्रांति सर्वहारा अधिनायकत्व को पिछड़े रूस में, अग्रणी यूरोप से पहले, स्थापित कर देगी. क्या ये ऐतिहासिक राजनीतिक उपलब्धियां 'विशिष्ट' की विशद विवेचना और गहन पकड़ के बिना संभव थीं?

इसे समझ पाने में अक्षम, 'प्रतिबद्ध' के इस लेखक की द्वंद्ववाद पर पकड़ कितनी है यह उपरोक्त से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है. यह तय ही है कि ट्रोट्स्की को इसने या तो पढ़ा नहीं और इसीलिए 'विशिष्ट' की आलोचना करने के बजाय 'सामान्य' पर उतर आया और मनोगत निर्णयों को उगलना शुरू कर दिया, या फिर ऐतिहासिक मोतियाबिंद का शिकार, यह लेखक, ट्रोट्स्की को समझ ही नहीं पाया. 

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